बचना चाहती रही हूँ, अब इस तरह के विषय पर लिखने से, मगर हर बार कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है की लिखना पड़ जाता है। समाज में समानता की बात गोहरानेवालों को भी यह शायद नागवार गुजरे, मगर सोच के स्तर पर जबतक बात नहीं आयेगी, कुछ भी समाधान नहीं निकलेगा। हम केवल लकीर पीटते रहेंगे और एक दूसरे पर इल्जाम लगारे रहेंगे।
हाल ही में एक अखबार ने यह सर्वे किया की हिंद्स्तान में तलाक की डर क्यों बढ़ रही है? इसके सामान्य उत्तर के रूप में कह दिया गया की महिलाएं ही इसके मूल में हैं। उनकी शिक्षा, उनकी आर्थिक आत्म निर्भरता उन्हें तलाक की ओर प्रेरित कर रही है।
सुनने में यह बहुत सरल, सहज और सच सा जान पङता है। मगर इसके मूल में बातें कुछ और भी हैं। महिलायें अगर आज पढ़ लिख रही हैं, आर्थिक रूप से सक्षम हो रही हैं तो इसलिए नहीं, कि वे घर, परिवार या रिश्ते, सम्बन्ध को नहीं मानना चाहतीं। ऐसा होता तो वे शादी करना ही नहीं चाहतीं। करतीं भी नहीं, परिवार, बच्चे कुछ भी नहीं चाहतीं। बीएस आजाद पंछी की तरह घर और दफ्तर और उसके बाद यहाँ- वहाँ डोलती रहतीं। मगर ऐसा नहीं होता। लड़कियां शुरू से ही घर में रहना पसंद करती रही हैं, आज भी करती हैं। हाँ, अपनी चाहत के नाना रूपों को वह निखारना चाहती हैं, अपनी प्रतिभा को नए -नए आयाम देना चाहती हैं और इस देश का नागरिक होने के नाते यह उनका मौलिक अधिकार है। अपने को एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में देखने के बाद अगर उन पर तोअहामत लगाए जाएँ तो यह मेरा भी कहना होगा कि ऐसे में उनका अपना वह तथाकथित घर छोड़ देना उनके लिए ज़्यादा मायने वाला होगा। महिला या लड़की से पहले एक इंसान हैं, और उन्हें इसी रूप में देखे जाने की ज़रूरत है। ऐसा न होने पर वे घर छोड़ती हैं या रिश्तों को तिलांजलि देती हैं तो यह सोचने वाली बात है कि इतने के बावजूद हम और हमारा समाज अपनी सोच में बदलाव क्यों नहींं लाता? क्यों उसे घर की लाज, घर की सबसे जिम्मेदार सदस्य, घर चलानेवाली और ये-वो से अभिहित किया जाने लगता है? वह सब करने को वह तैयार है, पर उसके लिए भी तो सोचें कि उसे एक व्यक्ति के रूप में अभी भी हम क्या दे रहे है? आज सवाल स्त्री-पुरूष के बीच भेद बढ़ाने का नहीं, दोनों के बीच एक सामंजस्य स्थापित करने का है और इसके लिए हर पक्ष को बराबर- बराबर की साझेदारी निभानी ही होगी। महिलाओं पर हर बार की तरह दोषारोपण कराने की आदत से अब बाज़ आने की ज़रूरत है।
1 comment:
विभाजी,
प्रणाम। अहाँसँ फोन पर गप भेल रहए, 'विदेह' ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/
केर लेल रचनाक हेतु। अहाँ कहने रही जे अहाँक पुरान प्रकाशित रचना 'विदेह' मे छपि सकैत अछि, आ' ताहि लेल पत्रक माध्यमसँ स्वीकृति नहि आबि सकल अछि, सँगहि अपन नव-रचना अवश्य पठाऊ।
हमर ई-मेल संकेत अछि।
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