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Tuesday, October 5, 2010

बच्चे

बच्चे झुक जाते हैं, धान रोपने


बर्तन धोने, पॉलिश करने

उठते हैं जबतक कमर सीधी करने

तबतक आंखें धुंधली और बाल

सफ़ेद हो गए होते हैं

हैरत है कि बच्चे इतनी ज़ल्द तय कर लेते हैं फ़ासला

नहीं पाट पाते केवल दो इंच के मुंह और बित्ते भर के पेट

के बीच की दूरी

बच्चे बोते हैं धान के संग अपनी भी उमर

बालियां और बचपन गुम हैं खोई हुई किताबों की तरह।
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5 comments:

Majaal said...

कविता तो पहली बार ही पढ़ी है आपकी, काफी जबरदस्त सोच है....

बहुत उम्दा, जारी रखिये ....

abha said...

नहीं पाट पाते केवल दो इंच के मुंह और बित्ते भर के पेट

के बीच की दूरी

बच्चे बोते हैं धान के संग अपनी भी उमर
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विभा जी , दिल को छु लेने वाले शब्द | निशब्द हूँ.

Udan Tashtari said...

तरल..सीधे उतर गई.....

Vibha Rani said...

आप सबका आभार

Arpita said...

बेहतरीन....लोग दूसरी जगह काम करते बच्चों को देख करते च्च.च्च...करते हैं पर जब खुद के घर में अपनी सुविधा की बात आती है तो यही बच्चे उन्हे काम के लिये सही लगते हैं........