छम्मकछल्लो छमा चाहती है। बहुत दिन के बाद मुखातिब हो रही है। ब्लॉग पर आना इतना कोई हंसी ठट्ठा है! जब तक कुछ मिले ना ढंग का तो आपको बेढंगा बनाने का कौनों मतलब है! ....माफी! ...कोशिश रहेगी फिर से समय पर आने की। ...देरी हो जाए तो आप ही याद दिला न दिया कीजिये।
बहुत पहले की एक कहानी फिर से आपके सामने रख रही है छम्मकछल्लो। कहनिया पुरानी है, मगर संदर्भ आज भी ओतने ताजा है। .... सबसे बेसी आभार तो स्व मनमोहन ठाकौर का, जो कहानी सुनने के बाद भी जाने कितनी देर तक सिहरते रहे थे। ....माई- बाऊजी लोग! आपके हिरदे मे भी सिहरन होगी।
इस कहानी को अभी भरत तिवारी जी ने अपनी वेब पत्रिका "शब्दांकन" मे लगाया है। लिंक है- http://www.shabdankan.com/2014/08/hindi-kahani-abhimanyu-ki-bhrun-hatya-Vibha-Rani.html#.U-t7ZPmSySo
अब आया जाए। कहानी पढ़ा जाए। अपने विचारों से सबको अवगत कराया जाए।
बहुत पहले की एक कहानी फिर से आपके सामने रख रही है छम्मकछल्लो। कहनिया पुरानी है, मगर संदर्भ आज भी ओतने ताजा है। .... सबसे बेसी आभार तो स्व मनमोहन ठाकौर का, जो कहानी सुनने के बाद भी जाने कितनी देर तक सिहरते रहे थे। ....माई- बाऊजी लोग! आपके हिरदे मे भी सिहरन होगी।
इस कहानी को अभी भरत तिवारी जी ने अपनी वेब पत्रिका "शब्दांकन" मे लगाया है। लिंक है- http://www.shabdankan.com/2014/08/hindi-kahani-abhimanyu-ki-bhrun-hatya-Vibha-Rani.html#.U-t7ZPmSySo
अब आया जाए। कहानी पढ़ा जाए। अपने विचारों से सबको अवगत कराया जाए।
बच्ची की दस्तक से माँ की नींद उचट गई। वह अब इस दस्तक से घबरा
गई थी और इससे निजात पाना चाहती थी। दस्तक थी कि लगातार हो रही थी। इससे ध्यान हटाने
के लिए उसने चादर अपने चारो तरफ लपेट ली। ऑंखें बन्द कर गहरी-गहरी साँसें ले कर गहरी
नींद में होने का दिखावा करने लगी।
बच्ची शांत हो गई। शायद माँ का यह बहाना उसे सच्चा
लगा। वह माँ के अभिनय पर भरोसा कर बैठी। किन्तु, माँ को भरोसा नहीं कि वह फिर से आहट कर उसे जगाएगी नहीं और जगाकर उसकी परेशानियाँ बढ़ाएगी नहीं।
आखिर वह क्यों डर रही है, जैसे वह उसकी
बच्ची न होकर कोई राक्षसी हो, जो अपने भयानक पंजे फैलाए उसे नोचने-खसोटने आ रही हो। यह तो उसकी अपनी बेटी है- उसी की तरह कोमल, नर्म और नाजुक।
रूई से भी नर्म और नाजुक थी, जब वह पैदा हुई थी। सात बेटों को जन्म दे कर सात-सात पूत की माई होने के गौरव से उन्नत, जुड़ाए हिए सी तृप्त और प्रमुदित माई यानी रहिकावाली से बाउजी बोल ही पड़े -'सतलखा हार का सुख तो पा लिया, अब सीताहार का भी सुख दे दो रहिकावाली।
कन्यादान
से बढ़कर महादान अपने शास्त्र में कुछ भी नहीं। कन्या-ऋण से उऋण हुए बिना चारो धाम भी गोइठे में घी सुखाने माफिक है। हर बार दगा दे जाती है। अबकी मत देना।'
आठवें प्रसव के समय माई ने उनकी साध पूरी कर दी। पायल घर में छुन-छुन छुनकी । बाउजी खुशी से मतवाले हो गए -'मेरे घर लछमी, नहीं रसस्वती, नहीं, दुर्गा माई,
भवानी माई... नहीं-नहीं, सभी देवियाँ एकजुट होकर एकरूप धरकर पधारी हैं, धन्न भाग मेरे! अब मैं कन्यादान
का पुण्य भी कमा सकूँगा। रहिकावाली,
तुम्हारा
सीताहार पक्का।'
छठी की रात पीली साड़ी के साथ सोने का बड़ा सा सीताहार माई के गले में चमकते तारे की तरह झिलमिला रहा था। माई बाउजी चाँद-सूरज सरीखे उसे धूप-छाँह, रोशनी, ठंढई सब दे रहे थे । सातों भाइयों के बीच वह 'सोनचिरई' की तरह बढ़ती रही। (मिथिला की एक लोककथा,
जिसमें
सात
भाइयों
की
इकलौती
बहन
सोनचिरई
अपने
भाइयों
की
ऑंखों
का
तारा,
परंतु
भाभियों
की
ऑंखों
का
काँटा है। भाइयों के परदेस जाने पर भाभियाँ उसे नाना कष्ट देती हैं। अंत में परदेस से लौटे भाई इस बेइन्साफी का इंसाफ करते हैं। सातवीं को छोड़ शेष छहों भाभियाँ अपनी दुष्टता का दंड पाती है। भाई बहन के प्रेम का उदात्त उदाहरण है यह लोककथा।)
आमदनी को जमीन या सोना में बदलने के हिमायती शुद्ध गिरहस्थ
बाउजी के लिए बेटी कुम्हड़े का बतिया होती है, एक कानी उंगली का इशारा भी उसके जीवन के खिलते फूल को मुरझा देने के लिए काफी। इसलिए
उसपर पूरा ध्यान देना बड़ा जरूरी है।
बच्ची ने फिर आहट की। शायद वह भी यही बताना चाह रही थी कि माँ द्वारा उसपर पूरा ध्यान दिया जाना कितना जरूरी है। उसी का नहीं, स्वयं माँ को भी अपना ख्याल करके चलना होगा, क्योंकि वह तो तभीतक है न, जबतक माँ है। परंतु माँ सोच रही थी कि वह तो है ही और रहेगी भी भली-भाँति, पूरे शरीर के साथ। सिर्फ इस बच्ची का पता नहीं क्या होगा! इस भय और आशंका से उसका ह्दय सूखे पत्ते सा खरखर बज उठता और ऑंखों में एक दहशत उतर जाती।
लेकिन पूरे आश्वस्त बाउजी ने उसके लिए प्यार और सुख की इतनी रेखाएं गढीं कि हथेलियाँ रेखाओं का जाल बन गई और
रेखाओं के आगत-अनागत तय करना मुश्किल हो गया।
सुख से भरे दिन और रात के बीच, उसके बीए पास करने के बाद बाउजी को कन्या ऋण से उऋण होना बड़ा जरूरी लगा। लेकिन, साथ ही, उसके भावी
विछोह से वे केले के नए कोमल पत्ते की तरह सोचकर काँप जाते। ह्दय रोग के मरीज की मानिंद उनका दिल डूबने लगता। अबतक
घर में चार बहुएं आ चुकी थीं, जो सीता, उर्मिला, मांडवी और श्रुतकीर्ति की तरह उसे तबतक घेरे रहती, जबतक वे अपने पति, यानी उसके भाइयों का निर्झर स्नेह उसपर बरसता देखती। सोनचिरई की भौजाइयों की तरह ही भाइयों की आँखों की ओट होते ही वे सब खाक होने लगतीं।
बच्ची इस दुनिया का सामना करने के लायक अपने को गढ़ रही थी। मगर माँ इस गढ़न में ग्रहण बन आ खड़ी हुई थी, जैसे उसकी माई कुल-खानदान की दुहाई देकर खानदान की नाक कट जाने और हुक्का-पानी के बंद हो जाने की बात कहकर उसके प्रेम की राह में काँटा बनकर अड़ी हुई थी। चारो भौजाई परम आदर्श बहू की तरह सास का समर्थन कर रही थी- “कलेजे पर पत्थर रखकर बुढ़ा पढ़ाए। पर अब वही पत्थर गर्दन में बांध लेना कौन
बुद्धिमानी
है। हमरे बाउजी होते तो इस प्रेम आसनाई पर जिन्दा खाल खींचकर भुस भर देते।“
माई व भौजाई विरोध का निमित्त
बने रहे। वह भी निमित्त
बनी अपनी बच्ची के आगमन
के लिए। लेकिन, सास ऐसे चिल्लाई, जैसे आनेवाली बच्ची ताड़का या सुरसा हो। सास के ऐलान से बच्ची की हालत जल बिन मीन जैसी हो गई थी, क्योंकि ऐलान नहीं, मौत का फरमान था।
ऐसा ही फरमान माई ने निकाला,
जब बड़ी हिम्मत करके उसने अपने प्रेम की बात माँ को बताई।
सुनते ही माई ने सातो आसमान सिर पर उठा लिया और बाउजी को भर मन उकसाया कि कोई भी,
कैसा भी, दुहेज, अधेड़, बाल-बच्चोंवाला वर खोजो और इस मुसीबत से छुटकारा पाओ, वरना यह कुल की नाक काटवाकर रहेगी। सतभइया बमके, भाभियाँ तड़कीं। मगर बाउजी बड़े धैरज से सबकुछ सुनकर जात-पात का मोह त्याग शास्त्र सम्मत महादान-कन्यादान के लिए राजी हो गए। उन्होंने माई और भाइयों को आज की रीत बताते हुए समझाया कि यही क्या कम है कि विवाह करने के पूर्व बोली तो। जो खुद से करके बताती, तब क्या कर लेते हमलोग। बोल दो सबको कि मेरी सिया सुकुमारी अपने राम के साथ जा रही है।
बड़ा रे जतन से सीया धीया पोसल
सेहो सिया राम लेले जाए।
प्रेम का अंकुर अपनी कोख
में फूटता महसूस कर उसने बड़े हुलास से अपने प्रियतम को बताया। उसे लगा कि इस समाचार
से वह मारे खुशी के उतना ही बाबरा हो जाएगा, जितना उसके जन्म
पर बाउजी हुए थे। मगर उसे यह देख बहुत बड़ा झटका लगा, जब अपने
पिता बनने के समाचार पर भी वह वैसा ही शांत और तटस्थ बना रहा, जैसे उसने उसके बाप बनने की नहीं, आज काम पर बाई के न आने
की सूचना दी हो। कपड़े बदलकर बोला -'कल हमलोग डॉक्टर के पास चलेंगे
चेक-अप के लिए।'
बाउजी का पत्र आता। बीच-बीच
में वे स्वयं भी आ पहुँचते- राजा दशरथ से। राम का विछोह सहने में असमर्थ! समधन का मुंह पहले फूला रहा, पर जब बाउजी ने सामान से घर ठसमठस कर दिया और उनके हर बार के आगमन पर पीछे-पीछे
सामानों का एक लंबा कारवां होता तो जबरन सर्द बना कर रखा गया रिश्ता धीरे-धीरे पिघलने
लगा।
'पहली सन्तान तो बेटा ही
चाहिए। यह हमारे खानदान की परंपरा है।' सासु जी की घोषणा थी।
'पहिली संतान तो जो हो।
बस सबकुछ ठीक-ठीक हो जावे,
जच्चा-बच्चा सकुशल रहे, यही सबसे बड़ी बात है।'
‘वह आपका मानना
होगा। हमारे में ऐसा चलन नहीं है। एक दाग तो कुल में ऐसे ही लगा आया दूसरी जात की बहू लाकर। अब क्या सारी मान-मर्यादा, रीति-रिवाज
को भी धोकर पी जाएं?’
'पर बेटा-बेटी तो अपने हाथ
की बात नहीं है न!'
बाउजी फिर से समझाना चाह रहे थे।
'है कैसे नहीं। अब ऊ जमाना
गया जब हम नौ-नौ महीना कोख भी ढोते थे और बेटी पैदा होने पर खुद ही नून चटा देते थे।
डाक्टरी लाइन काफी तरक्की कर गया है। अब तो दिन चढ़ते ही डॉक्टर बता देता है कि बेटा
है या बेटी।'
'पॉसिबली गर्ल' माँ को
तत्क्षण बच्ची से मोह हो आया, जब डॉक्टर ने बच्चे की
हार्टबीट उसे सुनाई- जैसे ट्रेन चल रही हो छुक-छुक, छुक-छुक!
ओह! तो मशीन पर हल्की घरघराहट के बीच धक-धक, धक-धक, धक-धक, धक-धक, ट्रेन
की छुक-छुक नहीं,
बच्चे के जीवित होने का स्पंदन है! उसका मन हुआ, बच्चे
को बांहों में भरकर चूम ले। माँ के साथ बच्ची का यह पहला साक्षात्कार था।
'बेटी? हटाओ
इसे जितनी जल्दी हो सके।'
सासु भरे बादल की तरह गरजी।
'बेटी से ऐसी ही दुश्मनी
है तो शादी क्यों की?
मैं भी तो किसी की बेटी हूँ। तुम्हारी माँ भी तो किसी की बेटी
है। बेटियों से सब यूँ ही छुट्टी पाते रहे तो यह दुनिया चलेगी कैसे? बेटे
को ढोने के लिए भी तो स्त्री की कोख ही चाहिए न। मैं नहीं हटाऊँगी इसे। मैंने इसकी
धड़कन सुनी है, जैसे कह रही हो -'माँ, ये मैं
हूँ, माँ, ये मैं हूँ।' वह मचली।
बच्ची ने फिर आहट की। माँ
को उसकी बेचैनी स्पष्ट महसूस हुई। इस उम्र से ही बच्चियों का अपना अस्तित्व बचाने का
संघर्ष शुरू हो जाता है। अभी तो अस्तित्व में आए हुए बस दो-ढाई माह हुए हैं। फुदकने
तक की उम्र नहीं हुई है। पर, माँ से कैसी मुखर है, कितनी
वाचाल।
तो क्या यह उसका अपना वहम
है? डॉक्टर के पास से आने के बाद वह बुझी-बुझी सी थी। हमेशा की तरह बाउजी मिलने आए
थे। सास की बात सुनकर रूक गए। डॉक्टर की बात सुनकर फिर से समधन को समझाने की कोशिश
की, परन्तु वह तो पत्थर पर पड़ी लकीर बन चुकी थीं। जॅँवाई परम मातृभक्त निकला। बाउजी
बोले -'चल बिटिया मेरे साथ! जब बच्ची का मुंह देखेंगे तो खुद ही माया मन में जाग उठेगी।'
सास ने बरज दिया -'बेटी
को उकसाओ मत समधी जी। ये मेरे हाथ देखो। इन्हीं हाथों से मैंने अपनी ही तीन-तीन बटियों
की सांसें बन्द की हैं. मुंह देखने से ही माया-मोह उपजना होता तो अभी वे तीनों मेरी
छाती पर मूँग दलती होतीं. यह मेरा घर है. बेटी आपकी थी कभी, पर अब
इस घर की बहू है. इसे यहाँ की रीत-नीत के मुताबिक चलना होगा, वरना
मेरे बेटे के लिए अभी भी एक बुलाओ तो सौ रिश्ते दौड़े आएंगे।'
पूर्व प्रेमी से वर्तमान
पति के पद पर प्रतिष्ठित पुरूष ने शब्दों के घोल पिलाए- 'ठीक तो
कह रही हैं माँ! हमारी अपनी मर्जी की शादी का घाव उनके दिल पर है, वह इससे
भरेगा। और बच्चों का क्या है? हम
दोनों युवा हैं,
समर्थ हैं। और पैदा कर लेंगे। चलो, तुम्हारे
लिए एक बेटी की भी इजाजत है। परंतु कुल की परंपरा और माँ की इच्छा के अनुसार पहले बेटा।
मैंने डॉक्टर से बात कर ली है। कल सुबह नौ बजे का समय मिला है।'
बच्ची ने फिर दस्तक दी
- माँ, सो गई क्या?
मॉँ ने फिर चादर तान ली। मगर वह महसूस कर रही थी कि इस बार बच्ची
उसका बहाना समझ गई हैं. इसीलिए बार-बार अपनी ओर उसका ध्यान आकृष्ट कर रही है।
'तुम अभिमन्यु नहीं हो
कि पेट के भीतर से ही सारी बातें समझ लोगी। चुप बैठो.'
'कैसे चुप बैठूँ माँ! जीवन
की अनगिन साँसों और उम्र के लंबे-घने पेड़ को काटकर तुमने महज जड़ तक समेट दिया है। कल
सुबह नौ बजे बिना आकार लिए ही मैं सदा के लिए समाप्त हो जाऊंगी। इस देश का कानून न तुम्हें, न डॉक्टर, न पापा, न दादी, किसी
को कुछ नहीं कहेगा। तुम सब हत्या भी करोगे और बेदाग बचे भी रहोगे। गर्व से माथा भी
ऊँचा रहेगा। है न!'
'यह तुम्हारा विषय नहीं है। बहुत
छोटी हो अभी।'
‘छोटी हूँ,
इसीलिए तो असहाय हूँ, क्योंकि तुमपर निर्भर हूँ। नहीं रहती, तो जैसे तुम अपना प्रेम पाने के लिए लड़ी, मैं भी अपने जीवन के लिए लड़ती।‘
माँ ने कान में रूई ठूंस ली। बच्ची न जाने क्या-क्या कहती रही। माँ ऑंसुओं से अपनी असहायता उसे समझाने की कोशिश करती रह।
माँ को लोकल एनीस्थीसिया दिया गया। उसे वहाँ दर्द नहीं था, परंतु कलेजे में असहनीय दर्द हो रहाथा।
वह डॉक्टर की एक-एक हरकत देख-समझ रही
थी। डॉक्टर और बच्ची के बीच घमासान छिड़ा हुआ था। डॉक्टर का औजार बच्ची तक पहुँच गया। गोकि बच्ची मन से बड़ी मजबूत थी, पर शारीरिक रूप से बहुत कमज़ोर और बेहद निरीहथी। माँ के शरीर
से भोजन के रूप में जो तरल पदार्थ उसतक पहुँचते थे, उसके अलावा उसने कुछ भी नहीं देखाथा। अब
एकाएक उस चमचमाते अस्त्र को देखकर वह एकदम से घबड़ा उठी और तेजी से भागी। पर उसके पीछे दीवाल थी। वह वहीं उस दीवाल से टकराकर गिर पड़ी। औजार ने पहले उसका एक पैर काटा। वह बड़े जोर से चिल्लाई। माँ
के सीने पर जैसे एक घूंसा पड़ा। बच्ची दर्द से बिलबिला रही थी। औजार दूसरे पैर की तरफ बढ़ा तो लंगड़ी टाँग से ही वह फिर भागी। पर वह कोठरी ही इतनी छोटी व तंग थी कि वहाँ से वह भाग भी नहीं सकती थी। वह दरअसल बाहर निकलने का रास्ता खोज रही थी, उसे यह मालूम नहीं था कि बाहर निकलने का जो द्वार था. उसी द्वार से तो उसका दुश्मन अंदर प्रवेश कर उसका अंग-भंग कर रहा है। द्वार
बंद! दरवाजे
पर दुश्मन का हथियार!
दरवाजे के बाहर दुश्मन की फौज-
जैसे चक्रव्यूह में फंसा अभिमन्यु!
अब उसका दूसरा पैर भी डॉक्टर की भेंट चढ़ गया। वह चीत्कार कर उठी -'माँ! यह तुम किस जन्म का बदला ले रही हो? नाना ने तुम्हें कैसे पलकों पर बिठाया
और तुम मुझे इस निर्दयता से मार रही हो - अंग-अंग काटकर!
इससे बेहतर
वे होती होंगी, जो नमक चटाने या गला दबाने से मर जाती हैं। ऐसे, एक एक अंग
काट कर मारना!’
डॉक्टर ने सधे हाथों
से हाथों पर प्रहार हुआ। अभिमन्यु
घिरा हुआ था व्यूह में। कौरव
सेना उसे घेरे हुई थी। वह
अकेला, कम उम्र और निरुपाय था, जबकि पूरा सैन्य दल उसके ऊपर चढ़ा बैठा था। अबकी दोनों हाथ भी डॉक्टर की भेंट चढ गए। धरती
पर किसी मनुष्य को यदि ऐसे अमानवीय ढंग से मारा जाए तो दुनिया भर में उसकी भर्त्सना होगी, जैसे सफदर हाशमी की, जैसे मान बहादुर सिंह की, जैसे पाश की, जैसे ये ग्वारा की, जैसे चारू मजुमदार की।
लेकिन, यहाँ तो पूरे साजो-सामान और भारी नेंग निछावर के साथ उसकी तयशुदा हत्या की जा रही थी। वह
चीख रहीथी, चिल्ला रही थी। हाथ-पैर कट जाने के बावजूद बचे हुए धड़ और सिर के साथ ही, इधर से उधर भाग रही
थी। माँ का शरीर सुन्न था, परंतु मन-मस्तिष्क में भयंकर आंधियाँ उठ रही थीं। उस आंधी में शेली, कीट्स कालिदास, नागार्जुन, त्रिलोचन, सार्त्र, नीत्शे, नामव, उदय प्रकाश- सभी बहे चले जा रहे थे। एक ओर 'द कैपिटल' के परखचे उड़ रहे
थे, दूसरी ओर 'मदर'
चुपचाप आंसू पी रही
थी। कितनी साहसी थी गोर्की की वह बूढ़ी माँ! बेटे के लिए बलिदान होती! और कितनी कायर है वह, जिसने अपनी ही बच्ची को हत्यारों के हवाले कर दिया, ताकि उसकी अपनी जान
महफूज रह सके!
बच्ची के सीने पर प्रहार हुआ और उसके दिल के चिथड़े-चिथड़े उड़ गए। अब केवल सर बचा हुआ था। बच्ची
की खोपड़ी और मस्तिष्क अभी भी सुरक्षित थे। आश्चर्य
कि वह केवल अपने सर के साथ ही इधर से उधर भाग रही थी, जैसे केवल सर भी हुआ तो भी वह जी लेगी।
उसके मस्तिष्क के सारे स्नायु एक उत्तेजना से तन गएथे।
वे स्थिति का मुकाबला करने को तैयार थे,
परंतु बुरी तरह से टूटे, थके और दुश्मनों के झुंड से घिरे हुए। कौरव
दल खुश हो रहा था। अभिमन्यु गिरने ही वाला था। एक गहरी
चोट उसके सिर पर पड़ी और अभिमन्यु ने दम तोड़ दिया। कौरव
सेना हर्ष- ध्वनि कर उठी.
डॉक्टर के चेहरे पर निश्चिंतता
उभरी। अभ्यस्त हाथ,
सधे औजार ने सीधा मस्तिष्क पर प्रहार किया था और खट से अनेकानेक
विचारों के साथ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती बच्ची शांत हो गई थी। जिस द्वार का रास्ता
वह खोज रही थी,
वह द्वार अब खुल चुका था। जहाँ से वह जीवित एक सपने, एक अरमान, एक भविष्य
के सुंदर, सजीले और जीवंत रंगों के साथ वह आनेवाली थी, वहाँ से वह आ रही थी -
कटी-फटी भग्न,
टुकड़ों-टुकड़ों में खंडित - रक्त और थक्कों के रूप में।
बाउजी रो रहे थे और सास
व पति वंश परंपरा की रक्षा हो जाने की खुशी में सराबोर थे। माँ चंद घंटे अस्पताल में
गुजारकर घर आ गई। शारीरिक और मानसिक आघात से वह चल भी नहीं पा रही थी। कल तक बच्ची कितना रोई-छटपटाई थी! ऑपरेशन थिएटर में
हालांकि उसका शरीर सुन्न था, पर वह महसूस कर रही थी एक-एक झटके से कटती
हुई अपनी संतान की देह! सुन रही थी उसका आर्तनाद! वह हैरान थी कि जिस
प्रेमी के साथ वह घंटों बहस करती थी, उसकी पत्नी बनते ही वह कछुए की
खोल में समा गई? प्रेमी और पति ही नहीं, प्रेमिका
और पत्नी में भी यह कितना विवश और लाचार अंतर!
दरवाजे पर आहट हुई. कुछेक
परछाइयां अंदर आई. एक ने सर सहलाया, फिर हाथ, पैर!
सांसें तेज हुई। क्या एक और सृजन का सूत्रपात होनेवाला है? माँ चौंकी- 'यदि फिर बच्ची हुई तो?'
‘तो क्या?
शहर के डॉक्टर मर गए हैं क्या?’
'मरे हैं या नहीं, यह मैं
नहीं जानती। मगर अब न तो मैं मरूँगी न मेरी बच्ची।'
दूसरी परछाई दरवाजे पर
ही थी। अरे, यह तो उसकी ही बच्ची है, रूई जैसी नर्म, कोमल
सुचिक्कन-गुलाब की ताजा पांखुरी जैसी। वह स्वच्छ और निर्मल जल की तरह मुस्कुराई और
बोली - 'मैं खुश हूँ कि मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं गया माँ!' और बच्ची
धीरे से दरवाजा खोल बाहर निकल गई। ###
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