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Saturday, August 27, 2011

दूध में पानी कि पानी में दूध?


छम्मकछल्लो को धारा के विरुद्ध जाकर कुछ बोलना बहुत खतरनाक लगता है. आजकल देश में एक आंधी चल रही है. तारीफ कि इस आंधी से बचाव के लिए सरकार तक गुहार नहीं लगाई जा रही है. राहत कोष भी नहीं खोला गया है, कोई देश-विदेश की सरकारी-गैर सरकारी संस्थाएं भी अपने यहां से राहत की बात नहीं कर रही है.
हमारा देश फैशन और फिल्म परस्त है. वह एक फिल्म में देखता है कि लोग मोमबत्ती लेकर खडे हो गए. नाम, दाम, देश, दिशाएं तो फिल्मवाले ही देते हैं, चाहे संकट का लगान हो या संघर्ष का रंग दे बसंती या खेल का चक दे इंडिया! मैंनेजमेंट गुरु पढाई में बल्ला लेकर कूद पडते हैं, विज्ञापनवाले चक दे भारत लिखने लगते हैं. आमजन अपने संघर्ष की मौन आवाज़ में मोमबत्ती लेकर खडे हो जाते हैं.
आजादी कभी एक कॉमन फैक्टर था लोगों के पास. आज भी वही कॉमन फैक्टर है. हम कॉमन पर बहुत बढिया से रिएक्ट करते हैं, चाहे कॉमन मैन हो या कॉमन विषय या कॉमन वेल्थ गेम. यह कॉमन मैन या विषय जब अपने कॉमनपन से निकलकर हमारे घर या मन में दस्तक देने लगता है, तब हम या तो इसे बाहर निकालते हैं या बापू के तीनों बंदर हो जाते हैं- न देखो, न सुनो, न बोलो- बस, ‘बुरा शब्द साइलेंट कर देते हैं.
छम्मकछल्लो ने घर बुक करते समय 30-40% काला धन, हाउसिंग बोर्ड से पेपर पास कराने, रजिस्ट्रेशन आदि के लिए तयशुदा कीमत दी थी. बच्चों के नामांकन के लिए वैध फीस के रूप में लाखों रुपए भरे हैं. उन रुपयों का क्या होता है, वह पूछती भी नहीं. संस्थान बच्चे को बाहर निकाल फेंकेगा. वह यह भी नहीं पूछती कि सर्दी- जुकाम के लिए एक डॉक्टर 600-700 रुपए की कंसल्टेशन फीस क्यों लेता है? दस दिन के बुखार के इलाज में 30 हजार रुपए कैसे खर्च हो जाते हैं? ऑटो-टैक्सी का मीटर क्यों बढा हुआ है? ऑटॉवाले मनमानी वसूलते हैं, हम देते हैं. सिग्नल तोडकर हमीं ट्रैफिक पुलिस को घूस देते हैं, क्योंकि हमारे पास उनके दफ्तर जाकर जुर्माना भरने का समय नहीं होता. बिजनेस करते हैं तो सबसे पहली कोशिश होती है कि इन्कम टैक्स कैसे कम से कम लगे? कम करने के लिए कितने पापड बेलने पडते हैं, यह तो बिचारे बिजनेसवालों से पूछिए. यह सब ना करें तो जीना मुहाल हो जाए.
छम्मकछल्लो यह सब करके भी भ्रष्ट नहीं कहलाती. हमें लोग भ्रष्ट ना कहें, इसके लिए हम मोमबत्ती भी जलाते हैं, नारे भी लगाते हैं, जुलूस भी निकालते हैं.
छम्मकछल्लो आजकल चेन्नै में है. चेन्नै में आपको मुंबई से भी अधिक पैसे की कीमत का पता चलता है. अपने घर के पिछवाडे भी जाने के लिए यहां के ऑटॉवाले बडे आराम से 60-100 रुपए तक मांगेंगे- दलील के साथ कि आपके घर के पीछे तक जाना है- ओइयोयो, कितना लम्बा...! एक चैनल ने अभी हाल में दिखाया कि चेन्नै के एक ऑटॉवाला भी आज के इस फैशनेबल सत्याग्रह में है. छम्मकछल्लो को ज़रा ये चैनलवाले या ये ऑटो-टैक्सीवाले या साग-भाजीवाले बता दें कि वे जो हम कॉमन मैन से वसूलते हैं, वह जायज है? और अगर जायज है तो इस आंदोलन में भाग लेना भी जायज है?
दो बातों के लिए छम्मकछल्लो की माफी. आज के गडबड भाषाई समाज में अंग्रेजी फैशन है- बात के लिए, समाज के लिए, प्रगति के लिए, कैंडल और कैंडल लाइट के लिए. इसलिए इसका उपयोग उसने किया है. और दूसरे इसके लिए कि कॉमन फैक्टर के फैशन से निकल कर कभी हम निजी तत्व पर भी आएं और अपना आत्मावलोकन करें. हर चीज की शुरुआत घर से और मन से होती है- युधिष्ठिर की तरह, जब द्रोणाचार्य ने उनसे कहा कि पाठ याद करो कि मैं झूठ नहीं बोलूंगा.” युधिष्ठिर को इसे याद करने में 6 माह से अधिक लग गया. गुरु के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे इसे पहले जीवन पर लागू कर रहे थे. आज जाकर उन्हें लगा कि अब वे झूठ नहीं बोलेंगे, इसलिए पाठ याद हुआ समझें.”
चलते-चलते, एक दूधवाला दूध में पानी मिला रहा था. दूसरे ने उसे डांटा. दूधवाले ने कहा, ‘पहले आप यह तो बताइये कि आप घी की मिठाई में वनस्पति, साबुत बासमती में टुकडा बासमती मिलाते हैं कि नहीं? आप दफ्तर के समय में हर 1 घंटे पर बीस मिनट के लिए धुंआखोरी के लिए निकलते हैं कि नहीं? ...और भी बहुत कुछ... अगर आप यह सब नहीं करते तो बताइये, हम दूध में पानी मिलाना क्यों छोड़ें? और अभी तो दूध में पानी मिला रहे हैं. ज्यादे बोलियेगा तो पानी में दूध मिलाना शुरु कर देंगे. पीजियेगा फिर डायरेक्ट चाय- बिन पानी मिलाए. पानी में दूध कि दूध में पानी? हममें भ्रष्टाचार कि भ्रष्टाचार में हम?   

3 comments:

SANDEEP PANWAR said...

बेहतरीन लेख आजकल के हालात पर।

मैं तो अपनी कह सकता हूँ कि
मैं रोज तीन घन्टे खाली रहता हूँ आफ़िस में।

Vibha Rani said...

चलिए, सभी अपनी अपनी हक़ीक़त स्वीकार लें, यह भी बहुत है संदीप जी.

सञ्जय झा said...

bahut din baat ...... lekin purjor
vyanga................

pranam.