छम्मकछल्लो को अपने देश के मर्दों पर बहुत भरोसा है. उसे पता है कि हमारे देश के मर्द बहुत सी बातों में अनेक देशों के लोगों से बहुत-बहुत आगे रहते हैं. आखिरकार यह देश ऋषि-मुनियों का है. भले ही वे कह गये हों कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवा:”, मगर हमारे देश के सभी मर्द ऐसा नहीं मानते. आख़िर को उनका समाज है, उनकी व्यवस्था है, उनकी परम्परा है.
मर्दों की बातें ही अपने देश में निराली हैं. जो जितना जवां मर्द वह उतना ही निराला. इसी निरालेपन की शान है, कि वे जब-तब अपने मुखारबिन्द से गालियां इतने चमत्कृत रूप से निकालते रहते हैं कि मन बाग-बाग हो उठता है.
गालियां देने में पढे-लिखे या अनपढ की कोई लक्ष्मण रेखा नहीं होती. हर कोई गाली निकाल सकता है. जो जितनी महान गालियां निकालता है, समाज में उसका दबदबा उतना ही अधिक बढ जाता है. आखिर, नंगे से भगवान भी डरते हैं. महान गालियों के लिए हम महान मां-बहनें बनी हुई हैं, जिनका इस्तेमाल महान लोग बडी आसानी से कर लेते हैं, वैसे ही, जैसे कोई पान की पीक सडक पर से गुजरते हुए यूं ही थूक कर चला जाता है. न सडक को बुरा लगता है ना पीक फेकनेवाले को. मगर छम्मकछल्लो क्या करे कि वह् सडक नहीं हैं ना, सो उसे बुरा लग जाता है.
छम्मकछल्लो के घर के नीचे उसकी बिल्डिंग के एक सज्जन अपने धोबी को डांट रहे थे. मेहनतकश व मज़दूर वर्ग के लोगों को सम्मान देना हम अपना धर्म समझते हैं और यह सम्मान अक्सर उस मज़दूर, मेहनतकश की मां-बहनों के साथ अपने ज़िस्मानी रिश्ते क़ायम करते हुए निकाले जाते हैं. सो उस दिन छम्मकछल्लो की बिल्डिग के वे निवासी धोबी की मां-बहन को अपनी महान भाषा से अलंकृत कर रहे थे. छम्मकछल्लो जिस बिल्डिंग में रहती है, वह पढे-लिखे, सभ्य, अमीर लोगों की बिल्डिंग है. ऐसा दावा ये बिल्डिंगवाले ही करते हैं. कुछ भी बात होने पर वे हमेशा कहते हैं कि भई, यह पढे-लिखे शरीफ लोगों की बिल्डिंग है. हमारी मां-बहनें, बेटियां यहां रहती हैं. उनकी मां-बहनें, बेटियां तो मां-बहनें, बेटियां हैं. वे सब इज़्ज़त, सम्मान पाने के लिए हैं. बाकियों की मां-बहनें, बेटियां गालियों के लिए हैं. मेहनतकश लोग तो वैसे भी इन सभी की मार-गाली आदि के लिए ही जैसे बने होते हैं. सडक पर तो ऐसे दृश्य बग़ैर कोई टैक्स अदा किए ही देखने-सुनने को मिल जाते हैं. एक सज़्ज़न तो ऐसे हैं कि उन्हें जब-तब अपनी पत्नी पर शक हो जाता है. ज़ाहिर है, ऐसे में वे उसकी बात पर यक़ीन न करते हुए अपना बुनियादी अधिकार जो गुस्से का होता है, उसे निकालते हैं और तब अपनी पत्नी का नाम उस व्यक्ति के साथ जोडते हुए कहते हैं कि मैं उसकी मां को गालियां दूंगा, उसकी बहन को गालियां दूंगा. आखिर को वह मर्द है तो मर्दवाला आचरण ही करेगा ना.
गालियां देने में हम महिलाएं भी कम उस्ताद नहीं हैं. इसे छम्मकछल्लो प्रत्यक्ष देखती है. वह जिस ट्रेन से जाती है, उसमें दफ्तर जानेवाली महिलायें ज़्यादा होती हैं. उन्हें रोज दिन की भीड का सामना करना आता है. मगर कभी-कभी उसमें वे भी चढती हैं, जिन्हें ट्रेन में चढने की आदत नहीं रहती है. ऐसे में चढने व उतरने के लिए वे सब भी ऐसी ही गालियों का इस्तेमाल करती हैं. बाकी महिलायें डर कर उनका रास्ता छोड देती हैं. वे उतरती हैं और बडे विजयी भाव से बाकियों को देखते हुए आराम से अपने रास्ते चली जाती हैं.
ये महिलायें भी कोई अलग से गाली की ईज़ाद कर के नहीं आती हैं, बल्कि ये भी शुद्ध मां-बहन की ही गालियां देती हैं. गालियां देते समय उनके चेहरे पर भी उतना ही तप-तेज़ होता है. उन्हें लगता ही नहीं कि आखिरकार ये गालियां उन्हीं पर तो पड रही हैं, वैसे ही, जैसे किसी पुरुष को उनके नाकारेपन का बोध कराने के लिए कुछ महिलायें उन्हें चूडियां भेंट कर आती हैं. तो क्या चूडियां धारण करनेवाली महिलायें कमज़ोर होती हैं? छम्मकछल्लो को लगने लगता है कि क्या ये झांसी की रानी, रज़िया सुल्तान, उषा मेहता, किरण बेदी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, भंवरी देवी जैसों के देश की ही महिलायें हैं? और ये मर्द राम, कृष्ण, भीष्म, वेदव्यास, बुद्ध, गान्धी, विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस, शिवाजी, भगत सिंह, अण्णा हज़ारे, बिनोवा भावे, सुन्दरलाल बहुगुणा के ही देश के हैं ना? अपने यहां हर बात में बडे आराम से कह दिया जाता है कि हमारी संस्कृति में ऐसा नहीं है, वैसा नहीं है. तो क्या यह हमारी संस्कृति में है कि हम मां-बहनों की गालियां निकालें? या क्या हमारे ये महान पुरुष मां-बहन की गालियां निकालते हुए ही महान हुए हैं?
अगर इस सवाल का जवाब आपके पास है तो मेहरबानी से उनलोगों तक पहुंचा दें जो लौंग-इलायची की तरह मां-बहन की गालियां दे कर मुंह का स्वाद बदल लेते हैं. और यदि नहीं तो तो जनाब आइये. छम्मकछल्लो की आपसे गुज़ारिश है कि आप अपनी ज़बान कभी बन्द ना रखें. उसे गालियों का खुला खेल फर्रुख़ाबादी खेलने दें. हम मां, बहनें, बेटियां आपकी गालियों के लिए होनेवाले अपने इस्तेमाल के लिए तैयार हैं. आख़िर, कितना, कितना, कहां-कहां तक हम आपसे लडें? आप कोई बेवकूफ या कम अक़्लवाले तो हैं नहीं. लेकिन क्या करें! छम्मकछल्लो तो है कूढ मगज की. सो उसके भेजे में यह ही नहीं घुसता कि गालियां आखिर मां-बहन-बेटी पर ही क्यों हैं, बाप, भाई, बेटे पर क्यों नहीं? आपके पास जवाब हो तो बताइयेगा, प्लीज़!
11 comments:
आप बहुत बढ़िया लिख रही हैं। आप कम से कम लोगों को अहसास तो दिला रही हैं कि वे क्या कहते और करते रहते हैं।
कठोर कड़ा व्यंग अपनी चरम सीमा पर......
सच कहा आपने गालियों में तो इन मर्दों ने महिलाओं का इस्तेमाल करने का ठेका जो ले रखा है,,जबकि नारी के इतने रूप है की जितना बखान करें उतना कम है..
गालिया वस्तुतः अपनी लैंगिक श्रेष्टता दिखने के लिए एक साधन व अपनी दमित वासना का प्रदर्शन मात्र है चूँकि लैंगिक मामलो में भी पुरुषों का ही वर्चस्वा है इसी लिए ये सभी स्त्रियों के लैंगिक दमन को ले कर ही लक्षित किये जाते हैं
सच्चाई को बयां करता इक शानदार रचना। बधाई
आज़ादी की 62वीं सालगिरह की हार्दिक शुभकामनाएं। इस सुअवसर पर मेरे ब्लोग की प्रथम वर्षगांठ है। आप लोगों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मिले सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए मैं आपकी आभारी हूं। प्रथम वर्षगांठ पर मेरे ब्लोग पर पधार मुझे कृतार्थ करें। शुभ कामनाओं के साथ-
रचना गौड़ ‘भारती
तीखा एवं तेज़ धार लिए असरदार व्यंग्य....
शायद!...कुछ को अक्ल आ जाए
vibha ji insan kisi bhaddi aur gandi vastu ko bura- bhala ya galiyan nahi dete,wo to samne wale ki najuk pasandida aur dil ke karib rahne wali vastu ko hi gali dekar use thess phunchane ki koshish karte hain ,auratein anmol hain isliye galiyon ki patr hain...
vibha ji insan kisi bhaddi aur gandi vastu ko bura- bhala ya galiyan nahi dete,wo to samne wale ki najuk pasandida aur dil ke karib rahne wali vastu ko hi gali dekar use thess phunchane ki koshish karte hain ,auratein anmol hain isliye galiyon ki patr hain...
Ghabaraiye nahin ab baap bhai dada nana ke naam par bhi gaaliyaan di jayengi kyonki hon'ble delhi high court ne samlangikta ko qanooni haq de diya hai.
अपने आभासी और प्रचलित अर्थ में ही गाली होता है परन्तु अपने वास्तविक अर्थ में यह एक मंत्र होता है गाली कोई भी दे या कोई भी खाए इसका वैज्ञानिक, परावैज्ञानिक, या तांत्रिक अर्थ और कारण होता है इसको कहने वाले के साथ साथ सुनने वाला भी दोषी होता है चाहे वह तीसरा व्यक्ति ही क्यों न हो यह सामाजिक ग्रंथियों को विघटित करता है अच्छा होता की ऐसी ग्रंथि ही परस्पर न बनने पाए परन्तु आज के समाज में जहा एक ओर ढीट इंसान है वही दूसरी ओर अपर्याप्त अधिकारी या संरक्षक योग्यता ऐसे समाज में गाली ग्रंथि को तोडने का काम करता है जो की प्राकृतिक मजबूरी है
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