"सैराट" आज अंतत: देख ही ली। इतनी तारीफ इसके पक्ष में सुनी कि रहा नहीं गया।
यह कहना गलत होगा कि हमारा समाज बहुत आधुनिक हो गया है। आधुनिक वह घर के इंटीरियर, मोबाईल और वाहन से हो गया है। प्रेम के मामलों में वह कृष्ण राधा और शंकर पार्वती के प्रेमवाले देश में कैसे इतना क्रूर हो गया है, मेरी समझ से बाहर है। अजब हिसाब है। शादी के बाद प्रेम ना करो तो आफत। शादी से पहले करो तो मुसीबत। प्रेम ना जाने जात कुजात पर यकीं रखनेवाला यह देश जाति धर्म में इतना फंसा हुआ है कि उसके आगे प्रेम कुछ भी नहीं। पर नहीं। प्रेम है। यह प्रेम जाति से है, धन से है, दम्भ से है और दुनिया के हर कुविचार से है।
बहरहाल, फ़िल्म देखते हुए मुझे अपनी लिखी और "शुक्रवार" में बरसो पहले छपी कहानी "वाजिब है हमरे लिए दफा 302" याद आती रही, बल्कि देखने से पहले ही इसके बारे में सुनते हुए। वही जाति का दम्भ। वही भाई द्वारा बहन से बदला। फ़र्क़ यहाँ सामने बच्चे का है। मेरी कहानी में बच्चा अभी माँ के गर्भ में है। फर्क कहानी की मानसिकता में भी है।
फ़िल्म इंटरवल तक इतना लंबा खिंचती है कि मुझे लगा कि शायद यह फ़िल्म बिना इंटरवल के है। लग रहा था कि अब कुछ होगा, अब कुछ होगा। मगर सबकुछ एक फॉर्मूला फ़िल्म की तरह होता रहा। इंटरवल के बाद कहानी थोड़ी तेजी से आगे बढती है। एक नए मोड़ के साथ ख़त्म होती है। प्रेम की ह्त्या हमेशा अवसाद घेरती है। यहाँ वह बच्चे के माध्यम से सवाल भी छोड़ती है कि कल को उस बच्चे का भविष्य माँ बाप के बिना क्या होगा? वह बच्चा अगर जी गया तो इस समाज और प्रेम के प्रति उसका नजरिया कैसा होगा?
बाप या घर के मर्द के सामने घर की कमजोर पड़ती औरत यहाँ भी है- जीवन की एक क्रूर सच्चाई की तरह। बेटी से प्रेम करती माँ घर से विद्रोह नहीं कर पाती। यह लगभग घर घर का सच है। ऐसे में स्त्रियों पर दिन रात कविता लिखनेवालों से मेरी बड़ी सहानुभूति है।
फ़िल्म का फोकस नायक नायिका पर इतना अधिक है कि अन्य चरित्र याद भी नहीं रह पाते। किसी भी फ़िल्म का मेरी नजर में यह बड़ा कमजोर पक्ष है।
ऑनर किलिंग पर देखने के लिए 170 मिनट की यह फ़िल्म जो 120 या उससे भी कम मिनट में समेटी जा सकती थी, को देख सकते हैं। हिंदी दर्शकों में इतना धीरज हो तो।
हाँ, 14 दर्शकों के साथ मैंने यह फ़िल्म देखि। जब भी फ़िल्म में इतने कम दर्शक मिलते हैं तो मुझे लगता है कि थिएटर में भी इतने कम दर्शक अगर मिलते हैं तो हैरानी क्या!
आप चाहें तो मेरी यह कहानी भी यहाँ पढ़ सकते हैं:
"वाजिब है हमरे लिए दफा 302"
“हां, जज साहेब, अपनी बहीन लल्ली का खून हम किए हैं। हम अपना जुरम कबूलते हैं। नहीं, हमको कोनो ओकील-तोकील नहीं चाहिए। का करेंगे हम बाहेर आ के? कौन सा हमरे लिए लोग फूल आ चन्दन माला ले के हमरे अगवानी के लिए खड़े रहेंगे। अभी तक तो दुईए-चार ठो बात सुनते थे, अब उसमें आठ गो आउर जुड़ जाएगा। लोग पहिले भी टोंट मारते थे, अब औरो मारेंगे। इस देस में सबको एतना बोलने का आजादी काहे है जज साहेब?
जज साहेब! कबूलने पर आ गए हैं तो सबकुछ कबूलेंगे- राई-रत्ती- बिना झूठ आ लाग-लपेट के। हम बड़ी डरपोक किसम के हैं। खून देख के हमको उल्टी-चक्कर आने लगता है। हम तो कोनों कुत्ता-बिलाई का एक्सीडेंट भी नहीं देख सके हैं। ओने से नजर घुमा लेते हैं। एही मारे डाक्टर बनने का हिरिस मने में रह गया। कहियो मेढक का डिसेक्शन नहीं कर सके। हमरा साथी सब मेढक को उल्टा करके उसका चारो टंगड़ी कील से ठोक देता। चारो पैर तना हुआ आ बीच में उसका फूला पेट, जिसके ऊपर से कैंची चलनेवाला था उसका पेट फाड़ने के लिए। जिंदा मेढक- छटपटाए नहीं, छटपटाकर भागे नहीं, इसके लिए कील में ठोका मेढक- माफ कीजिएगा जज साहेब, हमको जाने क्यों ईसा मसीह याद आ गए। हमको चक्कर आ गया। हम बेहोश हो गए। पैंट भी गीला हो गया।
तब से जब-तब पैंट गीला हो जाता। टोला-मोहल्ला में तो लोग आ खासकर जनी जात सब अपना सुख-दुख एक-दूसरा से बतिऐबे करते हैं। हमरी माई भी टोला-मोहल्ला के चाची, दादी, फुआ से हमरा ई नया दुख बतिया देती। इस बीमारी से छूटने का उपाय पूछती। दादी-चाची सब बोली- "रात में सोने से पहले दिया जलाकर बचवा के माथे पर रखकर जहां वो सोता है, वहां से लेकर घर के बाहरी दरवाजे तक पांच बार उसका फेरी लगवाओ ई बोलते हुए -'घर में सूत, बाहर में मूत।'" हमरी भोली भाली माई! भगवान के पूजा जैसी श्रद्धा और विश्वास से ई सब करती गई। मगर हमरा पैंट गीला होना नहीं थमा। मोहल्ले की दादी-चाची-फुआ से उनके घरों की बाकी सभी औरतों और वहां से उनके मरद और मरद से बच्चों तक को हमरी ई बीमारी का पता लग गया। जनी-जात हमको देख पूछ बैठती -'बउआ, मन ठीक है न अब?' मर्द कहते -'काहे रे? एतना बड़ा हो गया, अखनी तक पैजामा में मूतता है!' और बच्चे तो हमको देखते ही ताली पीट-पीटकर चिल्लाने लगते -'मूतना, मूतना।' हमरा तो नामे जज साहेब मूतना पड़ गया। ऊ सब इस फकरा को उल्टा करके बोलते- ‘घर में मूत, बाहर में सूत।‘ अभियो आप हमरे यहां जाइए, आ पूछिए गनेस तिवारी का घर तो कोई नहीं बताएगा. पूछिए, मूतना का घर, चालीस ठो लोग आपको साथ लेकर हमरे दुआरे आपको पहुंचा देंगे। हमको देखा के बोलेंगे - "ईहे है मूतना- माने गनेस तिवारी।"
बड़ी खराब चलन है यहां का। किसी को कुछ होने पर लोग उसका उपाय नहीं करेंगे, उस बीमारी या लक्षण को देखकर उसका नामे उसके ऊपर रख देंगे- जैसे हमरा रख दिया- मूतना। हर किसी का ऐसा ही नाम है- कोई कनहा यानी काना है तो कोई लंगड़ा, कोई कुबड़ा तो कोई दंतुला तो कोई डेढ़बित्ता, कोई बौना तो कोई कनकट्टा। एक को बहुत कम दिखाई देता था। खूब मोटा चश्मा पहनता और चलते वक्त भुइयां, माने जमीन ताक-ताककर चलता, तो लोगों ने उसका नाम ही रख दिया - भुईतक्का।
हमरी लल्ली हमको बहुत प्यारी थी। हमसे चौदह बरस छोटी। गोद में उसको ले के हम खेलाए हुए हैं। हमरा जनम भी माई-बाबू के शादी के आठ साल बाद हुआ। माई का नाम पड़ गया गया बॉझिन। माई बताती, औरतें उसके यहां आना-जाना बन्द कर दी थी, कोई तीज-त्यौहार में, मेले-ठेले में उसे देखकर उससे बचकर निकलती कि माई की छांह कहीं उन लोगों पर ना पड़ जाए। दादी बाउजी पर दूसरा ब्याह के लिए जोर मारने लगी। माई की भली किस्मत कि हमरा जनम हो गया- बेटा का जनम। माई का खोया मान-दान लौटा। मगर दुइए बरस बाद फेर ओलाहना- "अरे, अब इस राम जी के लिए लछमन तो चाहिए ना!" और माई फेर से बांझ से एकांझ हो गई। माने जज साहेब, जिसको बच्चा नहीं हुआ, ऊ बांझ आ जिसको एके गो हुआ, ऊ एकांझ।
माई को बांझ से मुक्ति दिलाए हम आ एकांझ से छुटकारा दिलाई लल्ली। हमरे जनम के चौदह साल बाद। हमरा तो खुसी के मारे हालते खराब था। हमरे मन में एगो बहीन की कल्पना शुरूए से थी। दादी लोग सब मनता मान रही थी कि बेटा होगा तो भगवती को जोड़ा छागर (बकरी) बलि चढाएंगे। राम को लछुमन मिलेगा, बलराम को कृष्ण। मगर हम माई के पेट पर उंगली रखकर पूछते, 'माई रे, इसमें हमरे लिए बहिन है न?' माई स्नेह से मुस्का पड़ती। हम तनिक ठुनकते, 'हमको बहिन देना। ऊ हमको राखी बांधेगी, हम उसको नेग देंगे।‘
माई हमको लल्ली दे दी। हम भर दिन उसको गोदी में उठाए घूमते रहते। रात में हम उसी के बगल में सोते। लल्ली बड़ी होती गई और हमरा प्रेम भी उसके लिए बढ़ता गया। उसका एक आंसू हमको डिसेक्शन के लिए टंगा मेढ़क लगता और हम तड़प जाते। ऊ बीमार पड़ती, हम रात भर नहीं सोते। सभी कहते, 'रे गनेसवा, एतना प्रेम मत कर! बेटी जात है। ससुराल चली जाएगी तो तू कइसे रहेगा।'
'हम दूल्हा को घरजंवाई बनाकर रख लेंगे।'
'तुम्हारी घरवाली तुम्हीं को झाड़ू मारकर निकाल देगी। कोनो भौजाई अपनी ननद के लिए अपने मरद का इतना प्रेम बरदास्त नहीं कर सकती है।'
हमारी लल्ली गन्ने की तरह बढ़ती गई - छरहरी, दुबली, गोरी, सुन्दर और पढ़ाई में खूब तेज। हमको डिसेक्शन से जितना डर लगा, उसको उसमें उतना ही मन लगता। फूल-पत्ते की पांखुरी तोड़कर उसका पुंकेसर-पराग देखने, पहचानने की कोशिश करती। किताब पढ़कर, घड़ी मिलाकर नबज टटोलती। मैंने पूछा -'लल्ली, डाक्टर बनेगी?'
जज साहेब, हम पहिले ही बोले हैं कि राई-रत्ती सच बोलेंगे। हमारी लल्ली पढ़ने में बहुत तेज थी और हम उतने ही बोगस। लेकिन हम बेटा थे ना! सो कोई कुछो नहीं बोला, बाउजी बोले- 'अपना खेती-बाडी आ खाद का धंधा संभाल।' ई हमको आज बुझाता है कि सब हमको मूतना के बाद बोका कहने लगे थे और बाउजी इस कहनपट्टी में शामिल नहीं होना चाहते थे। ऊ अपना बेटा के मन में ई बिस्वास भरना चाहते थे कि नहीं पढ़ने या कम बुद्धि होने से इन्सान खारिज नहीं हो जाता। सो ऊ हमको अपना खेती- बाडी आ काम-धन्धा में लगा दिए। ऊपर से ब्याह भी करा दिए। अपने समाज में लड़का कितना भी गंवार, मूरख, चप्पड- चौपट क्यों ना हो, उसका बियाह होइए जाता है। पता नहीं हमरे समाज में बेटी एतना बड़का बोझ काहे है।
डाक्टरी का पढ़ाई बहुत खर्चीला है, जज साहेब। इधर मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ रही थी, उधर खाद का धन्धा मन्दा हो रहा था। खेत में कमाई नहीं रह गया था. नहर कहिया न सुखा गया था. बरसात आ पानी नहीं, सो सब फसल चौपट. कोनो साल एतना पानी कि सब दहो-बहो. दाही आ सुखाड से साले-साल जूझते हमलोग. उसपर से लल्ली की डाक्टरी की पढ़ाई। बाउजी एक बेर बोले भी कि काहे के लिए उसकी पढ़ाई पर एतना खर्चा! आखिर उसको दूसरे घर जाना है. हम लड़ गए बाउजी से अपनी लल्ली की खातिर, हां!
सचमुच लल्ली बहुत हुशियार थी। डाक्टरी की प्रवेश परीक्षा भी वह एके बेर में पास कर गई. स्कूल से लेकर कॉलेज तक सभी क्लास में ऊ फर्स्ट आती। उसकी पढाई हम लडकर करवाए. आखिर मेरी बहीन डाक्टर बनने जा रही थी जज साहब! लल्ली ने इधर पढ़ाई खतम की और उधर उसको कई अस्पताल और नर्सिंग होम से बुलावा आने लगा। आज के समय में ऐसे ही तो किसी को कोनो नहीं बुलाता है ना जज साहेब! हमलोग क्या राय-विचार देते। खुदे ऊ अपना सबकुछ ऊंच-नीच बूझ-बाझकर एगो होस्पीटल ज्वायन कर ली। लोग सब फेर हमको कहने लगे -'रे मूतना, अब बहिन डाक्टरनी हो गई है तो तू उसकी कम्पोडरी ही कर ले। घरवाली को नर्स बना दे। तेरा भी नाम बदल जाएगा। मूतना से मूतना कम्पोडर हो जाएगा और तकदीर भी सुधर जाएगी।“ जज साहेब, अपना बाल-बच्चा के लिए तो आदमी हाथी-घोड़ा, बंदर, भालू सब बन जाता है। हम लल्ली के कम्पोडर बन भी जाते तो उसमें क्या खराबी? खराब लगा तो खाली अपना नाम- गनेस तिवारी कंपोडर के बदले मूतना कंपोडर।
पढ़ाई और नौकरी का ऊंच-नीच लल्ली बूझ गई, मगर जिनगी के ऊंच-नीच में तनिक गड़बड़ा गई। हालांकि हमरे हिसाब से ऊ कोनो गड़बड़ नहीं था जज साहेब। मगर ई समाज, जो ऊपरवाले की बनाई चीज पर भी अपनी जबान चलाने से बाज नहीं आता, ऊ इंसान के उस काम को कैसे सह लेता, जिसमें उसकी रज़ामन्दी ना हो?
पहले तो घर में ही खूब हंगामा मचा, जब लल्ली बोली कि ऊ जयचंद चौधरी से ब्याह करना चाहती है। जयचंद चौधरी उसी के साथ पढ़ता था और अभी दोनों एके होस्पीटल में थे। अपने समाज का भी गजबे रीत है। बेटा-बेटी अपना मर्जी से पढ़ाई-लिखाई करे, कपड़ा-लत्ता पहिरे, खाना-पीना खाए, सिनेमा-बजार करे, सब चलता है, मगर ऊ अपना मर्जी से ब्याह करे तो महासागर पलट जाता है।
हमलोग ठहरे कान्यकुब्ज ब्राह्मण। सो पहिले तो लगा कि चौधरी माने होगा, मिथिला का मैथिल ब्राह्मण। बाकिर आजकल चौधरी, ठाकुर, सिंह सबसे किसी के जात- ऊत का पता नहीं चलता जज साहेब। सो, जब जयचंद चौधरी के जात का पता चला तो सबके पैर के नीचे से जमीन खिसक गई। अरे लाख डाक्टर था और लल्लीए जैसा तेज़ था. उसको भी होस्पीटलवाले अपने से आगे बढकर बुलाए थे, मगर इससे उसकी ज़ात तो नहीं बदल जाती. बाउजी बाघ लेखा दहाड़ने लगे, माई अलगे से घेओना पसारकर बैठ गई। हमरी घरवाली कोंहडा जैसा मुंह बनाकर घूमती रही। और हम एतना नरभसाए जज साहेब कि बहुत साल बाद, बूझिए कि इस बडी उमिर में पहिला बेर हमरा पैंट गीला हो गया।
हम लल्ली को बहुत समझाए- बुझाए। घर-कुल खानदान, टोला-मोहल्ला, सर-समाज का हवाला दिए। बाउजी के इज्जत का दुहाई दिए। ऊ सब सुनती रही आ सुनकर एक्के गो बात बोली- 'भैया, केवल यह बता दो कि जात के अलावा और कौन कमी है उसमें? पढ़-लिखकर भी हमलोग इस ज़ात-पात में ही उलझे रहेंगे? देश का कितना नुक्सान हो रहा है इस जात-पात के चक्कर में, कभी सोचिए। भैया, आप तो आज के समय के हैं और आपको तो हम बाउजी से भी बढ़कर बूझते और पूजते हैं। आप तो हमारा साथ दीजिए।'
सच पूछिए जज साहेब तो हम तो अपनी लल्लीए के पक्ष में थे। अरे, क्या होता है जात-पात से। एतना बाभन सब तो कोट कचहरी आ ऑफिस में चपरासी का काम करता है और छोटा जात के ऑफीसर का पानी भरता है। तब उन लोगों का जात नहीं जाता? दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई में तो सुनते हैं जो ऊ सब होटल में सबका जूठा उठाता है। हमरी लल्ली तो एतना समझदार है। ऊ कोनो गलत काम कर ही नहीं सकती। भला अपना जिनगी के चुनाव में गलत कैसे होती?'
हम अपना दिस से माई-बाउजी को बहुते समझाए। मगर माई-बाउजी पर भी समाज का एतना दवाब था कि पूछिए मत। हमरे बिस्तर गीला करने की बात माई जहां सभी मोहल्लेवाली को बताई थी, लल्ली की यह बात माई सबसे छुपा गई। बाउजी कभी गुस्सा में चिल्लाते तो माई बोलती -'आस्ते बोलिए। टोला-मोहल्ला जान जाएगा।'
और जानिए गया। ई सब बात छुपाए छुपती है कहीं। बाउजी लल्ली को घर में बैठा दिए- लडकियों के लिए सबसे सस्ता, सरल, सुंदर उपाय- न अस्पताल जाएगी, न लड़के से मिलेगी, न बात आगे बढ़ेगी। उसके घर में इस तरह बन्द रहने से उसकी नौकरी का कितना हर्ज़ा हो रहा है, उसके मरीज के तबीयत पानी का केतना नुक्सान हो रहा है, बाउजी को इन सबसे कोई मतलब नहीं था। हम इस मादे बाउजी को कई बार बोले. पहिली बार बाउजी हमको बोले -'बोका! चुप रह तू। अपना दिमाग नहीं है तो दूसरे के दिमाग से काम कर।' "बोका..." आखिर बाउजी भी हमको बोल ही दिए - बोका। माने, सचमुच में हम बोका, बुद्धू!
बाउजी के बोका से हम समझ गए कि हम सचमुच बोका हैं। हमको अपने नहीं, दूसरे के दिमाग से चलना चाहिये। और सचमुच हमरा दिमाग दूसरे के दिमाग से चलने लगा।
बाउजी खेती आ दुकान-धन्धा हमरे हवाले करके तेजी से लड़का खोजने लगे आ पन्द्रहे-बीस दिन में एक जगह संबंध पक्का कर आए। हम तो जज साहेब कल्पने नहीं कर सके कि कोई बाप अपनी डाक्टर बेटी के लिए अइसा घर-वर खोजेगा? एक्के ठो मकसद जैसे बाउजी का रह गया था -'किसी तरह से कोनो लड़का खोजकर लल्ली को ठिकाने लगा दो. आगे जाने वो और उसका भाग्य!'
हम बोका थे, तइयो खूब लडे. बडे होने के बाद दूसरी बार हम रोए. पहिली बार जब बियाह के बाद हमरी घरवाली विदा होते समय रो रही थी तो हमरी आंख भी पनिया गई थी। अभी दूसरी बार, जब बाउजी लल्ली के लिए ऐसा बोका लडका खोजे. बाउजी फिर हमको बोका बोले, फिर भी हम लड़े- "लल्ली की पसंद के लडके से उसका बियाह नहीं करेंगे तो कम से कम उसके लायक तो लड़का लाइए। ऊ डाक्टर आ ई गुड के आढ़त पर काम करनेवाला? दसवीयो पास नहीं है। ढंग का कमाई नहीं है। खेती-बाड़ी नहीं है। घर भी किराए का है। इससे तो बढिया लल्ली का गला दबा दीजिए।“
बाउजी ई काम नहीं किए। कइसे करते? ई काम तो हमरे हाथ से होना था न जज साहेब। बाउजी इधर लल्ली का बियाह ठीक करके आए, उधर ऊ जाने कैसे जयचंद से संपर्क साध ली और दूसरे ही रात घर छोड़कर चली गई। छोड़ने में एक ठो पुर्जो नहीं छोड़ के गई और लेने में अपना कान का बालियो नहीं ले गई, जो ऊ हमेशा पहिने रहती थी। अंगूठी भी उतार कर चली गई।
टोला-मोहल्ला को तो पता चलना ही था। सभी माई-बाउजी के ऐसे हितैषी बनकर उनके चारो ओर जमे कि वाह! औरत सब माई के पास पहुंच कर कहने लगी -'इसी सब से बेटी ज़ात को ज़्यादे नहीं पढाना चाहिये. भला कहिए तो? और जब आपको पता चला, तहिये काहे न मुआ दी? खानदान पर करिखा लगा गई। अरे खोजबो की त' चमार। शुद्ध बाभन की बेटी आ चमार से ब्याह?'
आदमी लोग का भी ओही हाल। हमेशा कोई ना कोई बाउजी के आस-पास डोलता रहता और बोलता रहता -'खोज के लाइए साले को। यहीं चीरकर धूप में सुखाने के लिए डाल देंगे। ...नहीं भैया, ई प्रेम-आसनाई नहीं है। ई एक ठो ऊंचे कुल-गोत्र जात की लड़की को भ्रष्ट करने की साजिश है। भैया, ई खाली आप ही के इज्जत का सवाल नहीं है, पूरी बिरादरी की प्रतिष्ठा का प्रश्न है. उस हरामजादे को खोजवाइए। सजा तो उसको मिलनी ही चाहिए।‘
समाज अपना देश के कानून से भी ऊपर कैसे हो जाता है जज साहेब, हमको अभी पता चल रहा था। लल्ली पर गुस्सा तो आ रहा था, मगर मन में एक ठो संतोष भी था- ऊ दसवीं फेल, गुड़ के आढत पर काम करनेवाले एक हज़ार रुपैया कमानेवाले से तो लाख गुना अच्छा है ई छोटी जातवाला लड़का। अपनी पसंद का भी और डाक्टर भी। दोनों जने अपना परेक्टिस कहीं भी करेंगे, कमाएंगे, खाएंगे, खुश रहेंगे। बाकिर ई समाज जज साहेब! एकदमे चौपट निकला। चौपट से बेसी बदमाश, जिसको दूसरे के घर में आग लगाकर हाथ सेंकने में बहुते मजा आता है। भर मोहल्ला क्या, पूरा शहर को हमरी लल्ली का टॉपिक मिल गया। जो कोई जिधर टकरा जाता, एके सवाल पूछता -'रे मूतना, तेरी बहिन का कुछ पता चला?... अब तो ऊ पूरी चमइन हो गई होगी? राम-राम, मुर्दा खाती होगी। चमड़ा निकालती होगी।'
रस्ता-पैरा चलना मुहाल हो गया जज साहेब। बाउजी को सभी सिखाते रहते -'रामधन बाबू! पुलिस-जासूस लगवाइए। खोजवाइए साले को। एक ब्राह्मण की प्रतिष्ठा का सवाल है। छोड़ दीजिएगा तो ई लोग का मन आओरो बढ़ेगा। आज भगा के ले गया है, कल सोझे-सोझे हाथ मांगने आ जाएगा और मना करने पर हमलोग के इज्जत का बखिया उधेड़ते हुए हमरी बेटी- बहिन को उठा ले जाएगा... न! सजा तो मिलना जरूरी है।'
चर्चा बहस का रूप ले लेती -'कौन देगा सजा?'
'हम! हमारा समाज!'
'कानून नहीं है क्या?'
'कानून गया पिछाड़ी में हगने। जिस दिन ऊ एक ठो ब्राह्मण की बेटी को उठा ले गया, उस दिन कानून उसका कुछो उखाड़ लिया?... बात करते हैं।'
'कानून के हिसाब से दोनों बालिग है, इसलिए अपनी पसीन्द से शादी कर सकते हैं।'
'छिनाल का हाथ-गोर तोड़कर घर में बैठा दो। बेशर्मी की हद है! बाप- भाई मर गए हैं क्या? आ कि एतना देह में आग लगा था तो कहती हमलोग से!'
'धर्म और जात जज साहेब, इस देश के कानून से बहुत बड़ा है। धर्म और जात के रखवाले सब आपलोग के लिए भी बोले जज साहेब- “कानून की कुर्सी पर तो कोनो जात का आदमी बैठ सकता है। और जो बैठेगा, ऊ अपना जाते के मुताबिक फैसला देगा ना। बाकिर, हमारा फैसला अपने जात के मुताबिक होगा। हमारा जात अलग, हमारा कानून अलग.”
हमारा मन करता, सबको चीर कर रख दें. मगर हम तो एक ठो चींटी भी नहीं मार सकते थे, आदमी को क्या मारते? लोग-बाग हमको देखते और बोलने लगते -'रे मूतना, रे तुम्हारे जीजा का क्या हाल है? आदमी को चीर रहा है कि मरी गइया का खाल उतार रहा है? उसके साथ गाय खाया कि नहीं? चमड़ा उतारा कि नहीं?'
मेरा दिमाग़ भडकने लगता। काम खतम किए बिना ही लौट आते। कान के पीछे जैसे कुछ सुलगने लगता। कलेजा धकधकाने लगता। कंठ सूख जाता। पसीना बहने लगता। हम घर लौटते। बिस्तर पर पड़ जाते। माथे पर धमक बढ़ता जाता। मुट्ठी अपने-आप बन्धने लगती.
एक दिन चार-पांच लोग हमको बुलाए - किसी के हाथ में गुदड़ी था, किसी के हाथ में चवन्नी-अठन्नी, किसी के हाथ में बासी खाना। सब बोले -'रे मूतना, तुमको पता है न, रात ग्रहण था। तू ग्रहणदान मांगने नहीं आया? अब क्या फरक पड़ता है कि ग्रहणदान चमार नहीं, डोम मांगता है? डोम और चमार में कोनो फरक थोड़े है? एगो मरा आदमी उठाता है तो एगो मरी गैया! ले, ई ले, ई गरहनदान तेरे लिए है। जा... इसमें से अपनी बहिनिया को भी कुछो दे देना। अब तो बिचारी भी इसी सब पर गुजारा करती होगी ना!' फिर वे सब ताली पीट-पीटकर गाने लगे -
बाभन की बेटी करे मोची भतार
मूतना का मूत बहे मोरी के धार
मेरे कान में जैसे कोनो गरम शीशा डाल दिया जज साहेब। तनिक कल्पना कीजिए जज साहेब। हमरी एक ठो बचपन की बीमारी, ऊ भी खून न देख सकने के कारण। सबका दिल इतना मजबूत तो नहीं होता न जज साहेब! हम तीस के पार हो गए, घरवाली भी आ गई, एक ठो बेटा भी हो गया और ई सबके बाद भी इन सबको मेरा यही नाम मिला? कोई उसको गणेस की घरवाली कि गनेस का बेटा नहीं कहता। सभी कहते- मूतना की घरवाली, मूतना का बेटा और अब चमार का साला।
खेती-बाडी छूट गई- हमसे भी और बाउजी से भी. दुकान पर भी हम नहीं बैठते अब. खाना-खर्चा का किल्लत होने लगा. लल्ली की पढाई का करजा अलग तकादा पर तकादा भरने लगा. हम सबको जैसे ठकमूडी लग गया था. हमरा कहीं आना-जाना छूट गया। बाहर के लोगों से हमको डर लगने लगा। घरवाली समझाती। कभी-कभी रोने लगती। उसके यहां औरतें पहुंच जाती -'मूतना बहू, चलो, जरा हमरी बहू का पेट देख दो। तीन महीने से है। कोई कहती -'हमरी दुलहीन तीन बेर तो अस्पताल में बच्चा पैदा करके आई है। कोनो चमइन नहीं थी। अब तो तुम हो। इस बार जच्चगी घर में तुम्हारे हाथ से करवाएंगे।'
एक दिन फिर हमको बुलउआ आया- मोहल्लावाला का। सामने एक ठो कुत्ता मरा पड़ा था। सब बोले -'रे मूतना, देखता क्या है? ई कुतवा को उठा ईहां से। मर्जी तो इसकी खाल खीच, चाहे तो इसका मांस पका। हमको भी बताना, कइसा लगता है इसका स्वाद! सुने हैं कुत्ते का मांस बड़ा गरम होता है। गरमी ज्यादा चढ़े तो मेहरारू पर उतार लेना।'
जज साहेब! आपलोग तो ऊंचा-ऊंचा कुर्सी पर बैठे हैं न! ई सब नहीं समझ में आएगा। हम गिरते-पड़ते घर पहुंचे। सबका हंसी-ठहक्का हमरे पीछे भूत लेखा आ रहा था। घर पहुंचे तो देखा, माई को मिसराइन चाची कह रही थी -'अरे, कल मकर संक्रान्ति था, तुम पौनी पसारी के लिए नहीं आई? हमलोग नाऊन, चमाइन, डोमिन, कहारिन, कुम्हारिन सभी के लिए तिल-गुड़, सीधा-पानी निकालकर रखते हैं। तुम नहीं आ सकती थी तो भेज देती मूतना बहु को।'
जज साहेब! देश का कानून तो सबूत मांगता है, खून का, चोरी का, डकैती का. मुदा बोली का जो बाण छोड़ा जाता था, उसका कोन सुबूत हम सब देते? ई तो मन पर छूटता था। मन की व्यथा का सबूत कइसे दिखाया जाए? हाथ गोर काट-पीट अधमुआ कर दिया तो दफा 307 लगा दिया। शीलहरण किया तो 376 लगा दिया। मार दिया तो 302 लगा दिया. लेकिन हमरे मन के हाथ पैर को दिन-रात काटा जाता रहा, मन को बार-बार मारा जाता रहा, हमरे शील सुभाव को बीच चौराहे पर नंगा किया जाता रहा, उसके लिए कौन सा दफा लगेगा जज साहेब?
हमरा मन तइयो लल्ली को दोषी नहीं ठहराता। ऊ वयस्क है, हमसे तेज है, अपना भला-बुरा समझती है। प्रेम किया उसने। ब्याह किया अपनी पसंद के लड़के से। कोई गुनाह तो नहीं किया, भगवान कृष्ण के महारास पर मोहित हमारा धरम अपनी ही बेटी का प्रेम नहीं सह सकता। हरतालिका व्रत में कथा सुनाते हैं कि शिव जी को पाने के लिए पार्वती जी घर छोड़कर कठिन तपस्या में लीन हो गई, लेकिन हमारे घर की बहन-बेटी प्रेम न करे, अपने प्यार को पाने के लिए कुछ ना करे, अपने ब्याह के बारे में राय विचार न दे। ई कैसा धर्म है जज साहेब?
अचानक एक दिन लल्ली का फोन आया। बोली, 'भइया, हमलोग अच्छे से हैं, आप लोग का आसीरबाद पाना चाहते हैं। आपको जानकर खुशी होगी कि आप मामा बननेवाले हैं। जयचंद और उसके घरवाले बहुत अच्छे हैं। बेटी से भी बढ़कर हमको मानते हैं। भैया, आप आइए न! कैसे हैं माई-बाउजी, भाभी और छुटकू?'
लल्ली बोल रही थी और मेरे दिमाग में मोहलेवालों के मजाक, ताने, ठहाके गूंज रहे थे।... लल्ली की बातें और ये सब एक साथ मन में घुले-मिले जा रहे थे। नहीं, जज साहेब, घुल-मिल नहीं रहे थे, तेल-पानी कहीं आपस में घुले हैं भला?'
मेरे मुंह से निकला -'लल्ली, तू आ जा। जयचंद को भी लेकर आ। अभी एक-दो दिन तू होटल में रह। मैं सब इंतजाम कर दूंगा। तबतक मैं माई-बाउजी को भी समझाता हूं। फिर मैं खुद होटल से तुम दोनों को यहां लेकर आऊंगा।'
लल्ली आ गई। मैंने अपने शहर के सिबान पर बने एक होटल में उन दोनों के ठहरने का इंतजाम किया. आजकल का जमाना. सबके हाथ में मोबाइल। मोबाइल से हम बराबर संपर्क में थे। लल्ली हमको देखते ही हमसे लिपट गई। खूब रोई। मेरी कमीज भीग गई। हम भी खूब रोए। जयचंद हमरा पैर छूकर प्रणाम किया। हम तो उसका शालीन रूप-रंग, सोफियाना पैंट-शर्ट आ मीठा बोली बानी देख-सुनकर दंग थे- गेहुआं रंग, ऊंचा माथा, पतली नाक, तनिक मोटे होठ और माथे पर पढ़ाई का तेज और उस तेज से उपजी शालीनता! खूब ऊंचा पसीन्दवाला कपडा-लत्ता! कोनो खूब बढिया कंपनी का शर्ट-पैंट पेन्हे हुए था।' हमको गुड़ के आढ़त पर काम करनेवाला लड़का याद आया। मन में लल्ली के लिए 'वाह' निकला। माई बाउजी एक बार देख लें तो चट से ऐसे सुदर्शन दामाद पर मोहित हो जाएंगे।
मैं लल्ली को जी भर कर निहार रहा था. 14 साल छोटी थी हमसे। अपनी बेटी जैसी लगती थी ऊ हमको। कितनी प्यारी है लल्ली, कितनी तेज, कितनी हंसमुख, कितनी सुंदर! उसकी होनेवाली संतान भी इसी के जैसी सुंदर होगी न!
लल्ली और जयचंद खा रहे थे। लल्ली चहक-चहक कर अपनी ससुराल की बात बता रही थी। जयचंद तनिक संकोच में बैठा था। खाने में भी सकुचा-सकुचा कर कौर उठा रहा था। खा हम भी रहे थे. नहीं, हम तो टूंग रहे थे कान में मोहल्लेवालों की आवाज गूंज रही थी-
'बहीन चमारिन, भाई चमार
मूतना का मूतन खोलो यार'
ओही दिन की तो बात है। हम अपने दुआर पर खड़े थे। एगो बचवा आकर बोला -'आपको गोबरधन चच्चा बोलाए हैं।' हमरा मन में कुछो खटका। तइयो हम पहुंचे. भर मोहल्ला जमा था। गोबरधन बोला 'रे मूतना, शंकर चाचा की गइया कल मर गई। अपने बहनोई को बुला आ सब मिलकर उठवा। सुनते हैं, गाय के चमड़े का चप्पल मजबूत होता है। हमरे लिए भी एक जोड़ी बना देना।'
लल्ली मुझे सीता लग रही थी और जयचंद राजा रामचन्द्र. और हम? हम अपने को कुछो नहीं समझ पा रहे थे। समझ पा रहे थे तो खाली इतने कि हम मूतना हैं, मूतना. कोनो दिस से हम लल्ली जइसी सुघड़ लड़की का भाई नहीं लग रहे थे। आ लल्ली थी कि बतियाए जा रही थी- ससुराल का बात, जयचन्द का बात, अपनी डाक्टरी का बात, होस्पीटल का बात। ऊ बक्सा-पेटी खोलकर दिखाई - बाउजी के लिए कुर्ता, भौजाई के लिए साड़ी, माई के लिए शॉल, हमरे लिए सिलिक का कुर्ता- पैजामा आ छुटकू के लिए मिर्जई जइसा कोनो ड्रेस. बोली -'गुजराती लोग का ड्रेस है भइया। खूब सुन्दर लगेगा छुटकू उसमें।'
बिस्तर लाल हो गया। होटल का इतना मोटा गद्दा दो जन के खून की धार के आगे पतला हो गया। दो क्या, लल्ली के भीतर उसकी संतान भी तो थी। हां, जज साहेब, हम कोनो सफाई नहीं देंगे। हम खून किए हैं तो किए हैं। काहे को झूठ बोले? झूठ बोलकर हमको कौन सा तिरलोक मिल जाएगा? हाथ हमरा लगा है खून करने में तो हमी खूनी हुए न? बकिर एक बात बोलेंगे, मन में हमरी लल्ली बसी हुई थी, हमरी प्यारी सी, बेटी जैसी बहिन। उसके ऊपर मोहल्ले की बातें एक ठो अजबे ताना-बाना, रस्सी-फांसी बनाकर बैठ गई आ हमसे लल्ली का खून करवा बैठी। हमको जीने का अब कोनो मोह नहीं है, जज साहेब। लल्ली जब रही ही नहीं तब... हमरी घरवाली और बेटा जी ही लेंगे... नहीं जी पाएंगे ताने-बात सुनकर तो फंसरी लगा लेंगे या कुएं-पोखर में डूब-धंस जाएंगे।
आपको भले लगता हो जज साहेब कि अगर लल्ली ने ऐसा नहीं किया होता तो हमरा परिवार बच जाता और ऊ भी। मगर हम अइसा नहीं मानते। एक पढ़ी-लिखी होशियार लड़की अपनी बेहतर जिनगी के लिए जैसा सोच सकती थी, उसने सोचा और किया। ई तो समाज का घाटा है कि उसको दो ठो डाक्टर नहीं मिला। उसकी कोख से जो जनमता, वह भी तो कुछ बनबे करता अपने माई-बाप लेखा. समाज को उसका भी घाटा हुआ. जज साहेब, कोई कानून हो ऐसा तो बनवा दीजिए कि हमको समाज के ताने से मुक्ति मिल जाए। कोनो सज़ा का प्रावधान हो तो ऊ भी बनवा दीजिए जज साहेब कि ऐसा ताना देनेवाले सबको भी कसकर सज़ा मिले। हम जैसा मूतना आ लल्ली जैसी बहिन अपना जिनगी अपने तरह से जी सकें.
बकिर, हम अपना ई जुर्म कबूलते हैं कि हमने उस रात लल्ली और जयचंद को खाना खिलाने के बाद चाकू से गोद-गोदकर मार डाला। हम उनके खाने में बेहोशी की दवा मिला दिए थे। हम, गणेश तिवारी, जिसकी पैंट चार कील पर उल्टे टांगे मेढ़क को देखकर गीली हो गई थी, वही गणेश तिवारी यानी मूतना अपने टोले-मोहल्ले की बात से इतना ताकतवर हो गया कि उसको लल्ली और जयचंद का खून देखकर न पसीना आया, न बेहोशी छाई, न उसकी पैंट गीली हुई। अफसोस खाली इतना ही रहा जज साहेब कि अगर लोग बाग ई जात-पात का चक्कर नहीं रखते, तो हम मूतना से अपनी लल्ली, उसके आदमी जयचंद और उसके अजन्मे बचवा के हत्यारे नहीं बनते. तब ई होता कि माई-बाउजी लल्ली को दुलार रहे होते, उसकी भौजाई उसके लिए तरह-तरह के पकवान बना रही होती। जयचंद के साथ हम बाजार घूम रहे होते। और कुछ समय बाद हम लल्ली के बच्चे के मामा बने उसको अपनी गोद में उठाए घूम रहे होते। ऐसा ही कुछ होता। हो सकता था न जज साहब? ###