जब मैं कोई अच्छी फिल्म या अच्छा नाटक देखती हूं या कोई अच्छी कहानी पढ़ती या कोई अच्छा गीत सुनती हूँ तो उससे मुझे बहुत खुशी मिलती है । मेरा सारा दिन प्रफुल्लित रहता है। मैं चार्ज महसूस करती हूं और बहुत सी ऊर्जाएं, बहुत सी भावनाएं मेरे अंदर कुलबुलाने लगती हैं । आज आमिर खान की 'दंगल' फिल्म देखी । स्पोर्ट्स पर बनी फिल्में वैसे भी मुझे बहुत आकर्षित करती हैं । उनमें जीवन होता है । जूझने की प्रवृति होती है और ऊर्जा होती है । मुझे यह सारी चीजे बेहद पसंद है। मैंने अपने जीवन में शायद सबसे पहली फिल्म sports पर बांग्ला में देखी थी कोलकाता में शायद 1985 या 1986 में । 'कोनी' नाम से यह एक स्विमर लड़की की कहानी थी और जैसा कि फिल्म में होता है संघर्ष, जुझारूपन और उन सब के बाद मिली सफलता। दंगल भी कुछ इन्हीं बातों को लेकर चलती है । लेकिन यह एक अलग किस्म की फिल्म मुझे लगी । वो इसलिए कि मैं फिल्म देखते हुए यह लगातार सोच रही थी कि यह वही हरियाणा है जो लड़कियों के मामले में बहुत बदनाम सा है । कहा जाता है कि यहां लड़कियों के ऊपर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है - न उनकी पढ़ाई लिखाई पर ना उनके व्यक्तित्व विकास पर। उन्हें प्रेम की भी आजादी नहीं है । लड़कियों को जन्मते ही या पेट में ही मार दिया जाता है । ऐसे माहौल में कोई एक पिता अपनी बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए इस हद तक जा सकता है, यह अपने आप में बहुत रोमांचित करता है और यह बताता है कि अगर घर के लोग और खास करके घर का पुरुष चाहे तो अपने परिवार में, अपनी जिंदगी में और खास तौर से अपनी बेटियों की जिंदगी में बहुत बदलाव ला सकता है । मैं फिल्म के किसी भी और दूसरे पहलू पर नहीं जा रही, बस एक मनोविज्ञान को पकड़ने की कोशिश कर रही हूं । एक पिता जो खुद नहीं बन पाया, उसकी इच्छा कुलबुलाती रहती है और यह एक बहुत स्वाभाविक इच्छा है । हर माता-पिता के मन में होता है कि जो वे नहीं बन पाए, उसे अपनी संतान में देखना चाहते हैं। कई बार परंपरागत रिवाज़ों के तहत यह सोच लिया जाता है कि लड़कियां इन कामों के लायक नहीं है। दंगल के पिता के मन में भी यही बात है । लेकिन अपनी धारणा वह बदलता है। फिल्म ने एक और नई चमक लड़कियों के प्रति पैदा की है कि लड़कियां सब कुछ कर सकती हैं और यह फिल्म के एक संवाद में भी था जहां पिता कहते हैं कि तुम्हारी आज की जीत केवल तुम्हारी नहीं है केवल देश की नहीं है बल्कि हजारों लाखों लड़कियों की जीत है । यह एक जीवन राग है। लड़कियों के लिए संदेश तो है ही, लड़कियों से ज्यादा उनके माता पिता के लिए संदेश है और आज के समय में जबकि हम नंबर और परसेंट के गेम में उलझे हुए हैं हम बच्चों को बस 3 साल 4 साल 5 साल की प्रोफेशनल पढ़ाई करवा कर उन्हें कंपनी में दे कर यह संतोष कर लेते हैं कि बच्चे हमारे कमा रहे हैं और बच्चे 16 -16 18 -18 घंटे वहां अपनी सारी ऊर्जा देकर और 10 साल में बिल्कुल चुक से जा रहे हैं, वहां ऐसी फिल्में और ऐसी सोच एक सहारा देती है कि नहीं, जीवन में काम करने के और भी अलग-अलग क्षेत्र हैं, जहां बच्चे हमारे कुछ कर सकते हैं ।जरूरत सिर्फ इतनी हैं कि माता पिता बच्चों को आगे बढ़ने दें, खास तौर से लड़कियों को । हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है । मैं उन पुरूषों का बहुत सम्मान करती हूं, जो अपने घर के प्रत्येक सदस्य को एक व्यक्ति के रूप में देखते हैं और उसकी इच्छा का सम्मान करते हैं । कहा जा सकता है कि इस फिल्म में पिता अपनी इच्छा बेटियों पर लादता है उससे बड़ी मेहनत करवाता है बड़े-बड़े टास्क करवाता है। बच्चियां इन सबसे कंटाल जाती हैं और एक समय आता है कि ना करने के अलग अलग बहाने रचती हैं । लेकिन उसी की एक दोस्त जब उन्हें यह समझाती है कि तुझे तुम लोगों को तुम्हारे पिता अपनी संतान समझ रहे हैं । यहां तो हमें लड़कियों को लड़की ही समझा जाता है उसके आगे कुछ समझा ही नहीं जाता तो ऐसे में एक विश्वास उभर कर आता है कि घर में पिता या भाई अगर चाहे तो अपने घर की महिलाओं की लड़कियों की तकदीर बदल सकते हैं। हमारे हर घर में गीता और बबीता है । बस हर घर में ऐसे महावीर सिंह फौगाट होने चाहिए। जिस दिन हर घर में ऐसे ऐसे फोगाट होने लगेंगे,ऐसी ऐसी गीता और बबीता हर क्षेत्र में होती रहेंगी। एक बहुत अच्छी फिल्म देख पाने के सुख, सुकून और आनंद से भरी हुई हूं।
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