रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों को समर्पित सांस्कृतिक दल "दस्तक" का ब्लॉग है- 'मंडली'। पुंज प्रकाश इसे अपने प्रकाश से प्रकाशित कराते हैं। इस बार पढिए इसमें मेरा साक्षात्कार।
Tuesday, May 29, 2012
केवल मंच तक ही सीमित नहीं है रंगमंच – विभा रानी
रंगकर्मी विभा रानी से पुंज प्रकाश की संचार तकनीक के माध्यम से की गई बातचीत |
विभा रानी |
बहुत सोचने पर भी कुछ समझ में नहीं आ रहा कि कहाँ से शुरू किया जाये | शायद इसका कारण ये है कि आपके बारे में मेरी जानकारी एकदम नहीं के बराबर है |यह रंगमंच की विडम्बना से ज़्यादा मेरी सीमा माना जाय | अगर संभव हो तो आप पहले अपने बारे में बताइए | हो सकता है वहीँ से बात निकलती चली जाये |
बताइये, कहाँ से शुरू करूँ?1987 से रंगमंच मे काम करना शुरू किया दिल्ली में आर एस विकल के निर्देशन में उनके थिएटर फेस्टिवल में। दुलारीबाई , सावधान पुरुरवा, पोस्टर, कसाईबाड़ा आदि नाटकों में अभिनय किया। उन्हीं की टेली फिल्म “चिट्ठी” में काम किया। फिर एक्टिव रंगमंच से पारिवारिक कारणों से किनारे रही। वर्ष 2007 में पुनः एक्टिव थिएटर में आई। इस बीच नाटक लिखे। “दूसरा आदमी दूसारी औरत” को 2002 के भारंगम में खेला गया- राजेन्द्र गुप्ता एवं सीमा बिशवास के द्वारा। अब यह नाटक रास कला मंच, हिसार द्वारा खेला जा रहा है। 2010 में यह नाटक किताबघर प्रकाशन से छपकर आया। एक नाटक 'पीर पराई' 2004 से विवेचना, जबलपुर द्वारा खेला जा रहा है। दो नाटक 'आओ तनिक प्रेम करें' और 'अगले जनम मोहे बिटिया न कीजों' को 2005 का “मोहन राकेश सम्मान” मिल चुका है और ये दोनों भी किताबघर प्रकाशन से छपकर आया है। 'अगले जनम मोहे बिटिया न कीजों' को मार्च में पटना में सनत कुमार के ग्रुप ने मंचित किया। 'आओ तनिक प्रेम करें' को सतीश आनंद ने 2005 में अभिनीत व निर्देशित किया। 2007 में फिर से आर एस विकल के निर्देशन में “मी। जिन्ना” से अभिनय की शुरुआत की। इसमें फातिमा जिन्ना की भूमिका करती हूँ। 2007 में फिनलैंड में अंग्रेज़ी नाटक 'Life is not a Dream' से एकपात्रीय नाटकों के मंचन की शुरुआत की। एकपात्रीय नाटक बहुत चुनौतीपूर्ण हैं और इसके मंचन की बहुत तकलीफें और समस्याएँ हैं। सबसे बड़ी समस्या तो यही है की इसे अभी तक थिएटर की मुख्यधारा में शामिल नहीं किया गया है। बाल साहित्य की तरह यह विधा भी थिएटर जगत में उपेक्षित है। मैंने इसे एक चुनौती की तरह लिया और इसे आंदोलन बनाकर आगे बढ़ी। इसका नतीजा आया और अब लोग न केवक एकपात्रीय नाटक कर रहे हैं, बल्कि इसके फेस्टिवल भी हो रहे हैं। अबतक मैं 6 एकपात्रीय नाटक कर चुकी हूँ और इसके प्रदर्शन देश की प्रमुख जगहों के साथ-साथ विदेशों में भी हुए हैं और बहुत सराहे गए हैं। 'रंग जीवन' के दर्शन के साथ मैं समाज के वंचित और मुख्यधारा के लोगों के साथ हस्तक्षेप करती हूँ। जेल के बंदियों के साथ थिएटर वर्क शॉप करती हूँ लगातार। थिएटर को केवल मंच तक सीमित न रखकर इसे जीवन के हर क्षेत्र में लाते हुए थिएटर के माध्यम से कॉर्पोरेट ट्रेनिंग आयोजित करती हूँ। “थिएटर -एक आजीविका” पर विश्वास कायम रखते हुए अपने साथ जुड़े सभी रंगकर्मियों को उनका उचित मानधन देने की परंपरा भी हमने शुरू की है। ....ये सब चंद बातें हैं, संक्षेप में। ब्लॉग है- उस पर भी मुझे देख सकते हैं। साहित्य के लिए कथा अवार्ड,घनश्यादास सर्राफ सम्मान, डॉ माहेश्वरी सिंह महेश सम्मान, व्यंग्य के लिए 'व्यंग्यकार रचना सम्मान, ब्लॉग के लिए लाड़ली मीडिया अवार्ड और समग्र के लिए राजीव सारस्वत सम्मान और साहित्यसेवी सम्मान।
आप रंगमंच की मुख्यधारा की बात करतीं हैं | भारतीय सन्दर्भ में खासकर हिंदी प्रदेश में जहाँ रंगमंच की स्थिति आज भी अनिश्चितता वाली ही बनी हुई है और जो कुछ थोडा बहुत रंगमंच हो भी रहा है उसमें शौकिया रंगकर्मियों की भूमिका और उर्जा ज़्यादा मुखर है | इस स्थिति में रंगमंच की मुख्यधारा आप किसे मानतीं हैं या इससे आपका क्या तात्पर्य है और क्यों ? और क्या सार्थक रंगमंच के लिए किसी धारा से जुडना ज़रुरी है ?
रंगमंच की स्थिति अनिश्चितता वाली नहीं है। यह एक ठोस विधा है और लोग इसमें काम कर रहे हैं। आज थोडा बहुत रंगमंच नहीं, बल्कि अधिक रंगमंच हो रहा है। समय आ गया है कि अब शौकिया रंगमंच जैसे शब्द को विदा करना चाहिए। रंगमंच में समर्पण और निष्ठा या commitment की बात की जानी चाहिए। प्रतिबद्ध रंगकर्मियों की भूमिका रंगमंच की प्राणवाहिनी है |रंगमंच की मुख्यधारा रंगमंच ही है । इसका कोई विकल्प नहीं है। फिल्म, टीवी आदि इनकी उपधाराएँ हो सकती हैं। सार्थक रंगमंच के लिए केवल एक ही धारा से जुडना ज़रुरी है और वह है रंगमंच के लिए अपनी प्रतिबद्धता की धारा।
थिएटर को केवल मंच तक सीमित न रखकर इसे जीवन के हर क्षेत्र में लाते हुए थिएटर के माध्यम से कॉर्पोरेट ट्रेनिंग आयोजित करती हूँ। इसे ज़रा और स्पष्ट करें |
यह केवल मिथ बना दिया गया है कि थिएटर का मतलब केवल नाच, गाना, डायलागबाज़ी और स्टेज पर जाकर नाटक कर लेना है। थिएटर एक कर्म है। यह व्यक्ति में सांस की तरह ही ज़रूरी है। थिएटर व्यक्ति के विकास में एक अहम भूमिका निभाता है। असल में हर व्यक्ति के भीतर थिएटर के तत्व मौजूद रहते हैं, जिन्हें अपने आम जीवन में जाने- अंजाने उजागर करता चलता है। हर व्यक्ति अपने जीवन मे सफल होना चाहता है। थिएटर उसके लिए यह अवसर प्रदान करता है। थिएटर से जुड़कर वह अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है। मेरा आशय यह कतई नहीं है कि इसके लिए वह मंच पर के नाटक से जुड़े। वह थिएटर के एलीमेंट के सहारे अपने कार्यक्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल करे। इन्हीं तत्वों को ध्यान में रखकर मैंने कॉर्पोरेट जगत के लिए विकासात्मक प्रशिक्षण थिएटर के माध्यम से तैयार किए हैं। यह रुचिकर है। व्यक्ति को अपनी बातें बताने और उसके हिसाब से अपने आपको तैयार करने का अवसर देता है। कॉर्पोरेट के साथ-साथ हम विकासात्मक प्रशिक्षण बच्चों, युवाओं और समाज के सर्विस सेक्टर्स, जैसे, पुलिस, डॉक्टर्स, नरसेज़, टीचर्स, कामकाजी महिलाओं के लिए आदि के लिए भी करते हैं।
क्या आप रंगमंच के माद्यम से चरित्र ( व्यक्तित्व ) निर्माण / विकास का प्रशिक्षण देने की बात कर रहीं हैं ?
नहीं। रंगमंच के तत्वों के साथ व्यक्ति के विकास की बात है। हम किसी का चरित्र नहीं गढ़ते। हम व्यक्ति के भीतर व्यक्ति का विकास करने की कोशिश करते है। a person within the person की बात करते हैं। यह एक अनुभवजनित प्रशिक्षण (an experiential learning) है।
आपने कहा रंगमंच व्यक्ति कों सफल होने का अवसर प्रदान करता है ? ये सफलता -असफलता का पैमाना क्या है ?
सफलता -असफलता यह है कि व्यक्ति जिस क्षेत्र में है या जिस क्षेत्र में जाना चाहता है, उस क्षेत्र में यदि वह रंगमंच के तत्वों के साथ काम करता है तो सफल होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई मार्केटिंग में काम करना चाहता है तो उसे मार्केटिंग के लिए कैसे लोगों से अप्रोच करनी चाहिए या कोई व्यक्ति किसी ऐसे पद पर है, जहां उसे दिन रात किसी न किसी पब्लिक स्पीच के लिए जाना पड़ता है। हमारे कार्यक्रम इन जगहों पर उसकी मदद करते हैं। उसका अपना मन, दिल और दिमाग खुलता है और वह अपनी रणनीति बनाने के लिए आगे बढ़ता है। अपने काम की रणनीति ही व्यक्ति की सफलता -असफलता का पैमाना है। थिएटर एक टूल है जीवन को अपने तरीके से देखने और समझने और तदनुसार आगे बढ़ाने का।
आपने जेल के बंदियों के साथ थिएटर वर्कशॉप किया है और कर रहीं हैं | वहाँ के कुछ अनुभव शेयर करें |कैसे काम करतीं हैं ? किन - किन चुनौतियों का समाना करना पड़ता है | वहाँ कैदी होतें हैं उनके साथ काम करना और एक रंगकर्मी के साथ काम करने में आप क्या फर्क महसूस करतीं हैं ?
मैं 2003 से जेल के बंदियों के साथ काम कर रही हूँ। पहले तो मैं बता दूँ कि वे हम-आप जैसे ही इंसान हैं। चांस की बात है कि वे वहाँ हैं। जेल अधिकारियों के अनुसार, 70-80 % कैदी इनोसेंट और एक्सीडेंटल अपराधी होते हैं। उन्हें ही अच्छा माहौल देने के लिए जेल अधिकारी तरह-तरह के कार्यक्रम करते-कराते हैं। यह उनके परिजन वेलफ़ेयर एक्टिविटी के तहत आता है। हमारा काम करने का तरीका जेल अधिकारियों को बहुत पसंद आया और जेल बंदियों को भी। उन्होंने यह कहा कि हम उन्हें इसलिए अच्छे लगते हैं कि हम उनके बारे में नही पूछते। यानी, आप हमारे घाव नही कुरेदतीं। दूसरे, आप यह नही कहती कि तुमने कोई पाप किया है, अब भगवान से क्षमा मांगो। आप हमें उपदेश नही पिलाती, आप हमें हमारे जीवन में ले जाती है और हमें अपने साथ होने का मौका देती हैं। आप हमारे भीतर की कमजोरियों को दूर करने के प्रयास करती हैं। आप हमारे भीतर की प्रतिभा को बाहर निकालती हैं और सबसे बड़ी बात कि आप हमें इस माहौल में हंसने-मुस्कुराने और अपने को तरोताजा करने का अवसर देती हैं।
चुनौतियाँ बहुत हैं। पहली तो यह कि जेल देखने के लिए जाने को उत्सुक बहुत मिलते हैं, वहाँ जाकर काम करने के लिए नहीं। बहुत से हित-मित्रों ने यह कहा कि वे हमारे साथ इसलिए जाना चाहते हैं कि उन्होने कभी जेल नही देखी है।
यह समाज सेवा है। हमें हर बार अपनी ओर से खर्च करना पड़ता है। जेल अथॉरिटी की पहली शर्त यह होती है कि उनके पास फंड नहीं है। आप अपने साधन से जो करना चाहो, करो।
लोग वहाँ जाना तो चाहते हैं, पर जाने के लिए मानधन भी चाहते हैं। हम देते भी हैं। पर सभी ऐसे नही होते। सुबोध पोतदार, आर एस विकल,मंजुल भारद्वाज जैसों ने बहुत बढ़िया काम किया वहाँ, पर नि:शुल्क।
दूसरी चुनौती है- हर बार कार्यक्रम के लिए वहाँ की प्रशासनिक प्रक्रिया से गुजरना। अफसरशाही का तो नही, क्लर्कशाही का सामना कई बार करना पड़ा।
जिद्दी हूँ, ठान लिया तो ठान लिया। अकेली चली जाती हूँ, जब कोई नही साथ देता, क्योंकि मुझे उनके साथ कार्यक्रम करना है, उनके साथ समय बिताना है।
उनके साथ काम करने का कोई खास संस्मरण हो तो ज़रूर बताएँ | कोई खास घटना या कोई शानदार अभिनेता या वहाँ किसी ने आपसे कुछ शेयर किया हो या कुछ और जो आप बताना चाहें ....
मैंने 'निर्मल आनंद सेतु' नाम से वहाँ सीरीज चलाया प्रशिक्षण का। फिर मैंने पहली बार 307, 302 व 374 के सजायाफ्ता मुजरिमों के साथ 10 दिन का वर्कशॉप किया। 10वें दिन वे सब 45 मिनट के शो के साथ प्रस्तुत हुए। उस पूरे समय के उनके और मेरे अनुभव अद्भुत हैं। कार्यक्रम की समाप्ती के बाद उस ग्रुप के सबसे खतरनाक कैदी ने मुझसे यह कहा कि 'अबतक मैं आपको मैडम कहता था, आज से आपको सिस्टर कहूँगा।‘ एक ने कहा कि ‘अबतक तो हम लॉकअप के बाद नाटक के बारे में ही सोचते थे, अब यह सब बंद हो जाएगा और बेवजह की बातें दिमाग में आएंगीं।‘ राणे नामका कैदी था। उसकी एक्टिंग से सभी अभिभूत हो गए। अजित नामका एक लड़का था। सभी लीड रोल लेने से उसने मना कर दिया और साइड के नामालूम से रोल लेता रहा। उन्हीं भूमिकाओं में उसके एक्शन की डिटेलिंग देखते ही बनती थी।
सबसे बड़ी दिक्कत वहाँ के कड़े प्रतिबंध की है। आप उनसे खुल कर बात नही कर सकते। आप अपनी रिपोर्ट प्रकाशित नही कर सकते। आप उनकी फोटो नही ले सकते। आप प्रेस, मीडिया, लेखक आदि को नही ले जा सकते। मेरा हर बार जेल अधिकारियों से यही कहना रहता है कि आपकी नकारात्मक बातें तो लोग खोज खाजकर छापते ही हैं। अब आप अपनी अच्छी बातें, अच्छे प्रयासों को सामने आने दीजिये ताकि जेल के प्रति लोगों की नकारात्मकता दूर हो। वे चाहते भी हैं, मगर ऊपरवाले उन्हें इसकी आज़ादी नही देते।
इसी 10 दिवसीय वर्कशॉप से संबन्धित घटना है। इतनी बड़ी वर्कशॉप, वह भी जेल के बंदियों की| मैं झिझक रही थी। मैंने कई लोगों से बातें कीं। सभी ने कहा कि यह बड़ा इंटरेस्टिंग है, वे जरूर इसे जॉइन करना चाहेंगे। बाद में सभी मुकर लिए कुछ ना कुछ कहते हुए। सभी के भीतर यही था कि ठाणे तक का लंबा सफर- दिन भर निकाल जाएगा और मिलेगा कुछ भी नहीं। एक ने अंतत: हामी भी भारी। बड़ी बड़ी योजनाएँ भी बताईं। हमने उनपर भी सोचना शुरू कर दिया। पर ऐन एक दिन पहले शूटिंग है, कहकर वे निकल लिए। अब? अब या तो मैं वर्कशॉप कैसिल कर दूँ या अकेले लूँ। रिजल्ट ओरिएटेड हूँ, सो अकेले जुट गई। टैगोर की पंक्ति मेरी हिम्मत बहुत बँधाती है- ‘जोड़ी तोर डाक शुने केओ ना आशे, टोबे एकला चलो रे।‘ सो अकेले चल पड़ी। बाद में कुछ नॉन थिएट्रिकल लोग- जुड़े। अंग्रेज़ी के एक अखबार ने बहुत अच्छी कवरेज दी।
डेजी नाम की एक कैदी थी इंगलैंड की। बहुत छोटी, पर बहुत ज़हीन। हमें देखते ही भागी भागी आती थी। अँग्रेजी उसकी अच्छी थी तो बाकी विदेशी कैदियों की भी बातें मुझे बताती थी। उसने एक बार कहा था कि आप गर्मी के मौसम में हर दिन आइये, गर्मी में कोर्ट बंद रहते हैं। कोई कार्रवाई नही होती है, उसका अवसाद। फिर कोर्ट बंद रहने से उसकी चहल-पहल खत्म और ऊपर से गर्मी। सब आपस में ही बेवजह लड़ती हैं। आपके आने से इन सबको इन सबसे तनिक राहत मिलेगी।
वह खुद बहुत अच्छा काम, पेंटिंग करती थी। उसने हमारे वर्कशॉप में एक पेंटिंग बनाई और उसे अपने पिता को भेजने के लिए रख लिया। पर पिता तक पेंटिंग पहुँचने से पहले ही उनका देहांत हो गया। रमेश ओवले नामका कैदी बहुत बढ़िया पेंटर था। हमने उसे पुरस्कृत भी किया था। एक और कैदी था मोरे- वार्ली पेंटिंग का। हमने एक बार अपनी वार्ली पेंटिंग वर्कशॉप उसी से करवाई। उसके उत्साह की कोई सीमा नही थी। वह बोला कि मैं डीआईजी मैडम से कहूँगा कि मैं अपनी यह कला अपने सभी बंदी भाइयों को सिखाना चाहता हूँ।
विभा जी अबतक आप 6 एकपात्रीय नाटक कर चुकी हूँ और आप इसे एक मूवमेंट की तरह भी लेतीं हैं | आप इन नाटकों के बारे में कुछ बताएँ |साथ ही ये भी बताएँ की आपने एकल नाटक का ही करने का चयन क्यों किया तथा एकल अभिनय के लिए विषय का चयन करते वक्त किन - किन बातों का ध्यान रखतीं हैं कैसे उसकी रचना प्रकिया से गुज़रतीं है | ज़ाहिर है हर एकल नाटक का अपना अलग अनुभव हुआ होगा |
मैंने एकपात्रीय नाटक करने का निर्णय इसलिए लिया क्योंकि एक तो हिन्दी थिएटर जगत में इसे लेकर बड़ी उत्सुकता नही थी। हर ग्रुप, हर कलाकार एक एकपात्रीय नाटक भी कर लेता है। मैंने इस ज़रूरत को महसूस किया और एकपात्रीय नाटक को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए एकपात्रीय नाटक पर खुद को केन्द्रित किया और इसे एक आंदोलन की तरह लिया। दूसरे, एकपात्रीय नाटक अधिक चुनौतीपूर्ण है, और अधिक चुनौतीपूर्ण काम करना शायद आदत बन चुकी है। इसी चुनौती के तहत जेल में काम करना शुरू किया था। इसी चुनौती के तहत 2007 से एकपात्रीय नाटक कर रही हूँ। ये नाटक हैं- ‘लाइफ इज नॉट आ ड्रीम’, ‘बालचन्दा’, ‘मैं कृष्णा कृष्ण की’, ‘एक नई मेनका’, बिम्ब-प्रतिबिंब’,‘भिखारिन।‘ और भी नाटक हैं, जो अभी लिखे हुए हैं- नागार्जुन की कविताओं पर आधारित ‘चंदू मैंने सपना देखा’, लोक कथाओं पर आधारित,‘रोने की साध’, ‘सामा-चकेबा’। पिछले साल 3 और इस साल अबतक 1 नाटक तैयार कर चुकी हूँ।
मेरे सभी नाटक एक ना एक मुद्दे से जुड़े हुए हैं। कह सकते हैं कि महिला प्रधान नाटक है। लेकिन, इसमें केवल महिलाओं की ही बातें नही कही गई हैं। पुरुष के श्वेत-श्याम पक्ष दोनों को उजागर किया गया है। समाज और यूथ पर मेरा दृढ़ विश्वास है। उनके प्रति का विश्वास झलकता है मेरे नाटकों में।
एकल अभिनय के लिए विषय का चयन करते वक्त ध्यान रखना होता है कि विषय, तकनीक, कथ्य, शैली, संगीत, गीत आदि में से किसी की भी पुनरावृत्ति ना हो। सबसे पहले स्क्रिप्ट पर बहुत काम करती हूँ। इतनी बार कि उतने में तो हर बार एक उपन्यास लिख लिया जाए। शायद एक कारण यह है कि मैं स्वयं लेखक हू, इसलिए लेखन के महत्व को समझती हूँ।
हर एकल नाटक का अपना अपना अनुभव है। इसकी रचना प्रकिया एक साथ ही आनंददाई और कष्टदाई दोनों है। आनंद कि आप थिएटर कर रहे हैं। कष्ट कि इसके लेखन से लेकर इसके हर पक्ष को मुझे देखना होता है। तब लगता है कि कोई इसमें मेरा सहायक होता। मेरे रिहर्सल को देखनेवाला मेरे डायरेक्टर के अलावा और कोई नही होता। तो लोगों के फीडबैक नही मिल पाते। यह भी एक चुनौती है। एक तरीके से ठीक भी लगता है, क्योंकि आप सभी को एक साथ संतुष्ट नही कर सकते। नाटक की प्रक्रिया एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है। इसके सभी पक्ष को देखना होता है। ‘मैं कृष्णा कृष्ण की’ द्रौपदी और कृष्ण के सखा भाव को लेकर लिखा नाटक है। मैं इसे आज के समय- काल,परिस्थिति से जोड़ना चाहती थी। तभी मेरे इस नाटक का महत्व होता, वरना कौन द्रौपदी के बारे में नही जानता? मैंने महाभारत पढ़ी और फिर लिखा। द्रौपदी के किरदार में एक ग्रेस लाने के लिए उसके एक एक हाव-भाव पर ध्यान दिया। ‘एक नई मेनका’ में मेनका के मूल नर्तकी के स्वरूप को ध्यान में रखने के लिए भरतनाट्यम और करनाटकी संगीत सीखा। चेन्नई में ये दोनों विधाएँ सुगमता से उपलब्ध हैं। इसमें भी विश्वामित्र पर बहुत काम किया। मिथक भले कहे कि विश्वामित्र मेनका को देखकर ताप भ्रष्ट हो गए। लेकिन मैं यह नहीं मानती कि यह काम इतनी सुगमता से हो गया होगा। आखिर ब्रह्मा के समानान्तर एक नई सृष्टि रचनेवाला इतना कमजोर तो कतई नहीं हो सकता कि वह अपने सामने एक स्त्री को देख कर फिसल जाए। उनके और मेनका दोनों के द्वंद्व को भरपूर तरीके से उजागर करने की कोशिश की। ‘भिखारिन’ करते समय एक साथ बांग्ला और शुद्ध हिन्दी टोन बनाए रखने और एक ही समय में एक पुरुष और एक स्त्री चरित्र को निभाने के लिए भाषा और देह व आवाज पर बहुत काम किया। ‘बिम्ब-प्रतिबिंब’ डेढ़ घंटे का नाटक है। 3 मुख्य पात्र हैं और लगभग 13-14 अन्य सह पात्र। तीनों मुख्य पत्रों के अलग अलग हाव-भाव,बॉडी लैंगवेज़, बोलने के तौर तरीके के साथ साथ अन्य सह पात्रों के किरदारों को उनकी अपनी खुसूसियत के साथ प्रस्तुत करना। सबसे पहले डेढ़ घंटे तक दर्शकों को बांधे रखना। और सभी नाटको की पूरी स्क्रिप्ट को याद करके रखना। बहुत डराता है नाटक। हर बार के शो से पहले डरी रहती हूँ- पहले शो की तरह ही। यही डर, चुनौती, सृजनशीलता बहुत आनंद देता है नाटक और जीने की ऊर्जा भी।
विभा रानी से मोबाईल नंबर 09444914237 या gonujha.jha@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है |
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