सितंबर का महीना सरकारी दफ्तरों के लिए खास महीना है, क्योंकी १४ सितंबर १९४९ में संसद ने केंद्र सरकार की राजभाषा के रूप में हिंदी को मान्यता दी थी.तब से १४ सितंबर हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है.तम्मं दफ्तर नाना आयोजनों से भर उठाते हैं-आज नहीं तो फिर नहीं की तरह.लेकिन सभी कार्यक्रम मनोरंजन प्रधान.किसी ने छाम्मक्छ्ल्लो से एक बार कहा था कि विचार अन्ग्रेज़ी में और मनोरंजन हिंदी में अच्छे लगते हैं, जैसे गाली वजनदार हिंदी में ही लगती है.इन आयोजनों से हिंदी का कितना भला होता है, यह तो नहीं पता, मगर सभी को अपनी पीठ थपथपाने का मौका मिल जाता है कि हिंदी के नाम पर हमने ये किया, वो किया।
छाम्मक्छ्ल्लो यह खबर पढकर अचरज में भर गई कि ब्रिटेन के प्रधान मंत्री गोल्डन ब्राउन उन्हीं को काम के लिए अपने यहाँ आने देंगे, जिन्हें अन्ग्रेज़ी का घ्यान है. छाम्मक्छ्ल्लो कहिस कि अपने देसी भाई तो इस न्यूज से बडे खुश हैं। अब वे तमाम हिंदी या एनी भारतीय भाषाओं के प्रेमियों को टाल थोक कर कह सकेंगे कि देखा लो, अगर अभी भी भविष्य सुधारना चाहते हो तो अपनी भाषा का चक्कर-वक्कर छोडो.कितना अच्छा फैसला ब्रिटेन के प्रधान मंत्री ने लिया है।
छाम्मक्छ्ल्लो सोच रही है कि आज जब अन्ग्रेज़ी अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपना दर्ज़ा हासिल कर चुकी है और दिन प्रतिदिन इसका उपयोग बढ़ ही रहा है, ऐसे में अपनी भाषा के प्रति चिंता क्यों? असल में यह चिंता केवल भाषा की नहीं, बल्कि अपनी संस्कृति की है.प्रध्हन मंत्री कहते हैं कि यहाँ आ कर काम करनेवालों को अँगरेज़ी का ज्ञान उन्हें हमारे संस्कारों और संस्कृति से जोडेगा.दूसरे हिस्से से आये लोग हमारी साझा राष्ट्रीय संस्कृति का हिस्सा बनेंगे।
छाम्मक्छ्ल्लो इस बात से प्रसन्न है. छाम्मक्छ्ल्लो कहिस कि अपने देश में भी अब ऐसा होगा.हम तभी आगे बध्हते हैं, जब हम किसी को आगे बढ़ता देखते हैं.भारत को योग अमरीका से आकर योगा बन जाता है तो आदरनीय हो जाता है.फिर भी वह आभिजात्य वर्ग तक ही रह पाटा है.वह तो गनीमत है बाबा रामदेव का कि उनहोंने इसे आम जन तक पहुंचा दिया.गोल्डन ब्राउन की तरह क्या हमारा देश यह सोचेगा कि अपनी भाषा की उन्नति से अपने संस्कार की उन्नति होती है, अपने मूल्यों की रक्षा होती है,अपना आत्मबल बढ़ता है. छाम्मक्छ्ल्लो किसी भी भाषा के खिलाफ नहीं।.वह बस अपनी भाषा की उन्नति चाहती है और चाहती है कि अंग्रेजीदां देश जब अपनी भाषा के माध्यामसे अपनी संस्कृति की बात करते हैं तो क्या हम नहीं कर सकते? आखिर कबतक हम अपनी ही हर चीज़ को ओछी नज़रोंसे देखते रहेंगे. छाम्मक्छ्ल्लो कहिस कि अब समय आ गया है भारतेंदु हरिश्चन्द्र के सपने को साकार कराने का कि
निज भाषा उन्नति अहई, सब उन्नति को मूल
बिनु निज भाषा घ्यान के, मितात न हिय को सूल.
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