कल-परसो शायद गुरु पूर्णिमा थी। पिछले साल इसी अवसर पर यह लेख लिखा था। आज उसे तनिक और विस्तार व बदलाव के साथ फिर से दे रही हूँ।
गुरु पूर्णिमा के अवसर पर विश्व के समस्त गुरुओं को छम्मकछल्लो का प्रणाम। गुरु तीनों लोकों और छत्तीस करोड देवताओं से भी ऊपर है. गुरु की महिमा कबीर बाबा भी गा गए हैं-
गुरु गोविंद दोनों खडे, काको लागूं पाय
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दिये बताय
ज़रूर कबीर बाबा को अच्छे और सच्चे गुरु मिले होंगे. छम्मकछल्लो को जो गुरु मिले, पक्षपात का अतीव उदाहरण बन कर आए. एक गुरु द्रोणाचार्य ने अपने अदेखे, अचीन्हे शिष्य एकलव्य से अंगूठा मांग लिया. एकलव्य ने अपनी श्रद्धा क्या दिखा दी, वे उसके ऊपर चढ ही बैठे- गुरु मानता है ना? तो ला दक्षिणा. और मैं ऐसा-वैसा गुरु नहीं हूं जो दक्षिणा में दाल-चावल मांगूं. हमारे पास वैसे शिष्य हैं, जो हमें हर तरह से फेवर करते हैं. धनी-गरीब, छूत-अछूत उस समय भी था. हस्तिनापुर (अपर कास्ट व एलीट क्लास) से गुरु द्रोण की आमदनी थी. यह जंगली, गरीब भील (शिड्यूल ट्राइब) एकलव्य...! इसकी यह मजाल कि हमारे परम प्रिय शिष्य अर्जुन से आगे निकल जाए? वह भी बिना मुझसे पढे? बिना मेरी मर्जी के मुझे गुरु मान लिया? याद कीजिए गब्बर सिंह का डायलॉग- “हूं, इसकी सजा तुम्हें मिलेगी, जरूर मिलेगी.” सो एकलव्य को मिली. आजतक मिल रही है. आरक्षण देख लीजिए. महाभारत काल से यह अपर-लोअर क्लास का संघर्ष जारी है भैया.
एक गुरु परशुराम थे. हम कहते हैं कि धर्म (यदि अपने सच्चे और सही रूप में है) तो कहता है कि हर मनुष्य बराबर होता है. मगर शिक्षा का दान देनेवाले अपने गुरु लोग ही इसके विरोधी निकले. कर्ण को कुंती ने समाज के डर से त्याग दिया तो वह सारथी के घर पल-बढ कर उसी का पूत कहलाया. एकलव्य की तरह वह भी उतना ही वीर, बहादुर था. लेकिन शिक्षा ग्रहण करने के लिए उसे भी झूठ बोलना पडा, वरना नीची जाति को गुरु परशुराम शस्त्र शिक्षा नहीं देते. उसी कर्ण की जाति (?) की सच्चाई उजागर होने पर उसे श्राप दे दिया गया कि प्राण जाने के संकट काल में ही तुम सारी विद्या भूल जाओगे. कहिए तो भला. आज के शिक्षक ऐसा करते तो उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमा चलता. गुरु परशुराम ने यह नहीं सोचा कि अगर उन्होंने जाति-पाति, ऊंच-नीच का भेद नहीं रखा होता तो कर्ण को झूठ क्यों बोलना पडता?
एक गुरु शुक्राचार्य ने अपनी बेटी देवयानी के लिए अपने राजा की पुत्री शर्मिष्ठा तक का ध्यान न रखा। कर दिया उसे दंडित की वह उनकी बेटी की दासी बनाकर रहेगी। कर दिया कच को दंडित कि वह देवयानी से ब्याह करे। कच का क्या अपराध था? यही न कि उसने गुरु पुत्री देवयानी को बहन के रूप में देखा था। तो बहन (भले ही मुंहबोली हो) के साथ ब्याह! कोई युवक खुद से ऐसा करे तो उसकी लानत-मलामत!
तो इन सबके मायने? "समरथ को नहिं दोष गुसाईं भाई!" द्रोण सामर्थ्यवान, परशुराम सामर्थ्यवान, शुक्राचार्य सामर्थ्यवान. सो दोषी कौन? सही उत्तर- एकलव्य, कर्ण, कच।
यह उन- उन युग की बात हुई, जिन्हें हमने देखा नहीं, सुना भर है। आज का कलियुग तो कमाल है। गुरुओं की बहार है। ढेर के ढेर गुरु हैं- सबकी अपनी अपनी मान्यताओं की दुकानदारी है- करोडों एकड में फैली हुई- करोडों रुपए के गुरु मंत्र और प्रसाद के साथ. हिंदुस्तान के हर कोने में ऐसे गुरु भरे मिलेंगे. जिसकी दुकान में जितनी अधिक गोरी चमडी, वह गुरु उतना ही सफल. उनके चमत्कार और एक अदना से जादूगर के हाथ की सफाई में कोई अंतर नहीं है. पर बेचारा जादूगर सौ रुपए में जादू दिखाता है, उसी जादू के ये गुरु करोडों लेते हैं. और हम भक्तिभाव से भरकर देते हैं. मंच पर उनके नाटक पर करोडो वारे-न्यारे होते हैं, नाटक और थिएटर करनेवाले 50 रुपए का टिकट भी नहीं बेच पाते. नए-नए गुरु हैं निर्मल बाबा। उनके निर्मल किस्से से बजबजाती नालियाँ भी शर्मसार हो जाए। मगर हाय रे हमारा गुरु ज्ञानी भारतीय मन। इन पर वारी-वारी। छम्मकछल्लो के एक मित्र हैं। उनकी बहुत पहुँच है-तमाम गुरुओं तक। ये सभी गुरु कहते हैं- 'तेरे को यार अगर ये नाटक-नौटंकी करनी है तो कटोरा ले के कहीं और जा। तेरी मान की, तेरी बहन की। करोड़ों में खेलना-खाना है, सभी वीआईपी को चरणों पर लुटवाना है तो यहाँ आ।
ये गुरु उपदेश देते हैं- माया मन का विकार है. पैसा तिनका है. मगर खुद के मरने पर हजारो-हजार करोड की सम्पत्ति मिलती है. ये गुरु कहते हैं- जीवन नश्वर है. गीता ने कहा है कि शरीर आत्मा का वस्त्र है, सो आत्मा चोला बदलती रहती है. उनकी अपनी आत्मा का चोला ना बदले, इसलिए वे एके 47 व 56 के वर्तुल में चलते हैं. ये गुरु कहते हैं, "शरीर को जितना तपाओगे, शरीर कुंदन सा दमकेगा." और खुद बिजनेस क्लास में उडते हैं, सबसे मंहगी कार में यात्रा करते हैं. उनके करीब वे ही लोग होते हैं, जिनके पास उनकी ऐसी सेवा की लछमीनुमा सुविधा है. बाकी लोग हैं- चटाई उठाने और उस पर पडी धूल झाडने के लिए. मुंबई में सुना कि एक भक्तिन ने आसाराम बापू के नाम अपना जुहू स्थित एक बंगला ही कर दिया। इससे यह तो पता चलता है कि पैसा ही पैसा को खींचता है। भला बताइये तो, छम्मकछल्लो कहती कि अपना घर उसके समाज और थिएटर के काम के लिए उसे दे दे तो उसे घर के बदले गरदानिया चाँप मिलता।
ये सब पहुंचे हुए गुरु हैं और पहुंचे हुओं के पास पहुंचे हुए लोग ही पहुंचते हैं. सत्य साईं बाबा के समय देश के आलाकमान तक पहुंच गए थे. उनके शव को तिरंगे से ढका गया था, जाने किस नियमावली के तहत. पिछले साल उनका समाधि स्थल खुल गया। देश से लाखों लोग पहुंचे। इस बार भी पहुंचे होंगे, पहुँचते रहेंगे। सभी पढे-लिखे, सभी समझदार- बस, इन्हीं सभी समझदारों को सभी जीवित गुरु अपनी तरफ से उपहार भी देंगे, भले इसके लिए उन्हें विश्व बैंक से कर्जा लेना पडे.
गुरु पूर्णिमा चमत्कारिक है। छम्मकछल्लो के साथ भी चमत्कार हो गया। उसे कई गुरुओं के सपने और संदेश आए कि "ऐ छम्मकछल्लो! धन और माया का खेल खेलते खेलते अब हम थक चुके हैं। अब तो गद्दी पर माया रही भी नहीं। ममता, शीला का पता नही क्या होगा, ललिता अपने में ही मगन है। इसलिए हम अब सही मायने में त्यागी गुरु बनना चाहते हैं. इसलिए अपने सभी संचार माध्यमों का प्रयोग करके सभी को बताओ कि दुनिया के सभी गुरुओं ने आज गुरु पूर्णिमा के अवसर पर दान लेने के बदले दान देने की घोषणा की है. यही नहीं, आज वे सबकुछ को तिनका और धूल समझते हुए सभी को अपनी कृपा का प्रसाद भी देंगे."
छम्मकछल्लो ने कह दिया कि "गुरु जी, न दान दीजिए, न उपहार, बस एक ही काम कीजिए, लोगों को इस गुरु घंटाल के खेल में मत फंसाइये. लोग अपने आप पर भरोसा रखें और जीवटता से काम करें, खुद भी जियें और दूसरों को भी जीने दें."
सपने में ही गुरु आग बबूला हो गए. बडी मुश्किल से छम्मकछल्लो जान बचा कर भागी. इसी डर से यह लेख गुरु पूर्णिमा के दिन नहीं लिखा. अब गुरु पूर्णिमा बीत गया है. सभी गुरु अपना अपना दाय गिनने और उसे सही ठिकाने लगाने में मशगूल होंगे। यही मौका है छम्मकछल्लो के लिए. लगा दे पोस्ट छम्मकछल्लो, मना ले तू भी गुरु पूर्णिमा.
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