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Monday, July 21, 2008

जाना भाई राजेन्द्र पांडे का

कल बहुत दिन बाद चौपाल में जाना हुआ। चौपाल मुम्बई के रचनाधर्मियों के लिए है और इसकी सबसे बड़ी खासियत है कि इसका कोई फंड नहीं होता और उससे भी बड़ी बात है कि इसमें किसी के बाल की खाल नहीं उधेडी जाती। खैर, घुसते ही भाई अतुल तिवारी मिले और कहा "आपको पता है कि नहीं कि भाई राजेन्द्र पांडे नहीं रहे? आज ही सुबह वे हमसे बिछुड़ गए।"
भाई राजेन्द्र पांडे बिछुड़ गए और मेरे मन में अनेक हलचल छोड़ गए। पिछले दो-तीन दिनों से उन्हें फोन कराने की सोच रही थी, मगर किसी न किसी कारन से बस टालता ही रहा। अब लगता है कि बात कर ली होती तो आज दिल में यह कचोट नहीं रह जाती। एक शख्श, जो बिना किसी स्वार्थ के किसी की मदद करता हो, तमाम जानकारियां देता हो, गाइड, फ्रेंड, फिलौस्फर, यह सब भाई राजेन्द्र पांडे ही हो सकते थे। मेरे नाट्य लेखक को उभारने में उनका बहुत बड़ा योगदान है।
आज से लगभग १० साल पहले, जब मैंने अपना पहला नाटक लिखा, "मदद करो संतोषी माता' , उस पर रंग-पाठ आयोजित हुआ। एक बेहद मशहूर रंगकर्मी आए। उन्होंने न केवल इसे खारिज कर दिया, यह कह कर कि बहुत कमजोर नाटक है, बल्कि यह भी परोक्ष रूप से कह दिया कि क्यों लिखना, जब लिखना नहीं आता। यह भी कि हमारे पास बाक़ी कामों से वक़्त नहीं मिलता किहम स्क्रिप्ट काम करें। मैं आज भी मानती हूँ किफ़िल्म, सीरियल, नाटक का सबसे मजबूत पक्ष स्क्रिप्ट ही है। वह ठीक है तो उसे पढ़ भी दिया जाए तो रचना का आनंद आता है। लेकिन, दुर्भाग्य कि स्क्रिप्ट पर काम करना कोई पसंद नहीं करता। भाई राजेन्द्र पांडे ने भी नाटक में कमियाँ बताईं, मगर कहा कि इस पर काम किया जा सकता है। इस पर काम हुआ और बाद में इसे हिन्दी व् मैथिली दोनों में लिखा गया।
काम न केवल इस पर हुआ, बल्कि मेरे हर नाटक पर उनकी प्रतिक्रया मिलाती रही। "अए प्रिये तेरे लिए " के मंचन को देखने के बाद वे बोले कि अब आपसे नाटक और अधिक मांगने की मेरी अपेक्षा बढ़ गई है।'
२००५ में मोहन राकेश सम्मान की प्रविष्टि भेजने के लिए जिस तरह से वे मेरे पीछे पड़े, वह आज तक मुझे नहीं भूलता। हर दूसरे दिन एक संदेश मिल जाता- "भेजा?"। मैंने कहा कि मेरे पास अभी फार्म नही आया है, इसलिए नहीं भेज पा रही हूँ, उनहोंने अपना फार्म मुझे भेज दिया यह कहकर कि आप इसमें अपनी प्रविष्टि भेज देन, मैं नहीं भेज रहा हूँ।" मैंने भेज दी। दुबारा मेरा फार्म आने पर बोले, एक और भेज दों। मैंने एक और भेज दी। संयोग कि दोनों ही नाटक 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' और 'आओ तनिक प्रेम करें' को मोहन राकेश सम्मान से नवाजा गया।
मि. जिन्ना नाटक में मेरे अभिनय को देख कर बोले, ' अब मेरी अपेक्षा आपसे और भी बढ़ गई । मेरे दूसरे नाटक 'लाइफ इस नत अ ड्रीम के किसी भी शो में सेहत ख़राब होने के कारण नहीं आ सके।
अवितोको की हर गतिविधि की जानकारी लेने में वे सबसे आगे रहते। अवितोको के वार्षिकांक के लिए उनहोंने एक लेख भी लिख कर दिया था। नटरंग में उनहोंने अपने लेख में अवितोको की गतिविधि का ज़िक्र किया था और मुझे सूचना दी कि लेख में अवितोको है। और यह सब बिना किसी निजी सरोकार के। जेल की हमारी गतिविधियों पर वे कहते रहे कि मुझे आपके साथ एक बार जेल जाना है। अब तो वे ख़ुद इस दुनिया की जेल से ही छूटकर आजाद हो गए। उनका जाना एक उस महान विचार का जाना है, जो बगैर किसी स्वार्थ या अतिरिक्त प्रसिद्धि पाने की लालसा से उपजता है। भाई राजेन्द्र पांडे की अनगिनत किताबें और उनकी रचनाएं हम तक हैं। वे विविधता में लिखते रहे- नाटक, व्यंग्य, आलोचना, कवितायें। खूब लिखा और उतने ही नम्र बने रहे। कभी चहरे पर शिकन तक नहीं। हिन्दी के इतने बड़े पैरोकार कि अन्ग्रेज़ी जानते हुए भी, कभी भी उसका प्रयोग नहीं किया। राजेन्द्र पांडे भी, हम अपनी श्रद्धांजलि ही आप तक पहुंचा सकते हैं। अफसोस जीवन भर लगा रहेगा कि क्यों मैंने फोन नहीं किया, क्यों आपसे बात नहीं की?

1 comment:

Udan Tashtari said...

राजेन्द्र पांडे को श्रद्धांजलि.