मुझे भारतीय संस्कृति से बड़ा गहरा प्रेम है। रामायण से तो और भी। आखिर को, सीता हमारे
प्रदेश मिथिला से थीं। सीता हमारी बेटी थीं और बेटी हो या बेटा, समय के अनुसार सभी की उम्र बढ़ती ही है। उम्र हो जाती है तो ब्याह की चिंता
भी हमारी भारतीय संस्कृति का अमिट हिस्सा है। लिहाजा, सीता की
बढ़ती उम्र ने राजा जनक को भी चिंता से सराबोर कर दिया-
“जिनका घरे आहो रामा, बेटी होय
कुमारी,
सेहो कैसे सुतले निचिंत!”
सो नींद राजा जनक की भी गुम हो गई। माता सुनयना की भी हुई ही होगी। स्त्रियॉं को
तो ठोक-पीटकर उन सभी तरह की चिंताओं के लिए जिम्मेदार बना दिया जाता है, जिससे उनकी
छवि प्रतिकूल हो तो हो, औरों की अनुकूल बनी रहे।
सीता ने न जाने कैसे धनुष उठा लिया और राजा जनक को एक बहाना मिल गया- सीता से बेहतर
वर खोजने का। आखिर, वधू कैसे वर से श्रेष्ठ हो सकती है! हुई तो भी उसे अपनी श्रेष्ठता
छुपानी या मारनी पड़ती है। राजा जनक से शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा और माता सुनयना से
घर-गृहस्थी की शिक्षा लेकर भी सीता राम से बड़ी नहीं हो सकती। इसलिए, अब तो वर वो हो, जो धनुष नहीं उठाए, बल्कि धनुष तोड़े।
विश्वामित्र जी भी राम को लेकर पहुँच गए। राम भाई के संग घूमते-घामते सीता वाटिका
भी पहुँच गए। अब, ये न पूछिएगा कि लड़कियों के बाग में लड़कों का क्या काम! वे भगवान
हैं। कोई रोमियो या मजनू या राँझा नहीं। वहाँ दोनों के नैन से नैन मिले, दिल धड़के, होठों पर मुस्कान आई, मन में कोमल भावना ने जन्म लिया और सलज्ज रेख दोनों के चेहरे पर खींच गई।
यह तो बहुत ही स्वाभाविक है भाई। कुछ भी अच्छा लगने पर दिल में खुशी और चेहरे पर मुस्कान
आती ही है।
मिथिला में राम –सीता के ब्याह से बढ़कर दूसरा ब्याह कोई नहीं। और सीता वाटिका में
राम –सीता का मिलन प्रेम का पहला पुष्प तो नहीं था न-
“ये मेरे पहले प्यार की खुशबू....!”
मन्नत मनाने की भी परंपरा हम यहीं से मान लें? गोसाई जी मानस में
लिख भी गए हैं कि वाटिका में राम के दर्शन के बाद सीता जी गौरी पूजने जाती हैं। सीता
जी मन्नत मानती हैं कि ये ही मुझे पति के रूप में मिलें और गौरी जी प्रकट होकर कहती
हैं-
“सुनू सिय सत्य असीस हमारी, पूजही मन-कामना
तुम्हारी!”
कामना फलीभूत हुई और यही कामना मय-सूद सोलह सोमवार के रूप में फलीभूत हुआ। हर सीता
को राम जैसा पति चाहिए, इसलिए, सोलह सोमवार, सोलह शुक्रवार, महाशिवरात्रि आदि सब उसे ही करने चाहिए।
मगर हर राम को? शायद कोई भी चलेगी? नहीं, नहीं! कोई भी नही चलेगी। जो चलेगी, वह उनकी पसंद की
होनी चाहिए और उसके लिए उन्हें सोलह सोमवार, सोलह शुक्रवार, महाशिवरात्रि आदि करने की कोई ज़रूरत नहीं।
तो भैया! प्रेम की परिभाषा यहीं से गढ़ी गई। अब वाटिका में मिले राम को कोई लैला-मजनू, सीरी-फरहाद
या रोमियो-जूलियट कहने लगे तो अपन को दोष मत दीजिएगा। वैसे भी राम और रोमियो नाम में उतना ही साम्य है, जितना लोग हनुमान और हैनिमन में मानते हैं। मुझे अपने मिथक और इतिहास का
ज्ञान नहीं है- इसलिए कालीदास जैसे “शेक्सपियर ऑफ संस्कृत” कहलाते हैं, वैसे ही मेरे लिए ये दोनों लैला-मजनू, सीरी-फरहाद या
रोमियो-जूलियट! अपने को तो प्रेम की दुनिया में फैलाव दिखाई दे रहा है। राम और सीता
हमारे आदर्श हैं और हम उन्हीं के आदर्शों का पालन करेंगे। उन्होने प्रेम किया, हम भी करेंगे। शादी से पहले नजरें- दो-चार हुईं, हम
भी करेंगे। शादी के लिए मन्नत मांगी, हम भी मांगेंगे। शादी के
लिए स्वयंवर हुआ, हम भी स्वयंवर करेंगे। हम अपनी महान भारतीय
संस्कृति की परंपरा के अनुसार ही कर रहे हैं। इसलिए, विश्व और
देश के समस्त गुरु, योगी, भोगी! हमें आशीर्वाद
दीजिये कि प्रेम के इस पाठ में हम भी सफल हों! बाद में भले राम को सीता का त्याग करना
पड़े या सीता को धरती में समाना पड़े। लेकिन अभी तो हम प्रेम के सागर में गोता लगाने
जा रहे हैं। गोता लगाने दीजिये-
“मेरे पिय में साईं बसत
हैं, हिय में बसत है सपना
जाए
छूट जो घर, मात-पितु, छूटे ना प्रेम का गहना!”
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