'आउटलुक' के अप्रैल, 2012 अंक में प्रकाशित मेरी कहानी. पढें और अपने विचार दें.
‘द’ = देह, दरद और दिल
सुरजी सुरुज बेला के साथ नहीं उगती है। वह संझा, परात, दिन-रात कभी भी उग जाती है। उसके उगने की डोर सुरुजदेव बाबू के हाथ में है।
सुरुजदेव बाबू मातबर लोग हैं। समय भले 21वीं सदी में टहल्ला मार कर पूरी दुनिया को अपने जाल-संजाल में समेट रहा है, मगर सुरुजदेव बाबू अभी भी ईस्ट इंडिया कंपनी के हिमायती हैं। दूसरे की जमीन अपनी, जोरू अपनी! यह तभी मुमकिन है, जब घरवाली कम-अकल और बेशकल रहे।
सुरुजदेव बाबू अपनी बान में बोले– “हमको पढ़ी लिखी घरवाली नहीं चाहिए. रामायण-गीता बांच ले, टीवी सीरियल देख-ले, धोबी-गोभी का हिसाब-किताब रख ले बस!”
गजब कि उनको बीवी की सुंदरता का भी आग्रह नहीं था, जबकि सुंदर कनिया (बहू) की हिरिस तो आदमी लोग शायद बाबा आदम के जमाने से ही पाले हुए हैं।
सुरजी घर बुहारती गाती रहती –‘मोरो भैया अइले अनबइया हो, सावनमां में ना जइबो ननदी।’
किसी को नहीं पता, सुरजी का घरवाला देस-बिदेस के किस कोने में कमा खा रहा है। बाप दो-चार बार गया उसकी ससुराल. ससुर ने उल्टे पांव घुरा दिया –‘जाइए समधी! जहिया हमरा बेटा घूर (लौट) आएगा, आपकी बेटी का दुरागमन करा लेंगे।’
तब ई गीत? नैहरे में नैहर न जाने की जिद। होता है! ससुराल बसने की आस-प्यास और नैहर की नेह भरी सांस गीत बन जाते हैं. ई कोनो अजगुत तो है नहीं।
मुदा अजगुत जहां हुआ, बड़ी घनघोर हुआ। पहिला अजगुत तो ईहे कि सुरुजदेव बाबू को पढ़ी-लिखी घरवाली मिल गई। इसमें आजकल के छोकरों का पूरमपूर हाथ है। तनिक भी पढ़ने-लिखने में होशियार हुए कि बाहर! यहां तक कि छौंडि़यां भी- कोई देश की रेलगाड़ी आबाद करते हुए तो कुछ विदेशी विमान में आकाश में उड़ते पखेड़ुओं के साथ होड़ लगाते हुए। खुद पढ़ कर बिलायती बीवी चाहने लगे। तब के समय में डॉक्टर, इंजीनियर आ वकील की घरवाली सब गीता-रामायण बांचकर डाक्टराइन, इंजीनियरनी आ ओकिलाइन कहलाती इतराती फिरती। अब ये डॉक्टर, इंजीनियर, वकील और एमबीए सीए तो अल्ना-फल्ना करनेवालों की पहली शर्त होने लगी– पढ़ी-लिखी लड़की! वर्किंग हो तो और अच्छा। पहिले मां-बाप बेटी को सोना, जमीन और धेनु से लाद देते थे – इज्जत भी और बखत-कुबखत का सहारा भी। अब झख मारकर पढ़ाने लगे – सब ठाठ धरा रह जाएगा, जब छोड़ चलेगा बंजारा! सोना, जमीन आ गाय कौन पूछे, जब लड़कीए पसीन नहीं।
सो बड़ी खोज-बीन के बाद भी सूरुजदेव बाबू को बीए पास से कम बीबी नहीं मिली. और भले बेटा कहे कि हमको सुरसा-ताड़का से कोई ऐतराज नहीं, पर माय-बाप का भी शौक अरमान है कि नहीं! भर शहर की चमचमाती-जगमगाती इजोतिया चांद जैसी बहुओं के बीच अमावस कैसे ला बिठाते?
सो बीए पास गजब की सुंदर बहू को पाकर सुरुजदेव बाबू का मुंह फूला रहता। मन का क्षोभ बहुत गहरा कर सुनीता देवी के बदन पर उतर जाता। होगी सुंदरी! होगी बीए-फीए! मेरे लिए तो तू कानी उंगली के कटे नाखून बराबर भी नहीं। माई से नहीं रहा गया – “ऐसी गौरी बहू के तो पैर पूजने चाहिए और ई नालायक पैर से उसे धांगता है।“ दुखी माई एक दिन बोली तो दोपहर बारह बजे का सूरुज बन वे ऐसा धकियाए माई को कि उनके प्रचंड ताप तले झुलसती छह माह में ही सिधार गईं। बाउजी भी उसके छह माह बाद चल बसे, सुनीता बहुत रोई और बाद में मलकीनी नाम से अभिहित हो गई।
सुरजी को इस मलकीनी पर बहुत दया आती. उसे अपनी हालत ज्यादा अच्छी लगती। नहीं आता है मरद, नहीं आवे। वह घर-घर झाड़ू- बुहारी, कुटिया-पिसिया करती है, माल-मवेशी देखती है, गाय का सानी-पानी करती है, गोबर का गोइठा-गोहरा पाथती-बनाती है। मन-मुताबिक साड़ी-सिंदूर-टिकली भी पहनती है आ शहर का इन्दर पूजा मेला भी घूम आती है। झुलुआ भी झूलती है, चूड़ी भी खरीदती है, तमाशे भी देखती है।
सीना तान के, माथा उठा के ठसकती चलती है सुरजी को मइया ने चेताया – ‘इतना तान-उघाड़ के मत चल! जमाना खराब है आजकल!’
‘जमाना कहिया बढि़या था माय? बढि़या रहता तो रावण सीता जी को हर ले जाता?’
‘कोई तुमको न हर ले मेरी सीता।’
दुहा रहे दूध के फेन जैसा दांत चमका देती सुरजी को खुद ही पता नहीं चला कि वह भी कैसे एक दिन सीता बन हर ली गई।
सूरुजदेव बाबू का कोठरी सुरजीए माई बहारती, पोछती. बाकिर उस दिन जाने कैसे उसकी मत मारी गई, उसने सुरजी को भेज दिया। मलकीनी बोली -‘ऊ तो फारिग होने गए हैं, घंटा भर से कम नहीं लगता उनको।’
झाडू-पोछा लगा के लौटी सुरजी के गाल लाल थे और सीना तनिक बेसी उभरा। एक पल चेहरे पर मुर्दनी छाती, एक पल मुस्की. घर लौटकर अपने हाथों से गाल सहलाया। सीने के अतिरिक्त उभार को कम किया तो हथेली नोटों से भर गईं।
मलकीनी घरवाली थीं. सुरजी दिलवाली बन गई। रात में मलकीनी के साथ क्या होता, सांझ में सुरजी के साथ क्या होता, मलकीनी को मालूम था।
मातबर सुरुजदेव बाबू के फटे में टांग तो क्या अपना काटकर फेंका नाखून भी लोग अड़ाना नहीं चाहते थे। कनफुसकी, मुसकी, चुसकी में बात होती रही, लोग अपने घर के बेटों, बेटे अपने बापों और मां बहुएं अपने-अपने मरद पर हर संभव चौकसी रखने लगे. सूरजी दिन उगते से सांझ ढलते तक उगती, चमकती, लचकती, मटकती. सूरजदेव बाबू समन्दर में डोलते सूरज की तरह आगे पीछे होते।
उस दिन ज्वार उगते सूरज पर कारे मेघ छा गए, मेघ झमाझम बरसे। सूरजी भी बरसी, मलकीनी भी। सुरुजदेव बाबू काले मेघ की तरह गरजते रहे, घन बिजली की नाई चमकते रहे।
सुरजी दरद से बिलबिला रही थी। दरद तो पहले भी होता था, जब जबरन सुरुजदेव बाबू उसकी देह को अपनी मुट्ठी में भर लेते। जबरन उसकी टांगें फैलाकर उसके ऊपर हुमचने लगते। आगे-पीछे, ऊपर-नीचे करके उसे रूई की तरह धुन देते। मगर उसमें आह्लाद की एक टीस होती, प्यार भरी कसक और सिसकारी होती।
धुनने का कोई बखत नहीं था। धुनिया धुनकी लेकर तैयार तो सुरजी को रूई की तरह खुद को धुनवाना ही पड़ता। धुन-धनक के ऊपर आती तो कुछ मलकीनी सूनी नजरों और सूखे ओठ से उसे देखती रहती। सुरजी को ग्लानि होती। शुरू-शुरू में अंग-अंग की यह पीर अच्छी लगती, मादक और वह गा उठती!
‘रात सैंया मोती के लड़ी तोड़ दियो रे!’
मरद का कोई अता-पता नहीं था, पहले भी नहीं, अभी भी नहीं। अब तो शायद पता भी हो तो नहीं आएगा? कौन आंख रहते जीवित माछी निगले? माय-बाबू ने उसका जैसे जिन्दा श्राद्ध कर दिया था। सुरजी समझ नहीं पाती कि कैसे वह इस खाई में उतरती चली गई! जवान देह की मांग? आदमी आ गया होता तो...! पैसा? फूले-करारे नोट से भरा सीना...! और अब तो उसका पक्का घर भी बन गया है। माय-बाबू ने जो थोड़ा पढ़ाया था, उसके बल पर बैंक में खाता खोल आई। उसे पता था कि बैंक से पैसा कोई नहीं चुरा सकता, भले उसकी देह से जवानी सुरुजदेव बाबू चुराते रहे।
पर अब मन ऊब गया था – अपनी कोई मर्जी ही नहीं? एक हुकुम और देह कपड़े की ओट से बाहर!
उस दिन उसका मन नहीं कर रहा था। भरी मेघ से भरी दुपहर भरी सांझ लगने लगी थी। मलकीनी दुख की गगरी बनी भरी बैठी थी. पांच बरस हो गए. एक काना पूत भी गोद में रहता तो उसका मुंह देखकर सारा गम भुलाती रहती। पर पूत होए तो कहां से? सारा रस तो ई सुरजी सोखे ले रही है सुरुजदेव बाबू का!
सुरजी बधाती गाय की तरह डकरी थी। मलकीनी घबड़ाकर नीचे उतरी थी. एक हाथ दोनों जांघों के बीच और एक हाथ से दोनों छाती दबाए सुरजी दर्द से बिलबिला रही थी। जूड़ा खुल गया था. बाल बिखर गए थे। आंखों में कातरता के लाल डोरे खून की नस बनकर बाहर निकलने को बेताब थे। मोटे-मोटे आंसू उसके गोरे, फूले गाल पर धार बन बह रहे थे। मलकीनी को देखकर वह एक बार और डेकरी।
सुरुजदेव बाबू अंगार बने हुए थे - ‘हरामजादी रंडी! नखरा करती है। भाग यहां से, नहीं तो कुट्टी-कुट्टी काटकर डबराही पोखर में फेंकवा देंगे।’
मलकीनी सहारा देकर उसे ऊपर ले आई। सुरजी सिर कटी बकरी की तरह छटपटाती रही। मलकीनी की आंखों में सवाल ही सवाल थे। सुरजी की देह में दरद ही दरद था।
सवालों का कोहरा थोड़ा छंटा, देह का दरद थोड़ा कमा तो दोनों के हाथ में चाय थी – मलकीनी का कप और सुरजी का गिलास, जो केवल उसी के लिए था, जिसमें चाय-पानी पीकर वह उसे एक किनारे रख देती। अछोपिन होने का यह जहर चाय-पानी के संग उसे हर दिन पीना पड़ता।
चाय पीती मलकीनी की आंखों में प्रश्न था -‘क्या हुआ?’
‘आज मेरा मन नहीं किया मलकीनी।’ सूरजी के सामने सबकुछ नाच उठा – सुरुजदेव बाबू ने उसको खींचा। उसने तनिक इतराकर कहा -‘मालिक! आज नहीं।’
‘क्यों? माहवारी से है?’
‘नहीं मालिक?’
‘तो क्या पेट से है?’
‘क्या मालिक आप भी? आप तो फुकना लगैबे करते हैं, हमको भी गोली खिलाते हैं।’
‘तो मरद आ गया तुम्हारा?’
‘ऊ तो लगता है, पाताल में सन्हिया गया!’
‘तो कोई और मुस्टंडा चढ़ गया जी पर?’
‘नहीं मालिक!’
‘तो फिर?’ सुरुजदेव बाबू की आवाज तेजतर होती गई।
‘मालिक! आज मन नहीं है। रोज-रोज वही सब! कभियो तो छुट्टी मिले!’
‘छुट्टी चाहिए! रंडी! सूत क्या गए तुम्हारे संग, तेरी मर्जी चलने लगी? महारानी समझने लगी?’ गुस्से में तिलमिलाते सुरुजदेव बाबू ने जूड़े से पकड़कर खींचा. फिर बेरहमी से उसकी दोनों छातियों को इतनी बुरी तरह दबोचा कि जोर की कराह उसके मुंह से निकल गई। सुरुजदेव बाबू ने पहले पेट पर लात मारकर उसे नीचे गिरा दिया। फिर जबरन उसकी टांगें दोनों ओर खींची और एक भरपूर लात....!
भय, आतंक और दर्द से सुरजी फिर डेकरा उठी. देह उसके काबू में नहीं रही। बड़ी जोर से झुरझुराई! चाय का ग्लास हाथ से छूट गया. चाय फर्श पर फैल गई. ग्लास झनझनाकर दूर चला गया. दो घूंट चाय गई थी भीतर! बाकी तो अभी ग्लास में ही...! सामने बैठी मलकीनी पर चाय का छींटा पड़ा. साड़ी पर भी चाय गिरी।
सुरजी के दुख से संवेदित और सुरुजदेव बाबू की पाशविक कृत्य से मलकीनी को चक्कर और मतली सी आने लगी. सुरजी की पीर के मर्म तक पहुंच रही मलकीनी की मर्म यात्रा में झटका लगा चाय के ग्लास से। उधर ग्लास झनझनाता दूर गिरा, इधर मलकीनी झनझनाई –‘रंडी! अछोपिन! कर दी न भरस्ट! अब इस बरखा-बुन्नी के समय में नहाना पड़ेगा!’
सुरजी बीए पास नहीं थी। मगर दुनिया देख रही थी। सुरुजदेव बाबू के इस कृत्य ने क्षणांश में मलकीनी को इतना बदल दिया? सुरजी सुरुजदेव बाबू के साथ सोती थी, सोने के बदले पैसे पाती थी। सुरुजदेव बाबू के प्रति उसके मन में स्वार्थ था, मलकीनी के लिए भर देह आदर! मलकीनी उसे जितना भी काम अढ़ाती, ना नहीं करती। उसे लगता, शायद वह इसी तरह अपना अपराध कम कर रही है। लेकिन....!
जितनी तेजी से ग्लास गिरा, जितनी तेजी से मलकीनी बोली, उतनी ही तेजी से सुरजी भी बमकी –‘ए मलकीनी! हम क्या अपने से रंडी बने? अछोपिन बनकर जनमे? हमरे गिलास से आप का देह भरस्ट हो गया आ हमरे देह में देह घुसा के, अपना जीभ हमरे मुंह में डाल के मालिक आपके पास आते हैं, तब आप भरस्ट नहीं होती हैं?’
मलकीनी की नजर झुक गई। सुरजी की उठ गई। मालिक की मार से देह की नस-नस पिरा रही थी। मलकीनी की बात से मन का मांस तक सींझ गया। लेकिन अपनी बात से तन-मन की पीर पर चन्दन लेपा गया। वह उठी। ग्लास उठाया, धोया, पोछा लाकर फर्श साफ किया। जमीन पर निहुरकर मलकीनी को प्रणाम किया और बोली -‘आप लोग बची रहती हैं, क्योंकि आपके हिस्से का नरक हम ढोते हैं. हम जा रहे हैं. अब अपने हिस्से का नरक और सुरग दोनों भोगिए।’
लड़खड़ाती सुरजी चल दी। ग्लास उठा कर आंचल में खोंस लिया –‘इस अछोप का भी यहां क्या काम?’
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