"सृजनलोक"! संतोष श्रेयान्स के संपादकत्व में आरा, बिहार से प्रकाशित पत्रिका के संयुक्तांक 12-13,2014 के "काव्य कलश" विशेषांक में प्रकाशित तीन कविताएं! देखें। राय दें, विचार दें।
बीज सब
एकांझ!
उसकी आंखों में सपनीला सा दिल था
जिसमें समाई हुई थी
बारिश की बूंदों सा उछलता था
उसका दिल
खेत में पड़ते बीज लगते थे नवजात शिशु
और फसल की बालियां
स्कूल जाते बच्चे!
वह सपनों में जीता था,
जिसमें होते थे
खेत, फसल और बच्चों के कपडों के संग
नाक की मोरपंखी लौंग लेना
घरवाली के लिए
उसे हैरानी होती है,
अपने अपढ़ दिमाग को खंगालते,
माथे को ठोकते पूछता रहता है
बाबा! चाचा!! ताऊ!!!
ये बीज सब एकांझ क्यों हो
गए हैं?
एक ही फसल के बाद खाली हो
जाते हैं?
बाबा, चाचा, ताऊ भी तो उसी
की तरह हैं,
कायदे-कानून का उन्हें कैसे पता?
वह तो हर साल बीज खरीदता है,
धड़कते दिल से बोता है
बाढ़, सूखे से बच गया तो
बाजार से भी बच जाए, ताकि
छोटी हो जाए कर्जे की चादर- तनिक!
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टक-टक
सा टूटता धागा!
मैंने अपने हाथ-पैरों की
बीसों उंगलियों को
टटोला – एक-एक करके
टक-टक सा टूटता गया
एक-एक धागा बीसों से
मेरे सर से पैर तक लम्बी
खामोश वीरानी
क्या मैं खाली हो गई हूं प्यार से?
प्यार के अहसास से?###
टीस
मारती गांठें!
इतना प्यार?
आज भी जता रहे हो
बिन बोले मन की बात,
बिन खोले मन की गांठ
पहले ही जता देते
तो नहीं उगती तन-मन
मैं गांठें!
गांठे कटे या खुले
बनी तो रह जाती हैं निशानें
कटने या खुलने के
टीस मारती – हौले-हौले
पर – निश्चित निशान! ,
2 comments:
बहुत अच्छा लिखती हैं आप।
धन्यवाद दीपिका। आप क्या लिखती हैं?
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