सुपर स्टार राजेश खन्ना को गुजरे अभी चंद रोज ही हुए हैं. उनकी सम्पत्ति को लेकर खींच- तान शुरु हो गई है. हम भारतीयों का स्वभाव है- सुपर डुपर लोगों को महिमा मंडित करना। राजेश खन्ना भी महिमा मंडित हो रहे हैं. उनके महिमा मंडन में हम भूल गए कि डिम्पल के साथ उन्होने क्या क्या किया? भूल गए कि उनके कितनों के साथ अवांतर प्रेम प्रसंग थे. भूल गए कि अपने जीवन के उत्तरार्ध में वे प्रेस, मीडिया और आम जनों के साथ कैसा व्यवहार करते थे. भूल गए कि हाल में ही बांद्रा की एक दुकान में उन्होने कुछ बालिकाओं के साथ कैसी अभद्रता की थी. मेरा मकसद उनको नीचा दिखाना नहीं, बल्कि उनके जाने के बाद उनके व्यक्तित्व को एक आम आदमी की हैसियत से देखे जाने की जरूरत पर बल देना है. यह ना हो कि ‘अरे, अब तो वह चला गया. अब उसके ऊपर गलत बोलने से क्या होगा?’ व्यक्ति की महानता यदि कहीं है तो उसके साथ उसकी दुर्बलता भी होगी। उसे भी सामने लाना है। यह हो रहा है। ऊर्वज़ी ईरानी के ब्लॉग “फिल्म एडुकेशन’ (Film Education) Blog URL: http://oorvazifilmeducation.wordpress.com/ मे सोराब ईरानी का एक लेख है, जिसका सार नीचे प्रस्तुत है. ऊर्वज़ी ने इसके हिंदी में प्रकाशन और इसे हर आम जन तक पहुंचाने की सहमति दी है. उनका आभार.
"बहुत कम लोगों को शायद यह पता होगा कि चेतन आनंद की पहली फिल्म “नीचा नगर” को पाम दी’ओरे (सर्वोत्तम फिल्म) पुरस्कार सबसे पहले कांस फिल्म फेस्टिवल में 1946 में मिला था.यह मेरा सौभाग्य रहा कि मैंने चेतन आनंद के साथ काम किया और सिनेमा को सीखा, समझा. वे सचमुच सिनेमा के जीनियस थे.
चेतन आनंद पहले डायरेक्टर थे, जिन्होने राजेश खन्ना को अपनी फिल्म ‘आखरी खत’ के लिए कास्ट किया था. उसके बाद राजेश खन्ना कामियाबी के हिमालय तक पहुंचे. यह सबको पता है. बाद में जब उनका कैरियर डगमगाने लगा, तब उन्हे फिर से एक ऐसे डायरेक्टर की जरूरत पडी, जो उनकी डूबती नैया को पार लगा सके. उन्होने चेतन आनंद से सम्पर्क किया. मैं तब चेतन आनंद की प्रोडक्शन कम्पनी ‘हिमालया फिल्म्स’ में जनरल मैनेजर के रूप मे काम कर रहा था. उन दिनों फिल्में स्टार पावर को लेकर बनती थीं और अगर एक स्टार फिल्म बना रहा है तो यह एक अच्छी बात मानी जाती थी. "बहुत कम लोगों को शायद यह पता होगा कि चेतन आनंद की पहली फिल्म “नीचा नगर” को पाम दी’ओरे (सर्वोत्तम फिल्म) पुरस्कार सबसे पहले कांस फिल्म फेस्टिवल में 1946 में मिला था.यह मेरा सौभाग्य रहा कि मैंने चेतन आनंद के साथ काम किया और सिनेमा को सीखा, समझा. वे सचमुच सिनेमा के जीनियस थे.
चेतन आनंद उन दिनों आर्थिक संकट से गुजर रहे थे. उन्होने राजेश खन्ना से कहा कि उनके पास सब्जेक्ट तो है, पर पैसे नहीं. चेतन आनंद के दिमाग में स्टोरी हमेशा बनी रहती थी. उस मीटिंग में, जहां चेतन आनंद ने राजेश खन्ना को फिल्म ‘कुदरत’ की स्टोरी सुनाई, मैं भी मौज़ूद था. एक हफ्ते के भीतर ही राजेश खन्ना किसी बी एस खन्ना नाम के प्रोड्यूसर के साथ आए. यह तय हुआ कि बी एस खन्ना फिल्म में पैसे लगाएंगे और उसे प्रोड्यूस करेंगे. चेतन आनंद इसे निर्देशित करेंगे. और इस तरह से फिल्म ‘कुदरत’ का जन्म हुआ.
यह फिल्म ‘कुदरत’ की कहानी के बारे में नहीं, बल्कि उसके बनने के समय चेतन आनंद और राजेश खन्ना के बीच उपजे विवाद के बारे में है. फिल्म बहुत बढिया थी. म्यूजिक पहले से ही सुपर हिट हो गया था. काका ने एक प्राइवेट शो रखा. अपने चमचो की बातों में आकर उन्होने सारा क्रेडिट खुद लेते हुए विनोद खन्ना, राजकुमार आदि की भूमिकाओं को कतरना शुरु कर दिया. उन्होने फिल्म के एडीटर को अगवा कर लिया और फिल्म की फिर से एडिटिंग शुरु कर दी. एडीटर ने अपनी नैतिकता को बनाए रखते हुए चेतन आनंद साब को इसकी जानकारी चुपके से दे दी. वे चेतन आनंद की प्रतिभा के कायल थे और इस फिल्म में एक साल से अधिक समय से जुडे हुए थे. मेरे पास परेशान चेतन आनंद साब का फोन सुबह 6 बजे आया. वे बोले कि मैं एडीटर के घर जाकर उन्हें चेतन आनंद साब के पास ले कर आऊं. मै खुद बहुत डिस्टर्ब था कि कैसे कोई चेतन आनंद साब जैसे डायरेक्टर की एडिट की हुई फिल्म के साथ छेडखानी कर सकता है!
सुबह लगभग 7.30 बजे मै एडीटर के माटुंगा स्थित घर पहुंचा. मगर वह घर पर नही था. मैं वापस लौटा तो चेतन आनंद साब भडके हुए थे. न काका और ना ही बी एस खन्ना उनके फोन उठा रहे थे. साजिश खुल चुकी थी. अब हम क्या करें! मैं चेतन आनंद साब के साथ नवरंग लैब जाकर उसके मालिक से मिला. मगर मालिक ने अपनी असहायता जताई कि उसे प्रोड्यूसर की बातों को ही फॉलो अप करना है. प्रोजेक्ट में प्रोड्यूसर का ढेर सारा पैसा लगा हुआ है. हमने फिर अपनी शिकायत ‘फिल्म एडीटर एसोसिएशन‘ और ‘फिल्म प्रोड्यूसर एसोसिएशन‘ में दर्ज कराते हुए फिल्म को रोकने का अनुरोध किया. रात से मेरे पास धमकी भरे फोन आने लगे. किसी ने मेरी पत्नी को फोन करके कहा कि वह सुबह में मुझे मरा हुआ पाएगी. मैं बाहर था और तब कहां मोबाइल फोन होते थे! सो जब मैं घर लौटा तो मेरी पत्नी मुझे देखकर रोने लगी. वह बेहद डरी हुई थी.
मेरे गुस्से का ठिकाना नहीं रहा,. मैं उसी दम बी एस खन्ना के घर गया. वह घर पर नही था. मगर फोन पर मिल गया. मैंने उससे उसकी इस तरह की हरकत के बाबत पूछा. मैंने उससे बडे ही सपाट लहजे में कहा कि “मैं ऐसे-वैसों में नहीं हूं और यदि उसने इस तरह से मेरी बीबी को धमकाना बंद नहीं किया तो मैं पुलिस के पास चला जाऊंगा.” बाद में जब मैंने चेतन आनंद साब को यह बताया तब उन्होने भी कहा कि उनके घर पर भी ऐसे धमकी भरे फोन आ रहे हैं.
अगले दिन प्रोड्यूसर बी एस खन्ना इन सबके प्रति एकदम अंजान बन गया और बोला कि उसे इन सब बातों की कोई भी जानकारी नहीं है और इन सबमें कोई सच्चाई नही है. हमने कहा कि हम फाइनल कट की कॉपी देखना –जांचना चाहते हैं. हमने एडीटर से बात की और कहा कि फाइनल कट में किसी भी तरह का बदलाव करने का अधिकार किसी को नहीं है. उसने बडे ही डिप्लोमेटिकली कहा कि अब बहुत देर हो चुकी है. फिल्म का नेगेटिव रिलीज प्रिंट प्रक्रिया के लिए लैब में जा चुका है.
हमारे दफ्तर में मायूसी छा गई. बी एस खन्ना और राजेश खन्ना ने फिल्म को कब्जिया लिया था. चेतन आनंद साब ने परम्परा के विरुद्ध अपनी ही फिल्म को रिलीज करने से रोकने के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट में जाने का फैसला किया. मामला जज लैंटर्न के पास आया. पूरी फिल्म इंडस्ट्री वहां थी. जज साहब ने भी फैसला हमारे खिलाफ दिया यह कहते हुए कि हमें आपसे पूरी सहानुभूति है, मगर यदि फिल्म रोकी गई तो इसमें इतना ज्यादा पैसा जिसका लगा है, यानी प्रोड्यूसर का, वह फंस जाएगा. और उन्होने मामले को रेगुलर सुनवाई के लिए डाल दिया.
पूरी कहानी का लब्बो-लुआब यह कि इसका उद्देश्य किसी की छवि को धूमिल करना नही है, बल्कि कुछ सवालों को सामने लाना है- फिल्म के फाइनल कट का अधिकार किसे है? डायरेक्टर को या प्रोड्यूसर को? यह कौन तय करेगा कि दर्शक क्या देखना चाहते हैं- फाइनांसर/ प्रोड्यूसर या क्रिएटर/डायरेक्टर? उस क्रिएटर/डायरेक्टर का क्या होगा अगर वह खुद उस फिल्म का फाइनांसर/ प्रोड्यूसर नही है? सोचिए, विचार कीजिए, और बहस में भाग लीजिए.”