जब मैं कोई अच्छी फिल्म या अच्छा नाटक देखती हूं या कोई अच्छी कहानी पढ़ती या कोई अच्छा गीत सुनती हूँ तो उससे मुझे बहुत खुशी मिलती है । मेरा सारा दिन प्रफुल्लित रहता है। मैं चार्ज महसूस करती हूं और बहुत सी ऊर्जाएं, बहुत सी भावनाएं मेरे अंदर कुलबुलाने लगती हैं । आज आमिर खान की 'दंगल' फिल्म देखी । स्पोर्ट्स पर बनी फिल्में वैसे भी मुझे बहुत आकर्षित करती हैं । उनमें जीवन होता है । जूझने की प्रवृति होती है और ऊर्जा होती है । मुझे यह सारी चीजे बेहद पसंद है। मैंने अपने जीवन में शायद सबसे पहली फिल्म sports पर बांग्ला में देखी थी कोलकाता में शायद 1985 या 1986 में । 'कोनी' नाम से यह एक स्विमर लड़की की कहानी थी और जैसा कि फिल्म में होता है संघर्ष, जुझारूपन और उन सब के बाद मिली सफलता। दंगल भी कुछ इन्हीं बातों को लेकर चलती है । लेकिन यह एक अलग किस्म की फिल्म मुझे लगी । वो इसलिए कि मैं फिल्म देखते हुए यह लगातार सोच रही थी कि यह वही हरियाणा है जो लड़कियों के मामले में बहुत बदनाम सा है । कहा जाता है कि यहां लड़कियों के ऊपर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है - न उनकी पढ़ाई लिखाई पर ना उनके व्यक्तित्व विकास पर। उन्हें प्रेम की भी आजादी नहीं है । लड़कियों को जन्मते ही या पेट में ही मार दिया जाता है । ऐसे माहौल में कोई एक पिता अपनी बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए इस हद तक जा सकता है, यह अपने आप में बहुत रोमांचित करता है और यह बताता है कि अगर घर के लोग और खास करके घर का पुरुष चाहे तो अपने परिवार में, अपनी जिंदगी में और खास तौर से अपनी बेटियों की जिंदगी में बहुत बदलाव ला सकता है । मैं फिल्म के किसी भी और दूसरे पहलू पर नहीं जा रही, बस एक मनोविज्ञान को पकड़ने की कोशिश कर रही हूं । एक पिता जो खुद नहीं बन पाया, उसकी इच्छा कुलबुलाती रहती है और यह एक बहुत स्वाभाविक इच्छा है । हर माता-पिता के मन में होता है कि जो वे नहीं बन पाए, उसे अपनी संतान में देखना चाहते हैं। कई बार परंपरागत रिवाज़ों के तहत यह सोच लिया जाता है कि लड़कियां इन कामों के लायक नहीं है। दंगल के पिता के मन में भी यही बात है । लेकिन अपनी धारणा वह बदलता है। फिल्म ने एक और नई चमक लड़कियों के प्रति पैदा की है कि लड़कियां सब कुछ कर सकती हैं और यह फिल्म के एक संवाद में भी था जहां पिता कहते हैं कि तुम्हारी आज की जीत केवल तुम्हारी नहीं है केवल देश की नहीं है बल्कि हजारों लाखों लड़कियों की जीत है । यह एक जीवन राग है। लड़कियों के लिए संदेश तो है ही, लड़कियों से ज्यादा उनके माता पिता के लिए संदेश है और आज के समय में जबकि हम नंबर और परसेंट के गेम में उलझे हुए हैं हम बच्चों को बस 3 साल 4 साल 5 साल की प्रोफेशनल पढ़ाई करवा कर उन्हें कंपनी में दे कर यह संतोष कर लेते हैं कि बच्चे हमारे कमा रहे हैं और बच्चे 16 -16 18 -18 घंटे वहां अपनी सारी ऊर्जा देकर और 10 साल में बिल्कुल चुक से जा रहे हैं, वहां ऐसी फिल्में और ऐसी सोच एक सहारा देती है कि नहीं, जीवन में काम करने के और भी अलग-अलग क्षेत्र हैं, जहां बच्चे हमारे कुछ कर सकते हैं ।जरूरत सिर्फ इतनी हैं कि माता पिता बच्चों को आगे बढ़ने दें, खास तौर से लड़कियों को । हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है । मैं उन पुरूषों का बहुत सम्मान करती हूं, जो अपने घर के प्रत्येक सदस्य को एक व्यक्ति के रूप में देखते हैं और उसकी इच्छा का सम्मान करते हैं । कहा जा सकता है कि इस फिल्म में पिता अपनी इच्छा बेटियों पर लादता है उससे बड़ी मेहनत करवाता है बड़े-बड़े टास्क करवाता है। बच्चियां इन सबसे कंटाल जाती हैं और एक समय आता है कि ना करने के अलग अलग बहाने रचती हैं । लेकिन उसी की एक दोस्त जब उन्हें यह समझाती है कि तुझे तुम लोगों को तुम्हारे पिता अपनी संतान समझ रहे हैं । यहां तो हमें लड़कियों को लड़की ही समझा जाता है उसके आगे कुछ समझा ही नहीं जाता तो ऐसे में एक विश्वास उभर कर आता है कि घर में पिता या भाई अगर चाहे तो अपने घर की महिलाओं की लड़कियों की तकदीर बदल सकते हैं। हमारे हर घर में गीता और बबीता है । बस हर घर में ऐसे महावीर सिंह फौगाट होने चाहिए। जिस दिन हर घर में ऐसे ऐसे फोगाट होने लगेंगे,ऐसी ऐसी गीता और बबीता हर क्षेत्र में होती रहेंगी। एक बहुत अच्छी फिल्म देख पाने के सुख, सुकून और आनंद से भरी हुई हूं।
Tensions in life leap our peace. Chhammakchhallo gives a comic relief through its satire, stories, poems and other relevance. Leave your pain somewhere aside and be happy with me, via chhammakchhallokahis.
Sunday, December 25, 2016
Thursday, December 15, 2016
“प्रियतमा” और “प्रेतात्मा”- पति-पत्नी के जोक्स का उल्टा-पुल्टा रूप-30
“प्रियतमा” और “प्रेतात्मा”
"हिन्दी विषय में शुरू से ही कमजोर रहा हूँ। आज गड़बड़ कुछ ज्यादा हो गई। बीबी को मेसेज भेज रहा था। “प्रियतमा” की जगह “प्रेतात्मा” सेंड हो गया। .....तब से भूखा-प्यासा बैठा हूँ। चाय तक नहीं दी है पीने को।"
पत्नियों पर जोक्स चलते ही रहते हैं। सभी जी खोलकर उनका आनद लेते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें ज़रा सा उलट पलट कर पत्नी के बदले पति कर देती है। आनंद कितना बढ़ जाता है, आप बताएं। शेयर करें। कॉमेंट करें। ये रहा ऊपारवाले जोक्स का उलटा रूप-
"हिन्दी विषय में शुरू से ही कमजोर रही हूँ। आज गड़बड़ कुछ ज्यादा हो गई। पति को मेसेज भेज रही थी। “प्रियतम की जगह “प्रेतात्म” सेंड हो गया। .....तब से भूखी –प्यासी बैठी हूँ। चाय तक नहीं पीने दी है ।" ###
Wednesday, October 19, 2016
स्वभाव से अच्छे- पति पत्नी के जोक्स का उलटा पुलटा रूप-29
आज करवा चौथ का व्रत है। हर वार मुझे इस दिन यशपाल की कहानी 'करवा का व्रत" याद आती है। वह कहानी तो नहीं, हाँ,पति पत्नी के जोक्स का उलटा पुलटा रूप छम्मकछल्लो दे रही है। हर बार की तरह, सम्मान लेने के लिए सम्मान दें। शेयर करें। विचार दें।
एक महिला अपनी सहेली से
कल दिन भर नेट ही नहीं चला
सहेली : ओह !! फिर तूने क्या किया
कुछ नहीं क्या करती दिन भर पति से बातें कर के निकाला ।
"अच्छा आदमी लगा रे स्वाभाव से" ###
अब इसका दूसरा रूप-
एक पुरुष अपने दोस्त से-
कल दिन भर नेट ही नहीं चला
दोस्त : ओह !! फिर तूने क्या किया
कुछ नहीं क्या करता! दिन भर पत्नी से बातें कर के निकाला ।
"अच्छा आदमी लगी रे स्वभाव से"##
स्वभाव की इस मिठास को पकड़िये और पति पत्नी के जोक्स से मुक्ति पाइए।
एक महिला अपनी सहेली से
कल दिन भर नेट ही नहीं चला
सहेली : ओह !! फिर तूने क्या किया
कुछ नहीं क्या करती दिन भर पति से बातें कर के निकाला ।
"अच्छा आदमी लगा रे स्वाभाव से" ###
अब इसका दूसरा रूप-
एक पुरुष अपने दोस्त से-
कल दिन भर नेट ही नहीं चला
दोस्त : ओह !! फिर तूने क्या किया
कुछ नहीं क्या करता! दिन भर पत्नी से बातें कर के निकाला ।
"अच्छा आदमी लगी रे स्वभाव से"##
स्वभाव की इस मिठास को पकड़िये और पति पत्नी के जोक्स से मुक्ति पाइए।
Friday, October 7, 2016
आतंकवादी- पति-पत्नी के जोक्स का उल्टा-पुल्टा रूप 28
जिनकी पत्नी वेकेशन करने मायके चली गई है,वो स्टेटस पर तिरंगा लगाकर अपनी आज़ादी का ऐलान कर सकते हैं..!! अन्यथा बंदूक का निशान लगाइए। इसका मतलब- आतंकवादी घर पर ही है.... !
पत्नियों पर जोक्स चलते ही रहते हैं। सभी जी खोलकर उनका आनद लेते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें ज़रा सा उलट पलट देती है। पत्नी की जगह पति कर देती है। आनंद कितना गुना बढ़ जाता है, आप बताएं। शेयर करें। कॉमेंट करें। ये देखिये उपरवाले जोक्स का उलटा रूप-
जिनके पति बाहर गए हैं, वो अपने स्टेटस पर तिरंगा लगाकर अपनी आज़ादी का ऐलान कर सकती हैं..!! अन्यथा बंदूक का निशान लगाइए। इसका मतलब- आतंकवादी घर पर ही है....!
Friday, September 30, 2016
संसारी जीव- पति पत्नी के जोक्स का उलटा पुलटा रूप 27
कल एक साधु बाबा मिले,
मैंने पूछा---" कैसे हैं, बाबाजी ? "
बाबाजी बोले---" हम तो साधु हैं बेटा....हमारा राम हमें जैसे रखता है, हम वैसे रहते हैं.....तुम तो सुखी हो ना, बच्चा ? "
मैं बोला---" हम तो संसारी हैं, बाबाजी..... हमारी पत्नी हमें जैसे रखती है, हम वैसे रहते हैं। "😜
पत्नियों पर जोक्स चलते ही रहते हैं। सभी जी खोलकर उनका आनद लेते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें ज़रा सा उलट पलट देती है। पत्नी की जगह पति कर देती है। आनंद कितना गुना बढ़ जाता है, आप बताएं। शेयर करें। कॉमेंट करें। जीवनसाथी का सम्मान करना चाहें तो करें। फिलहाल, ये देखिये ऊपरवाले जोक्स का उलटा रूप-
😂😂😂😂😂😂😂😂कल एक साधु बाबा मिले,
मैंने पूछा---" कैसे हैं, बाबाजी ? "
बाबाजी बोले---" हम तो साधु हैं बेटा....हमारा राम हमें जैसे रखता है, हम वैसे रहते हैं.....तुम तो सुखी हो ना, बेटी? "
मैं बोली---" हम तो संसारी हैं, बाबाजी.....हमारे पति हमें जैसे रखते है, हम वैसे रहते हैं। "�
Monday, September 12, 2016
आधा सर- पूरा शरीर! पति-पत्नी के जोक्स का उलटा-पुल्टा रूप-26
पत्नी ने सुबह सुबह कहा
कि
आधा सर दुख रहा है!!!
पति ने गलती से बोल दिया
कि
जितना है, उतना ही तो दुखेगा!!
.
तब से पति का पूरा शरीर दुःख रहा है।
पत्नियों पर जोक्स चलते ही रहते हैं। सभी जी खोलकर उनका आनद लेते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें ज़रा सा उलट पलट देती है। पत्नी की जगह पति कर देती है। आनंद कितना गुना बढ़ जाता है, आप बताएं। शेयर करें। कॉमेंट करें। जीवनसाथी का सम्मान करना चाहें तो करें। फिलहाल, ये देखिये ऊपरवाले जोक्स का उलटा रूप-
पति ने सुबह सुबह कहा
कि
आधा सर दुख रहा है!!!
पत्नी ने गलती से बोल दिया
कि
जितना है, उतना ही तो दुखेगा!!
तब से पत्नी का पूरा शरीर दुःख रहा है
Tuesday, September 6, 2016
हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होती हैं! व्
बिलासपुर, छत्तीसगढ़ से देवांशु के संपादन में निकलनेवाली त्रैमासिक पत्रिका "पाठ" के जुलाई-सितम्बर,2016 के अंक में तरसेम गुजराल जी द्वारा लिया गया मेरा साक्षात्कार। यह मेरा सौभाग्य है कि तरसेम जी ने मुझे और मेरे लेखन तथा अन्य क्रिएटिव पक्ष को इस लायक समझा। .....आपसबके लिए प्रस्तुत है। आपके खुले विचार आमंत्रित हैं।
कथाकार रंगकर्मी विभा रानी से कथाकार तरसेम गुजराल के सवालों- जवाबो का सिलसिला।
1 जब आपने तय कर लिया कि आप जीवन भर साहित्य, कला, संस्कृति का कार्य करेंगी, तब घर-परिवार में रुकावटें पेश नहीं आईं?
घर परिवार अपनी जगह है और आपका मिशन अपनी जगह। जब आप अपनी राह तय कर लेते हैं, तब आपको सम्झने के लिए आपका घर परिवार तैयार हो जाता है। लेकिन इसके साथ यह भी जरुरी है कि आप परिवार के सहयोग को टेकेन फॉर ग्रांटेड ना लें और अपना सहयोग भी देते रहे। ...मैंने साहित्य को कभी नहीं छोड़ा, न कभी विराम दिया, क्योंकि यह अकेले की साधना है। आप अपनी सुविधा से इसके लिए वक़्त निकाल सकते हैं। मैंने बस, ट्रेन, हवाई जहाजमें, किचन में, बाथरूम में, खाने की टेबल पर और गोद में बच्चे को सुलाते हुए, 2-2 बजे रात में उठकर, 5 बजे सुबह तक लिखा है। मेरे लिए समय,कट ऑफ़ डेट, टारगेट और रिजल्ट का बहुत महत्त्व रहा है। अगर मुझे कहीं एक रचना एक निर्धारित समय तक देनी है और मैंने उसके लिए हामी भर दी है तो मैं इसे कह सकते हैं कि जान पर खेलकर भी समय सीमा में उसे पूरा करने और भेजने की कोशिश करती हूँ। आजकल मेल का ज़माना है तो भेजने में समय नहीं लगता। पहले लिखने,फेयर करने, संभव हुआ तो टाइप करने और फिर डाक से भेजने में काफी समय लगता था। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुसतान, कादम्बिनी आदि में कई लेख इसी तरह लिखे। टारगेट डेट के बाद बमुश्किल मेरे पास समय बचता था। इसी तरह घर,बच्चों और दफ्तर से समय निकालकर लिखना होता था। दिमाग में यही एक बात रहती थी कि अपने वचन और समय पर खरी उतरुं।
नाटक करना समय और बहुत सारे अन्य कमिटमेंट्स मांगते हैं। जब एक समय में मैंने देखा कि घर, परिवार और नौकरी के बीच मैं फिलहाल नाटक को उतना समय नहीं दे सकती तो मैंने एक्टिव थिएटर से कुछ दिनों के लिए विश्राम ले लिया। संयोग या दुर्योग, यह ब्रेक 20 साल तक खिंच गया। इसके काफी नुकसान हुए। लेकिन, इस बीच मैंने कहानियों,लेखों,कविताओं, पुस्तक समीक्षाओं आदि के साथ साथ "दूसरा आदमी दूसरी औरत',"आओ तनिक प्रेम करें", "अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो", "पीर पराई" जैसे नाटक लिखे, जिनका मंचन कई थिएटर ग्रुप्स ने किए। "दूसरा आदमी दूसरी औरत" का मंचन भारंगम में भी हुआ। इस नाटक को आज महाराष्ट्र सरकार के सर्वित्तम नाटक और सर्वोत्तम स्क्रिप्ट के अलावा कई सम्मान मिल चुके हैं। "आओ तनिक प्रेम करें" को मोहन राकेश सम्मान के अलावा महाराष्ट्र राज्य के अलावा गुजरात राज्य के कई पुरस्कार मिल चुके हैं। "अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो" को भी मोहन राकेश सम्मान मिल चुका है। कथा संग्रहों को घनश्यामदास सर्राफ और डॉ माहेश्वरी सिंह महेश पुरस्कार सहित कहानी के लिए "कथा अवॉर्ड" मिले। 2007 से फिर एक्टिव थिएटर में उतरी हूँ और थिएटर को कई सारे क्षेत्रों में एक्सप्लोर कर रही हूँ।सोलो नाटक को अपने थिएटर का आधार बनाया है। थिएटर के माध्यम से कॉरपोरेट ट्रेनिंग, सोलो एक्टिंग क्लास, थिएटर आधारित व्यक्तित्व विकास पर कार्यक्रम कर रही हूँ।रूम थिएटर कांसेप्ट तैयार किया है और इसके माध्यम से नई और छुपी हुई प्रतिभाओं के साथ साथ प्रतुष्ठित लोगों से हस्तक्षेप सहित न्यूनतम लागत पर नाटक उप्लब्ध करा रही हूँ। अभी रूम थिएटर के साथ हम इंदौर गए थे। मुम्बई विश्वविद्यालय के साथ कार्यक्रम कर रहे हैं। संस्थाएं हमें बुला रही हैं। हम नाटक, साहित्य और कला व् संस्कृति को रूम थिएटर के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं।
कहने का मतलब यह कि हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होती हैं। जो हमारी जिम्मेदारियां हैं, उन्हें निभाना पड़ता है। महिलाओं को थोड़ा अधिक ध्यान देना पड़ता है। लेकिन जब आप ये सब कर लेते हैं और अपनी रचनात्मकता के लिए आगे बढ़ते हैं तो घर परिवार आपके साथ होता है। मुझे संतोष है कि मेरी रचनात्मक जिद को मेरे घरवालों ने समझा और मुझे साहित्य, नाटक, प्रशिक्षण और सामाजिक कार्यों को करने में कोई रुकावट नहीं आई। आपको मोरल सपोर्ट मिलता रहे और आप अपनी जिद पर बनी रहें तो उसके रिजल्ट सकारात्मक आते ही हैं। कठिनाइयाँ और तकलीफें साथ साथ आती हैं। सबकुछ हरा भरा नहीं होता। आपमे काँटों से चुभने और चुभे कांटे को निकालने, उसका दर्द सहने और उसे सहकर आगे बढ़ने का माद्दा होना चाहिए।
2 "प्रेम कहीं बिकता नहीं, हाट-बाट-बाजार" कहानी भाषा की संस्कृति पर है या अपार मानवीय प्रेम पर?
दोनों पर। भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति है तो भाषा हमारे बीच दूरियां भी पैदा करता है।यह कहानी मैंने अपने दक्षिण भारत प्रवास के बहुत पहले लिखी थी। भाषा की महत्ता वहां जाने पर समझ आई। भाषा के कारन हम लोगों के अन्य भावों को भी समझने से इनकार कर देते हैं। चूँकि मैंने खुद भी 5 साल तक इसी हिंदी शिक्षण योजना में हिंदी प्राध्यापक के रूप में काम किया है, इसलिए भाषा के टकराव को बहुत करीब से देखा है। लेकिन मैं इस कहानी की नायिका नहीं हूँ। (हाहाहा।) हाँ। कुछ बातें जरूर मेरी हैं इसमे। साथ ही यह कहानी देश की राजभाषा हिंदी के साथ साथ मानवीय मन की कई परतें खोलती हैं। आखिर, ऐसा क्यों है कि हमारे देश में देश की एक राजभाषा के नाम पर इतनी हाय तौबा मची हुई है? फिर भी अहिन्दीभाषी जितना सहयोग हिंदी को आगे बढ़ने में करते हैं, हिन्दीभाषी नहीं। वे हिंदी और हिंदी से जुड़े लोगों का मजाक उड़ाते हैं। लेकिन जब खुद के फंसने की बात आती है, तब हिंदी तो मेरी भाषा है, कहकर अपनी जान बचने में लग जाते हैं। जान छूट जाती है तो हिंदी को फिर से गरीब की भौजाई बनाकर छोड़ देते हैं।ऐसे लोग बड़ी बेशर्मी से यह कहते हैं कि अच्छा हुआ कि अंग्रेज अपनी अंग्रेजी यहाँ छोड़ गए। हमारे बच्चे आजकल दुनिया में अंग्रेजी के बल पर नौकरियां पा रहे हैं। फिर ऐसे ही लोग भारतीय संस्कृति की बात करते हैं। दूसरी भाषाओँ के लोग अपनी भाषा और संस्कृति से भी जुड़े हुए हैं और अंग्रेजी से भी। वे हिंदी से भी जुड़ते हैं क्योंकि वे हिंदी को सहज पाते हैं। सभी अहिन्दीभाषियों के घरों में उनकी भाषा का अखबार आता है। हिन्दीभाषियों के घरों से सबसे पहले हिंदी अखबारों की विदाई होती है। उनके घरों में हिंदी की किताबें नहीं मिलती हैं। यह सब बहुत बड़ा सांस्कृतिक फर्क है। यह मैं अपने 30 सालों के अनुभव से बोल रही हूँ।
3 आपकी कहानी "बेवज़ह" सोचने पर मज़बूर करती है कि भारतीय जन सांप्रदायिक हुआ तो यह प्रक्रिया क्या अंग्रेज काल से आई?
भारतीय जन सांप्रदायिक से अधिक भीडोन्मादी हो गया है। अपने सोचने समझने की ताकत खो बैठा है। एक दूसरे के प्रति नफ़रत ही अपने धर्म से प्रेम का आधार बना दिया गया है। ऐसे में धर्म की बेहद बुनियादी बातें - प्रेम, दया, करुणा, मानवीयता हम भूल बैठे हैं। ये तत्व आज कमजोरी के पर्याय मान लिए गए हैं। धर्म का मतलब अपनी शक्ति का हिंसात्मक और दम्भ भरा प्रदर्शन हो गया है। धर्म का उन्माद अंग्रेजो की देन नहीं है। हाँ, उन्होंने इसे भुनाया।फूट डालो, राज करो की आग जलाई। हमने उसे ज्वाला बना दिया। आज हालात और भयावह हो गए हैं, जिसकी धधक हम सभी महसूस कर रहे हैं। दूसरे, हम अपना विवेक कहीं खो बैठे हैं। धर्म के नाम पर हम भी उन्मादी हो जाते हैं। सच को झुठलाते हैं और झूठ को सच मान बैठते हैं। कहानी की फैंटेसी आज यथार्थ के रूप में हमारे सामने हर रोज घट रही है और हम मूक बधिर बने बैठे हुए हैं। साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाया जा रहा है। आज सोशल मीडिया के द्वारा इसे बहुत सुनियोजित तरीके से फैलाया जा रहा है। दुःख होता है, जब हमारा पढ़ा लिखा समुदाय इस तरह के मेसेज फॉरवर्ड करता रहता है। इससे बचने की सख्त जरुरत है।
4 लेखन में आप सदा आशावादी रही हैं। ऐसी कहानियों के पात्र कैसे चुनती हैं?
आशा जीवन का मूल है। मेरा जीवन तमाम तरह की नकरात्मकताओं के साथ शरू हुआ। छोटी जगह की एक सामान्य शकल-सूरत वाली लड़की के लिए जितनी भी रुकावटें आ सकती थीं, आईं। ऐसे में अपनी सकारात्मकता के साथ ही आगे बढ़ने की सोची। एक राह बंद हुई तो दूसरी खोजी ताकि जीने और आगे बढ़ने का आधार मिले। ...मेरा मानना है कि जीवन कभी ख़त्म नहीं होता। इसलिए अपने पात्रों में भी वह सकारात्मक सोच और स्वाभिमान डालने की कोशिश की। मुझे उन रचनाओं से बड़ी कोफ़्त होती है, जिसमे अंत भी निराशावादी होता है। मुझे लगता है कि मैं उसे पढ़कर ठगी गई। जीवन कभी भी इतना बुरा नहीं होता। यदि सबकुछ इतना ही खराब रहता तो महाभारत या आज के नागाशाकी हिरोशिमा और विश्व युद्धों के बाद तो हमारा नामो निशाँ ही नहीं रह जाता। यह उन लोगों के जीने का जुझारूपन ही है कि इतनी भीषण तबाही के बाद भी वे और हम हैं। निदा फ़ाज़ली ने 1992 के दंगों के बाद लिखा था-
उठ के कपडे बदल, घर से निकल, जो हुआ सो हुआ
दिन के बाद रात, रात के बाद दिन, जो हुआ सो हुआ।"
रात के बाद का दिन ही हमारी आशा का प्रेरणा पुंज है। यह आशावाद ही मेरा भी जीवन है। इसी के बल पर आजतक अपनी सारी लड़ाइयां लड़ती आई हूँ। पढ़ाई जारी रखी। रेडियो में काम किया। घर की स्थिति नाजुक होने पर मोहल्ले के लोगों के कपडे सीकर, स्वेटर बुनकर और रेडियो में काम करके पढ़ाई का खर्च निकाला। यहां तक कि अपनी दुरूह कैंसर जैसी बीमारी को भी इसी आशावाद के साथ झेलने की कोशिश की है।
5 आपने जगह जगह जाकर नाटक खेले हैं। स्वदेश दीपक भी कहानीकार नाटककार थे। उनके नाटक 'कोर्ट मार्शल' के 2000 से ज़्यादा शो हुए। क्या नाटक आपको कहानी से ज्यादा जनप्रिय लगा?
स्वदेश दीपक बहुत बड़े रचनाकार हैं। उनका कोर्ट मार्शल इतना सशक्त नाटक है कि उसे पढ़ भी दिया जाए तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शायद ही कोई ग्रुप हो जिसने कोर्ट मार्शल ना खेला हो। ....कहानी एकांत का विषय है, नाटक सार्वजनिकता का। कहानी अकेले में लिखी जाती है,अकेले में पढ़ी जाती है। नाटक सभी के साथ और सभी के बीच किया जाता है। एक बार में एक कहानी एक पाठक पढ़ सकता है। नाटक एक बार में सैकड़ों हजारों देखते हैं। आप अपनी बात एक साथ, एक ही समय में इतने लोगों तक पहुंचा पाते हैं। मुझे कहानी और नाटक दोनों बहुत पसंद हैं। फिर भी नाटक अपनी तुरंत पहुँच और अधिक सम्प्रेषणीयता के कारण अधिक पसंद है। ...दूसरे, मैं नाटक केवल लिखती ही नहीं, मैं खुद भी थिएटर करती हूँ। थिएटर में 20 साल के अंतराल के बाद मैंने अपने लिए सोलो प्रस्तुति को चुना है, जो बेहद आनंददायी और संतोषप्रद तो है, साथ ही कठिन और चुनौतीपूर्ण भी। नाटक खेलना मेरा जुनून है। एक पागलपन- यह बताने के लिए कि थिएटर हमारे जीवन के लिए क्यों जरुरी है? कि थिएटर के लिए उम्र या कोई भी बंधन आड़े नहीं आता। कि थिएटर से आपको जीने की उमंग और ऊर्जा मिलती है। कि थिएटर आपमे आशावाद का संचार करता है। कि थिएटर आपको अपने जीवन के कार्यक्षेत्र से जोड़कर आपको उसमे एक्सपर्ट बनाता है। मुझे हमेशा लगता है कि हमारे सभी सहित्यिको को थिएटर से जुड़ना चाहिए। थिएटर उनको मंच पर अपने को बेहतर तरीके से प्रस्तुत करने लायक बनाता है।
6 कहानी, नाटक या फ़िल्म- किसमें रचनात्मक संतोष ज्यादा मिला?
तीनों अलग अलग माध्यम हैं। तीनों के अपने अपने रचनात्मक सुख हैं।किसी की किसी से तुलना नहीं की जा सकती। जब मैं नाटक करने की स्थिति में नहीं थी, उस समय लेखन ही मेरी रचनात्मकता और मुझे जिलाए रखने का ज़रिया था। दो साल पहले मुझे कैंसर हुआ। उस समय भी लेखन और वीडियो मेकिंग ने ही मुझे जिलाए और बनाए रखा। सभी माध्यम के लिए आप अपने आपको कैसे तैयार और सुनियोजित करते हैं, यह अधिक महत्वपूर्ण है।मुझे ख़ुशी है कि मैं अपना संतुलन लेखन, थिएटर, प्रशिक्षण, सामाजिक कार्यों सहित राजभाषा हिंदी सभी में बनाकर रख पा रही हूँ। मैं बहुत प्रयोगवादी हूँ और मानती हूँ कि जो काम मैं कर सकती हूँ, उसमें हाथ ज़रूर आजमाना चाहिए। बीमारी के दौरान मेरा घर से बाहर निकलना बंद हो गया तो मैं वीडियो बनाने और उसे यू ट्यूब पर अपलोड करने लगी। यहाँ तक कि घर की सब्जियों फलों के छिलकों से खाद भी बनाया। ये सारे काम आज भी जारी हैं। मुझे लगता है कि हमें अपनी सारी संभावनाओं के लिए अपने आपको खुला रखना चाहिए। मौके आते हैं, उसे लपकिये और अपना काम कीजिये।
7 अपने जयशंकर प्रसाद पर फ़िल्म की। वे हिंदी के बहुत बड़े कवि हैं। परंतु क्या बड़े कहानीकार नहीं?
मैंने जयशंकर प्रसाद पर फिल्म्स डिवीजन के लिए स्क्रिप्ट लिखी है। उस फ़िल्म में उमा डोगरा, ललित परिमू जैसे कलाकारों ने काम किया है। प्रसाद हिंदी के बहुत बड़े साहित्यकार हैं। वे एक साथ कवि, कहानीकार, नाटककार हैं। उनपर फ़िल्म लिखना मेरे लिए एक गौरवपूर्ण अनुभव था। फ़िल्म निर्माण के दौरान प्रसाद जी के बेटे रत्नशंकर प्रसाद जी से भी भेंट हुई थी। वह भी मेरे लिए एक उपलब्धि थी। प्रसाद जी की कविताओं, कहानियों व् नाटकों पर काम होना बाकी है। मेरी दिली इच्छा है कि मैं उनके नाटक "ध्रुवस्वामिनी" की एकल प्रस्तुति करूँ।
8 आपने लिली रे के उपन्यास 'पटाक्षेप' का हिंदी रूपांतर किया। कृपया लिली रे जी बारे में कुछ बताएं। हम साधारण हिंदी के पाठक प्रांतीय भाषाओँ के लेखकों के बारे में कम क्यों जानते हैं?
लिली रे मैथिली की बेहद सशक्त रचनाकार हैं। उनका लेखन विश्व क्लासिक की श्रेणी में आता है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अन्य देशी विदेशी भाषाओँ के रचनाकारों को तो जानते समझते हैं, लेकिन हिंदी के आसपास की भाषाओं पर ध्यान नहीं देते। भारत की अन्य भाषाओँ के साथ ऐसा नहीं है। बँगला, मराठी, कन्नड़, गुजराती के साहित्य हिंदी में उपलब्ध हैं। लिली रे मैथिली साहित्य की पहली सहित्य अकादमी विजेता महिला लेखक हैं । वे अपने समय की सबसे बोल्ड महिला कथाकार रही हैं। महिला बोल्ड लेखन को आज फैशन बताया जा रहा है। लिली जी ने लगभग 40 साल पहले "रंगीन परदा" जैसी बेहद बोल्ड कहानी लिखी। यह मेरी खुशकिस्मती है कि उन्होंने मुझे अपने लेखन के हिंदी अनुवाद के लायक मुझे समझा। पटाक्षेप के अलावा अबतक उनकी अन्य 3 किताबें मेरे द्वारा अनूदित होकर आ चुकी हैं-बिल टेलर की डायरी, जिजीविषा और सम्बन्ध। लोगों को उनकी किताबें जरूर पढ़नी चाहिए। मुझे लगता है कि अगर आज वे मैथिली के अलावा किसी अन्य भाषा में लिख रही होतीं तो उनकी पहचान विश्व स्तर की होती।
9 'पटाक्षेप' उपन्यास की पृष्ठभूमि नक्सलवादी आंदोलन है। शोषण के विरुद्ध इस बड़े संघर्ष को या तो खौफनाक बताया गया या रोमांटिक। उपन्यासकार का दृष्टिकोण क्या है?
उपन्यासकार ने यह दिखाने की कोशिश की है कि इस तरह के आंदोलन के प्रणेता या नेता कैसे अवसर और लाभ मिलने पर खुद सुविधाभोगी हो जाते हैं, जिससे आंदोलन तो कमजोर पड़ते ही हैं, उसमें शामिल लोगों का या तो मोहभंग होता है या उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता।
10 क्या दलित साहित्य और नक्सलवादी साहित्य में कोई सम्बन्ध है? अस्वीकार दोनों में एक जैसा है।
दोनों ही निषेध का साहित्य है। दोनों ने ही सत्ता और समाज की व्यवस्था से बहुत झेला है। एक समाज की व्यवस्था से और दूसरा सत्ता की व्यवस्था से। अस्वीकार्यता उनकी नियति है। कबतक आप अपने को बहिष्कृत, तिरस्कृत, उपेक्षित देखना और इसतरह जीना पसंद करेंगे? साहित्य हमेशा से प्रतिरोध के स्वर को मुखर करता रहा है।
11 आपके नाटक "मियां मुसलमान' के सन्दर्भ में सारंगीवादक लतीफ़ खां की बात याद आती है। वे कहते हैं कि हमारा मज़हब तो संगीत है। क्या आज समाज में समाज की भूमिका की जगह जाति-सम्प्रदाय को देखा जा रहा है, जबकि वह एक संगठित समाज है। राजनीति संबंधों को संभालने की जगह कुठाराघात क्यों करती है?
जाति और समाज हमने अपनी जीवन व्यवस्था को सहज और सुचारू बनाने के लिए शुरू की थी। आज उसे अपने जन्म और कर्म का आधार मान लिया गया है। बरसों पहले एक टीवी चैनल पर उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ साहब से एक मशहूर एंकर ने सवाल किया था कि आप गंगा को कैसे देखते हैं। मेरा दावा है कि वे यह सवाल पं छन्नूलाल मिश्र जी से हरगिज हरगिज़ नहीं करते। हमारा धर्म वह नहीं है, जिसमे हम पैदा हुए हैं। हमारा धर्म वह है, जो हमारा कर्म है। हमारा धर्म हमारी शिक्षा है। हमारा धर्म हमारी बुनियादी संस्कृति, सभ्यता और रीति रिवाज हैं। समाज जबतक यह नहीं सोचेगा, जातिगत और धर्मगत भेदभाव बढ़ाया जाता रहेगा। राजनीति का काम है इन असंतुलनों को समाप्त करना। लेकिन राजनीति अपने आप में तमाम असंतुलनों का अखाड़ा बना हुआ है। विभूति नारायण मिश्र ने लिखा था कि दंगे राजनेताओं द्वारा शुरू करवाए जाते हैं, जबतक वे चाहते हैं, दंगे होते रहते हैं, जब वे चाहते हैं, दंगे बंद हो जाते हैं। ..हमें लगता है कि हम निरीह जनता हाय भरने के सिवा कुछ नहीं कर पाते। लेकिन जब हम सत्ता बदल देने तक की ठान लेते हैं और उसे बदल देते हैं तो यह तो बाएं हाथ का खेल है। सवाल अपनी मानसिकता को बदलने और तदनुसार व्यवहार करने का है।
12 सिमोन द बोउवार कहती हैं कि स्त्रियां प्रायः सोचती हैं कि एक स्त्री के लिए इतना ही बहुत है। वे और आगे जाने की कोशिश नहीं करतीं। अपने क्षेत्र में बेमिसाल होने की कोशिश वे एक अपराध बोध समझती हैं। कैरियर कभी भी एक ठोस अस्तित्ववाली चीज नहीं होता। हमेशा यह दुविधा होती है कि क्या मैं कैरियर अपनाऊँ या मैं घर में रहकर परिवार की देखभाल करूं? उन्हें कोई कैरियर अपनाना भी होता है, तो उसके लिए तैयारी करनी होती है। अपने आप को पूरी मेहनत और मेहनत से उसमे लगाना होता है। अपने अपने तौर पर कैसा महसूस किया है?
यह हमारे समाज की सोच है और आज भी यही स्थिति है। आप देखिये, ऊँचे पदों पर कितनी महिलाएं हैं? पुरुष एक साथ दो तीन काम करना चाहे तो कर लेगा। वह घर में मेहमान को बिठाकर अपने काम पर निकल भी जाएगा। औरतों पर ये सारी जिम्मेदारियां डाल दी जाती हैं। वह ये सब ना करे तो गिल्ट उनमे ऐसा डाला जाता है कि वे इस गिल्ट में मरने लगती हैं। आज भी उन्हें दुहरी तिहरी मेहनत करनी पड़ती है अपने आपको साबित करने के लिए। काम करनेवाली लड़कियां शादी या बच्चे के बाद काम छोड़ देती हैं। यह उनकी मजबूरी है। मैं किसी भी काम के लिए घर और समाज का समर्थन बहुत अहम् मानती हूँ। अभी भी हमारे आसपास ऐसे क्रेशेज नहीं हैं, जहाँ माताएं अपने बच्चों को डाल सकें। अभी भी ऐसी मानसिकता नहीं बन पाई है कि घर के काम को पति-पत्नी के बीच शेयर कर लिया जाए। स्त्री को आजादी के नाम पर काम करने को कहा तो जाता है, लेकिन साथ में यह भी कह दिया जाता है कि घर-परिवार की जिम्मेदारी तुम्हारी है। जो करना चाहो, करो, लेकिन मेरे रूटीन में कोई बाधा न आए।
यह तो एक पक्ष हुआ। दूसरा पक्ष खुद महिलाओं के लिए है। वे खुद भी कई बार आरामदेह हालत में रहना पसंद करती हैं। कैरियर को लेकर वे बहुत अग्रेसिव नहीं होती। वे यह नहीं सोचतीं कि यह मेरा जीवन है और इसे मुझे ही बनाना है। मेरी एक रिश्तेदार हैं। दिन रात पति से प्रताड़ित होती हैं। लेकिन घर पर बनी हुई हैं, सिर्फ इसलिए कि बाहर निकलने में उन्हें भयंकर संघर्ष करना पडेगा। जो मर्द स्त्री को अपनी कमाई की धौंस देता रहे, मेरे ख्याल से उस घर में किसी स्त्री का रहना बहुत सअरे समझौतों को सामने ला पटकता है। ...मेरी एक दोस्त हैं। स्त्री विमर्श पर बढ़ चढ़कर बोलती हैं और घर में पति से गालियां सुनती और मार खाती हैं।....कई जगहों पर महिलाएं अपने औरतपन को भी भुनाने में पीछे नहीं रहतीं। इससे यह सिंग्नल जाता है कि वे सभी के लिए सहज उपलब्ध हैं। दहेज़ और रेप के नाम पर कई ने बेकसूरों को फंसाया है। हम स्त्रीवादी नारों में इन हकीकतों को भूल जाते हैं। इनपर ध्यान देना बहुत जरुरी है। औरतें अपने जीवन की बेहतरी के लिए खुद भी नहीं सोचतीं।मुझे पता है कि काम से लौटकर उन्हें घर के काम निपटने होते हैं। लेकिन महीने में एक दिन तो वे शाम में अपनी पसंद के काम के लिए कहीं किसी कार्यक्रम में जा सकती हैं। आखिरकार वे घर परिवार के साथ तो जाती ही हैं। एक दिन तो घर को कह सकती हैं कि आज मैं खाना नहीं बनाऊँगी या आज बाहर से मांगा लेते हैं या आज ब्रेड बटर खा लेते हैं। मुझे पता है, ऐसे में घर में हंगामा मचेगा, लेकिन मचने दीजिये ना। अंतत: घर को समझना ही पडेगा कि आपका भी अपना एक जीवन है और आपको भी अपना एक स्पेस चाहिए।
मेरा हमेशा अपनी मेहनत पर विश्वास रहा है । तैयारी जब हमें खाना बनाने और बर्तन कपडे धोने तक की करनी होती है, तो कैरियर की तैयारी से कैसे बचा जा सकता है। मैंने जो भी काम किया है, लेखन, नौकरी, थिएटर, गायन- पूरी मेहनत से किया है और आजतक कर रही हूँ। मैं सभी से कहती हूँ कि सफलता का कोई शार्ट कट नहीं होता और मेहनत से भागकर सफलता नहीं पाई जा सकती। मैं पूजा पाठ तो नहीं करती, लेकिन मेरे लिए मेरे सभी काम मेरी पूजा हैं।
13 आपका फ़िल्म मेकिंग से सम्बन्ध रहा है। लेस्ली उडविन की एक घंटे की फ़िल्म 'इंडियाज डॉटर' पर हंगामा क्यों? आज वित्त मंत्री तक कह रहे हैं कि मामूली सी बलात्कार की घटना का प्रचार अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन उद्योग को अरबों डॉलर का नुकसान पहुंचा देता है। आपकी प्रतिक्रया?
फ़िल्म बहुत घटिया तरीके से बनाई गई है। तथाकथित स्त्रीवादियों को यह अच्छा लग सकता है। फ़िल्म बनाना इसका उद्देशय नहीं है। घटना को चटपटा बनाकर दिखाना इसका उद्देश्य है।
जहाँ तक रेप का सवाल है, इसे रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर की श्रेणी में रखा जाना आवश्यक है। मेरा मानना है कि ह्त्या गैर इरादतन और अनजाने में हो सकती है। लेकिन रेप और डकैती सोच समझकर ही की जाती है। रेप कभी भी गैर इरादतन नहीं हो सकता। रेप स्त्री को तन से बढ़कर मन से तोड़ता है। पुरुष समाज से विश्वास की ह्त्या करता है। इसलिए, इसे कभी भी हल्केपन से नहीं लिया जाना चाहिए। रेप के आरोपियों को रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर के अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और उन्हें इतनी कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए कि लोग रेप से पहले दस बार सोचें- अपनी जान की सलामती को लेकर।
जो देश के पर्यटन और देश की छवि को धूमिल होने की बात कह रहे हैं या रेप करनेवालों को उम्र की गलती मानकर उसे यूँ ही हवा में उड़ा देने की बात कह रहे हैं, वे असल में इंसान हैं ही नहीं। मैं यह भी नहीं कह सकती कि उनके घर में किसी का रेप हुआ होता तो वे उस दर्द को समझते। क्योंकि ऐसी बात सोचना भी किसी स्त्री के प्रति हमें गुनाहगार बनाता है। खबरों पर शर्म करना हमे आना चाहिए और उस पर रोकथाम के लिए तुरतं कार्रवाई अनिवार्य है ताकि हमारे देश के सिस्टम और कानून व्यबस्था पर सारे विश्व को इत्मीनान हो सके।
हमें यह भी देखना होगा कि रेप क्यों हो रहे हैं? समाजशास्त्री इसे बेहतर तरीके से समझ और समझा सकते हैं। इसके पीछे हमारी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था और बेटे बेटी के भेद को समझना बहुत ज़रूरी है। माँ बाप और समाज जबतक बेटे को बेटी से ऊपर समझते रहेंगे, उन्हें अपने को मर्द बच्चा बताकर अभिव्यक्ति से रोकते रहेंगे, उनमें हिंसागत भावना तेजतर होती जाएगी। इसे समझने की बेहद ज़रूरत है।
14 वर्जीनिया वुल्फ के "रूम ऑफ़ वन्स ओन" में सत्रहवीं शताब्दी की लेखिका डचेज पत्थरमार शब्दों में कहती हैं- "औरतें चमगादड़ों, उल्लुओं की तरह ज़िंदा रहती हैं, पशुओं की तरह कहती हैं और केंचुओं की तरह मरती हैं।" क्या ऐसी स्थिति से नारी शक्ति का उदय हुआ?
नारी शक्ति प्रकृति की देन है। प्रकृति ने स्त्री को मानसिक रूप से अधिक मजबूत बनाकर भेजा है। लेकिन, कालांतर में उसे दबाते हुए, उसकी सत्ता को छीनकर अपना आधिपत्य जमाते हुए उसे कमजोर कर दिया गया। बार बार उनके भीतर यह भावना भर दी गई कि वह हर तरह से कमजोर और आश्रित है। पहले किसी को कमजोर करो। फिर उसके हालात सुधारने के किए सभा सेमीनार करो। यह बेहद हास्यास्पद है। औरतों को अपनी शक्ति का अहसास खुद करना होगा। केंचुए या चमगादड़ की स्थिति से वे तभी बाहर निकल सकेंगी। जब औरतें कहती हैं कि हम तो मर्दों की खिदमत के लिए ही पैदा हुई हैं तो मुझे औरतों पर नहीं, उस घर और उसके आसपास रहनेवाले मर्दों और समाज की घटिया सोच पर दया आती है। क्यों उस घर के मर्द यह सुनकर गर्व से सीना चौड़ा करते हैं? क्यों वे यह नहीं समझते और उन्हें समझाते कि हम तुम एक स्वस्थ इंसान, परिवार और समाज बनाने के लिए हैं न कि मालिक और नौकर बनने और बनाने के लिए।
15 क्या आप साधारण मनुषय और लेखक में फ़र्क़ समझती हैं?
लेखक भी साधारण मनुष्य ही है। उसके भीतर लिखने की कूवत है। इसलिए, साधारण मनुष्य जो सोचता है, लेखक उन्हें शब्द दे देता है। लेकिन लेखक इसे अपना अहम् मानकर इतराए ना। साधारण मनुष्य ही उसे लेखन का खाद, बीज, माटी सबकुछ देता है। लेखक इसका आभार अवश्य माने।
16 किस बड़े रचनाकार, समाजशास्त्री, या दार्शनिक ने आपको प्रभावित किया और क्यों?
मुझे सबसे अधिक प्रभावित मेरी माँ ने किया। वही मेरे लिए रचनाकार, समाजशास्त्री और दार्शनिक रही हैं। उसके बाद मैं जिस समाज के बीच पली, बढ़ी, उन्होंने मुझे सोच के सारे तत्व दिए। मेरी बेटियों ने भी मुझे बहुत प्रभावित किया और कर रही हैं। फिर भी अगर आप नाम ही जानना कहेंगे तो सबसे पहले मुझे भारतीय मिथक ने प्रभावित किया है। मैं दंग हूँ कि हमारा समाज तब कितना प्रगतिशील था और आज उसी को आधार मनाकर हम कितने संकुचित होते जा रहे हैं और कोढ़ में खाज की तरह उसे भारतीय संस्कृति से जोड़ भी दे रहे हैं। मुझे मंटो, फैज़, कबीर, मार्क्स, भगत सिंह, मंडन मिश्र की पत्नी भारती मिश्र, डॉ कलाम, गांधी जी, डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बहुत प्रभावित किया है। आजादी के आंदोलन में जाने से पहले डॉ राजेन्द्र प्रसाद अपनी पत्नी से पत्र लिखकर पूछते हैं कि तुम क्या कहती हो इस बारे में? साहित्य में मुझे सबसे अधिक फणीश्वरनाथ रेणु ने प्रभावित किया। मैं राजेन्द्र यादव से भी बहुत प्रभावित रही हूँ। नासिरा शर्मा, संजीव, मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। अर्चना वर्मा और रोहिणी अग्रवाल के समीक्षात्मक विचार बहुत प्रभावित करते हैं। प्रेम भारद्वाज का संपादकीय बहुत अच्छा लगता है। नाटकों में संजय उपाध्याय, वामन केंद्रे, डॉ देवेन्द्र राज अंकुर बहुत कुछ सीखने को देते हैं। ये सब तो महज चंद नाम हैं। नामों की श्रृंखला बहुत लंबी होती जाएगी। मुझे किसी से भी सीखने में कोई उज्र नहीं, क्योंकि अपने भीतर के विद्यार्थिपन को मैंने जिलाकर रखा हुआ है।
17 कभी उपन्यास लिखने का नहीं सोचा?
हाय रे। आपने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया। चार उपन्यास के प्लाट दिमाग में सड़ रहे हैं। समझ ही नहीं पा रही कि नाटक जैसा कठिन लेखन मैं कर ले रही हूँ और उपन्यास पर हाथ क्यों नहीं उठ रहा? लेकिन, न तो हारी हूँ और ना अभी चुकी हूँ। इसलिए उपन्यास भी आएगा। जिद्दी हूँ, सनकी हूँ। बस, इस ज़िद और सनक के उपन्यास तक पहुँचने की देर है।
18 बाजार और रचना के द्वंद्वात्मक सम्बन्ध को कैसे समझें?
मेरा मानना है कि जो रचेगा, वही बचेगा। और जो बढ़िया रचेगा, वह कालान्तर तक बचेगा। रचना के बीच बाज़ार इस रूप में आ गया है कि आपकी मार्केटिंग आपके बारे में बढ़िया लिखवाती और कहवाती है। इसका असर इस रूप में आया है कि लेखन की भी मार्केटिंग सी होने लगी है। एक आपाधापी मची है। हर कोई लेखन को मैनेज करने की दिशा में भाग रहा है। ऐसे ऐसे रचनाकार पुरस्कृत और सम्मानित हो रहे हैं कि हैरानी होती है।
बाजार और रचना एक दूसरे के पूरक हैं। बाजार हर समय हमारे साथ रहा है। बाजार का दवाब रचनाकार पर लिखने का दवाब बनाता है। तय हमें करना है कि हम बाजार के कितने गिरफ्त में आते हैं। ...बाजार हर समय खुद को बदलता है।बाजार की नब्ज़ को पहचानकर खुद को उस हिसाब से बदलने में आप लोगों तक सहजता से पहुंच पाते हैं। आज पॉपुलर कल्चर का दौर है। ऐसे में हम किस तरह से अपने पाठकों या दर्शकों तक पहुँच सकते हैं, यह हमें तय करना ही होगा।
19 स्त्री विमर्श की कर्तमान दशा?
स्त्री विमर्श केवल लेखन से ही नहीं होता। वह आपकी विचारधारा से जुड़कर आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है, तब स्त्री विमर्श पर व्यवहारिक रूप में बात की जा सकती है। केवल लेखन में जोर शोर से लिख देना या सोशल साइट्स पर नारे लगा देने से कोई भी विमर्श सार्थक स्वरूप नहीं ले पाता। हमें देखना होगा कि यदि हम स्त्री पर विमर्श करते हैं तो एक स्त्री के लिए हम क्या कर रहे हैं? क्या हमारी कथनी और करनी एक सी है? अगर है तो ऐसे विमर्श की कोई ज़रूरत ही नहीं रह जाती।
स्त्री विमर्श को आज एक फैशन बना दिया गया है। लोग स्त्रीवादी लेखन पर अश्लीलता का आरोप लगा रहे हैं। यह आरोप दुर्भाग्य से महिला लेखकों पर लगाया जाता रहा है। बोल्ड लेखन पुरुषों द्वारा हो तो उसे यथार्थपरक मान लिया जाता है। अरसा पहले एक कहानी पढ़ी थी कि एक माँ अपनी दो तीन महीने की बच्ची को अपने पति के पास छोड़कर बाजार जाती है और बच्ची का बाप उसकी नैप्पी बदलने से हिचकिचा रहा है कि इससे उस बच्ची का अंग उसे दिख जाएगा और वह यह कैसे झेल पाएगा। इसे लोगों ने बेहद यथार्थपरक बताया। मेरा तो मन लिजलिजा गया। मैं सोचने लगी कि चंद घंटे में अगर एक बाप अपनी नवजात के लिए ऐसा सोच रहा है तो एक माँ तो जाने कितने सालों तक अपने बेटे का सबकुछ करती है। तो क्या एक औरत के मन में यह बात आ सकती है कि वह अपने बेटे को कैसे नहलाए-धुलाए, सू सू पॉटी कराए, क्योंकि ऐसा करने से तो उसे उसके अंग दिखते रहेंगे। आप क्या लिखते हैं और कैसे लिखते हैं, यह देखना और उस पर सोचना बेहद ज़रूरी है।
20 जो कुछ लिखा-पढ़ा, उससे संतुष्ट हैं?
बिलकुल नहीं। संतुष्टि मेरे जीवन में कभी रही नहीं। यही मेरी जिजीविषा है। मैंने तो कुछ भी पढ़ा लिखा नहीं है। लाइब्रेरी तो छोड़िये, अपने घर पर जितनी किताबें और पत्र पत्रिकाएं आती हैं, उन्हें भी नहीं पढ़ पाती हूँ। कब मन भर पढ़ लिख पाऊँगी, पता नहीं।
कथाकार रंगकर्मी विभा रानी से कथाकार तरसेम गुजराल के सवालों- जवाबो का सिलसिला।
1 जब आपने तय कर लिया कि आप जीवन भर साहित्य, कला, संस्कृति का कार्य करेंगी, तब घर-परिवार में रुकावटें पेश नहीं आईं?
घर परिवार अपनी जगह है और आपका मिशन अपनी जगह। जब आप अपनी राह तय कर लेते हैं, तब आपको सम्झने के लिए आपका घर परिवार तैयार हो जाता है। लेकिन इसके साथ यह भी जरुरी है कि आप परिवार के सहयोग को टेकेन फॉर ग्रांटेड ना लें और अपना सहयोग भी देते रहे। ...मैंने साहित्य को कभी नहीं छोड़ा, न कभी विराम दिया, क्योंकि यह अकेले की साधना है। आप अपनी सुविधा से इसके लिए वक़्त निकाल सकते हैं। मैंने बस, ट्रेन, हवाई जहाजमें, किचन में, बाथरूम में, खाने की टेबल पर और गोद में बच्चे को सुलाते हुए, 2-2 बजे रात में उठकर, 5 बजे सुबह तक लिखा है। मेरे लिए समय,कट ऑफ़ डेट, टारगेट और रिजल्ट का बहुत महत्त्व रहा है। अगर मुझे कहीं एक रचना एक निर्धारित समय तक देनी है और मैंने उसके लिए हामी भर दी है तो मैं इसे कह सकते हैं कि जान पर खेलकर भी समय सीमा में उसे पूरा करने और भेजने की कोशिश करती हूँ। आजकल मेल का ज़माना है तो भेजने में समय नहीं लगता। पहले लिखने,फेयर करने, संभव हुआ तो टाइप करने और फिर डाक से भेजने में काफी समय लगता था। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुसतान, कादम्बिनी आदि में कई लेख इसी तरह लिखे। टारगेट डेट के बाद बमुश्किल मेरे पास समय बचता था। इसी तरह घर,बच्चों और दफ्तर से समय निकालकर लिखना होता था। दिमाग में यही एक बात रहती थी कि अपने वचन और समय पर खरी उतरुं।
नाटक करना समय और बहुत सारे अन्य कमिटमेंट्स मांगते हैं। जब एक समय में मैंने देखा कि घर, परिवार और नौकरी के बीच मैं फिलहाल नाटक को उतना समय नहीं दे सकती तो मैंने एक्टिव थिएटर से कुछ दिनों के लिए विश्राम ले लिया। संयोग या दुर्योग, यह ब्रेक 20 साल तक खिंच गया। इसके काफी नुकसान हुए। लेकिन, इस बीच मैंने कहानियों,लेखों,कविताओं, पुस्तक समीक्षाओं आदि के साथ साथ "दूसरा आदमी दूसरी औरत',"आओ तनिक प्रेम करें", "अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो", "पीर पराई" जैसे नाटक लिखे, जिनका मंचन कई थिएटर ग्रुप्स ने किए। "दूसरा आदमी दूसरी औरत" का मंचन भारंगम में भी हुआ। इस नाटक को आज महाराष्ट्र सरकार के सर्वित्तम नाटक और सर्वोत्तम स्क्रिप्ट के अलावा कई सम्मान मिल चुके हैं। "आओ तनिक प्रेम करें" को मोहन राकेश सम्मान के अलावा महाराष्ट्र राज्य के अलावा गुजरात राज्य के कई पुरस्कार मिल चुके हैं। "अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो" को भी मोहन राकेश सम्मान मिल चुका है। कथा संग्रहों को घनश्यामदास सर्राफ और डॉ माहेश्वरी सिंह महेश पुरस्कार सहित कहानी के लिए "कथा अवॉर्ड" मिले। 2007 से फिर एक्टिव थिएटर में उतरी हूँ और थिएटर को कई सारे क्षेत्रों में एक्सप्लोर कर रही हूँ।सोलो नाटक को अपने थिएटर का आधार बनाया है। थिएटर के माध्यम से कॉरपोरेट ट्रेनिंग, सोलो एक्टिंग क्लास, थिएटर आधारित व्यक्तित्व विकास पर कार्यक्रम कर रही हूँ।रूम थिएटर कांसेप्ट तैयार किया है और इसके माध्यम से नई और छुपी हुई प्रतिभाओं के साथ साथ प्रतुष्ठित लोगों से हस्तक्षेप सहित न्यूनतम लागत पर नाटक उप्लब्ध करा रही हूँ। अभी रूम थिएटर के साथ हम इंदौर गए थे। मुम्बई विश्वविद्यालय के साथ कार्यक्रम कर रहे हैं। संस्थाएं हमें बुला रही हैं। हम नाटक, साहित्य और कला व् संस्कृति को रूम थिएटर के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं।
कहने का मतलब यह कि हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होती हैं। जो हमारी जिम्मेदारियां हैं, उन्हें निभाना पड़ता है। महिलाओं को थोड़ा अधिक ध्यान देना पड़ता है। लेकिन जब आप ये सब कर लेते हैं और अपनी रचनात्मकता के लिए आगे बढ़ते हैं तो घर परिवार आपके साथ होता है। मुझे संतोष है कि मेरी रचनात्मक जिद को मेरे घरवालों ने समझा और मुझे साहित्य, नाटक, प्रशिक्षण और सामाजिक कार्यों को करने में कोई रुकावट नहीं आई। आपको मोरल सपोर्ट मिलता रहे और आप अपनी जिद पर बनी रहें तो उसके रिजल्ट सकारात्मक आते ही हैं। कठिनाइयाँ और तकलीफें साथ साथ आती हैं। सबकुछ हरा भरा नहीं होता। आपमे काँटों से चुभने और चुभे कांटे को निकालने, उसका दर्द सहने और उसे सहकर आगे बढ़ने का माद्दा होना चाहिए।
2 "प्रेम कहीं बिकता नहीं, हाट-बाट-बाजार" कहानी भाषा की संस्कृति पर है या अपार मानवीय प्रेम पर?
दोनों पर। भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति है तो भाषा हमारे बीच दूरियां भी पैदा करता है।यह कहानी मैंने अपने दक्षिण भारत प्रवास के बहुत पहले लिखी थी। भाषा की महत्ता वहां जाने पर समझ आई। भाषा के कारन हम लोगों के अन्य भावों को भी समझने से इनकार कर देते हैं। चूँकि मैंने खुद भी 5 साल तक इसी हिंदी शिक्षण योजना में हिंदी प्राध्यापक के रूप में काम किया है, इसलिए भाषा के टकराव को बहुत करीब से देखा है। लेकिन मैं इस कहानी की नायिका नहीं हूँ। (हाहाहा।) हाँ। कुछ बातें जरूर मेरी हैं इसमे। साथ ही यह कहानी देश की राजभाषा हिंदी के साथ साथ मानवीय मन की कई परतें खोलती हैं। आखिर, ऐसा क्यों है कि हमारे देश में देश की एक राजभाषा के नाम पर इतनी हाय तौबा मची हुई है? फिर भी अहिन्दीभाषी जितना सहयोग हिंदी को आगे बढ़ने में करते हैं, हिन्दीभाषी नहीं। वे हिंदी और हिंदी से जुड़े लोगों का मजाक उड़ाते हैं। लेकिन जब खुद के फंसने की बात आती है, तब हिंदी तो मेरी भाषा है, कहकर अपनी जान बचने में लग जाते हैं। जान छूट जाती है तो हिंदी को फिर से गरीब की भौजाई बनाकर छोड़ देते हैं।ऐसे लोग बड़ी बेशर्मी से यह कहते हैं कि अच्छा हुआ कि अंग्रेज अपनी अंग्रेजी यहाँ छोड़ गए। हमारे बच्चे आजकल दुनिया में अंग्रेजी के बल पर नौकरियां पा रहे हैं। फिर ऐसे ही लोग भारतीय संस्कृति की बात करते हैं। दूसरी भाषाओँ के लोग अपनी भाषा और संस्कृति से भी जुड़े हुए हैं और अंग्रेजी से भी। वे हिंदी से भी जुड़ते हैं क्योंकि वे हिंदी को सहज पाते हैं। सभी अहिन्दीभाषियों के घरों में उनकी भाषा का अखबार आता है। हिन्दीभाषियों के घरों से सबसे पहले हिंदी अखबारों की विदाई होती है। उनके घरों में हिंदी की किताबें नहीं मिलती हैं। यह सब बहुत बड़ा सांस्कृतिक फर्क है। यह मैं अपने 30 सालों के अनुभव से बोल रही हूँ।
3 आपकी कहानी "बेवज़ह" सोचने पर मज़बूर करती है कि भारतीय जन सांप्रदायिक हुआ तो यह प्रक्रिया क्या अंग्रेज काल से आई?
भारतीय जन सांप्रदायिक से अधिक भीडोन्मादी हो गया है। अपने सोचने समझने की ताकत खो बैठा है। एक दूसरे के प्रति नफ़रत ही अपने धर्म से प्रेम का आधार बना दिया गया है। ऐसे में धर्म की बेहद बुनियादी बातें - प्रेम, दया, करुणा, मानवीयता हम भूल बैठे हैं। ये तत्व आज कमजोरी के पर्याय मान लिए गए हैं। धर्म का मतलब अपनी शक्ति का हिंसात्मक और दम्भ भरा प्रदर्शन हो गया है। धर्म का उन्माद अंग्रेजो की देन नहीं है। हाँ, उन्होंने इसे भुनाया।फूट डालो, राज करो की आग जलाई। हमने उसे ज्वाला बना दिया। आज हालात और भयावह हो गए हैं, जिसकी धधक हम सभी महसूस कर रहे हैं। दूसरे, हम अपना विवेक कहीं खो बैठे हैं। धर्म के नाम पर हम भी उन्मादी हो जाते हैं। सच को झुठलाते हैं और झूठ को सच मान बैठते हैं। कहानी की फैंटेसी आज यथार्थ के रूप में हमारे सामने हर रोज घट रही है और हम मूक बधिर बने बैठे हुए हैं। साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाया जा रहा है। आज सोशल मीडिया के द्वारा इसे बहुत सुनियोजित तरीके से फैलाया जा रहा है। दुःख होता है, जब हमारा पढ़ा लिखा समुदाय इस तरह के मेसेज फॉरवर्ड करता रहता है। इससे बचने की सख्त जरुरत है।
4 लेखन में आप सदा आशावादी रही हैं। ऐसी कहानियों के पात्र कैसे चुनती हैं?
आशा जीवन का मूल है। मेरा जीवन तमाम तरह की नकरात्मकताओं के साथ शरू हुआ। छोटी जगह की एक सामान्य शकल-सूरत वाली लड़की के लिए जितनी भी रुकावटें आ सकती थीं, आईं। ऐसे में अपनी सकारात्मकता के साथ ही आगे बढ़ने की सोची। एक राह बंद हुई तो दूसरी खोजी ताकि जीने और आगे बढ़ने का आधार मिले। ...मेरा मानना है कि जीवन कभी ख़त्म नहीं होता। इसलिए अपने पात्रों में भी वह सकारात्मक सोच और स्वाभिमान डालने की कोशिश की। मुझे उन रचनाओं से बड़ी कोफ़्त होती है, जिसमे अंत भी निराशावादी होता है। मुझे लगता है कि मैं उसे पढ़कर ठगी गई। जीवन कभी भी इतना बुरा नहीं होता। यदि सबकुछ इतना ही खराब रहता तो महाभारत या आज के नागाशाकी हिरोशिमा और विश्व युद्धों के बाद तो हमारा नामो निशाँ ही नहीं रह जाता। यह उन लोगों के जीने का जुझारूपन ही है कि इतनी भीषण तबाही के बाद भी वे और हम हैं। निदा फ़ाज़ली ने 1992 के दंगों के बाद लिखा था-
उठ के कपडे बदल, घर से निकल, जो हुआ सो हुआ
दिन के बाद रात, रात के बाद दिन, जो हुआ सो हुआ।"
रात के बाद का दिन ही हमारी आशा का प्रेरणा पुंज है। यह आशावाद ही मेरा भी जीवन है। इसी के बल पर आजतक अपनी सारी लड़ाइयां लड़ती आई हूँ। पढ़ाई जारी रखी। रेडियो में काम किया। घर की स्थिति नाजुक होने पर मोहल्ले के लोगों के कपडे सीकर, स्वेटर बुनकर और रेडियो में काम करके पढ़ाई का खर्च निकाला। यहां तक कि अपनी दुरूह कैंसर जैसी बीमारी को भी इसी आशावाद के साथ झेलने की कोशिश की है।
5 आपने जगह जगह जाकर नाटक खेले हैं। स्वदेश दीपक भी कहानीकार नाटककार थे। उनके नाटक 'कोर्ट मार्शल' के 2000 से ज़्यादा शो हुए। क्या नाटक आपको कहानी से ज्यादा जनप्रिय लगा?
स्वदेश दीपक बहुत बड़े रचनाकार हैं। उनका कोर्ट मार्शल इतना सशक्त नाटक है कि उसे पढ़ भी दिया जाए तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शायद ही कोई ग्रुप हो जिसने कोर्ट मार्शल ना खेला हो। ....कहानी एकांत का विषय है, नाटक सार्वजनिकता का। कहानी अकेले में लिखी जाती है,अकेले में पढ़ी जाती है। नाटक सभी के साथ और सभी के बीच किया जाता है। एक बार में एक कहानी एक पाठक पढ़ सकता है। नाटक एक बार में सैकड़ों हजारों देखते हैं। आप अपनी बात एक साथ, एक ही समय में इतने लोगों तक पहुंचा पाते हैं। मुझे कहानी और नाटक दोनों बहुत पसंद हैं। फिर भी नाटक अपनी तुरंत पहुँच और अधिक सम्प्रेषणीयता के कारण अधिक पसंद है। ...दूसरे, मैं नाटक केवल लिखती ही नहीं, मैं खुद भी थिएटर करती हूँ। थिएटर में 20 साल के अंतराल के बाद मैंने अपने लिए सोलो प्रस्तुति को चुना है, जो बेहद आनंददायी और संतोषप्रद तो है, साथ ही कठिन और चुनौतीपूर्ण भी। नाटक खेलना मेरा जुनून है। एक पागलपन- यह बताने के लिए कि थिएटर हमारे जीवन के लिए क्यों जरुरी है? कि थिएटर के लिए उम्र या कोई भी बंधन आड़े नहीं आता। कि थिएटर से आपको जीने की उमंग और ऊर्जा मिलती है। कि थिएटर आपमे आशावाद का संचार करता है। कि थिएटर आपको अपने जीवन के कार्यक्षेत्र से जोड़कर आपको उसमे एक्सपर्ट बनाता है। मुझे हमेशा लगता है कि हमारे सभी सहित्यिको को थिएटर से जुड़ना चाहिए। थिएटर उनको मंच पर अपने को बेहतर तरीके से प्रस्तुत करने लायक बनाता है।
6 कहानी, नाटक या फ़िल्म- किसमें रचनात्मक संतोष ज्यादा मिला?
तीनों अलग अलग माध्यम हैं। तीनों के अपने अपने रचनात्मक सुख हैं।किसी की किसी से तुलना नहीं की जा सकती। जब मैं नाटक करने की स्थिति में नहीं थी, उस समय लेखन ही मेरी रचनात्मकता और मुझे जिलाए रखने का ज़रिया था। दो साल पहले मुझे कैंसर हुआ। उस समय भी लेखन और वीडियो मेकिंग ने ही मुझे जिलाए और बनाए रखा। सभी माध्यम के लिए आप अपने आपको कैसे तैयार और सुनियोजित करते हैं, यह अधिक महत्वपूर्ण है।मुझे ख़ुशी है कि मैं अपना संतुलन लेखन, थिएटर, प्रशिक्षण, सामाजिक कार्यों सहित राजभाषा हिंदी सभी में बनाकर रख पा रही हूँ। मैं बहुत प्रयोगवादी हूँ और मानती हूँ कि जो काम मैं कर सकती हूँ, उसमें हाथ ज़रूर आजमाना चाहिए। बीमारी के दौरान मेरा घर से बाहर निकलना बंद हो गया तो मैं वीडियो बनाने और उसे यू ट्यूब पर अपलोड करने लगी। यहाँ तक कि घर की सब्जियों फलों के छिलकों से खाद भी बनाया। ये सारे काम आज भी जारी हैं। मुझे लगता है कि हमें अपनी सारी संभावनाओं के लिए अपने आपको खुला रखना चाहिए। मौके आते हैं, उसे लपकिये और अपना काम कीजिये।
7 अपने जयशंकर प्रसाद पर फ़िल्म की। वे हिंदी के बहुत बड़े कवि हैं। परंतु क्या बड़े कहानीकार नहीं?
मैंने जयशंकर प्रसाद पर फिल्म्स डिवीजन के लिए स्क्रिप्ट लिखी है। उस फ़िल्म में उमा डोगरा, ललित परिमू जैसे कलाकारों ने काम किया है। प्रसाद हिंदी के बहुत बड़े साहित्यकार हैं। वे एक साथ कवि, कहानीकार, नाटककार हैं। उनपर फ़िल्म लिखना मेरे लिए एक गौरवपूर्ण अनुभव था। फ़िल्म निर्माण के दौरान प्रसाद जी के बेटे रत्नशंकर प्रसाद जी से भी भेंट हुई थी। वह भी मेरे लिए एक उपलब्धि थी। प्रसाद जी की कविताओं, कहानियों व् नाटकों पर काम होना बाकी है। मेरी दिली इच्छा है कि मैं उनके नाटक "ध्रुवस्वामिनी" की एकल प्रस्तुति करूँ।
8 आपने लिली रे के उपन्यास 'पटाक्षेप' का हिंदी रूपांतर किया। कृपया लिली रे जी बारे में कुछ बताएं। हम साधारण हिंदी के पाठक प्रांतीय भाषाओँ के लेखकों के बारे में कम क्यों जानते हैं?
लिली रे मैथिली की बेहद सशक्त रचनाकार हैं। उनका लेखन विश्व क्लासिक की श्रेणी में आता है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अन्य देशी विदेशी भाषाओँ के रचनाकारों को तो जानते समझते हैं, लेकिन हिंदी के आसपास की भाषाओं पर ध्यान नहीं देते। भारत की अन्य भाषाओँ के साथ ऐसा नहीं है। बँगला, मराठी, कन्नड़, गुजराती के साहित्य हिंदी में उपलब्ध हैं। लिली रे मैथिली साहित्य की पहली सहित्य अकादमी विजेता महिला लेखक हैं । वे अपने समय की सबसे बोल्ड महिला कथाकार रही हैं। महिला बोल्ड लेखन को आज फैशन बताया जा रहा है। लिली जी ने लगभग 40 साल पहले "रंगीन परदा" जैसी बेहद बोल्ड कहानी लिखी। यह मेरी खुशकिस्मती है कि उन्होंने मुझे अपने लेखन के हिंदी अनुवाद के लायक मुझे समझा। पटाक्षेप के अलावा अबतक उनकी अन्य 3 किताबें मेरे द्वारा अनूदित होकर आ चुकी हैं-बिल टेलर की डायरी, जिजीविषा और सम्बन्ध। लोगों को उनकी किताबें जरूर पढ़नी चाहिए। मुझे लगता है कि अगर आज वे मैथिली के अलावा किसी अन्य भाषा में लिख रही होतीं तो उनकी पहचान विश्व स्तर की होती।
9 'पटाक्षेप' उपन्यास की पृष्ठभूमि नक्सलवादी आंदोलन है। शोषण के विरुद्ध इस बड़े संघर्ष को या तो खौफनाक बताया गया या रोमांटिक। उपन्यासकार का दृष्टिकोण क्या है?
उपन्यासकार ने यह दिखाने की कोशिश की है कि इस तरह के आंदोलन के प्रणेता या नेता कैसे अवसर और लाभ मिलने पर खुद सुविधाभोगी हो जाते हैं, जिससे आंदोलन तो कमजोर पड़ते ही हैं, उसमें शामिल लोगों का या तो मोहभंग होता है या उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता।
10 क्या दलित साहित्य और नक्सलवादी साहित्य में कोई सम्बन्ध है? अस्वीकार दोनों में एक जैसा है।
दोनों ही निषेध का साहित्य है। दोनों ने ही सत्ता और समाज की व्यवस्था से बहुत झेला है। एक समाज की व्यवस्था से और दूसरा सत्ता की व्यवस्था से। अस्वीकार्यता उनकी नियति है। कबतक आप अपने को बहिष्कृत, तिरस्कृत, उपेक्षित देखना और इसतरह जीना पसंद करेंगे? साहित्य हमेशा से प्रतिरोध के स्वर को मुखर करता रहा है।
11 आपके नाटक "मियां मुसलमान' के सन्दर्भ में सारंगीवादक लतीफ़ खां की बात याद आती है। वे कहते हैं कि हमारा मज़हब तो संगीत है। क्या आज समाज में समाज की भूमिका की जगह जाति-सम्प्रदाय को देखा जा रहा है, जबकि वह एक संगठित समाज है। राजनीति संबंधों को संभालने की जगह कुठाराघात क्यों करती है?
जाति और समाज हमने अपनी जीवन व्यवस्था को सहज और सुचारू बनाने के लिए शुरू की थी। आज उसे अपने जन्म और कर्म का आधार मान लिया गया है। बरसों पहले एक टीवी चैनल पर उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ साहब से एक मशहूर एंकर ने सवाल किया था कि आप गंगा को कैसे देखते हैं। मेरा दावा है कि वे यह सवाल पं छन्नूलाल मिश्र जी से हरगिज हरगिज़ नहीं करते। हमारा धर्म वह नहीं है, जिसमे हम पैदा हुए हैं। हमारा धर्म वह है, जो हमारा कर्म है। हमारा धर्म हमारी शिक्षा है। हमारा धर्म हमारी बुनियादी संस्कृति, सभ्यता और रीति रिवाज हैं। समाज जबतक यह नहीं सोचेगा, जातिगत और धर्मगत भेदभाव बढ़ाया जाता रहेगा। राजनीति का काम है इन असंतुलनों को समाप्त करना। लेकिन राजनीति अपने आप में तमाम असंतुलनों का अखाड़ा बना हुआ है। विभूति नारायण मिश्र ने लिखा था कि दंगे राजनेताओं द्वारा शुरू करवाए जाते हैं, जबतक वे चाहते हैं, दंगे होते रहते हैं, जब वे चाहते हैं, दंगे बंद हो जाते हैं। ..हमें लगता है कि हम निरीह जनता हाय भरने के सिवा कुछ नहीं कर पाते। लेकिन जब हम सत्ता बदल देने तक की ठान लेते हैं और उसे बदल देते हैं तो यह तो बाएं हाथ का खेल है। सवाल अपनी मानसिकता को बदलने और तदनुसार व्यवहार करने का है।
12 सिमोन द बोउवार कहती हैं कि स्त्रियां प्रायः सोचती हैं कि एक स्त्री के लिए इतना ही बहुत है। वे और आगे जाने की कोशिश नहीं करतीं। अपने क्षेत्र में बेमिसाल होने की कोशिश वे एक अपराध बोध समझती हैं। कैरियर कभी भी एक ठोस अस्तित्ववाली चीज नहीं होता। हमेशा यह दुविधा होती है कि क्या मैं कैरियर अपनाऊँ या मैं घर में रहकर परिवार की देखभाल करूं? उन्हें कोई कैरियर अपनाना भी होता है, तो उसके लिए तैयारी करनी होती है। अपने आप को पूरी मेहनत और मेहनत से उसमे लगाना होता है। अपने अपने तौर पर कैसा महसूस किया है?
यह हमारे समाज की सोच है और आज भी यही स्थिति है। आप देखिये, ऊँचे पदों पर कितनी महिलाएं हैं? पुरुष एक साथ दो तीन काम करना चाहे तो कर लेगा। वह घर में मेहमान को बिठाकर अपने काम पर निकल भी जाएगा। औरतों पर ये सारी जिम्मेदारियां डाल दी जाती हैं। वह ये सब ना करे तो गिल्ट उनमे ऐसा डाला जाता है कि वे इस गिल्ट में मरने लगती हैं। आज भी उन्हें दुहरी तिहरी मेहनत करनी पड़ती है अपने आपको साबित करने के लिए। काम करनेवाली लड़कियां शादी या बच्चे के बाद काम छोड़ देती हैं। यह उनकी मजबूरी है। मैं किसी भी काम के लिए घर और समाज का समर्थन बहुत अहम् मानती हूँ। अभी भी हमारे आसपास ऐसे क्रेशेज नहीं हैं, जहाँ माताएं अपने बच्चों को डाल सकें। अभी भी ऐसी मानसिकता नहीं बन पाई है कि घर के काम को पति-पत्नी के बीच शेयर कर लिया जाए। स्त्री को आजादी के नाम पर काम करने को कहा तो जाता है, लेकिन साथ में यह भी कह दिया जाता है कि घर-परिवार की जिम्मेदारी तुम्हारी है। जो करना चाहो, करो, लेकिन मेरे रूटीन में कोई बाधा न आए।
यह तो एक पक्ष हुआ। दूसरा पक्ष खुद महिलाओं के लिए है। वे खुद भी कई बार आरामदेह हालत में रहना पसंद करती हैं। कैरियर को लेकर वे बहुत अग्रेसिव नहीं होती। वे यह नहीं सोचतीं कि यह मेरा जीवन है और इसे मुझे ही बनाना है। मेरी एक रिश्तेदार हैं। दिन रात पति से प्रताड़ित होती हैं। लेकिन घर पर बनी हुई हैं, सिर्फ इसलिए कि बाहर निकलने में उन्हें भयंकर संघर्ष करना पडेगा। जो मर्द स्त्री को अपनी कमाई की धौंस देता रहे, मेरे ख्याल से उस घर में किसी स्त्री का रहना बहुत सअरे समझौतों को सामने ला पटकता है। ...मेरी एक दोस्त हैं। स्त्री विमर्श पर बढ़ चढ़कर बोलती हैं और घर में पति से गालियां सुनती और मार खाती हैं।....कई जगहों पर महिलाएं अपने औरतपन को भी भुनाने में पीछे नहीं रहतीं। इससे यह सिंग्नल जाता है कि वे सभी के लिए सहज उपलब्ध हैं। दहेज़ और रेप के नाम पर कई ने बेकसूरों को फंसाया है। हम स्त्रीवादी नारों में इन हकीकतों को भूल जाते हैं। इनपर ध्यान देना बहुत जरुरी है। औरतें अपने जीवन की बेहतरी के लिए खुद भी नहीं सोचतीं।मुझे पता है कि काम से लौटकर उन्हें घर के काम निपटने होते हैं। लेकिन महीने में एक दिन तो वे शाम में अपनी पसंद के काम के लिए कहीं किसी कार्यक्रम में जा सकती हैं। आखिरकार वे घर परिवार के साथ तो जाती ही हैं। एक दिन तो घर को कह सकती हैं कि आज मैं खाना नहीं बनाऊँगी या आज बाहर से मांगा लेते हैं या आज ब्रेड बटर खा लेते हैं। मुझे पता है, ऐसे में घर में हंगामा मचेगा, लेकिन मचने दीजिये ना। अंतत: घर को समझना ही पडेगा कि आपका भी अपना एक जीवन है और आपको भी अपना एक स्पेस चाहिए।
मेरा हमेशा अपनी मेहनत पर विश्वास रहा है । तैयारी जब हमें खाना बनाने और बर्तन कपडे धोने तक की करनी होती है, तो कैरियर की तैयारी से कैसे बचा जा सकता है। मैंने जो भी काम किया है, लेखन, नौकरी, थिएटर, गायन- पूरी मेहनत से किया है और आजतक कर रही हूँ। मैं सभी से कहती हूँ कि सफलता का कोई शार्ट कट नहीं होता और मेहनत से भागकर सफलता नहीं पाई जा सकती। मैं पूजा पाठ तो नहीं करती, लेकिन मेरे लिए मेरे सभी काम मेरी पूजा हैं।
13 आपका फ़िल्म मेकिंग से सम्बन्ध रहा है। लेस्ली उडविन की एक घंटे की फ़िल्म 'इंडियाज डॉटर' पर हंगामा क्यों? आज वित्त मंत्री तक कह रहे हैं कि मामूली सी बलात्कार की घटना का प्रचार अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन उद्योग को अरबों डॉलर का नुकसान पहुंचा देता है। आपकी प्रतिक्रया?
फ़िल्म बहुत घटिया तरीके से बनाई गई है। तथाकथित स्त्रीवादियों को यह अच्छा लग सकता है। फ़िल्म बनाना इसका उद्देशय नहीं है। घटना को चटपटा बनाकर दिखाना इसका उद्देश्य है।
जहाँ तक रेप का सवाल है, इसे रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर की श्रेणी में रखा जाना आवश्यक है। मेरा मानना है कि ह्त्या गैर इरादतन और अनजाने में हो सकती है। लेकिन रेप और डकैती सोच समझकर ही की जाती है। रेप कभी भी गैर इरादतन नहीं हो सकता। रेप स्त्री को तन से बढ़कर मन से तोड़ता है। पुरुष समाज से विश्वास की ह्त्या करता है। इसलिए, इसे कभी भी हल्केपन से नहीं लिया जाना चाहिए। रेप के आरोपियों को रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर के अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और उन्हें इतनी कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए कि लोग रेप से पहले दस बार सोचें- अपनी जान की सलामती को लेकर।
जो देश के पर्यटन और देश की छवि को धूमिल होने की बात कह रहे हैं या रेप करनेवालों को उम्र की गलती मानकर उसे यूँ ही हवा में उड़ा देने की बात कह रहे हैं, वे असल में इंसान हैं ही नहीं। मैं यह भी नहीं कह सकती कि उनके घर में किसी का रेप हुआ होता तो वे उस दर्द को समझते। क्योंकि ऐसी बात सोचना भी किसी स्त्री के प्रति हमें गुनाहगार बनाता है। खबरों पर शर्म करना हमे आना चाहिए और उस पर रोकथाम के लिए तुरतं कार्रवाई अनिवार्य है ताकि हमारे देश के सिस्टम और कानून व्यबस्था पर सारे विश्व को इत्मीनान हो सके।
हमें यह भी देखना होगा कि रेप क्यों हो रहे हैं? समाजशास्त्री इसे बेहतर तरीके से समझ और समझा सकते हैं। इसके पीछे हमारी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था और बेटे बेटी के भेद को समझना बहुत ज़रूरी है। माँ बाप और समाज जबतक बेटे को बेटी से ऊपर समझते रहेंगे, उन्हें अपने को मर्द बच्चा बताकर अभिव्यक्ति से रोकते रहेंगे, उनमें हिंसागत भावना तेजतर होती जाएगी। इसे समझने की बेहद ज़रूरत है।
14 वर्जीनिया वुल्फ के "रूम ऑफ़ वन्स ओन" में सत्रहवीं शताब्दी की लेखिका डचेज पत्थरमार शब्दों में कहती हैं- "औरतें चमगादड़ों, उल्लुओं की तरह ज़िंदा रहती हैं, पशुओं की तरह कहती हैं और केंचुओं की तरह मरती हैं।" क्या ऐसी स्थिति से नारी शक्ति का उदय हुआ?
नारी शक्ति प्रकृति की देन है। प्रकृति ने स्त्री को मानसिक रूप से अधिक मजबूत बनाकर भेजा है। लेकिन, कालांतर में उसे दबाते हुए, उसकी सत्ता को छीनकर अपना आधिपत्य जमाते हुए उसे कमजोर कर दिया गया। बार बार उनके भीतर यह भावना भर दी गई कि वह हर तरह से कमजोर और आश्रित है। पहले किसी को कमजोर करो। फिर उसके हालात सुधारने के किए सभा सेमीनार करो। यह बेहद हास्यास्पद है। औरतों को अपनी शक्ति का अहसास खुद करना होगा। केंचुए या चमगादड़ की स्थिति से वे तभी बाहर निकल सकेंगी। जब औरतें कहती हैं कि हम तो मर्दों की खिदमत के लिए ही पैदा हुई हैं तो मुझे औरतों पर नहीं, उस घर और उसके आसपास रहनेवाले मर्दों और समाज की घटिया सोच पर दया आती है। क्यों उस घर के मर्द यह सुनकर गर्व से सीना चौड़ा करते हैं? क्यों वे यह नहीं समझते और उन्हें समझाते कि हम तुम एक स्वस्थ इंसान, परिवार और समाज बनाने के लिए हैं न कि मालिक और नौकर बनने और बनाने के लिए।
15 क्या आप साधारण मनुषय और लेखक में फ़र्क़ समझती हैं?
लेखक भी साधारण मनुष्य ही है। उसके भीतर लिखने की कूवत है। इसलिए, साधारण मनुष्य जो सोचता है, लेखक उन्हें शब्द दे देता है। लेकिन लेखक इसे अपना अहम् मानकर इतराए ना। साधारण मनुष्य ही उसे लेखन का खाद, बीज, माटी सबकुछ देता है। लेखक इसका आभार अवश्य माने।
16 किस बड़े रचनाकार, समाजशास्त्री, या दार्शनिक ने आपको प्रभावित किया और क्यों?
मुझे सबसे अधिक प्रभावित मेरी माँ ने किया। वही मेरे लिए रचनाकार, समाजशास्त्री और दार्शनिक रही हैं। उसके बाद मैं जिस समाज के बीच पली, बढ़ी, उन्होंने मुझे सोच के सारे तत्व दिए। मेरी बेटियों ने भी मुझे बहुत प्रभावित किया और कर रही हैं। फिर भी अगर आप नाम ही जानना कहेंगे तो सबसे पहले मुझे भारतीय मिथक ने प्रभावित किया है। मैं दंग हूँ कि हमारा समाज तब कितना प्रगतिशील था और आज उसी को आधार मनाकर हम कितने संकुचित होते जा रहे हैं और कोढ़ में खाज की तरह उसे भारतीय संस्कृति से जोड़ भी दे रहे हैं। मुझे मंटो, फैज़, कबीर, मार्क्स, भगत सिंह, मंडन मिश्र की पत्नी भारती मिश्र, डॉ कलाम, गांधी जी, डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बहुत प्रभावित किया है। आजादी के आंदोलन में जाने से पहले डॉ राजेन्द्र प्रसाद अपनी पत्नी से पत्र लिखकर पूछते हैं कि तुम क्या कहती हो इस बारे में? साहित्य में मुझे सबसे अधिक फणीश्वरनाथ रेणु ने प्रभावित किया। मैं राजेन्द्र यादव से भी बहुत प्रभावित रही हूँ। नासिरा शर्मा, संजीव, मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। अर्चना वर्मा और रोहिणी अग्रवाल के समीक्षात्मक विचार बहुत प्रभावित करते हैं। प्रेम भारद्वाज का संपादकीय बहुत अच्छा लगता है। नाटकों में संजय उपाध्याय, वामन केंद्रे, डॉ देवेन्द्र राज अंकुर बहुत कुछ सीखने को देते हैं। ये सब तो महज चंद नाम हैं। नामों की श्रृंखला बहुत लंबी होती जाएगी। मुझे किसी से भी सीखने में कोई उज्र नहीं, क्योंकि अपने भीतर के विद्यार्थिपन को मैंने जिलाकर रखा हुआ है।
17 कभी उपन्यास लिखने का नहीं सोचा?
हाय रे। आपने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया। चार उपन्यास के प्लाट दिमाग में सड़ रहे हैं। समझ ही नहीं पा रही कि नाटक जैसा कठिन लेखन मैं कर ले रही हूँ और उपन्यास पर हाथ क्यों नहीं उठ रहा? लेकिन, न तो हारी हूँ और ना अभी चुकी हूँ। इसलिए उपन्यास भी आएगा। जिद्दी हूँ, सनकी हूँ। बस, इस ज़िद और सनक के उपन्यास तक पहुँचने की देर है।
18 बाजार और रचना के द्वंद्वात्मक सम्बन्ध को कैसे समझें?
मेरा मानना है कि जो रचेगा, वही बचेगा। और जो बढ़िया रचेगा, वह कालान्तर तक बचेगा। रचना के बीच बाज़ार इस रूप में आ गया है कि आपकी मार्केटिंग आपके बारे में बढ़िया लिखवाती और कहवाती है। इसका असर इस रूप में आया है कि लेखन की भी मार्केटिंग सी होने लगी है। एक आपाधापी मची है। हर कोई लेखन को मैनेज करने की दिशा में भाग रहा है। ऐसे ऐसे रचनाकार पुरस्कृत और सम्मानित हो रहे हैं कि हैरानी होती है।
बाजार और रचना एक दूसरे के पूरक हैं। बाजार हर समय हमारे साथ रहा है। बाजार का दवाब रचनाकार पर लिखने का दवाब बनाता है। तय हमें करना है कि हम बाजार के कितने गिरफ्त में आते हैं। ...बाजार हर समय खुद को बदलता है।बाजार की नब्ज़ को पहचानकर खुद को उस हिसाब से बदलने में आप लोगों तक सहजता से पहुंच पाते हैं। आज पॉपुलर कल्चर का दौर है। ऐसे में हम किस तरह से अपने पाठकों या दर्शकों तक पहुँच सकते हैं, यह हमें तय करना ही होगा।
19 स्त्री विमर्श की कर्तमान दशा?
स्त्री विमर्श केवल लेखन से ही नहीं होता। वह आपकी विचारधारा से जुड़कर आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है, तब स्त्री विमर्श पर व्यवहारिक रूप में बात की जा सकती है। केवल लेखन में जोर शोर से लिख देना या सोशल साइट्स पर नारे लगा देने से कोई भी विमर्श सार्थक स्वरूप नहीं ले पाता। हमें देखना होगा कि यदि हम स्त्री पर विमर्श करते हैं तो एक स्त्री के लिए हम क्या कर रहे हैं? क्या हमारी कथनी और करनी एक सी है? अगर है तो ऐसे विमर्श की कोई ज़रूरत ही नहीं रह जाती।
स्त्री विमर्श को आज एक फैशन बना दिया गया है। लोग स्त्रीवादी लेखन पर अश्लीलता का आरोप लगा रहे हैं। यह आरोप दुर्भाग्य से महिला लेखकों पर लगाया जाता रहा है। बोल्ड लेखन पुरुषों द्वारा हो तो उसे यथार्थपरक मान लिया जाता है। अरसा पहले एक कहानी पढ़ी थी कि एक माँ अपनी दो तीन महीने की बच्ची को अपने पति के पास छोड़कर बाजार जाती है और बच्ची का बाप उसकी नैप्पी बदलने से हिचकिचा रहा है कि इससे उस बच्ची का अंग उसे दिख जाएगा और वह यह कैसे झेल पाएगा। इसे लोगों ने बेहद यथार्थपरक बताया। मेरा तो मन लिजलिजा गया। मैं सोचने लगी कि चंद घंटे में अगर एक बाप अपनी नवजात के लिए ऐसा सोच रहा है तो एक माँ तो जाने कितने सालों तक अपने बेटे का सबकुछ करती है। तो क्या एक औरत के मन में यह बात आ सकती है कि वह अपने बेटे को कैसे नहलाए-धुलाए, सू सू पॉटी कराए, क्योंकि ऐसा करने से तो उसे उसके अंग दिखते रहेंगे। आप क्या लिखते हैं और कैसे लिखते हैं, यह देखना और उस पर सोचना बेहद ज़रूरी है।
20 जो कुछ लिखा-पढ़ा, उससे संतुष्ट हैं?
बिलकुल नहीं। संतुष्टि मेरे जीवन में कभी रही नहीं। यही मेरी जिजीविषा है। मैंने तो कुछ भी पढ़ा लिखा नहीं है। लाइब्रेरी तो छोड़िये, अपने घर पर जितनी किताबें और पत्र पत्रिकाएं आती हैं, उन्हें भी नहीं पढ़ पाती हूँ। कब मन भर पढ़ लिख पाऊँगी, पता नहीं।
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Friday, August 19, 2016
बैंक और जिम्मेदारियाँ- पति-पत्नी के जोक्स का उल्टा-पुल्टा रूप- 25
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Thursday, August 18, 2016
राखी के इस पावन अवसर पर!
हर साल राखी आती है। छम्मकछल्लो का ध्यान उन सभी दुलारे भाइयों की ओर भी जाता है, जिनके लिए हम औरतें या लड़कियां बहनें नहीं, मादा भर हैं। अब तो मादा भी नहीं शायद। हर साल यह लेख अपने उन भाइयों को समर्पित करती है यह छम्मकछल्लो। आज भी-
मेरे भैया,
आज रक्षा बन्धन है. इस जगत की सभी बहनों का बडा प्यार भरा दुलार तुम तक पहुंचे. हम सब कितनी खुशकिस्मत हैं कि हमारे जीवन में भाई का प्रेम विद्यमान है. यह प्रेम जीवन भर बना रहे और इस प्रेम की फुहार से हमारी जीवन –बगिया सदा हरी-भरी बनी रहे, यही कामना है.
मेरे भैया, राखी बान्धने के एवज में तुम सब हम बहनों को नेग देते हो. इस बार भी दोगे, यह मेरा पक्का विश्वास है. बताऊं भैया, इस बार नेग में हमें रुपए- पैसे, साडी, गहने नहीं चाहिए. तुम्हारे आशीर्वाद से यह हम सबको मिल ही जायेगा, थोडा या ज़्यादा. आज के इस पावन अवसर पर यदि दे सको तो बस इसकी इज़ाज़त दे देना-
1 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जो कुछ और जहां पढना चाहें, पढने देना.
2 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जो कुछ बनना चाहें, बनने देना.
3 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जो पहनना चाहें, पहनने देना.
4 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जिसके साथ बात करना चाहें, करने देना.
5 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जिस कैरियर को और जिस जगह पर जा कर बनाना चाहें, बनाने देना.
6 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जब और जिससे शादी करना चाहें, करने देना.
7 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जब और जिससे प्रेम करना चाहें, करने देना.
मेरे भैया,
और भी कि इस रक्षा बन्धन पर हमेँ यह वचन दो कि-
1 सभी लडकियों को मेरी ही तरह बहन समझोगे और उनकी इज़्ज़त का भी उतना ही ख्याल रखोगे, जितना मेरे मान- सम्मान का ख्याल तुम्हें रहता है.
2 जब कभी किसी लडकी को निर्वस्त्र करो, तो बस, एक बार मेरा चेहरा अपने तसव्वर में ले आना. अगर यह नही कर सको तो अपने ही जैसे किसी दूसरे भाई को मुझे निर्वस्त्र करने की इज़ाज़त दे देना. (ऐसी स्थिति में तुम भी मुझे निर्वस्त्र करोगे तो मुझे दुख नहीं होगा.)
3 कभी किसी लडकी के साथ बलात्कार करते समय भी मेरा ख्याल कर लेना. और अगर यह नही कर सको तो अपने ही जैसे किसी दूसरे भाई को मेरे साथ बलात्कार की सहमति दे देना. (यक़ीन मानो, ऐसी स्थिति में तुम भी मेरा शील हरण करोगे तो मुझे एकदम तकलीफ नहीं होगी.)
4 अपनी शादी के लिए बहुत सुन्दर लडकी की खोज मत करना. अगर करते हो तो ज़रा अपनी इस बदसूरत बहन का भी ख्याल कर लेना कि अगर हर कोई ऐसी ही हूर की परी चाहेगा तो तुम्हारी इन कुरूप और कम सुन्दर बहनों का क्या होगा?
5 भारतीय कानून के अनुसार अपनी पैतृक सम्पत्ति में से मुझे भी मेरा हक़ देना. अबतक तो हम सब तुमसे एक गठरी की आस में, तुमसे एक प्यार भरी नज़र पाने की उम्मीद में इस पर विचार नहीं करती आई हैं. पर इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम अपने कर्तव्य का पालन ही भूल जाओ और हमें हमारे अधिकार से महरूम रखो.
6 हम लडकियों पर ही घर की सारी मर्यादा, सारी इज़्ज़त का भार मत डाल दो. मेरे किसी से प्रेम कर लेने से, मुझे किसी के द्वारा बेइज़्ज़त कर देने से तुम्हारे घर की सारी मर्यादा धूल में मिल जाती है, भैया मेरे, इस ज़िम्मेदारी से हमें मुक्त कर दो.
7 हमें अपने से कमतर ना समझो. हम भी तुम्हारी ही तरह इंसान हैं और तुम्हारी ही तरह हर तरह के गुण-दोष से लबरेज़.
8 और सबसे ऊपर, हमें लडकी और नारी के बन्धन में बांधने के बजाय हमें मनुष्य समझो और मुझ जैसी सभी से एक मनुष्य की तरह व्यवहार करो.
बस, यही मेरे भैया, बस. यही और इतना ही. बाकी तो कम लिखा, ज़्यादा समझना. हमें सचमुच इस बार पैसे, कपडे, गहने नहीं चाहिये. चाहो तो अपनी किसी भी बहन से पूछ लो. -तुम्हारी ही बहन।
मेरे भैया,
आज रक्षा बन्धन है. इस जगत की सभी बहनों का बडा प्यार भरा दुलार तुम तक पहुंचे. हम सब कितनी खुशकिस्मत हैं कि हमारे जीवन में भाई का प्रेम विद्यमान है. यह प्रेम जीवन भर बना रहे और इस प्रेम की फुहार से हमारी जीवन –बगिया सदा हरी-भरी बनी रहे, यही कामना है.
मेरे भैया, राखी बान्धने के एवज में तुम सब हम बहनों को नेग देते हो. इस बार भी दोगे, यह मेरा पक्का विश्वास है. बताऊं भैया, इस बार नेग में हमें रुपए- पैसे, साडी, गहने नहीं चाहिए. तुम्हारे आशीर्वाद से यह हम सबको मिल ही जायेगा, थोडा या ज़्यादा. आज के इस पावन अवसर पर यदि दे सको तो बस इसकी इज़ाज़त दे देना-
1 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जो कुछ और जहां पढना चाहें, पढने देना.
2 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जो कुछ बनना चाहें, बनने देना.
3 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जो पहनना चाहें, पहनने देना.
4 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जिसके साथ बात करना चाहें, करने देना.
5 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जिस कैरियर को और जिस जगह पर जा कर बनाना चाहें, बनाने देना.
6 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जब और जिससे शादी करना चाहें, करने देना.
7 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जब और जिससे प्रेम करना चाहें, करने देना.
मेरे भैया,
और भी कि इस रक्षा बन्धन पर हमेँ यह वचन दो कि-
1 सभी लडकियों को मेरी ही तरह बहन समझोगे और उनकी इज़्ज़त का भी उतना ही ख्याल रखोगे, जितना मेरे मान- सम्मान का ख्याल तुम्हें रहता है.
2 जब कभी किसी लडकी को निर्वस्त्र करो, तो बस, एक बार मेरा चेहरा अपने तसव्वर में ले आना. अगर यह नही कर सको तो अपने ही जैसे किसी दूसरे भाई को मुझे निर्वस्त्र करने की इज़ाज़त दे देना. (ऐसी स्थिति में तुम भी मुझे निर्वस्त्र करोगे तो मुझे दुख नहीं होगा.)
3 कभी किसी लडकी के साथ बलात्कार करते समय भी मेरा ख्याल कर लेना. और अगर यह नही कर सको तो अपने ही जैसे किसी दूसरे भाई को मेरे साथ बलात्कार की सहमति दे देना. (यक़ीन मानो, ऐसी स्थिति में तुम भी मेरा शील हरण करोगे तो मुझे एकदम तकलीफ नहीं होगी.)
4 अपनी शादी के लिए बहुत सुन्दर लडकी की खोज मत करना. अगर करते हो तो ज़रा अपनी इस बदसूरत बहन का भी ख्याल कर लेना कि अगर हर कोई ऐसी ही हूर की परी चाहेगा तो तुम्हारी इन कुरूप और कम सुन्दर बहनों का क्या होगा?
5 भारतीय कानून के अनुसार अपनी पैतृक सम्पत्ति में से मुझे भी मेरा हक़ देना. अबतक तो हम सब तुमसे एक गठरी की आस में, तुमसे एक प्यार भरी नज़र पाने की उम्मीद में इस पर विचार नहीं करती आई हैं. पर इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम अपने कर्तव्य का पालन ही भूल जाओ और हमें हमारे अधिकार से महरूम रखो.
6 हम लडकियों पर ही घर की सारी मर्यादा, सारी इज़्ज़त का भार मत डाल दो. मेरे किसी से प्रेम कर लेने से, मुझे किसी के द्वारा बेइज़्ज़त कर देने से तुम्हारे घर की सारी मर्यादा धूल में मिल जाती है, भैया मेरे, इस ज़िम्मेदारी से हमें मुक्त कर दो.
7 हमें अपने से कमतर ना समझो. हम भी तुम्हारी ही तरह इंसान हैं और तुम्हारी ही तरह हर तरह के गुण-दोष से लबरेज़.
8 और सबसे ऊपर, हमें लडकी और नारी के बन्धन में बांधने के बजाय हमें मनुष्य समझो और मुझ जैसी सभी से एक मनुष्य की तरह व्यवहार करो.
बस, यही मेरे भैया, बस. यही और इतना ही. बाकी तो कम लिखा, ज़्यादा समझना. हमें सचमुच इस बार पैसे, कपडे, गहने नहीं चाहिये. चाहो तो अपनी किसी भी बहन से पूछ लो. -तुम्हारी ही बहन।
Thursday, August 11, 2016
चाय- पति- पत्नी के जोक्स का उल्टा पुल्टा रूप - 24
*_एक आदमी की पत्नी मर गयी.._*
शोकसभा में आए एक दोस्त ने पूछा: कैसे हुआ ये?
आदमी: कुछ नहीं, *चाय पी रही थी और अचानक..*
दोस्त: *वो वाली चाय की पत्ती बची है क्या ?*
😂☕😜☕😂
पत्नियों पर जोक्स चलते ही रहते हैं। सभी जी खोलकर उनका आनद लेते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें ज़रा सा उलट पलट देती है। पत्नी की जगह पति कर देती है। आनंद कितना गुना बढ़ जाता है, आप बताएं। शेयर करें। कॉमेंट करें। जीवनसाथी का सम्मान करअंआ चाहें तो करें। फिलहाल, ये देखिये ऊपरवाले जोक्स का उलटा रूप-
एक औरत का पति मर गया...*
शोकसभा में आई एक दोस्त ने पूछा: कैसे हुआ ये?
औरत: कुछ नहीं, *चाय पी रहे थे और अचानक..*
दोस्त: *वो वाली चाय की पत्ती बची है क्या ?*
😂☕😜☕😂
शोकसभा में आए एक दोस्त ने पूछा: कैसे हुआ ये?
आदमी: कुछ नहीं, *चाय पी रही थी और अचानक..*
दोस्त: *वो वाली चाय की पत्ती बची है क्या ?*
😂☕😜☕😂
पत्नियों पर जोक्स चलते ही रहते हैं। सभी जी खोलकर उनका आनद लेते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें ज़रा सा उलट पलट देती है। पत्नी की जगह पति कर देती है। आनंद कितना गुना बढ़ जाता है, आप बताएं। शेयर करें। कॉमेंट करें। जीवनसाथी का सम्मान करअंआ चाहें तो करें। फिलहाल, ये देखिये ऊपरवाले जोक्स का उलटा रूप-
एक औरत का पति मर गया...*
शोकसभा में आई एक दोस्त ने पूछा: कैसे हुआ ये?
औरत: कुछ नहीं, *चाय पी रहे थे और अचानक..*
दोस्त: *वो वाली चाय की पत्ती बची है क्या ?*
😂☕😜☕😂
Wednesday, August 3, 2016
How to TALK? पति-पत्नी के जोक्स का उल्टा-पुल्टा रूप-23
*👍How to TALK 👍*
Talk to *Mother* _lovingly_ ,
Talk to *Father* _respectfully ,_
Talk to *Brothers* _heartfully _,
Talk to *Sisters* _affectionately ,_
Talk to *Children* _enthusiastically ,_
Talk to *Relatives* _empathetically ,_
Talk to *Friends* _jovially ,_
Talk to *Officials* _politely ,_
Talk to *Vendors* _strictly ,_
Talk to *Customers* _honestly ,_
Talk to *Workers* _courteously ,_
Talk to *Politicians* _carefully _,
Talk to *GOD* _silently,_
Talk to *WIFE*
no no...
*KEEP QUIET & LISTEN ONLY...!*
No other OPTION !
पत्नियों पर जोक्स चलते ही रहते हैं। सभी जी खोलकर उनका आनद लेते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें ज़रा सा उलट पलट देती है। पत्नी की जगह पति कर देती है। आनंद कितना गुना बढ़ जाता है, आप बताएं। शेयर करें। कॉमेंट करें। ये देखिये उपरवाले जोक्स का उलटा रूप-
*👍How to TALK 👍*
Talk to *Mother* _lovingly_ ,
Talk to *Father* _respectfully ,_
Talk to *Brothers* _heartfully _,
Talk to *Sisters* _affectionately ,_
Talk to *Children* _enthusiastically ,_
Talk to *Relatives* _empathetically ,_
Talk to *Friends* _jovially ,_
Talk to *Officials* _politely ,_
Talk to *Vendors* _strictly ,_
Talk to *Customers* _honestly ,_
Talk to *Workers* _courteously ,_
Talk to *Politicians* _carefully _,
Talk to *GOD* _silently,_
Talk to *HUSBAND*
no no...
*KEEP QUIET & LISTEN ONLY...!*
No other OPTION !
Monday, August 1, 2016
छुट्टी और चार्ज- पति-पत्नी के जोक्स का उल्टा-पुल्टा रूप-22
एक बार एक फौजी की बीवी मायके जाने की जिद करती है। फौजी कहता है कि सुबह 8 बजे आफिस में आकर ' फौजी तरीके ' से बात करना!
बीवी सुबह आठ बजे आफिस पहुँचकर सावधान की मुद्रा में बोलती है- 'जय हिन्द सर! सर, मैं एक माह के लिए मायके जाने की छुट्टी लेने आई हूं। आज्ञा दें।'
फौजी - ठीक है, जाओ। पर तुमने अपना चार्ज किसको दिया है?
बीवी - रहने दो, नहीं जाना l
पति पत्नी पर जोक्स चलते रहते हैं। सभी उनका बढ़ चढ़कर आनंद उठाते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें थोड़ा उल्टा पुल्टा कर देती है। आप दोनों जोक्स पढ़ें। उलटे रूप पर भी उतनी ही तेज़ हंसी आए तो हंसिए। अगर नहीं, तो ऐसे जोक सुनना सुनाना या इन पर हंसना हंसाना बंद करें। फिलहाल ये पढ़ें-
एक बार एक फौजी बीवी-बच्चों के बगैर ही छुट्टी जाने की जिद करता है। बीबी कहती है की तुम तो फौजी हो। इसलिए सुबह 8 बजे ' फौजी तरीके ' से बात करना!
फौजी सुबह आठ बजे बीबी के पास पहुंचता है, जो उस समय किचन में काम कर रही होती है। फौजी वहाँ पहुँचकर सावधान की मुद्रा में बोलता है- 'जय हिन्द सर! सर, मैं एक माह के लिए छुट्टी लेने आया हूं। आज्ञा दें।'
बीवी- ठीक है, जाओ। पर तुमने अपना चार्ज किसको दिया है?
फौजी - रहने दो, नहीं जाना l
Friday, July 29, 2016
मेढक जैसी पत्नी- पति-पत्नी के जोक्स का उल्टा-पुल्टा रूप-21
बचपन में डराया जाता था कि....
मेंढक को पत्थर मारोगे तो मेढक जैसी ही पत्नी मिलेगी....
कितना डरते थे तब.....
अब लगता है, काश मार ही दिया होता........
पत्नियों पर जोक्स चलते ही रहते हैं। सभी जी खोलकर उनका आनद लेते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें ज़रा सा उलट पलट देती है। पत्नी की जगह पति कर देती है। आनंद कितना गुना बढ़ जाता है, आप बताएं। शेयर करें। कॉमेंट करें। ये देखिये उपरवाले जोक्स का उलटा रूप-
बचपन में डराया जाता था कि....
मेंढक को पत्थर मारोगे तो मेढक जैसा ही पति मिलेगा...
कितना डरते थे तब.....
अब लगता है, काश मार ही दिया होता........
Wednesday, July 27, 2016
आतंकवादी. पति-पत्नी के जोक्स का उल्टा-पुल्टा रूप-20
जिनकी
पत्नी वेकेशन करने मायके चली गई है, वो अपने स्टेटस पर हिन्द देश का प्यारा तिरंगा लगाकर अपनी आज़ादी का ऐलान कर
सकते हैं..!! अन्यथा खतरे का निशान
लगाइए। इसका मतलब आतंकवादी घर पर ही है....
पत्नियों पर जोक्स चलते ही रहते हैं। सभी जी खोलकर उनका आनद लेते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें ज़रा सा उलट पलट देती है। पत्नी की जगह पति कर देती है। आनंद कितना गुना बढ़ जाता है, आप बताएं। शेयर करें। कॉमेंट करें। ये देखिये उपरवाले जोक्स का उलटा रूप-
Monday, July 25, 2016
Vastu-Shastra- पति-पत्नी के जोक्स का उल्टा-पुल्टा रूप-19
पति ने अपने दोस्त से कहा – “मेरी बीवी Vastu-Shastra
पर बहुत
ही ज्यादा विश्वास करती है !”
दोस्त बोला- "Great! क्या वो उसका उपयोग भी करती है?"
पति ने छूटते ही कहा- “Oh-Yeah !!.....जब हमारा झगड़ा होता है तब, वो कोई भी
'Vastu' उठा लेती
है और फिर उसका उपयोग 'Shastra' की तरह करती है....”
पत्नियों पर जोक्स चलते ही रहते हैं। सभी जी खोलकर उनका आनद लेते
हैं। छम्मकछल्लो इन्हें ज़रा सा उलट पलट देती है। पत्नी की जगह पति कर देती है।
आनंद कितना गुना बढ़ जाता है, आप
बताएं। शेयर करें। कॉमेंट करें। ये देखिये उपरवाले जोक्स का उलटा रूप-
पत्नी ने अपनी दोस्त से कहा- मेरे पति Vastu-Shastra
पर बहुत
ही ज्यादा विश्वास करते हैं।
दोस्त बोली- “Great, क्या वो उसका उपयोग भी करते हैं?”
पत्नी ने
छूटते ही कहा- “Oh-Yeah !!.....जब हमारा झगड़ा होता है तब, वो कोई भी
'Vastu' उठा लेते हैं और फिर उसका उपयोग 'Shastra' की तरह कराते हैं।“ Saturday, July 23, 2016
हैव अ गुड़ डे- पति पत्नी के जोक्स का उल्टा पुल्टा रूप-18
एक सीनियर सिटिजन अपनी नई कार 100 की स्पीड में चला रहे थे। रियर व्यू मिरर में उन्होंने देखा कि पुलिस की एक गाडी उनके पीछे लगी हुई है।उन्होंने कार की स्पीड और बढ़ा दी। 140 फिर 150 और फिर 170..........अचानक उन्हें याद आया कि इन हरकतों के लिहाज से वे बहुत बूढ़े हो चुके हैं और ऐंसी हरकतें उन्हें शोभा नहीं देतीं।उन्होंने सड़क के किनारे कार रोक दी और पुलिस का इन्तजार करने लगे।
पुलिस की गाडी करीब आकर रुकी और उसमे से इंस्पेक्टर निकलकर बुजुर्ग महाशय के पास आया और बुजुर्ग से बोला---" सर, इतनी स्पीड से कार चलाने का अगर आप मुझे कोई ऐंसा एक कारण बता सके जो मैंने आज तक नहीं सुना हो तो मैं आप को छोड़ दूंगा। "
बुजुर्ग ने बहुत गंभीर होकर इन्स्पेक्टर की तरफ देखा और कहा---" बहुत साल पहले मेरी बीवी एक पुलिसवाले के साथ भाग गयी थी। मैंने सोचा कि तुम उसे लौटाने आ रहे हो इसलिए..................."
इन्स्पेक्टर वहाँ से जाते हुए बोला---
" हेव ए गुड डे, सर। "
पत्नियों पर जोक्स चलते ही रहते हैं। सभी जी खोलकर उनका आनद लेते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें ज़रा सा उलट पलट देती है। पत्नी की जगह पति कर देती है। आनंद कितना गुना बढ़ जाता है, आप बताएं। शेयर करें। कॉमेंट करें। ये देखिये उपरवाले जोक्स का उलटा रूप-
एक बुजुर्ग महिला अपनी नई कार 100 की स्पीड में चला रही थीं। रियर व्यू मिरर में उन्होंने देखा कि पुलिस की एक गाडी उनके पीछे लगी हुई है।उन्होंने कार की स्पीड और बढ़ा दी। 140 फिर 150 और फिर 170..........अचानक उन्हें याद आया कि इन हरकतों के लिहाज से वे बहुत बूढी हो चुकी हैं और ऐसी हरकतें उन्हें शोभा नहीं देतीं।उन्होंने सड़क के किनारे कार रोक दी और पुलिस का इन्तजार करने लगी।
पुलिस की गाडी करीब आकर रुकी और उसमे से इंस्पेक्टर निकलकर बुजुर्ग महिला के पास आया और उनसे बोला---"मैडम, इतनी स्पीड से कार चलाने का अगर आप मुझे कोई ऐसा एक कारण बता सकें, जो मैंने आज तक नहीं सुना हो तो मैं आप को छोड़ दूंगा। "
बुजुर्ग महिला ने बहुत गंभीर होकर इन्स्पेक्टर की तरफ देखा और कहा---" बहुत साल पहले मेरे पति एक पुलिसवाले के साथ भाग गए थे। मैंने सोचा कि आप उन्हें लौटाने आ रहे हैं, इसलिए..................."
इन्स्पेक्टर वहाँ से जाते हुए बोला---
" हेव ए गुड डे, मैडम।
😜😜😜😜😜😜
Wednesday, July 20, 2016
रॉन्ग नंबर! पति-पत्नी के जोक्स का उल्टा-पुल्टा रूप-17
पत्नियों पर जोक्स चलते रहते हैं और हम सभी इसके खूब मजे लेते हैं। छम्मकछल्लो इसे तनिक उळातकर पत्नी की जगह पति कर देती है। आप भी देखें और बताएं कि कितना आनंद अब आता है।
नई-नई शादी के बाद पति ने पत्नी का फोन नंबर इस
नाम से सेव किया-
‘माई लाइफ’
एक साल बाद उसने नाम बदल करलिखा-
‘माई वाइफ’
दो साल बाद उसने फिर नया नाम रखा-
‘होम’
पांच साल बाद उसने फिर से नाम बदला-
‘हिटलर’
दस साल बाद, इन सभी नामों को साइड कर उसने फिर
नया नाम रखा-
‘रॉन्ग नंबर!’
😉 नई-नई शादी के बाद पत्नी ने पति का फोन नंबर इस
नाम से सेव किया-
‘माई लाइफ ब्रैंड’
एक साल बाद उसने नाम बदल कर लिखा-
‘माई हस्बैंड’
दो साल बाद उसने फिर नया नाम रखा-
‘होम’
पांच साल बाद उसने फिर से नाम बदला-
‘हिटलर’
दस साल बाद, इन सभी नामों को साइड कर उसने फिर
नया नाम रखा-
‘रॉन्ग नंबर!’
Tuesday, July 19, 2016
इज़्ज़त, ख्याल और प्यार! पति- पत्नी के जोक्स का उलटा-पुल्टा रूप-16
पत्नियों पर जोक्स खूब चलते हैं। हम पढ़ते सुनते हैं और खूब मजे भी लेते हैं। छम्मकछल्लो इन्हें थोड़ा बदल देती है। मजा कितना बढ़ता घटता है, यह आप तय करें। एक जोक यह रहा-
एक महात्मा जी ने कहा- "इज्जत करनी है तो पत्नी की करो। ख्याल करना है तो पत्नी का करो। प्यार करना है तो पत्नी को करो।"
लेकिन किसकी पत्नी? महात्मा जी यह बताना भूल गए।
एक महात्मा जी ने कहा- "इज्जत करनी है तो पति की करो। ख्याल करना है तो पति का करो। प्यार करना है तो पति को करो।"
लेकिन किसका पति? महात्मा जी यह बताना भूल गए।
एक महात्मा जी ने कहा- "इज्जत करनी है तो पत्नी की करो। ख्याल करना है तो पत्नी का करो। प्यार करना है तो पत्नी को करो।"
लेकिन किसकी पत्नी? महात्मा जी यह बताना भूल गए।
एक महात्मा जी ने कहा- "इज्जत करनी है तो पति की करो। ख्याल करना है तो पति का करो। प्यार करना है तो पति को करो।"
लेकिन किसका पति? महात्मा जी यह बताना भूल गए।
Monday, July 18, 2016
Dip Dip Dipped-It’s the Chemo Bed - Poem from CAN under Celebrating Cancer
Dip Dip Dipped
It’s the Chemo Bed
Intoxication Fed
Spins in my head
Evening I am home
Coconut water ‘n’ drums
Lick your cake say yum
Girls, one by one,
Kanishka, Gudiya and
Mandaki-niki-yum,
Dance to rhythm.
It’s the Chemo Bed
Intoxication Fed
Spins in my head
Evening I am home
Coconut water ‘n’ drums
Lick your cake say yum
Girls, one by one,
Kanishka, Gudiya and
Mandaki-niki-yum,
Dance to rhythm.
Music going crazy
With Toshy and Koshy
Camera, Ajay and Ali
Dance – after centuries.
Ever since it raised its hood
Give up party, give up laughter
Give up all your favorite food
But no more
Alive once more
I am living, I am pumping
I have an iron core
I am living, I am pumping
I have an iron core
I am drunk on my life
I want it all the more
And, hope wins over the death! ###
I want it all the more
And, hope wins over the death! ###
English Translation- Swapnil Dixit
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