'लमही' के अप्रैल-जून, 2012 के कथा समग्र के तहत पढ़े कहानी- सुजाता की रोटियां। आपकी राय और विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।
ऐ सुजाता! चल रोटी पका। तेरा नाम पता, तेरा काम पता, तेरा धाम पता। तेरी जात पता, तेरा मान पता,तेरे कुल खानदान का पता। तो क्या मुश्किल है रोटी पकाना!चल सुजाता, रोटी पका।
माना तेरा परिवार बड़ा,माना तेरा खानदान बड़ा, माना तेरी प्रतिष्ठा बड़ी। पर इसका यह तो मतलब नहीं कि तेरे घर में आटा हो ही भरपूर!लक्ष्मी की नहीं कोई गांरटी,सरस्वती कभी-कभी रोटी पकाती नहीं, फिर भी चल सुजाता, रोटी पका।
मत कर याद कि सैकड़ों साल पहले किसी और सुजाता ने खीर पकाई थी, तपस्या में लीन किसी राजकुमार को खीर खिलाई थी,उस खीर के आस्वाद से राजकुमार को ज्ञान दृष्टि आई थी। मत पूछ सुजाता उस सुजाता से कि ऐ सुजाता, तू तो जंगलवासिनी, पता नहीं बड़ी जाति की कि आदिवासी भीलनी, किसी पैसेवाले की गर्वीली बेटी कि बस एक गरीबनी। बस सुजाता, तू तो बस एक बात बता कि तब जंगल के लोग खीर पकाना जानते थे क्या?
मगर सुजाता, तू तो आज की पौध है, शहर की नस्ल है, नामी खानदान की बेटी है। तुझे तो सब पकाना आता है, रोटी भात से लेकर खीर-बिरियानी तक। आलू दम से लेकर चिकन दो प्याजा और मटन कबाब तक.अब यह दीगर बात है कि आज पैसा नहीं है,तो क्या ज़बान पर लिपटा स्वाद कहीं चला जाता है वनवास को? अरे, बुरे काल का शनि तो राजा हरिश्चन्द्र पर भी आया था,तुम्हारे परिवार पर आया तो क्या अघटित हो गया?बुरा वक्त अपनी जगह, रोटी की मांग अपनी जगह. इसलिए चल सुजाता, रोटी पका।
तो गई सुजाता रोटी पकाने। स्कूल जाती मां ने की थी ताकीद, टिन झाड़ ले, सारा आटा बाहर निकाल ले, जितनी बन सके, रोटियां बना ले, बना-बुनूकर बाउजी समेत तीनों भाइयों को खिला ले, बच जाए तो तू भी एक निगल ले।
ठुनकी थी सुजाता –‘ना मम्मी, मुझसे नहीं होगा यह सब। मुझे भी स्कूल जाना है, वार्षिक कार्यक्रम में भाग लेना है, गीत गाना है, नाटक करना है।’ उसकी आंखों में स्कूल का वार्षिक कार्यक्रम, डांस, गाना, नाटक सब नाच गया- छम छमा छम छम! नाटक के सम्वाद नदी में नाव की तरह तैरने लगे- “मैं अपनी झांसी किसी को नहीं दूंगी.” स्कूल का सुख कोई सुजाता से पूछे. कितनी बातों, रफ्तारों से निज़ात मिल जाती है सुजाता को- घर में क्या पकेगा, झाड़ू कौन लगाएगा, बर्तन कौन धोएगा, घर कौन सहेजेगा, बिस्तर कौन संवारेगा, आने-जाने वालों को चाय-नाश्ता कौन कराएगा- जितनी देर स्कूल में, उतनी देर इन सबसे छुट्टी!
सुजाता मचल पडी, ‘ना मम्मी ना, मैं भी स्कूल जाऊंगी।’
मम्मी ने घुडकी दी- “स्कूल की पढ़ाई नहीं चल रही। सिर्फ गाना-बजाना है। एक दिन नहीं जाएगी, गीत नहीं गाएगी, कमर नहीं मटकाएगी, झांसी की रानी को याद नहीं करेगी तो मर नहीं जाएगी। कोई दूसरी लड़की तुम्हारी डमी बन जाएगी। अभी तो पहले रोटी पका। पहले पिता-भाई को खिला, मुझे होगी देर। तकना मत मेरी राह।’
‘फिर आप क्या खाएंगी मम्मी?’
‘खा लूंगी स्कूल में कुछ भी। तू मेरी फिकर मत कर।’
कैसे फिकर ना करे सुजाता। पता है उसे कि यह पहला मौका नहीं है। ऐसे वक्त में मां के मुंह से ‘खा’ शब्द निकलता तो है, मगर क्रियान्वित ‘पी’ शब्द भर होता है, जो केवल शुद्ध और विशुद्ध पानी के गले जा मिलता है।
चली सुजाता रोटी पकाने। दालान से बाउजी पूछ चुके थे। बड़ा भाई आकर घुड़क चुका था। मंझला आंखें दिखा चुका था.छोटा भाई कई बार ठुनक चुका था। मां कबके स्कूल जा चुकी थी। अभी तो सुजाता को पानी भी भरना है। गर्मी बिन चूल्हे के ही रोटी बनाने का दावा कर रही थी। देह का पानी निकला जा रहा था, जमीन से पानी निकल नहीं रहा था। नलों में पानी आ नहीं रहा था। जभी मकान मालिक ने तल मंजिला अपने लिए रखा था और ऊपरी मंजिला किराए पर चढ़ाया था। मोटर चलाकर, बोरिंग लगाकर धरती का थोड़ा-बहुत पानी तो निकल ही जाता था।
सहृदय मकान मालकिन कहती, ‘ले सुजाता पानी भर ले।’ सुजाता के पास दो विकल्प थे – पानी भर-भरकर बाल्टी लेकर खड़ी सीढि़यां चढ़े, पिता, तीन भाई और मां सहित खुद के नहाने-खाने-पीने के लिए, घर की साफ-सफाई के लिए, आने-जानेवालों को पानी पेश करने के लिए पानी भर कर रखे।
पर सांस चढ़ जाती। ओढ़नी इधर-उधर होने लगती। बाउजी खांसते-खखारते, भाई लोग आंखें दिखाते,मां कसकर फटकार बरसाती -‘देह और कपड़े का कोई ख्याल नहीं?’सुजाता समझ नहीं पाती कि मां इतनी कठोर क्यों है उसके लिए? क्यों वह बाउजी और भाइयों के लिए इतनी नरम है? मां तो टीचर है,फिर भी इतना भेद भाव क्यों है उसके मन में? बेटे को कुछ और, बेटी को कुछ और?
अरे रे रे रे रे! ये क्या सुजाता? देह और कपड़ों से आजाद होना चाहती है? अपनी नई उमर की नई उड़ान भरना चाहती है? दुपट्टा ढलता है तो ढले. मन भटकता है तो भटके, वह हवा की साज पर झरने की धुन में गुनगुनाने लगती है, “घडी घडी मोरा दिल धडके, हाय धडके, क्यों धडके, आज मिलन की बेला में, सर से चुनरिया क्यों सरके?” यहां सर से क्या, पूरी देह से ही ओढनी फिसलकर किधर चली जाया करती, सुजाता को पता ही नहीं चलता.
मां के थप्पड़ सुजाता की उम्र के आड़े कभी नहीं आए। थप्पड अपनी जगह, सुजाता के ख्वाब अपनी जगह. सोचती सुजाता -‘टीचर बनकर मम्मी कभी किसी बच्चे को न डांटती है न फटकारती है, वही मम्मी बनकर हर बात पर कितनी घुड़की, कितने थप्पड़? वह भी केवल मुझे. भाइयों को तो कभी कुछ कहती नहीं.
भाई शेर बन जाते. भाई सिनेमा देख आते. भाई बुक स्टॉलवाली तमाम किताबें पढ लेते. सुजाता को भी किताबों का बडा शौक. रूमानी उपन्यासों का बडा चस्का. भाइयों की लाई किताबों की फिराक़ में लगी रहती.भाई लोग तनिक भी इधर से उधर होते कि वह जल्दी जल्दी उन किताबों को घोंटने लगती. कभी चौथाई तो कभी आधी तो कभी पूरी.
उम्र के साथ सुजाता की ओढ़नी फरफराने लगती, वह गुनगुनाने लगती -‘हवा में उड़ता जाए, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का।’ उम्र ओढनी से भी आगे बढ़ चली थी सुजाता की, मगर अक्ल में अभी भी बालपन था, चाल में गज़ब का अल्हड़पन था, आवाज में तबले की शरारत थी, हंसी में सितार की थरथराहट थी। एक बार बज ही तो उठी, ‘जोबना से चुनरिया खिसक गई रे, दुनिया की नज़रिया बहक गई रे।’ उसे जोबना के अर्थ का पता नहीं था. बस, सुबह वह गीत रेडियो पर सुना था, गीत की धुन ज़बान पर चढ गई थी. वही गीत एक लाइन बन कर सुजाता के कंठ से फूट पडा था. मंझले भाई ने सुन लिया, अंगार जला आया मां के मन में -‘मम्मी? देखिए सुजाता को, गन्दे-गन्दे फिल्मी गीत गाती है।’
अब सभी गीत ‘मैं बन की चिडि़या बन के बन-बन डोलूं रे’ या “ज्योति कलश छलके” तो नहीं होते ना। मम्मी ने पूछा भी नहीं कि कौन सा गन्दा गीत? सभ्य घर के लोग ये थोड़े पूछते हैं कि बच्चे ने कौन सी गाली दी? ‘गाली दी’- बच्चे की सजा के लिए यही काफी है। एक तो गन्दा, उस पर से फिल्मी गीत। एक करेला खुद तीता, दूजा चढ़ा नीम पर! सो धुनाई हुई, कसकर हुई।
पानी कोठे पर चढ़ा-चढ़ाकर सुजाता हांफ जाती। भाई आकर कहते -‘अभी तक इतना ही पानी भरा है?’ मकान मालकिन ने दिया दूसरा विकल्प ‘सुजाता, ऐसा कर! तू बाल्टी में रस्सी लगाकर नीचे उतार। मैं भर दिया करूंगी उसमें पानी. फिर खींच लेना ऊपर, जैसे कुएं से खींचते हैं.’ सुजाता की हथेलियां नारियल की रस्सी खींच-खींचकर लाल हो जाती। आधा बाल्टी पानी छलक- छलक जाता। डांट का प्याला सुजाता के लिए तैयार मिलता -‘विष का प्याला राणा जी ने भेजा, पीबत मीरा हांसी रे! पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे!’
अभी तो सुजाता के हाथ टिन खखोड़ रहे हैं। हिसाब से आटा, हिसाब से पानी। कहीं गीला हो गया तो? रोटी कैसे पकेगी? बाउजी, भाई कैसे खाएंगे? आटा गूंथना कभी अच्छा नहीं लगा सुजाता को, ना ही रोटी बनाना. कितना तो हाथ में लग जाता है आटा. फिर चारो ओर सूखा आटा बिखर जाता है रोटी बेलने में. फिर भी उसे कहा जाता है, ‘चल सुजाता, रोटी पका!’
क्या करे सुजाता! रोटियां बनानी ही थीं, वह भी उस नपे तुले आटे से. लिहाज़ा, जतन से उसने पेपर बिछाया। पेपर पर सारा आटा निकाला। दिमाग में आया, छन्नी से छान तो लें? चोकर नहीं, बस कीड़े-पिल्लू हों तो निकाल तो लें?
गई सुजाता छन्नी लाने। उम्र और गले ने फिर मारी अंगड़ाई। मुंह से फूट पड़ा फिर एक गीत -‘इचक दाना बिचक दाना दाने ऊपर दाना, इचक दाना...’ खो गई सुजाता इस पहेली के उत्तर अनार की कल्पना में। अनार के लाल-लाल दाने! तब दिन सोने के और रात चांदी की। बाउजी की बडी सी नाटक मंडली थी। साठ सत्तर लोगों की टोली. एक खूब बडे परिवार जैसा. जो सब खाते, बाउजी खाते। सुजाता सभी की गोद में चिडिए की तरह फुदकती रहती. बाउजी उसे अनार के लाल-लाल दाने खिलाते, उसका जूस पिलाते। उसके घर की बगिया में अनार, अमरूद, लीची, आम सभी पेड़. मगर तक़दीर वाम हो जाए तो कोई क्या करे। घर बिका, बगिया भी गई. संग-संग अनार, आंवले, करौंदे सब छूट गए।
भले थे बाउजी, कभी किसी का बुरा न किया, मगर पिछले जनम के करमों का दोष कि क्या कि लक्ष्मी वेगवती आंधी की तरह उड़ चली। बाउजी ने सभी लोगों से हाथ जोड़ लिए –‘अब आप सब अपना-अपना रास्ता देख लें।’
चलाई जब सुलताना डाकू ने अमीरों पर तलवार
छीनकर धन उनके, दिए उसे गरीबों पर वार!
वो लेकर धन अमीरों का न रखता था कभी पास
ऐसे डाकू से कहो तो कौन ना करे फरियाद
कि अब दर पर आज हमारे साहेब जी पधारे हैं।
कि बिटिया की चुनर पर नेह का वो नेग धारे हैं।
बाउजी भी तो सुलताना डाकू ही थे. अमीरों को खेल-तमाशा दिखाया, हंसाया, रूलाया और उनसे मिले पैसों को गरीबों पर लुटाया। पत्नी की साड़ी कितनी पुरानी पड़ गई कि बिट्टो सुजाता की चुन्नी कितनी फट गई, भाईयों के नाम स्कूल से कब-कब कट गए, उन्हे नहीं पता। वे तो टोली के संग टोलीवाले, बच्चों के संग बच्चा बन जाते। गृहस्थी तो मम्मी की ज़िम्मेदारी थी. तब भले घर की लडकियां या तो टीचर बनती थीं या डॉक्टर. मगर डॉक्टर के लिए तो बचपन से पढना होता है. टीचर के लिए तब इतनी कडाई नहीं थी. लिहाज़ा, मम्मी ने संगीत सीखा, सिलाई-कढाई सीखी, ड्राइंग सीखी, कविता सीखी, उडिया से हिंदी-उर्दू सीखी और भर्ती हो गई स्कूल में। जिस विषय की क्लास में भेज दो, मम्मी उसी में रम जाती. गृहस्थी की गाड़ी मम्मी से, नाटक की गाड़ी बाउजी से- चलने लगी, जैसे-तैसे.
मम्मी की गृहस्थी में छह जन ही सही, मगर एक भी जन ऐसा नहीं, जिसे निकाला जा सके,जिसके निकालने से या जिसके निकल जाने से कुछ रोटियों का भार हल्का हो सके। नाटक के लोग मगर निकलते गए- धीरे-धीरे । बाउजी ने ही हाथ जोड़े। नाटक बंद, आमद बंद, मगर घर के पेटों की आमदरफ्त कैसे बंद हो? मांस-मछली के शौकीन बाउजी को बस एक टुकड़ा भर ही चाहिए होता, मगर घर में केवल उन्ही के लिए तो नहीं बन सकता न? रोज-रोज के लिए पैसे कहां से आए? फ्रिज भी नहीं कि एक दिन बनाकर चार दिन एक-एक टुकड़ा उनकी थाली में देते रहे। ‘ये ना थी हमारी किस्मत कि विसाले-यार होता।’
तन्द्रा टूटी सुजाता की। हड़बड़ाकर छन्नी उठाई और चौके में आई तो कलेजा धक्क! आटा कहां गया? आटे का पेपर कहां गया? पता चला कि भाई छोटू बाबू अपने कमरे की सफाई करके कूड़ा बाहर फेंकने जा रहे थे। संयोग से हाथ तनिक थरथराए और सारा कूड़ा आटे पर आन गिरा। भय से देखा इधर-उधर। दीदी नहीं आई नजर! सो झट से आटावाला पूरा पेपर ही उठाया और कर दिया उसे कूड़ेदान के हवाले। चल सुजाता, अब रोटी पका?
‘छोटू?’ सुजाता ऐसे चीखी, जैसे उसके गले से बीस तोले सोने का सीताहार किसी ने खींच लिया हो। भय और उत्तेजना से आवाज के साथ-साथ देह भी कांपी -‘कहां रखा आटा?’
‘कूड़ेदान में!’
‘कहां है कूड़ेदान?’
अब तो जी भाई छोटू बाबू के भी होश फाख्ता हो गए। अभी तो यहीं था रसोई के पास. कि तभी भाई छोटू बाबू की निगाह पड़ी उस पर -‘दीदी, वो देखो, किसी ने दरवाज़े के बाहर रख दिया है। जमादार के आने का वक्त हो गया है ना!’
‘भाई, तू कूड़ेदान उठा ला!’
‘कूड़ेदान क्यों दीदी, मैं आटेवाला अखबार ही उठा लाता हूं. कूड़ेदान लाए और इस बीच कूड़ा उठानेवाला चला गया तो सारा कूड़ा घर में पड़ा रह जाएगा। मम्मी चिल्लाएंगी।‘
सुजाता तय नहीं कर पाई कि वह भाई से क्या कहे?तबतक भाई छोटू बाबू दरवाजा खोलकर बाहर निकल गए। शुक्र था,जमादार आया नहीं था, कूड़ेदान में से आटा गया नहीं था। भाई ने आटा निकाला, वहीं फर्श पर डाला! कूड़ेदान एक पत्थर की छोटी सी चट्टान पर रखा जाता था। कूड़ेदान की जगह थी, कुत्ते-बिल्लियों का बसेरा था, कौओं, कबूतरों का डेरा था। भले सुजाता रोज वहां झाड़ू लगाती थी,बाउजी के नाटक बन्द होने और मां की टीचरवाली आमदनी में कामवाली के लिए गुंजाईश नहीं थी। पढ़-लिखकर और टीचर होकर भी मां के मन में बेटे-बेटी का फर्क बड़ा कूट-कूटकर भरा हुआ था। सो बर्तन मलने,झाड़ू-पोछा करने,पानी भरने से लेकर खाना बनाने की जिम्मेदारी सुजाता पर थी। ऊपर से पढ़ाई की भी। भले भाइयों का मन पढ़ने में नहीं लगता था, मगर सुजाता को तो किताबों के सफेद पन्ने और उनपर मोती के दानों की तरह तरतीबवार सजे अक्षर और उनसे बने शब्द, वाक्य, अनुच्छेद इतने आकर्षित करते कि वह उनमें डूब जाती,खो जाती। ‘कागद कारे, मनवा गोरे, प्रेम की चितवन लागी रे, पिया बावरे, मैं सांवरी, नैना, मेघा कारे रे!’
पर अभी तो सुजाता परेशान थी- ‘छोटू, जल्दी आटा लेकर आ।‘ पर यह क्या? छोटू ने कूडेदान से आटा निकालकर बाहर रखा कि सामने कटकर आती पतंग पर नजर गई। चार बार रसोई का चक्कर लगा चुके छोटू बाबू कटकर गिरती पतंग को देखकर ऐसे सम्मोहित हुए कि बस! आटा वाला अखबार वहीं पटका और दौड़ पड़े कटी पतंग की ओर। लात से लगकर अखबार खिसका, अखबार खिसकने से आटा बिखरा, कुछ छोटू के पैरों पर, कुछ उनके पैरों के नीचे। अखबार पर उनके चरण चिह्न राम की पादुका की तरह विराजमान हो गए –‘प्रविसि नगर कीजै सब काजा, हृदय राखी कोसलपुर राजा।’
पर यहां किसी भी मोड़ पर कुछ भी शुभ नहीं हो रहा था। चली सुजाता बाहर को। अखबार के बाहर बिखरा आटा,आटे पर छोटू के चरण चिह्न। पीछे से आती बाउजी की आवाज –‘बिट्टो, खाना बन गया क्या?’
हड़बड़ाई सुजाता,घबड़ाई सुजाता। दौड़ पड़ी बाउजी की ओर आटा वहीं छोड़ -‘अभी बन जाता है बाउजी।’ कहकर फिर लौटी सुजाता – आगे का दृश्य और भी गतिमान था, पूर्ण मतिमान था– जन्म-जन्म की दुश्मनी भूल कालू कुत्ता और भूरी मौसी एक-एक कोने से आटे को अपने पैरों से बिखेरने में मग्न थे। रोटी की आस उनको भी थी, रोटी की जगह मिले आटे का क्रोध उनमें भी था – देर इतनी हो गई? नहीं बनी रोटी अभी तक? कालू और भूरी मौसी भी घुडके- ‘चल सुजाता रोटी पका!’
सुजाता रोटी कैसे पकाए? उसके पास सवाल तो थे, जवाब नहीं। जवाब उसे खोजना था, रोटी उसे पकानी थी, ‘दुर-दुर! भाग-भाग! हट हट!’ की हल्की ध्वनि से कालू भाई और भूरी मौसी को परे किया। आवाज ऊंची करने पर बाउजी पूछते –‘क्या हुआ बिट्टो?’ खाने के इन्तजार में रेडियो से दिल बहलाता बड़ा और कर्नल रंजीत के जासूसी पढ़ता मंझला भाई आ जाते। आटे की वह गत देखते। रोटी तो खाते ही नहीं। मम्मी से शिकायत भी करते। बाउजी फिर भूखे रह जाते।
धूल से सनी, मक्खियों से भिनभिनाती जगह पर कुत्ते-बिल्ली के मुंहों से बचाती, छोटू के चरण-चिह्नों को झाड़ती सुजाता उठ खड़ी हुई बचे-खुचे आटे के साथ। रसोई में आई सुजाता, आंख में पानी भर लाई सुजाता। पानी में आंसूओं का खारापन मिलाकर गूंथा आटा, पर नमकीन ना हुआ आटा। नारियल की रस्सी के सहारे खींचे पानी ने सारा स्वाद फीका कर दिया तो क्या हुआ? तू चल सुजाता, रोटी पका।
और पहली बार दिखाया सुजाता ने अपनी पाक-कला का हुनर। दाल ऐसी कि मकान मालकिन फर्क भूल जाए सुजाता की दाल और अपने पानी का। सब्जी में घर के सारे मिर्च-मसाले डाले और रोटियां तो इतनी पतली-इतनी पतली कि नाइलॉन के दुपट्टे की तरह हवा में उड़-उड़ जाए। पूरी के नन्हें आकार की लोई को रोटी के बडे आकार में तब्दील करना मामूली बात तो नहीं थी. वैसे मामूली बात तो यह भी नहीं थी कि उस दिन सुजाता ने रोटी पकाई। बाउजी ने पूछा -‘बिट्टो, इतनी पतली-पतली चपाती?’
‘जल्दी हजम होने के लिए बाउजी।’
‘और सब्जी इतनी तीखी? अच्छा, मटन नहीं बना है क्या? एक टुकड़ा भी मिल जाता तो...’
पतंग तो मोहल्ले के चार बच्चों के बीच फट-चिटकर अपनी अंतिम गत में पहुंच चुकी थी, मगर घुटने छिल-छिला कर आ गया था भाई छोटू बाबू। बड़ा भाई किसी भी रेडियो के किसी भी स्टेशन से किसी भी तरह के फिल्मी गाने की आस में वेव पर वेव बदल रहा था। मंझला कर्नल रंजीत की सोनिया और उसके मद्धम मोटे संतरे के फांक जैसे होठों की मोटाई में डूबा हुआ था।
सुजाता के जीवन का वह ऐतिहासिक क्षण! चार-चार चपातियां सभी को। दो चपाती मां के लिए भी रखी। शाम में जबरन खिला देगी। एक फिर भी बच गई थी। सुजाता ने सोचा, उसे खा ले, मगर चपाती बनने से पूर्व आटे की उस प्रयाग और काशी यात्रा से वह साक्षात मोक्ष की अवस्था में आ गई। उसने सबसे नीचेवाली भाप से गीली-गीली हो आई रोटी उठाई और बाहर निकल आई।
बाहर कालू मामा और भूरी मौसी को लग गई गंध। आए वे मैराथन के धावक की तरह। सुजाता ने आधी-आधी रोटी दोनों के सामने डाल दी। दोनों ने आधी-आधी रोटी लपक ली। सुजाता की आंखों के पानी के सालन की उनको जरूरत नहीं थी। बड़ा भाई फिर से रेडियो घुमा रहा था। मंझला फिर से सोनिया के मद्धम मोटाईवाले होठों की कल्पना में डूब गया था। छोटू ने निकर उतारकर फुलपैंट पहन ली। मम्मी को पता नहीं चलेगा घुटना फूटने का। बाउजी ने पूछा -‘बिट्टो, तुमने खाना खाया?’
बोली सुजाता -‘आज सुबह से मेरे पेट में बहुत दर्द है बाउजी।’
यह बोलते-बोलते सुजाता को चक्कर आया,अंदर से हूल उठी। वह लपक कर बाथरूम में भागी। आटे की प्रयाग और काशी यात्रा का सारा दृश्य पेट से निकल-निकलकर बाथरूम के फर्श पर बहने लगा।
आंखें फिर नम हो गईं सुजाता की। सांसें सर्द हो गईं, पेट की मरोड़ शांत हो गई।
आंखें फिर नम हो गईं सुजाता की। सांसें सर्द हो गईं, पेट की मरोड़ शांत हो गई।
……..आज सुजाता पचास की है। फिल्मों की सफल अभिनेत्री और निर्देशक है. आज सुजाता का अपना घर है. आज सुजाता की अपनी गाडियां हैं. आज सुजाता की अपनी तीन-तीन कुतिया है. आज सुजाता के अपने कबूतर हैं। उसके पास कौए तक आते हैं.वह उन्हें प्रेम से मलाई पनीर खिलाती है- अपने हाथों से. धोखे से पनीर की जगह भात खिला दे तो अपनी कानी, तिरछी नजरों से सुजाता को ऐसे घूरते हैं कि बस! थिएटर के दिनों के एक मामा हैं, जीवन के अंतिम चरण में पहुंचे. उनकी सेवा के लिए भी दो नौकर हैं. बस, नहीं है तो सुजाता का वैसा कोई, जिसके लिए वह बेकल होकर रोटी पकाए,कचरे में से आटा उठाए। अब न तो है ऐसी निर्धनता ही कि हिलक हिलक कर आंसू बहाए। आज तो उसके चेहरे पर सफलता की भरपूर मुस्कान है, होठों पर बचपन का सोज़ भरा गान है- ‘बचपन के दिन भुला न देना।’ आज का भी गीत उसके होठों पर है- “दिल में जागे धडकन ऐसे, पहला पहला पानी जैसे....”
फिर भी, अटल सत्य तो अटल ही है कि पेट पैसेवाला हो या कंगालवाला– उसका मुंह तो हमेशा खुला ही रहता है. भूख सभी को लगती है, रोटी सभी को छकाती है। दूसरों के लिए हो या खुद के लिए, रोटी तो चाहिए ही चाहिए! इसलिए ऐ सुजाता, चल रोटी पका।
पर, आज सुजाता रोटी नहीं पकाती। जरूरत ही नहीं. उसकी कुतियाओं की देखरेख के लिए अलग से विष्णु है, बर्तन खंगालने के लिए लक्ष्मी है, रोटी पकाने के लिए सरस्वती है। बाउजी सिधार गए, मम्मी सिधार गई, बड़ा नाटक करता है. मंझला फिल्म और टीवी का जाना-माना कलाकार है, तीन-तीन शादियां कर चुका है. छोटा रेकॉर्डिंग और फिल्म मेकिंग की क्लास और वर्कशॉप में व्यस्त है.मसलन कि सभी अपनी-अपनी दुनिया में मगन-छगन-जगन हैं। बस, सुजाता का कोई नहीं है,जिसके लिए वह बेकल होकर रोटी पकाए। शादी और तलाक की याद को वह अपने मन के बक्से में और शादी और पति की तस्वीरों को काठ के बक्से में बंद कर चुकी है.ये यादें उसकी आत्मा को छीलती हैं. बचपन की यादें उसे अधिक सुहानी लगती है. जब-तब उसकी आंखें छलका देती है और वह बुदबुदा उठती है -‘चल सुजाता, रोटी पका।’
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