परिकथा पत्रिका के जनवरी-फरवरी, 2019 के अंक में प्रकाशित कहानी "चेन पुलर "। आप सबके लिए।
आपकी राय जाकर अच्छा लगेगा।
आपकी राय जाकर अच्छा लगेगा।
चेन पुलर
-विभा रानी
"ऐ बापी! की
कोरचिस? चोलो। शाम हो
गिया है। काका राग कोरेंगे।"
बापी
की तन्द्रा टूटी। ट्रेन यार्ड में चली गयी थी। शाम का अन्धेरा घर-घर में दिया-बाती
बनकर टिमटिमाने लगा था। इस टिमटिमाहट में माँ के प्यार की मूढ़ी-लाई और भूंजा पेट
में चूहे की तरह और मुंह में लेमनचूस की तरह कुट-कुट करते रहते। मगर बाबा के हजार
वाटवाले गुस्से के आगे वह रसोईघर में लगे धुएं से काले पड गए मरियल जीरो पावर का
बल्ब होता चला जाता। थोड़ी ललछौंही शाम तक तो फुटबॉल खेलने का बहाना बनाया जा सकता
था- फुटबॉल को बाबा की सबसे कमजोर नस को जान-पकड़कर। मोहनबागान बाबा की आन, बान, शान और जान है।
कितने लोगों से उनकी मार पीट हो चुकी है मोहनबागान के पीछे। गालागाली तो आलू की
तरह आम है।
एकदम
भोद्रो बंगाली परिवार है बापी का। माँ विशुद्ध बंगाली। तांत की साड़ी, शाखा पोला, भुवन मोहिनी
सिन्दूर और उसी का बड़ा सा लाल टीका। यह उनके पूरे व्यक्तित्व को दुर्गा पूजा में पंडाल
पर दुर्गा और लक्ष्मी के साथ-साथ बिठाई गई सरस्वती जैसा भव्य बनाता। एकदम शांत
स्वर में मेही- मेही बोलना। नियम से सारे व्रत- त्यौहार करना। साल में एक बार गंगा
सागर नहाने जाना। रोज दिन बाबा की फरमाइश के मुताबिक़ आज चिंगड़ी, कल रोहू, परसो भेटकी माछ
पकाना। चीतल जिस दिन मिल गया, उस दिन माँ का भी चेहरा चमक जाता। गीली लकड़ी के धुंए के बीच भी माँ
रोबिन्द्रो संगीत गाती माछ तलती रहती।
बापी
गोल-मटोल गब्दु बालक थे। माँ जैसे ही शांत और माँ जैसा ही उनके मन में न दिखनेवाला
कुछ खौलता रहता। उसी के भीतर बापी के मन में छोटी छोटी इच्छाओं के कमल खिलते रहते-
शुभ्रो कमल, रक्तो कमल। वह इच्छाओं के तालाब में छोटी-छोटी छोटी डुबकी लगाते रहते-
उभूक-चुभूक- डुप्प....!
माँ
आवाज देती- "ऐ बापी। हिलिश माछ रान्ना कोरे छी तोमार जन्नो।"
बापी
हाथ-मुंह से माछ खाते रहते और दिमाग में उनके रेल चलती रहती। रेल की छुक- छुक हर
साल गर्मी में उन्हें मिलती- गर्मी छुट्टी में मामा गाम जाने के समय। पूरे माल
असबाब के साथ माँ और बापी मामा गाँव जाते। गांव के पोखरे में बापी चुभुक् चुभुक्
नहाते। बंसी से मछली फंसाते। आम, कटहल, लीची के भोग
लगाते। बाबा के कड़े अनुशासन के बीच गर्मी छुट्टी की यह आज़ादी बापी को कड़ी धूप के
बाद आषाढ़ के बादल और फ़ूनही की तरह लगती।
इन
सबके बीच बापी एक काम और करते- नियम से, रोजाना। बापी रोज स्टेशन जाते। जो ट्रेन वहां से चलनेवाली होती, उसमे बैठ जाते ।
ट्रेन को एक छोर से दूसरे छोर तक निहारते। डब्बे के कई कई चक्कर काटते। फिर एक जगह
अपनी नज़र गड़ा देते।
वह
जगह थी - ट्रेन की जंजीर। जंजीर का लाल हत्था और उसमे फंसी चेन और उसके नीचे लगे
निर्देश- ये सब पीसी सरकार की जादू की तरह बापी को किसी सम्मोहक लोक में ले जाते।
गर्मी
की गरम, लपलपाती लू की
तरह बापी की दिल में ख्वाहिश की गरम हवा दहकती रहती और बापी उसमें बुखार तपे मरीज
की मानिंद जलते रहते। ख्वाहिश की यह लौ थी - चेन पुल करने की। जब वह मामा गाँव जाते
और लौटते, उन्हें अचानक
कभी कभी ट्रेन रुकती दिखती। ट्रेन रुकती। लोग बाग़ नीचे उतरते। एक दूसरे से ट्रेन
के रुकने की वजह पूछते और ट्रेन में फिर यह खबर महिलाओं- बच्चों, बूढ़ों, बीमारों तक
पहुँच जाती- “चेन पुल कर दिया है कौनो। ....कोई जंजीर खींच दिया है।“ लोग खीझते- "अब घुस गए हैं न
बिहार में। अब जगह-जगह चेन खिंचाता रहेगा। लोग तो अपना घर जेन्ने देखते हैं, वहीं पर खींच देते
हैं । बस चलता तो घर के आगे तक ले जाते ट्रेन! इस्टेसन तक जाने का सबर कौन करे।"
"माँ! चेन कैसे
खींचते हैं?" बापी साध की असीमित तार में हिचक और भय की अनेकानेक गांठ लगाए माँ से
पूछता रहता।
"आरे! ऊ लाल
हैंडल लागा है ना! उसी को खींचते हैं। उसका नाता इंजिन से लागा रहता है। हर डिब्बे
का सिग्नल ड्राईवर के पास रहता है। इससे उसको पता चल जाता है कि किस बॉगी से चेन
पुल हुआ है।"
"ड्राईवर को यह
भी पता चल जाता है कि चेन किसने खींचा?"
"नहीं रे। ई उसको
कैसे पाता चलेगा? तू भी ना। एकदोम बोका तुमि तो...!" माँ स्नेह से उसका माथा चूम लेती।
बापी
सोचते रहते " तो ड्राईवर को पता नहीं चलेगा। वह आधी रात में चेन खींचेगा। सभी सोये
रहेंगे। चेन खींचकर वह भी झट से चादर ओढ़ कर सो जाएगा। ड्राईवर आएगा। इधर-उधर
देखेगा। पूछ-ताछ करेगा। वह तो सोया रहेगा। वैसे भी वह तो अभी बच्चा हैं। उनपर किसी
को कोई संदेह भी नहीं होगा। वे चेन पुल करने की अपानी साध भी पूरी कर लेंगे और
किसी को पता भी नहीं चलेगा।"
ट्रेन
छुकछुकाती, सीटी बजाती भागती रहती। दिन भर के भागते खेत, जानवर, आम- इमली के पेड़, पुल आदि पार
होते-होते रात के अंधेरे में गुम हो जाते। अब जहां कहीं बस्ती होती, वहाँ जल रहे
बल्ब या दिया, लालटेन की टिम-टिम दिखती और फिर सबकुछ अंधेरे में डूब जाता। सोने के
उपक्रम से पहले पेट-पूजा का उपक्रम होता। यात्रीगण ट्रेन में एक परिवार हो जाते।
अपने-अपने घर का पूरी-पराठा निकालते। खाते, खिलाते। तब ऐसा अविश्वास नहीं जगा
था। फिर सब अपनी-अपनी चादर बिछाते- ओढ़ते सो जाते। ट्रेन चलती रहती, यात्री झूलते
हुए सोते रहते। धीरे धीरे डब्बे में खामोशी छा जाती। किसी किसी यात्री की नाक उस
खामोशी को तोड़ती रहती। मगर बापी पूरी रात जागते रहते ।
जब उन्हें
लगता कि अब तो साँप भी रेंगकर नहीं आएगा, तब बापी सांप की तरह रेंगते हुए चेन तक पहुंचते। अरे! अभी तो उसके
हाथ बहुत ही छोटे हैं। चेन का हैंडल तो बहुत ऊपर है।
बापी
को ख्याल आया, अभी तो वे दूसरी ही कक्षा में गए हैं। माने 6 या 7 साल के हुए। माँ भी उन्हें गोदी में
बिठाकर चूमती रहती है। दादा को नहीं चूमती माँ अब। कहती है- "वह अब बड़ा हो
गिया है।"
भोद्रो
बांगाली समाज का दवाब माँ और बाबा दोनों पर था। बच्चे कितना पढ़ेंगे, क्या पढ़ेंगे,यह सब बाबा तय
करते, बल्कि समाज तय
करता।
लेकिन
ट्रेन रोकने का? चेन पुल करने का?
बापी
के सपने में ट्रेन हरहराती हुई निकल जाती। ट्रेन का काला इंजन और उससे छूटता
क्विंटल क्विंटल धुआँ! बापी ज़िद करके खिड़कीवाली सीट पर बैठते। इंजन का धुंआ और
कोयले की किर्च से उसका गोरा धप धप चेहरा करिया जाता। चेहरे पर हाथ फिराते तो हाथ
में चलती ट्रेन से उड़ते कोयले की किरच भर जाती। हथेली काली हो जाती। गोद में कोयले
के कण भर जाते। माँ डाँटती- "बापी! ऐई दिके बोशो। एकदम नुंगड़ा हो गिया है।"
बापी
को माँ की हर बात सुनाई देती। लेकिन यह नहीं। बड़ा भाई तब छोटा था। मगर था तो बच्चा
ही। वह भी खिड़कीवाली सीट पर बैठने को ठुनकता रहता। लेकिन बापी खिड़कीवाली सीट तभी
छोड़ते, जब शाम गहरा
जाती और आस पास कुछ भी दिखना बंद हो जाता।
बाबा
के डर से बापी कभी भी अपने यहाँ के स्टेशन पर नहीं जाते। मगर मामा गाँव के स्टेशन
पर नियम से। बोस बाबू डॉक्टर का भांजा है वह। सभी उसे पहचनाते। प्लेटफॉर्म पर झाल
मुड़ी से लेकर खीरा नारंगी बेचनेवाले सभी उसे प्यार करते। स्टेशन मास्टर भी उसे
पहचान गए थे। ट्रेन के ड्राईवर और टीसी भी।
बापी
का मन करता कि वे उन सबसे ही कहे कि वह चेन खींचना चाहता है। देखना चाहता है कि
चेन खिंचने से गाडी कैसे रुकती है? ट्रेन रुकने के बाद क्या होता है? हालाँकि इसका अनुभव उसे मिला हुआ है, लेकिन उसे वह
अपने से जीना चाहता है- खुद चेन खींचकर ट्रेन रोकना।
"तो खींच ना
बापी। कौन तुमको रोकता है? एक तो तू ठहरा बच्चा। उसपर से बोस बाबू डॉक्टर का भांजा। खींच भी देगा
तो भी कोई तुमको कुछ नहीं बोलेगा। या तो बच्चा कहकर टाल जायेंगे या बोस बाबू
डॉक्टर के भांजे के नाते बच निकलोगे। ज्यादा से ज्यादा बोस बाबू अपनी बहन को
बोलेंगे और बहन यानी बापी की माँ उसे डांटेगी। बाबा से बोलने की हिम्मत वो भी नहीं
करेंगी, क्योंकि तब माँ
का मामा घर जाना बंद हो जाएगा।"
"चल बापी, चल। रोक ले।
...."
मगर
यह नहीं हो सका। बापी के हाथ उम्र के साथ-साथ बढ़ते गए और अब उन हाथों में संगीत के
साज आ गए। ढोल, मृदंग, तबला, की-बोर्ड। अब वे रोज नई धुन बनाते। नए साज एक्सप्लोर करते। उनका अपना
स्टूडियो हो गया है। उनका अपना ग्रुप बन गया है। बीस पचीस लोग उनकी टीम में काम
करते हैं।
मगर
ट्रेन अभी भी बापी के कानों में छुक छुक बजती है। उसकी सीटी से बापी अभी भी किसी
जंगल की आग में खो जाते हैं। उनके मन में इच्छा की कामना अभी भी जल रही है- ट्रेन
का चेन पुल करने की इच्छा।
बापी
सपने में देखते हैं- नन्हे नन्हे उनके हाथ चेन की ओर बढ़ते हैं। वे हैंडल पकड़ते
हैं। उसे खींचने की कोशिश करते हैं।
"माँ! चेन खींचने
में बहुत मेहनत लगती है?"
"हां। इत्ती बड़ी
ट्रेन रोकने में मेहनत तो लगेगी ही।"
"तो उसको बिजली
से क्यों नहीं जोड़ देते? हैंडल ऑन, ट्रेन रुक गयी। ऑफ़ तो ट्रेन चल पडी।"
"पागोल तुमि तो।" माँ दुलार से
उसका माथा सहला देती।
बापी
के मन में चेन खींचने की इच्छा जोर मारती जा रही थी। वे कई बार यार्ड में भी चले गए। सभी ट्रेन में घूम आए। सभी बॉगी में बैठ बैठ
कर लौट आए। वे हर ट्रेन में बैठते। चेन को निहारते। अपने दोनों हाथ बढ़ाते। तय कर
लेते कि अब तो वे चेन पुल कर ही देंगे। चेन तक उनके हाथ पहुंचते- नन्हें से बड़े
होते हाथ! अब तो बालपनवाली बुद्धि भी नहीं है। बड़े, जिम्मेदार, समझदार और पता नहीं, क्या-क्या हो गए
हैं। मगर चेन खींचने की हिरिस अभी तक नहीं गई है।
.....आज
तो बापी ने तय कर लिया है। मन को वे समझा भी रहे हैं- ट्रेन यार्ड में है। रुकी
हुई ट्रेन है। चेन खींचने से किसी का नुकसान थोड़े न होगा। ...लेकिन, चेन तक हाथ जाते-
जाते बापी पसीने से भीग जाते। हाथ थरथराने लगते। कलेजा धौंकनी की तरह धक् धक् करने
लगता। गोरा चेहरा बुखार की तरह तपने लगता। आँखें लाल हो जातीं। गला सूख जाता।
माँ
ने बताया था, बिना वजह चेन खींचना अपराध है। पुलिस आती है। खींचनेवाले को पकड़कर ले
जाती है। उसे जुर्माना भरना होता है। जुर्माना और दंडनीय अपराध की बात तो वह
चेन के नीचे लिखे निर्देश में पढ़ चुके हैं। हर बार पढ़ते हैं। अब तो उन्हें सारे निर्देश
कंठस्थ भी हो गए हैं।
लेकिन, यार्ड में या
स्टेशन पर खड़ी ट्रेन की चेन खींचने से तो यह अपराध नहीं कहलाएगा न!"
बापी अपने मन को समझाते। दूसरे दिन वह पूरे जोर
शोर से चेन खींचने की योजना बनाते- “आज! बस आज! आज तो मामला इस पार या उस पार!
"बापी! किसी ने
देख लिया तो?" मामा जी की कितनी भद्द मचेगी। और बाबा तो अगले साल से तुमलोगों को आने
ही नहीं देंगे।"
"लेकिन इससे किसी
का नुकसान थोड़े ही होनेवाला है?"
"होगा। तुम्हारे
भद्र समाज का।"
बापी
के बढे हाथ पीछे हो जाते। उनका परिवार भद्र बंगाली परिवार माना जाता है। बंगाली
समाज ही भद्र माना जाता रहा है- आम तौर पर। ऐसे में...उसके काम से उसके परिवार और
समाज की मर्यादा भंग हो जाएगी। बाबा का गुस्सा किस आसमान पर जाकर कौन सी बिजली या
बादल गिराएगा, यह बापी को पता तो नहीं था, मगर आशंका ज़रूर थी।
लेकिन
बापी क्या करे! चेन खींचने की अदम्य लालसा की डोरी अब मजबूत रस्सी बनकर उसके मन
में गाँठ पर गाँठ बनाती जा रही थी।
मधुबनी, दरभंगा, पटना करते हुए
बापी मुम्बई आ गए हैं। मगर बचपन की हिरिस अभी तक मन के जंगल में एक कोना बनाकर बैठी
हुई है। मुम्बई का शहरी जंगल उन्हें जब-तब आतंकित करता है और वे उससे निजात पाने
बार बार घर भाग जाते है- टिकट है या नहीं, इसकी परवाह किये बगैर! कई बार जनरल
डिब्बे में बैठे हैं। पुलिसवालों का डंडा खाते- खाते बचे हैं। शायद चेहरे पर पसरी बंगाली
भद्रता और पुलिस को देखते ही एक भय के चेहरे पर रेंग जाने के कारण । पुलिस चली
जाती। उनके चेहरे जा भय दूर हो जाता। मगर भद्रता कायम रहती। इस भद्रता में उन्हें
जगह भी मिल जाती और अन्य यात्रियों की गठरियों के पूरी- पराठे भी। घर पहुँचने पर
माँ की गोद और हिलिस माछ रस्ते के उनके सारे कष्ट भुला देते। माँ का रोबीन्द्रो
संगीत अब भी चलता रहता। पीसी का बाउल गान अब भी बापी के कंठ में जागता और कानों
में मिष्टि दोई की तरह घुलता रहता।
मगर
मन का यह कष्ट अभी तक बापी को मथे हुए था- चार से चौवालीस की उम्र की यात्रा पार
कर आए और अभी तक एक छोटी सी इच्छा पूरी नहीं कर पाए हैं- ट्रेन की चेन खींचने की
इच्छा। उन्हें विद्यापति की लाइन भी याद हो आती- “कखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथ...!"
कम
पैसे हों या ज्यादा दूर जाना हो, मुम्बई की लोकल से बेहतर और कोई सवारी नहीं। बापी मीटिंग के लिए
चर्चगेट जाते। लौटते में ट्रेन में बैठते। बैठते ही नज़र चेन पर जाती और बचपन से मन
में पोसाती साध सांप की तरह फन उठाने लगती। बापी समय देखते। अभी डेढ़ मिनट है ट्रेन
खुलने में- "क्यों न एक बार चेन पुल कर ही दिया जाए!"
लेकिन, घर जाने को
बेताब लोकल के दरवाजे के बाहर तक झूलते- लटकते यात्रीगण! उसे खा नही जाएंगे? बापी! जान की
सलामती चाहता है कि नहीं?"
"अंधेरीवाले में।
अंधेरी लोकल तो यहीं टर्मिनेट होती है।"
लेकिन, ट्रेन रुकते ही
सारे यात्री बंधे हुए सुअरबाड़े में से निकलते हैं और फिर प्लेटफॉर्म पर पसर जाते
हैं। अगली यात्रा के लिए तैयार यात्री किसी शिकारी की तरह लपकते हैं सीट पाने के
लिए। बापी इस धक्का-मुक्की से बचते हुए दरवाजे की दीवार से एकदम सटकर खड़े हो जाते
हैं- पूरी देह सिकोड़ कर और पेट पिचकाकर, ताकि यात्रियों का रेला दूध के धार की तरह अजस्र बहे और अपनी-अपनी
जगह जाकर स्थिर हो जाए।
ऐसे
में बापी अगर ट्रेन में ही बैठे रहे तो लोगों को शक नहीं होगा? पुलिस तो ऐसे ही सूँघती रहती है। अब पहलेवाला ज़माना थोड़े न रहा है।
आतंकवादी अब आतंकवादी है या नहीं, यह तो किसी को नहीं पता, मगर हर कोई आतंकवादी है, अगर तनिक भी ऐसी-वैसी हरकत हुई तो! पुलिसवालों की आँखें तो कहते हैं, समंदर की सात
परत तक बेध लेती है। ऐसे में उनके मन की भाँपकर अगर उसने कुछ पूछ ही दिया। चलो, बैठे हुए में
नहीं पूछे। पुलिस को देखते ही वह आँखे मूँद ले। पुलिस को लगेगा कि वह सो रहा है।
ट्रेन रुक गयी और उसे अभी तक पता ही नहीं चला। पुलिस उसे उठाकर चली जाएगी।
पुलिस
के जाते ही वे फिर से आँखें खोलेंगे। चौकन्नी नजरों से एकाध बार इधर उधर देखेंगे और तपाक से चेन पकड़ कर खींच देंगे। अब वह बच्चा
तो है नहीं कि उनके हाथों में ताकत नहीं। पूरे मर्द हैं मर्द। ताकतवर मर्द। अब तो उनकी हथेली
का भी जोरदार थप्पड़ किसी को पड़ सकता है। मजबूत कलाई के मालिक हैं वे।
लेकिन
अगर पुलिस इसी समय लौट आई तो? तनिक दयालु हो गया तो? सोचा हो कि यह पैसेंजर कहीं ट्रेन के साथ यार्ड या वापस चर्चगेट या
सीएसटी न पहुँच जाए। ...या वह चेन पुल कर रहा होगा और पुलिस अपनी भलमनसाहत में उधर
आ जाए और उसे चेन खींचते देख ले!..... या पुलिस को कोई शक ही हो जाए और उसी शक में
वह आधे गश्त से ही लौटकर आए और उसे चेन खींचते देख ले! क्या वह उसकी बचपन की इस
इच्छा और उसकी पूर्ति की इस कथा पर विश्वास करेगी? फिर तो पुलिस की गाली, उसकी सवालिया और
शक भरी नज़र? ऐसे में किसी परिचित ने देख लिया तो?
बापी
फिर से पसीने पसीने हो उठे। कलेजा धौंकनी की तरह धक् धक् करने लगा। चेहरा डर और
शर्म के मिले जुले भाव से लाल हो उठा।
उफ्फ्फ!
माँ- बाप की शिक्षा कभी कभी कैसे रस्ते में रोड़े अटकाती है! उनका भद्र मानुस होना!
उनका भद्र समाज का होना! इस भद्रपन की दुनिया में उनकी ऐसी छोटी- छोटी इच्छाओं की
दुनिया क्यों नहीं है! कोई ऐसा अपराध तो नहीं करने जा रहे वे? किसी रुकी हुई
ट्रेन का चेन ही तो खींचना चाह रहे हैं। चेन की हैंडल की मोटाई महसूस करना चाह रहे
हैं। चेन खींचने में कितना बल लगता है, यह समझना चाह रहे हैं। लेकिन वे और उनके समाज का यह आरोपित भद्रपन।
आज
बारिश हो रही है। लगातार। मुम्बई की बारिश। झमाझम बारिश। यातायात ठप्प सा। जाम से सड़क का बुरा हाल! देर रात तक मीटिंग चली
है आज बापी की। अब ट्रेन मिली है तो अंधेरी तक तो पहुँच ही जाएंगे। बापी चर्चगेट
पहुंचे। 1.20
की
लास्ट लोकल छूटने ही जा रही थी। बापी भागे। लोकल ट्रेन तो दूसरे पहिये से ही स्पीड
पकड़ लेती है। यह ट्रेन छूटी तो....!
बापी
दौड़े और चढ़ गए। भीगा बदन और दौड़ने से चढी सांस! जब थोड़े खुद में आए तो अपना आसपास
देखा और देखकर सन्न रह गए। वे तो "24 तास फ़क्त
स्त्रियां साठी" यानी 24 घंटे केवल महिलाओं के लिए आरक्षित डब्बे में चढ़ गए थे। बारिश की मारी
कुछ महिलाएं उस डिब्बे में थीं और बापी को देख पहले सब सहमी और अब चीख पुकार मचा
रही थीं। चर्चगेट पार हो चुका था और अब ट्रेन मरीन लाइन्स छोड़ने जा रही थी। बापी
ने सोचा, बस, ट्रेन के रुकते
ही झट से इस डब्बे से उतरकर वे बगल के पुरुषवाले डब्बे में चढ़ जाएंगे, ताकि इनकी कांय
कांय से बाज आएं। ... तनिक भी नहीं समझतीं ये औरतें!
“मैं
कोई टपोरी हूँ या आवारा? एक भद्र बंगाली पुरुष हूँ। इसीलिए, वरना अभी तक तो...” और बापी के सामने
फिर से ट्रेन का चेन और हैंडल घूम गए।
इसके
साथ ही घूम गया बापी का माथा। डब्बा औरतों की चीख से भर गया था। ट्रेन के ऐन छूटने
से पहले एक औरत भागती- भागती ट्रेन में सवार हुई। वह तो चढ़ गई। उसके साथ एक और थी-
उसकी ही हम-उम्र! वह चढ़ नहीं सकी। एक पैर उसने ट्रेन में रखा था। ट्रेन चल पडी। वह
समझ नहीं पा रही थी कि ट्रेन में चढ़े कैसे या ट्रेन में रखा पैर उतारे कैसे? उसके साथवाली
औरत चिल्लाने लगी। उसकी देखादेखी बाकी औरतें भी। बापी का ध्यान उधर गया। उन्होने फुर्ती
से औरत को ऊपर खींच लिया। मारे घबड़ाहट के वह औरत रोने लगी। बापी को और कुछ भी समझ
में नहीं आया। उन्होने आव देखा न ताव, झट से चेन का हैंडल पकड़ लिया और पूरी ताकत से उस पर झूल गए। स्पीड
पकड़ती ट्रेन धीरे धीरे रुक गई। इसके पहले कि मोटरमैन आता या ये औरतें कुछ बयान
करतीं, बापी महिला
डिब्बे से उतरकर जनरल डब्बे में समा चुके थे। ####
2 comments:
बहुत सुंदर कहानी। मजा आ गया।
good post
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techten
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