chhammakchhallokahis

रफ़्तार

Total Pageviews

छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

Pages

www.hamarivani.com
|

Friday, August 6, 2010

हां जी हां, हम तो छिनाल हैं ही! तो?

http://baithak.hindyugm.com/2010/08/haan-ji-haan-ham-chhinal-hain.html


http://www.janatantra.com/news/2010/08/06/vibha-rani-on-chhinal-vibhuti-kand/

लोग बहुत दुखी हैं. एक पुलिसवाले लेखक ने हम लेखिकाओं को छिनाल क्या कह दिया, दुनिया उसके ऊपर टूट पडी है. इनिस्टर-मिनिस्टर तक मुआमला खींच ले गए. अपने यहां भी ना. लोग सारी हद्द ही पार कर देते हैं. भला बताइये कि जब हम बंद कमरे में किसी को गलियाते हैं, तब सोचते हैं कि हम क्या कर रहे हैं? जब एक भद्र महिला किसी अन्य पुरुष के साथ सम्बंध बनाती है तो वह छिनाल कहलाती है, मगर जब भद्र पुरुष किसी अन्य भद्र-अभद्र महिला के साथ सम्बंध बनाते हैं तब? निश्चित जानिए, ये छिनालें भी भद्र मानुसों के पास ही जाती होंगी. लेकिन छिनाल के बरअक्स उनके लिए कोई शब्द नहीं होता, तब कहा जाता है कि मर्द और घोडे कभी बुढाते हैं भला? और अपने हिंदी जगत में ऐसे भद्र लेखकों की कमी है क्या? और ‘ज्ञानोदय’ का तो नया नाम ही है, “नया ज्ञानोदय” तो इसमें कुछ नई बातें होनी चाहिये कि नहीं? प्रेम और बेवफाई के बाद अब छिनालपन आया है तो आपको तो उसे सराहना चाहिए.

अपने शास्त्रों में तो कहा ही गया है कि मन और आत्मा को शुद्ध रखो. इसका सबसे सरलतम उपाय है अपने मन की बात उजागर कर दो, मन को शान्ति मिल जाएगी. सो पुलिसवाले ने कर दिया. वह डंडे के बल पर भी यह कर सकता था. आखिर रुचिका भी तो लडकी थी ना.

अब अपने विभूति भाई स्वनाम धन्य हैं. अपने कुल खान्दान के विभूति होंगे, अपनी अर्धांगिनी के नारायण होंगे, अपनी पुलिसिया रोब से कभी कभार उतर कर कुछ कुछ राय भी दे देते होंगे. अब इसी में एक राय दे दी कि हम “छिनाल” हैं तो क्या हो गया भाई? कोई पहाड टूट गया कि ज्वालामुखी फट पडी.

छम्मकछल्लो तो खुश है कि उन्होंने इस बहाने से अपनी पहचान भी करा दी. नही समझे? भई, गौर करने की बात है कि हमलोगों को छिनाल या वेश्या या रंडी कौन बनाता है? हमसे खेलने के लिए, हमसे हमारे तथाकथित मदमाते सौंदर्य और देह का लुत्फ उठाने के लिए, हम पर तथाकथित जान निछावर करने के लिए हमारे पास क्या किसी गांव घर से कोई लडकी या औरत आती है? ये भद्र मानुस ही तो बनाते हैं हमें छिनाल या रंडी. तो अपने इस सृजनकारी ब्रह्मा के स्वरूप को उन्होंने खुद ही ज़ाहिर किया है भाई? पुलिसवाले आदमी हैं, इसलिए कलेजे में इतना दम भी है कि इसे बता दिया. वरना अपने स्वनाम धन्य लेखक लोग तो कहते -कहते और करते- करते स्वर्ग सिधार गए कि “भई, दारू और रात साढे नौ बजे के बाद मुझे औरतों की चड्ढियां छोडकर और कुछ नहीं दिखाई देता. इतने ही स्वनाम धन्य लेखकों की ही अगली कडी हैं अपने विभूति भाई. छिनालों के पास जाने के लिए तो पैसे भी नहीं खर्चने होते भाई! आनंद ही आनंद.

इतना ही नहीं, अपने लेखकों की जमात जब एक दूसरे से मिलती है तो खास पलों में खास तरीके से टिहकारी-पिहकारी ली जाती है, “क्यों? केवल लिखते ही रहे और छापते ही रहे कि किसी को भोगा भी? और साले, भोगोगे ही नहीं तो भोगा हुआ यथार्थ कहां से लिख पाओगे?”

मूढमति छम्मकछल्लो को इसके बाद ही पता चल सका कि भोगे हुए यथार्थ की हक़ीक़त क्या है? वह तो अपने लेखन की धुन में सारा आकाश ही अपने हवाले कर बैठी थी और मान बैठी थी कि भोगा हुआ यथार्थ लिखने के लिए स्थितियों को भोगने की नहीं, उसे सम्वेदना के स्तर पर जीने की ज़रूरत है. वह तर्क पर तर्क देती रहती थी कि भला बताइये, कि कातिल पर लिखने के लिए किसी का कत्ल करना ज़रूरी है? बलात्कृता पर लिखने के लिए क्या खुद ही बलात्कार की यातना से गुजर आएं? छम्मकछल्लो ने अपनी कायरता में इन लोगों से सवाल नहीं किए. अब समझ में आया कि नहीं जी नहीं, पहले अपना बलात्कार करवाइये, फिर उस पर लिखिए और फिर देखिए, भोगे हुए यथार्थ के दर्द की सिसकी में उनकी सिसकारी भरती आवाज़! आह! ओह!

छम्मकछल्लो तो बहुत खुश है कि पुलिस के नाम को उन्होंने और भी उजागर कर दिया. छम्मकछल्लो जब भी पुलिस पर और उसकी व्यवस्था पर विश्वास करने की कोशिश करती है, तभी उसके साथ ऐसा-वैसा कुछ हो जाता है. छम्मकछल्लो के एक फूफा ससुर हैं. दारोगा थे. अब सेवानिवृत्त हैं, कई सालों से. वे कहते थे कि रेप करनेवालों के तो सबसे पहले लिंग ही काट देने चाहिये, फिर आगे कोई कार्रवाई होनी चाहिये.” छम्मकछल्लो के एक औए रिश्तेदार आई जी हैं. वे कहते हैं कि बलात्कार से घृणित कर्म तो और कोई दूसरा हो ही नहीं सकता.

छम्मकछल्लो के कुछ मित्र जेल अधीक्षक हैं. वे सब भी कहते हैं कि हमें सोच कर हैरानी होती है कि लोग कैसे ऐसा गर्हित कर्म कर जाते हैं. वे बताते हैं कि जेल में जब इसका आरोपी आता है तो सबसे पहले तो अंदर के दूसरे ही कैदी उसकी खूब ठुकाई कर देते हैं. कोई भी उससे बात नहीं करता. रेप के अक्यूज्ड को दूसरे कैदी भी अच्छी नज़रों से नहीं देखते.” छम्मकछल्लो ने जब रेप पर एक लेख लिखा था तो एक सह्र्दय पाठक ने बडे ठसक के साथ उससे पूछा था, “आप जो ऐसे लिखती हैं तो क्या आपका कभी बलात्कार हुआ है?” और अगर नहीं हुआ है तो कैसे लिख सकती हैं आप इस पर?” मतलब कि फिर से वही भोगा हुआ यथार्थ.

अब छम्मकछल्लो सगर्व कह सकती है कि हां जी हां, उसके साथ बलात्कार हुआ है. भाई लोग उसे लेखिका मानें या न मानें वह तो अपने आपको मानती ही है. वह यह भी मानती है कि जिस तरह से घरेलू हिंसा दिखाने के लिए शरीर पर जले, कटे या सिगरेट के दाग के निशान ज़रूरी नहीं, उसी तरह बलात्कार करने के लिए किसी के शरीर पर जबरन काबू करना जरूरी नही. इस मानसिक बलात्कार से विभूति भाई ने तो एक साथ ही साठ हज़ार रानियों और आठ पटरानियों का सुख उठा लिया. भाई जी, हम आपके नतमस्तक हैं कि आपने अपने करतब से हम सबको इतना ऊंचा स्थान बख्श दिया. जहां तक बात चटखारे लेने की है तो जब स्वनाम धन्य लेखक भाई लोग सेक्स पर लिखते हैं तब क्या लोग चटखारे नहीं लेते? सेक्स को हम सबने अचार, पकौडे, मुरब्बे की तरह ही चटखारेदार, रसीला, मुंह में पानी ला देनेवाला बना दिया है तो सेक्स पर कोई भी लिखेगा, मज़े तो लेगा ही. सभी मंटो नहीं बन सकते कि उनके सेक्स प्रधान अफसाने बदन को झुरझुरा कर रख दे और आप एक पल को सेक्स को ही भूल जाएं या सेक्स से घृणा करने लग जाएं.

इसलिए हे इस धरती की लेखिकाओं, माफ कीजिए, हिंदी की लेखिकाओं, अब इन सब बातों पर हाय तोबा करना बंद कीजिए. अपने यहां वैसे भी एक कहावत है कि “हाथी चले बाज़ार, कुत्ते भूंके हज़ार.” तो बताइये कि उनके भूंकने के डर से क्या हाथी बाज़ार में निकलना बंद कर दे? हिंदी के, जी हां हिंदी के ये सडे गले, अपनी ही कुंठाओं और झूठे अहंकार में ग्रस्त ये लेखक लोग इस तरह की बातें करते रहेंगे, अपना तालिबानी रूप दिखाते रहेंगे. हर देश में, हर प्रदेश में, हर घर में फंदा तो हम औरतों पर ही कसा जाता है ना! इससे क्या फर्क़ पडता है कि आप लेखिका हैं. लेखिका से पहले आप औरत हैं महज औरत, इसलिए छुप छुप कर उनकी नीयत का निशाना बनते रहिये, उनके मौज की कथाओं को कहते सुनते रहिये. बस अपने बारे में बापू के तीन बंदरों की तरह ना बोलिए, ना सुनिए, ना कहिए. हां, उनकी बातों को शिरोधार्य करती रहिए. आखिरकार आप इस महान सीता सावित्रीवाले परम्परागत देश की है, जहां विष्णु और इंद्र जैसे देवतागण वृन्दा और अहल्या के साथ छल भी करते रहने के बावज़ूद पूजे जाते रहे हैं, पूजे जाते रहेंगे. आखिर अपनी एक गलत हरक़त से सदा के लिए बहिष्कृत थोडे ना हो जा सकते हैं? यह मर्दवादी समाज है, सो मर्दोंवाली प्रथा ही चलेगी. हमारे हिसाब से रहो, वरना छिनाल कहलाओ.

6 comments:

अन्तर सोहिल said...

चूंकि सभी धर्मग्रन्थों की रचना पुरुषों द्वारा हुई, इसलिये पुरुषों ने खुद को नारियों से ऊपर ही रखा।
लेकिन आयेगी क्रान्ति कभी तो……॥
बेहतरीन व्यंग्य
आभार

प्रणाम स्वीकार करें

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

छि.... उसकी गन्दी सोच पर...थू....

pratima sinha said...

असहमत होने पर तो बोली अक्सर बंद हो जाती है लेकिन ये सचमुच विचित्र स्थिति है कि सहमत होने पर भी बोलती बंद है , वो भी मेरी ..., जो बोलने के लिये ही जानी जाती है.ऐसा करारा व्यंग्य , ऐसी मारक धार ..., कमेन्ट करने के लिये भी सौ-सौ दफ़ा सोचना होगा कि अब कहा क्या जाय ? सिर्फ़ एक ही राय कि हाँ अब जवाब देने के लिये इसी भाषा की ज़रूरत है क्योंकि ”वो” लोग इससे कम में अब कुछ समझना ही नहीं चाहते. हम औरतों को भी अब कुछ ऐसे ही दुस्साहस का साहस जुटाना ही होगा.

दीपशिखा वर्मा / DEEPSHIKHA VERMA said...

"आखिरकार आप इस महान सीता सावित्रीवाले परम्परागत देश की है, जहां विष्णु और इंद्र जैसे देवतागण वृन्दा और अहल्या के साथ छल भी करते रहने के बावज़ूद पूजे जाते रहे हैं, पूजे जाते रहेंगे."

किन शब्दों में कहूँ आपके दिल का तो पता नहीं, पर मैंने अपना दिल इस लेख पर निकाल के रख दिया ! औरत की परवाज़ को हर दफा उसके चरित्र के दम पे तोडा गया है ..गर कोई नारी बुलंदियों को छूती है, कई लोगों की सांसें टूटने लगती हैं , कुछ समय बाद अपने भी "देहलीज़" के मायने समझाने लगते हैं .और ऐसे में उनका कहना आपका मौके पर लिखना , कहीं न कहीं सोच में मोड़ लाता है ..यहाँ हम और सशक्त होते हैं .आशा है ये शक्ति एक जुट हो कर इस औरत को "देवी या धुल " (दोनों ही जीव की श्रेणी में नहीं आते ) मानने वाले संसार से बाहार निकालेगी .लिखते रहिये सच ,ये काटता सच !

रेखा श्रीवास्तव said...

ऐसे लोगों को कितना ही सुनाया जाये क्या वे अपनी मानसिकता बदल सकते हैं, शायद नहीं - ये चर्चित होने के लिए एक विषय प्रस्तुत कर हैं. सदियाँ गुजार गयीं और नारी के ऊपर लगा हुआ ये तमगा न कभी हटा है और न हटेगा. भले ही वे ऐसे पुरुषों को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ चुकी हैं लेकिन वे अपनी ढपली पर वही राग छेड़ते हैं जिससे उनके अहम् को संतुष्टि मिले. वैसे ऐसे लोगों पर सिर्फ तरस आता है कि वे किस खुशफहमी में जी रहे हैं.

abha said...

विभा जी ,
आपसे 100 % सहमत | हमेशा से यही होता आया है | इस तरह की मानसिकता वाले लोगों को इसी तरह से जवाब देने की जरूरत है| पर पता नहीं सालों से चली आ रही सोच किस तरह के जवाब या प्रतिकार से बदलेगी |