मुंबई साहित्य की दुनिया में निदा फाजली एक फाहे की तरह थे।
सभी के लिए उनके दरवाजे खुले रहते। मेरी उनसे पहचान अपने ऑफिस में कवि सम्मेलन
करवाने के सिलसिले में हुई। जैसा कि आम तौर पर होता है, हिन्दी अधिकारी महज एक हिन्दी अधिकारी मान लिया जाता है, मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। तब जनसत्ता और उसका साहित्यिक
परिशिष्ट “सबरंग” छपता था। जनसत्ता में लेख और सबरंग में कहानियाँ आती रहती। उन
दिनों राहुल देव जनसत्ता के और धीरेन्द्र अस्थाना सबरंग के फीचर संपादक थे। नवभारत
टाइम्स में भी लेख आ जाते थे। निदा साब इतना ज़्यादा पढ़ते और याद रखते थे कि मैं
हमेशा हैरत में पड़ जाती थी कि इन्हें इतना सब पढ़ने के बाद इतना सब लिखने, लोगों से मिलने-जुलने के साथ साथ बाकी सभी जिम्मेदारियाँ
निभाने के लिए वक़्त कैसे मिल जाता है?
मेरा पहला कहानी संग्रह “बंद कमरे का कोरस” आनेवाला था। मैं
बहुत घबड़ाई और डरी हुई थी। तब सभी की किताबों पर बड़े-बड़े नामवालों की भूमिकाएँ देखती
थी। मुझे लगता कि शायद यह ज़रूरी है। अब मैं बड़ा नाम कहाँ खोजूँ? मैंने हिचकते हुए निदा साब से कहा और छूटते ही वे मान गए।
आज उनकी भूमिका मेरी बहुत बड़ी थाती है। उन्होने संग्रह की भूमिका में लिखा, “बंद कमरे का कोरस” विभा रानी के अपने अंदाज़ और सोच का
आईना ही नहीं, उनके अंदर छुपी हुई स्त्री का हमराज भी
है। ....वह न कहीं दार्शनिक का रूप धरती हैं और न ही नेता की तरह भाषण बघारती हैं।
वह हर बात खुद ही नहीं कह देतीं,
पाठक से भी बीच-बीच में अपना कुछ जोड़ने का आग्रह करती हैं। इस फनकाराना रवैये की वजह
से उनकी कहानियाँ नई-नवेली दुल्हन के नकाब की तरह धीमे-धीमे खुलती है, एक साथ बेहिजाब नहीं हो जाती।“
बहन, माँ, बेटी,
धर्म, आस्था पर उन्होने बहुत लिखा और ये सब बेहद
पॉपुलर हुएन। वे जहां भी जाते, लोग
इन रचनाओं को सुनाने की फरमाइश ज़रूर करते। मुंबई के 1992 के दंगों ने उन्हे बहुत
तोड़ दिया था। फिर भी, उन्होने जीवन का जैसे
मूलमंत्र दे दिया-
हिन्दी –उर्दू के सवाल पर वे बहुत खीझते- “विभा जी, ये सवाल मुझसे इसीलिए पूछे जाते हैं ना कि मैं एक मुसलमान
हूँ? ...मेरे लिए हिन्दी और उर्दू
दो आँखों की तरह है।“ हिंदुस्तान-पाकिस्तान मसले पर अक्सर वे अपना ये शेर सुनाते-
निदा साब ने फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। वे कहते, “मैं फिल्मों में अश्लील नहीं लिखूंगा।“ वे हँसते- “विभा जी, साहित्य में मेरी पूछ फिल्मों की वजह से है और फिल्मों में
साहित्य की वजह से।“ मुझे लगता है कि उनकी पूछ उनके अपने व्यक्तित्व, उसकी सादगी और अपने उम्दा लेखन के कारण रही है, जो पूछ उनके बाद भी बनी रहेगी। निदा साब का जाना विश्व
साहित्य के लिए तो नुकसानदेह है ही,
मुंबई के लिए तो एक और सरपरस्त के उठ जाने जैसा है। ####
जनसत्ता,
सबरंग और नवभारत टाइम्स ने मुझे मुंबई के साहित्य परिदृश्य पर खड़ा कर दिया था।
निदा साब की नज़रों से भी मैं ओझल न रह सकी। यह जानने पर कि मैं हिन्दी के साथ साथ
मैथिली में भी लिखती हूँ,
उनकी खुशियाँ कई गुना बढ़ गई। वे तब जुहूवाले घर में रहते थे। मैं वहाँ भी जा चुकी
हूँ। उसके बाद वे वर्सोवा शिफ्ट हो गए। हमारे यहाँ वे कम से कम चार बार आए कवि
सम्मेलन में। कभी मानधन पर कोई सवाल खड़े नहीं किए। इतना ही कहते, “मैं आपके दफ्तर में इसलिए नहीं जाता कि वहाँ से मुझे पैसे
मिलेंगे। मैं इसलिए जाता हूँ कि वहाँ आप हैं। इसलिए, वहाँ सुनने और सुनाने का संस्कार होगा।“ वे हमेशा कहते, “बहुत कम ज़हीन महिलाओं से मिलना हो पाता है। आपसे मिलकर
इसीलिए अच्छा लगता है।“ कार्यक्रम में बुलाने के लिए फोन करना एक ओर रह जाता और
फोन पर हिन्दी, उर्दू, गुजराती, अँग्रेजी साहित्य के साथ साथ जाने कितनी
और कहाँ की बातें होती रहतीं। एक-एक घंटा निकल जाता। मगर, उनसे बात करने के बाद जितना हासिल होता था, वह कई कई दिनों तक मुझमें ऊर्ज़ा भरता रहता।
वे मज़ाक में कहते- “मैं कवि सम्मेलनों में सुनाने के नहीं, सुनने के पैसे लेता हूँ।“ सलीके से शराब पीनेवालों में
मैंने निदा साब को पाया। अन्य लोग जहां नाली में लुढ़कने लगते, वहीं निदा साब मय को पूरी इज्ज़त बख्शते। बाद के दिनों में
मेरी यारी उनकी पत्नी और महबूबा मालती जोशी से हो गई, जो खुद बहुत अच्छी गायिका और कवि हैं। निदा साब ने अपनी बिटिया का नाम तहरीर
रखा। सुनकर ही लगा कि निदा और मालती की बिटिया के लिए इससे प्यारा नाम और कुछ नहीं
हो सकता था। अपनी आत्मकथा “दीवारों के बीच” पढ़ने की इच्छा जाहिर करते ही उन्होने
तुरंत उसे मंगवाकर मेरे पास भिजवा दिया।
उठ के कपड़े बदल,
घर से निकल, जो हुआ सो हुआ,
दिन के बाद रात,
रात के बाद दिन, जो हुआ सो हुआ!
एक बार भोपाल के जामा मस्जिद से टैक्सी लेते समय मेरे मुंह से
निदा साब का यह शेर निकल गया-
“बच्चा
बोला देखकर, मस्जिद आलीशान,
अल्ला तेरे एक
को, इतना बड़ा मकान!”
टैक्सी ड्राईवर सुलेमान या ऐसा ही कुछ नाम था ने कहा, “मैडम! उन शाइर जनाब से कहें कि इसमें तरमीम कर लें, ‘इतना बड़ा नहीं, इतने सारे मकान’ कहें।“ तब मोबाइल का
ज़माना नहीं था, वरना उसी दम उनसे सुलेमान की बात करा
देती। मुंबई पहुँचने के बाद मैंने फोन पर उन्हे सारी डिटेल्स बताई। सुनकर वे बहुत
हँसे। तब से जितने भी धार्मिक स्थल देखती हूँ, यही जेहन में घूमता रहता है- ‘अल्ला
तेरे एक को, इतना बड़ा मकान!’ इसमें भगवान, ईश्वर, वाहेगुरु सभी शामिल हैं।
“इंसान में
हैवान यहाँ भी हैं, वहाँ भी
अल्लाह निगहबान, यहाँ भी हैं, वहाँ भी!”
वे कहते कि जब दोनों ओर हर नुक्कड़-गली-मोहल्ले में भीख ही मांगनी
थी, तो अलग ही क्यों हुए? साथ-साथ भीख मांग लेते?
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