छम्मकछल्लो को आजकल शोले के संवाद बडे याद आ रहे हैं- “ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर.” देने से लेने की परम्परा में बदलता हमारा समाज. छम्मकछल्लो बहुत खुश है. भले हमारा हिंदू धर्म कहे कि हाथ देने के लिए होते हैं, शरीर परमार्थ के लिए होता है. दधीचि ने परमार्थ अस्थि दान दे दिया. रामचंद्र ने पिता की वचन की खातिर राजपाट भाई को दे दिया. कुंती ने माता बनने के लिए मंत्र सिद्धि का दान अपनी सौत माद्री को दे दिया. उर्मिला ने अपने नव विवहित जीवन की परवाह ना करके अपने पति लक्ष्मण को रामचंद्र के साथ वन जाने दे दिया. त्याग यानी देने की मिसाल अपने हिंदू धर्म में कूट कूट कर भरी है. यहां तक कि मृत्यु शय्या पर पडे रावण ने नीति का उपदेश लक्ष्मण को दे दिया. देने से अर्थ है दान देना. इस ‘दे’ में अपना स्वार्थ नहीं देखा जाता.
मगर छम्मकछल्लो क्या करे कि वह अपने महान हिंदू धर्म के पालन में अपने ही लोगों द्वारा कोताही बरती जाते देखकर दुखी पर दुखी हुई जा रही है. भाई लोग नाम लेते हैं हिंदू धर्म का और मानने से इंकार कर देते हैं इसी धर्म की बातों को. अब देखिए ना, हाथ का धर्म है देना, मगर हम ‘शोले’ के गब्बर सिंह की तरह कहते हैं- “ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर.” इस तरह से गब्बर ठाकुर से हाथ मांगता नहीं, छीन लेता है. हम भी जान मांगते नहीं, छीन लेते हैं. प्रेम से जान मांगिए, लोग हथेली पर ले कर आपके सामने आ जाएंगे. मगर यही प्रेम तो सभी की जान का जंजाल बना है. इसलिए इस प्रेम की बात करेंगे तो आपकी भी जान ले ली जाएगी, सावधान!
खाप, मर्यादा, जाति, धर्म, प्रतिष्ठा और ना जाने किस किस नाम पर जान ले लेने की परम्परा बन गई है. कृष्ण के देश में प्रेम पर इतना बडा व्यभिचारी आरोप! ज़रा कुंती के पुत्र जन्म की बात सोच लीजिए. ज़रा माता सत्यवती के आग्रह पर वेदव्यास के कर्तव्य का स्वरूप सोच लीजिए, जिसके कारण धृतराष्ट्र और पांडु का और फिर माता सत्यवती के ही आग्रह पर वेदव्यास के पुण्य प्रताप से विदुर का जन्म हुआ. स्वयं माता सत्यवती से ही वेदव्यास के ही जन्म की गाथा जान लीजिए. ज़रा अर्जुन और सुभद्रा के विवाह के पहले के रिश्ते की जांच कर लीजिए. ज़रा अहिल्या के साथ इंद्र के और वृन्दा के साथ विष्णु के कारनामे की बात पर गौर कर लीजिए और फिर अपने महान धर्म का झंडा उठाकर गौरव से चलिए और प्रेम की राह चलते लोगों की जानें लेते रहिए.
कोई कहे इन वीर-बांकुरों से कि हे इस महान धरती के महान सपूत, इस तथाकथित जाति, गौरव, धर्म और गोत्र के नाम पर तुम ही अपनी जान दे दो, तो वे उछल कर चार मील दूर जा गिरेंगे और वहीं से आपकी जान लेने का फर्मान भी निकाल देंगे, जिस पर तुरंत ही कोई दूसरा अमल भी कर देगा. और वे तो चैतन्य चूर्ण और अमिय हलाहल मद भरे, स्वेत स्याम रतानार पर वारी वारी जाते हुए तनिक नखरीले नाजुक स्वर में कहते रहेंगे कि ना जी ना. हम जान देने के लिए थोडे ना बने हैं.
फिर उनका वीर रस जागेगा और वे हुंकारा भरेंगे कि “रामपुर के वासियो!” (यह भी गब्बर का सम्वाद है) हम तो लेने के लिए बने हैं. यही हमारी ताकत है. इस ताकत का आधार हमारा महान धर्म है. इस महान हिंदू धर्म के वेद-पुराण, गीता, रामायण, महाभारत के संदर्भ निकालोगे तो मां कसम हमें आपको भी धर्म विरोधी कहते और आपकी जान लेते देर नहीं लगेगी.
ओये जी, छोडो बुद्ध, महावीर की इस बात को कि आप किसी को जान दे नहीं सकते, तो ले कैसे सकते हैं? उसने कह दिया और हमने मान लिया, ऐसा होता है क्या? नियम ही मानने लग जाएं तो इस देश की निरुपमाएं, बबलियां बेटियां हो कर पैदा भी होती रहेंगी और दूसरी जाति या अपने गोत्र में ब्याह कर हमारी मूंछें भी मुंडाती रहेंगी. एक करेला खुद तीता, दूजा चढा नीम पर.
हां जी हां हम माने लेते हैं कि हां, हमारी मूंछ के बाल इतने कमजोर हैं कि अपने मन की ताकत से उसे ऊंची उठाए नहीं रख सकते? हम मन से इतने कमजोर हैं कि किसी के द्वारा हम पर एक व्यंग्य बाण छोड देने से हम इतने तिलमिला जाते हैं कि हम और किसी की नहीं, अपने ही बच्चों की जान ले लेते हैं? हमारा धर्म और हमारे संत तो सहनशीलता का अमिट पाठ पढाते आए हैं. मगर हम पाठ पढ ही लें तो जी हम बडे कैसे बने रहेंगे? बडे की बात तो तब है ना, जब हम आप सबके लिए आतंक का पर्याय बने रहें. नियम को माननेवाले से कोई डरता है क्या? जो नियम कायदे कानून तोडता है, देखिए, लोग उससे कैसे डरते हैं, चाहे वह चोर हो या डाकू, या जान देने के बदले जान ले लेनेवाले हम वीर-बांकुरे. देना तो कर्तव्य भाव दिखाता है और लेना अधिकार भाव. और हम अब काहे के लिए कर्तव्य के पीछे माथापच्ची करें? हमारा अधिकार हमारा अधिकार है और जो हमें हमारा अधिकार नहीं लेने देगा, उससे हम यह छीन लेंगे, चाहे उसके लिए अपने ही बच्चों की जान क्यों न लेनी पडे? आखिर वह हमारा बच्चा है. पाल रहे थे तो पूछा कि क्यों पाल रहे हो? जान ले ली तो पूछने आ गए. चल फूट यहां से!