विभा जी! अक्षय जैन का आपके प्रोग्राम में आने का मतलब समझती हैं? कम से कम डेढ़ हजार का खर्चा! वो बंदा
टैक्सी से आया-गया होगा। फिर आपके प्रोग्राम की फीस भी चुकाई होगी। कैसे वह इतना
खर्च करके आया होगा? ज़रूर कोई बात है।"
2017 में जब मैंने ओशिवरा के एक नए खुले
होटल में महाराष्ट्र दिवस के अवसर पर 'नमक' कार्यक्रम किया था, जिसमें महाराष्ट्र और मिथिला का संगम
था- मैथिली गीत और महाराष्ट्रीयन भोजन। तब अक्षय जैन भाई आए थे। पूरे प्रोग्राम में अपनी सदाबहार हंसी और
उत्फुल्लता से हमें और सभी उपस्थितों को सम्मोहित कराते रहे थे।
‘नमक’ के आयोजन
के लिए ही जब किसी और सज्जन से बात हो रही थी तो उनके ये उद्गार मुझे मिले। सज्जन
ने कहा, "ज़रूर कोई बात है। मतलब, एक मारवाड़ी बच्चा, एक एक छदाम के लिए इतना कैलकुलेटिव
होता है, वह इतने पैसे खर्च कर गया?"
मैं भी सहमत हूँ उनसे कि ‘ज़रूर कोई
बात है!’ इस ‘बात’ के लिए मुझे 30 साल पहले जाना होगा, जब मैं मुम्बई आई थी। यहां की
साहित्यिक गोष्ठियों, बैठकों में जाने लगी थी, कभी कभार। वहीं मिले थे अक्षय भाई।
हंसता- खिलखिलाता चेहरा। व्यंग्य और कविताएं लिखते थे। समाज और साहित्य के विद्रूप
को समझते थे, इसलिए, चेहरे पर
हमेशा एक सरल मुस्कान छिटकी रहती थी। हंसते हुए
लोग मुझे सदा से पसन्द आते हैं, वे भी आ
गए। हम कभी कभार मिल जाते थे। दुआ सलाम हो जाती थी। बैठकों, गोष्ठियों की मार-कुटई से त्रस्त हो वे
बाहर जाते थे चाय पान की दुकान पर। हमलोग भी पहुंच जाते थे। नजरें मिलती थीं। वे
जोर से हंसते थे। हम भी हंस पड़ते थे। उस हंसी में ऐसा कुछ होता था कि हम सब बिना
कुछ कहे एक दूसरे की बात समझ जाते थे। तब लैंड लाइन का ज़माना था।
उसके बाद अरसा बीत गया। मोबाइल आ गया। डायरी में नम्बर और नाम लिखने की आदत
खत्म हो गई। मोबाइल में नम्बर सेव होने लगे। मोबाइल खराब होने के बाद नम्बर गायब
होने लगे। बहुत सारे नंबरों में अक्षय भाई का भी नम्बर गायब हो गया। एक दिन लैंड
लाइन से फोन आया- "अक्षय जैन बोल रहा हूँ।"
मैं खुशी से उछल पड़ी। "कहाँ थे इतने दिनों तक आप?"
"यहीं। मुलुंड में। ‘दाल रोटी’ पत्रिका निकाल रहा हूँ। तुम्हे भेजना
चाहता हूं। पता बताओ।"
फिर ढेर सारी बातें। मैने उनसे मोबाइल नंबर मांगा। वे हंस पड़े- "अरे
विभा, मुझे मोबाइल चलाना नहीं आता। इसे चलाऊं
या खुद को।" फिर उनकी वही सदाबहार हंसी। फोन पर हमारी बातचीत में हम आधे समय
हंसते ही थे। दो मिनट की बात कब आधे घंटे में बदल जाती थी, पता ही नहीं चलता था।
"तुम दाल रोटी के लिए लिखोगी।"
"जी।" इतना ही बोल पाई थी। कभी कभी
रचनाएं भेज भी देती थी। वे बड़े प्यार से छापते थे।
इस बीच हमारा अवितोको शुरू हो गया। वे बड़े उत्सुक थे- "अवितोको के
बारे में लिखकर भेजो। मैं छापूंगा। कोई सदाशय अगर इसको सपोर्ट करे तो तुम्हे काम करने में
सहूलियत होगी। तुम तो जानती हो मुझे। मेरे संपर्क में ऐसे ढेर सारे लोग हैं।"
मैंने अवितोको के बारे में लिखकर भेज दिया। छप भी गया। बाद में बोले- "इन
सालों, कमीनों को साहित्य और कला की कोई तमीज नहीं।
एक पूजा में लाखों खर्च कर देंगे, मंदिर
में लाखों का चंदा दे आएंगे, मगर
साहित्य के नाम पर दमड़ी भी न निकालेंगे। पर तुम अवितोको का अकाउंट नंबर भेजो। मैं
अपनी ओर से कुछ सहयोग करूंगा।" फिर उन्होंने एक चेक भेजा हजार रुपए का।
अवितोको तो ऐसे ही जन सहयोग से चलता है। उनकी यह राशि मेरे लिए पूरे साहित्य समाज
की ओर से मिला सहयोग था।
अवितोको के साहित्यिक, गैर
साहित्यिक प्रोग्राम हो रहे थे। हम तब जेलों में काम करने लगे थे। हमने कल्याण जेल
के लिए एक कवि सम्मेलन प्लान किया- "अक्षय भाई, जेल चलेंगे?"
तबतक मैं जेल में कार्यक्रम करने के लिए मशहूर हो चुकी थी। कई लोग वहां
जाने कई इच्छा प्रकट कर चुके थे। क्यों? क्योंकि
उन्होंने जेल और वहां रह रहे कैदी नही देखे थे। ऐसे लोगों को मैने हिंदी फिल्मों
के हवाले कर दिया था।
अक्षय भाई ने कहा- "विभा, मुझे
तुम्हारे काम इतने अच्छे लगते हैं कि तुम जेल क्या नरक में जाने को कहोगी तो वहां
भी चला जाऊंगा।"
मैंने उन्हें कवि सम्मेलन के संचालन की जिम्मेदारी दे दी। उस कवि सम्मेलन
में शहर के लगभग सभी नामचीन कवियों ने शिरकत की थी। जेल के बंदियों ने भी अपनी
कविताएं पढ़ीं। जेल अधीक्षक बेंद्रे जी इतने उत्साहित थे कि उन्होंने महिला बंदियों
को भी कविताएं पढ़ने के लिए शामिल किया। बाद में हमने अलग से केवल महिलाओं के लिए
महिला बैरक में एक और महिला कवि सम्मेलन किया।
अक्षय भाई का संचालन बेमिसाल रहा। बाद में वे बोले- "आज मैं खुद को
बहुत भरा भरा महसूस कर रहा हूँ। शायद 20-25 साल बाद
मैंने किसी कवि सम्मेलन में भाग लिया है और इसका संचालन किया है। उनकी नजरों में मेरे
लिए स्नेह, मेरे काम के प्रति विश्वास और होठों पर
वही मुस्कान।
2014 में अवितोको रूम थिएटर शुरू करने पर भी
उनकी जिज्ञासा बढ़ी। वे एक दो प्रोग्राम में फिर से मुलुंड से ओशिवरा आए। यह मैं
बार- बार इसलिए कह रही हूं कि मुलुंड से ओशिवरा की दूरी बहुत अधिक है। और इस उम्र
में हम बस ट्रेन से यात्रा करने से बचते हैं। टैक्सी से आने का मतलब एक अच्छी खासी
रकम खर्च करना। लोगों को फिर हैरानी होती थी- "एक मारवाड़ी कंजूस बच्चा! ऐसे
कैसे खर्च करता है!"
अवितोको रूम थिएटर की परिकल्पना से वे बहुत प्रभावित हुए। बोले- "मुलुंड
में करोगी? बहुत जगह मिल जाएगी।" मैंने कहा, “इसके लिए आपकी ही तरह मैं भी नरक तक
जाने के लिए तैयार हूं।“
फिर उन्होने बहुत कोशिश की। फिर वही परिणाम। इस बीच उनकी ‘दाल रोटी’ चलती रही। वे बोले- "यार!अब वही
काम करेंगे, जो हम खुद कर सकते हैं।“ और एक बार फिर
से एक सहयोग राशि आ गई।
इस बीच हमने अवितोको रूम थिएटर के बैनर से तीन दिनों का महिला एकल नाट्य
महोत्सव आयोजित किया, ओशिवरा, अंधेरी के
शाकुंतलम स्टूडियो में। हमने उनकी कुछ कविताएं ली थीं, जिनमे प्रमुख थी- लड़की। मैंने मुलुंड से
ओशिवरा की दूरी का ध्यान रखते हुए झिझकते हुए पूछा- "अक्षय भाई, आएंगे?" वे चहकते हुए बोले- "तुम्हारा प्रोग्राम
है। ज़रूर आऊंगा। मैंने तुम्हें उस दिन गाली गीत गाते हुए देखा। तुम्हारा अभिनय अभी
तक नही देख पाया हूँ। मुलुंडवाले तो सब नाकारे हैं। कोई कुछ नहीं कर रहा। कोई आगे नहीं
आ रहा। तुम यहाँ कर रही हो। तबियत ठीक नही रहती। इतनी दूर आने- जाने में कष्ट होता
है। फिर भी आऊंगा।"
वादे के मुताबिक आए। टिकट भी लिया। प्रस्तुति देखकर बोले-"मुझे अब लगा
कि मेरे इस कविता के इतने dimention हैं।"
इस बीच उन्होंने ‘दाल रोटी’ से मुझे बहुत जोडा। गाली गीत के बारे
में छापा, ताकि लोग इसके प्रोग्राम्स करवा सकें।
मेरे लिखे गीत छापे। ‘दाल रोटी’ के विशेषांक की दस प्रतियां मुझे
भेजीं। एक प्रति मेरे यहाँ से गईं। मैने कहा कि ‘अक्षय भाई, एक प्रति के पैसे मेरे पास हैं। वे
हंसते हुए बोले- "इसे अवितोको के लिए रख लो।"
कल अवितोको ग्रुप पर उनके जाने का समाचार आया। सबसे पहले धीरेंद्र अस्थाना
जी ने फोन किता। मैने देखा। उनके ही नंबर से मेसेज था। फिर भी दिल काँप गया। वे अस्वस्थ
चल रहे थे। मगर...! इधर उधर से पता करने की कोशिश की। लग रहा था कि कोई कह दे, फेक न्यूज है। आज उनके बेटे छवि से बात
हुई। उन्होंने खबर की पुष्टि की और मैं फूट पड़ी।
मुम्बई के लोग उन्हें यारबाश के रूप में जानते हैं। मैं उन्हें अपने बड़े
भाई के रूप में देखती जानती, मानती थी।
अपने घर से पैसे लगाकर ‘दाल रोटी’ निकालना, मेरे प्रोग्राम्स में इतनी दूर से चलकर
आना, अवितोको के प्रति गहरा विश्वास और
हमारे कामों के लिए मन में गहरा सम्मान- यह किसी कंजूस मारवाड़ी बच्चे का काम नही
हो सकता अक्षय भाई! न तन-मन से, न धन से। मुंबईकरों के लिए वे हंसी का बहुत बड़ा खालीपन छोड़ गए हैं। जाइए, वहाँ भी सभी तर्स्ट होनेग। अपनी सदाबहार हंसी से सभी को मोहिए।
2 comments:
अक्षय भाई के प्रति आप की यह सहृदयता पढ़ कर मन भीग गया। उनकी हंसी याद कर आज रोने का दिल कर रहा है। सारा शरीर अवसाद से भर उठा है। कुछ कहते नहीं बन रहा है। देखते देखते एक सहयात्री
बस स्मृति का हिस्सा हो गया....।
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 09/04/2019 की बुलेटिन, " लड़ाई - झगड़े के देसी तौर तरीक़े - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
Post a Comment