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Sunday, July 10, 2016

एते पे सुलतान है....!


चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण
एते पे सुलतान है, मत चूको चौहान।
पृथ्वीराज चौहान के लिए यह कहा गया था। आज फ़िल्म सुलतान के लिए कहा जा सकता है। यह चार बांस चौबीस गज और आठ अंगुल का एक निशाना था, एक लक्ष्य। जीवन में हम कुछ भी नहीं, अगर लक्ष्य ना हो तो।और यह लक्ष्य निज का निज से होता है, तभी हम अपनी ही  खींची लकीर को तोड़ते ,भेदते आगे बढ़ाते जाते हैं। लेकिन लक्ष्य जब एकांगी हो तो वह चार बांस चौबीस गज से हटकर आठ अंगुल तक होकर रह जाता है।
छम्मकछालो को सुल्तान लक्ष्य के इसी आठ अंगुल के भीतर तीन घंटे की बनाई फ़िल्म लगी। बचपन में हर ईद पर म्हारै शहर में एक मुस्लिम पृष्ठभूमि की फ़िल्म लगाई जाती थी। एक हफ्ते पहले से रिक्शे और टंगे पर लाउडस्पीकर से उस फ़िल्म के लिए प्रचार होता था-"ईद के मुबारक़ मौके पर माँ बहनो के लिए खास। देखना न भूलिए महान सामाजिक, पारिवारिक फ़िल्म मेरे मेहबूब या ऐसी ही कोई फ़िल्म।"
तब मुस्लिम पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्में भी एक प्रेम कहानी भर होती थी। सुल्तान भी प्रेम की चाशनी में भिगोकर बनाई गयी है। लगे कि हम प्रेम के प्रति कितने संवेदनशील हैं। लेकिन प्रेम की यह चाशनी एक तार की क्यों होकर रह जाती है, यह समझ से परे हो जाता है। एक आम फ़िल्म की तरह सुलतान आरफा से टकराता है और दिल दे बैठता है। दिल की खातिर पहलवानी सीख लेता है। छोरियां दिल्ली से पढ़ी हों या स्टेट लेवल चैम्पियन हों, प्रेम मुहब्बत के नाम पर वही लैलाई रूप। और क्या करे वह कि अपनी खातिर हीरो को पहलवानी सीखते देख भीग गई। कैरियर जी गया तेल लेने। माँ भी बन गयी! ओ जी। कहाँ गया सुलतान का दिल, जिसे पाने के लिए वह पहलवान बना, उसी के माँ बनने पर उसके कैरियर के बाबत तनिक भी न सोचा? अब जी वो, बच्चा गिरवाती तो हमारी संस्कृति को खतरा हो जाता। लो जी।छोरियों का क्या! वे तो होती ही हैं इसी सबके लिए। ....और जी, बाद में भी उसने तो मोम की तरह पिघल ही जाना है। ना पिघलती तो फिर से भारतीय संस्कृति को जी, खतरा पैदा हो जाता।
फिलिम देखते हुए जी मन्ने लगा कि कहानी पलट दी गयी होती तो? ...तो जी। ईद न होती। भाई न होता। फ़िल्म की शुरआत में ही हिरवा और भगवा झंडा न होता। मन्ने तो पैले तिरंगा लगा। सो सुफैद झंडा भी खोजती रही। लेकिन मेरी मत। सुफैद कपड़ों में बैठे लोग बाद में समझ में आया। दिल्ली में भी शायद अब नवभारत टाइम्स के ऊपर अंग्रेजी में NBT छपने लगा हो।
ये भी समझ में न आया कि सुलतान के चैंपियन बनने के बाद आरफा तुरंत रेसलिंग में आ भी गयी। तुरंत जी, प्रेगनेंट भी हो गई, तुरंत जी चार साल की बच्ची भी रेसलर की नई पीढ़ी बनकर सामने आ गई। छम्मकछल्लो को लगा कि छोरियां कहीं भी पैदा हों, वे बीबी और माँ से आगे बच जावे तो कुछ सोचे।
वैसे फ़िल्म स्पोर्ट्स के बारे में कहती है तो स्पोर्ट्स तो जी, दिल को खिंचता ही है। बनानेवाले ने फिलिम में चुस्ती राखी है। सल्लू भाई तो बस भाई है ही। पर इस फिलिम में पैली बार या भोत दिन बाद उनकी मेहनत दिखी है।
आरफा का तो समझ में ही नहीं आया कि वह रेसलर काय को बनी। शायद स्टोरी को सपोर्ट देने के लिए। उतनी ही, जितनी बड़े हीरो की फिल्मों में हीरोइन होती है। थोड़ा नाच गा लो। सो गा लिया- "बेबी को बेस पसंद है।" थोड़ा रोमांस कर लिया। थोड़ी फेमिली भैलू भी समझा दी। ...छम्मकछल्लो तो NH10 की छोरी को खोज रही थी।
हिंदी फिलम में ऐसा क्यों नहीं होता कि हीरो ना बचे। या वह हार जाए। 100 में से 99 को लगेगा कि वह हमारे बीच का एक आदमी है। लेकिन ना। अपण तो जी, कम्पटीशनवाले लोग हैं।हार कैसे सकते हैं? सामान्य नहीं। असाधारण बनना है हमें, चाहे वह इंग्लिश विंग्लिश हो या तारे ज़मीं पर या सुलतान। उम्र या जेंडर का कोई कनेक्शन नहीं। पर जी, ये सब सोचोगे तो फिलिम नहीं देख पाओगे। सो आज इतवार को बमुश्किल 50 दर्शकों के बीच हमने फिलिम देखी। आप भी देख आओ। तीन घंटे भारी नहीं पड़ते "सैराट" की तरह। 

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