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Monday, August 18, 2014

कविताएं

छम्मकछल्लो की 3 कविताएं शब्दांकन के बहीखाता में। पढ़िये और धता बताइये अपने मन की गांठों और बीमारियों को।  

http://www.shabdankan.com/2014/08/poems-vibha-rani.html?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+shabdankan+%28%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A8%29&utm_content=FaceBook#.U_F9r_mSySo

 आज नहीं खेली होली!
आज नहीं खेली होली  
पर पूरियां बेलीं
भरी कचौरियां - हरे मटर की
काटी थोड़ी सब्जियां,
रिश्तों की गर्मी और होली की नमी के बीच
हिलते रहे पेड़ों के पत्ते
और खिड़कियों पर टंगे परदे।
पक गए सारे पकवान- पारंपरिक
नाम लूं तो भर आएगा पानी- मुंह में
यही पानी तो है जीवन का सार
जो बहता है होली में
पुआकचौड़ीदही बड़ेटमाटर की चटनी
कटहल की सब्जीमटन और भांग की
ठंढई में।
कैंसर ने मेरे कानों में इठलाते हुए कहा-
“देखानहीं खेलने दिया मैंने तुम्हे होली ना।“
मैंने भी इतराकर कहा- 
“इतने गाए गीतइतना हंसी उत्तान तरंग
जगी इतनी देरनींद भी आई चंगी
खाया भी खूबसिलाए भी कपडे
ए भाई! मन की दहन कहीं और करो बयान
हमारे पास तो है रंगों से लेकर 
होलिका दहन तक के सामान
नगाडों से लेकर फगुनाहट की 
झनझनाहट तक के जीवन-राग!
जाओ भाई! कर लो खुद को नज़रबंद
बसा लो अपनी एक दुनिया
उसी में घूमते रहो 
ओ मेरे बनैले सफरचंद!!!”
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सितारों की सौगात!
केमो की रात
नींद की बरात
किसी और के साथ
अपने हाथ
सितारों की सौगात!
उनसे हो रही बात- मुलाक़ात!
कल सुनेंगे सूरज का नात
धूप का गर्म स्नान
बिना घातबिन प्रतिघात
फिलवक्तकेमो की रात
परीक्षा के पात
भूखे का भात
रात और प्रात!
छिड़ी है जंग
देखें, कौन देगा किसको मात!
तन की या निसर्ग की वात
दिन है सातचक्र है सात!
केमो की रात
थोड़ी ज्ञातथोड़ी अज्ञात!
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छोलेराजमा, चने सी गाँठ!

उपमा देते हैं गांठों की
अक्सर खाद्य पदार्थों से
चने दाल सी
मटर के साइज सी
भीगे छोले या 
राजमा के आकार सी
छोटेमझोलेबड़े साइज के आलू सी।
फिर खाते भी रहते हैं इन सबको
बिना आए हूल
बगैर सोचे कि 
अभी तो दिए थे गांठों को कई नाम- उपनाम।
उपमान तो आते हैं कई-कई
पर शायद संगत नहीं बैठ पाती
कि कहा जाए- 
गाँठ-
क्रोसिन की टिकिया जैसी
बिकोसूल के कैप्सूल जैसी। 
भी को पता है
आलू से लेकर छोलेचनेराजमे का आकार-प्रकार
क्या सभी को पता होगा
क्रोसिन- बिकोसूल का रूप-रंग?
गाँठ को जोड़ना चाहते हैं
जीवन की सार्वभौमिकता से
और तानते रहते हैं उपमाओं के
शामियाने- चंदोबे।
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2 comments:

अनिल जनविजय said...

विभा जी, कविताएँ पढ़ींं। आपके मन की बात मेरे मन में गहरी उतर गई। आप जीवन्त हैं। कैन्सर के बावजूद जीवन्त बनी रहती हैं, यह आपकी जिजीविषा है।

अनिल जनविजय said...

आपकी कुछ और कविताएँ भी हों तो सब एकसाथ दें। हम उन्हें कविताकोश में रख देंगे।