अभी समलैंगिकता पर बहस चल रही है. कानूनी मान्यता के बावज़ूद हमारा मन इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है. देश के लडके अब क्या करें? ऐसे ही गर्भ में या जनमते ही बेटियों को मार दिए जाने के कारण बेटियों की संख्या हज़ार लडकों पर 833 हो गई है. मां-बाप की गलती का खामियाज़ा वे भुगतेंगे कि हर हज़ार में से 167 लडके बिन ब्याहे ही रह जाएंगे. समलैंगिकता उनके लिए एक वरदान है, यह लोगों की समझ में नहीं आ रहा. हम शिखंडी जैसे महाभारत को चरित्र को भूल जाते हैं, विष्णु के मोहिनी रूप को दरकिनार कर देते हैं. द्रौपदी और उनके पांच पतियों को नकार देते हैं. आप धर्म को जितना नकारेंगे, उसके मूल रूप के साथ छेडछाड करेंगे, लोग उतने ही उसको नकारते हुए अपने लिए अलग अलग राहें बनाते चले जाएंगे. धर्म के नाम पर आखिर कबतक आप लोगों को गुमराह करते रहेंगे?
अभी दो-चार दिन पहले किसी ने यूं ही छम्मकछल्लो पर अंधेरे का तीर छोड दिया कि सुना कि उसकी बेटी ने शादी कर ली है. छम्मकछल्लो ने उन्हें समझाया कि उसकी बेटी अपने से शादी नही करेगी, क्योंकि उसे अपने मां-बाप की ओर से इसकी आशंका नहींहै कि वह जिस लडके को पसंद करेगी, वह उसके मां-बाप को पसंद आएगा कि नहीं. छम्मकछल्लो ने अपने मित्र को आश्वस्त किया कि वे घबडाएं नहीं. छम्मकछल्लो अपनी बेटी की शादी बेटी की मर्ज़ी से ही करेगी और उन्हें भी शादी में ज़रूर बुलाएगी. छम्मकछल्लो को अपनी बेती पर भरोसा है और बेटी को भी अपनी मां पर. दूसरे छम्मकछल्लो बेटी की शादी की आज़ादी में कभी कोई बाधक नहीं बनेगी. यह मां की तरफ से बेटी को उपहार है, ऑनर किलिंगका डर नहीं.
ऑनर किलिंग एक नया रूप है लोगों की आज़ादी छीनने का. हम बचपन से अपने बच्चों को उनकी इच्छा के अनुसार खाने देते हैं, पहनने देते हैं, उनको अपना कैरियर चुनने देते हैं, मगर उन्हें अपना जीवन साथी चुनने की इज़ाज़त नहीं देते. जिस जीवन साथी के बल पर उनकी पूरी ज़िंदगी की खुशहाली या बदहाली टिकी होती है, उसी पर हम कुंडली मारकर बैठ जाते हैं और सगर्व कहते हैं कि हम उनके मां-बाप हैं. छम्मकछल्लो मां-बाप के रूप में बैठे ऐसे सांपरूपी मां-बाप को सिरे से खारिज करती है और भगवान बुद्ध का पूछा सवाल ही दुहराती है कि किसी को जीवन जब दे नहीं सकते तो उसे छीनने का अधिकार तुम्हें कहां से मिल गया? मां-बाप या समाज के रूप में बैठे देश के इन सपूतों के साथ क्या सुलूक हो, देश के सपूत ही बताएं. हर बात में युवा वर्ग को ही दोषी देनेवाले ज़रा कभी इस पर सोचने की ज़हमत उठाएंगे?
अपने आप को बुद्धिमान, सयाना कहनेवाले इस देश के लोग अब क्या हर बात के लिए कोर्ट कचहरी का ही मुंह देखेंगे? क्या अदालत ही सबकुछ तय करती रहेगी? क्या हमलोग बुद्धि या सम्वेदना से बिलकुल शून्य हो गए हैं?
Tensions in life leap our peace. Chhammakchhallo gives a comic relief through its satire, stories, poems and other relevance. Leave your pain somewhere aside and be happy with me, via chhammakchhallokahis.
Thursday, June 24, 2010
Sunday, June 6, 2010
क्रिश्चन हो तो क्या हुआ?
छम्मकछल्लो मुदित है, 'घर-घर देखा, एक ही लेखा' की परिपाटी से. धर्म के ठेकेदारों ने धर्म की बहुत बढिया हालत बना दी है अपने समाज मे, इस सभ्यता से भरे विश्व में. कमलेश्वर ने लिखा 'कितने पाकिस्तान'. आज ज़र्रे ज़र्रे में धर्म के ठेकेदार दीमक की तरह धर्म के तखत में इस तरह पैठ बनाए हुए है कि इंसानियत कहीं से भी अपना आसन जमा ही नही सकती.
छम्छम्मकछल्लो की एक दोस्त है. दोस्त की एक बेटी है. बेटी के हाथ में 12वीं का रिजल्ट है. रिजल्ट के साथ छुपे हैं कई कई सपने उसकी आंखों में. उनमें से एक है, मुंबई के दो बडे संस्थानों में पढने का. दोस्त की बेटी मुतमईन है कि अगर कट ऑफ से मार्क्स कम भी हुए तो उसे कोटा में तो एडमिशन मिल ही जाएगा. मुंबई में सभी शैक्षणिक संस्थानों पर उसके खोलनेवाले धर्म, सम्प्रदाय, कम्यूनिटी की प्रधानता रहती है, जिस समुदाय द्वारा उसे खोला गया है, उसके बच्चों को कम नम्बर मिलने पर भी एडमिशन मिलने की सम्भावना प्रबल रहती है.
दोस्त की बेटी जाती है, दोनों संस्थानों में. आवेदन देती है. उसे कहा जाता है-" यू विल नॉट गेट एडमिशन हेयर."
"बट व्हाइ सर?"
"बिकॉज़, यू डोंट बिलॉंग टू माइनॉरिटी."
"बट आ'म क्रिश्चय्न सर."
"सो व्हॉट! यू आ' नॉट अ कैथोलिक."
"सर. आ' मे नॉट बी ए कैथोलिक, बट आ'म अ क्रिश्च्न नो सर?"
दोस्त की बेटी लौट आती है मायूस होकर. उसकी आंखों में अब सपनों के बदले मायूसी है. मगर इसकी चिंता न तो धर्म के ठेकेदारों को है और ना ही धर्म समुदाय आदि द्वारा खोले गए शिक्षण संस्थानों के ठेकेदारों को. छम्मकछल्लो बचपन से सुनती आई है कि हिन्दू धर्म में ही इतने देवी-देवता, पंथ, सम्प्रदाय होते हैं. मुस्लिम और क्रिश्चन धर्म में ऐसा कोई भेद-भाव नहीं है. छम्मकछल्लो बचपन से देखती आई है कि सभी मुसलमान एक ही भाव से ईद की नमाज़ पढने जाते हैं, एक ही भाव से मुहर्रम के ताज़िए निकालते हैं, सभी क्रिश्चन एक ही भाव से क्रिस्मस और गुड फ्राएडे मनाते हैं. सभी मुसलमान पांचो वक़्त की नमाज़ अदा करते हैं. सभी क्रिश्चन हर रविवार की सुबह के 'संडे मास' में जाते ही जाते हैं. तो फिर यह भेद-भाव कैसा? छम्मकछल्लो को बहुत बाद में पता चला कि मुसलमान में शिया-सुन्नी होते हैं और क्रिश्चन में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट्स. दोनों एक -दूसरे से खुद को बडा साबित करने पर तुले रहते हैं. शिया सुन्नी को और सुन्नी शिया को और कैथोलिक प्रोटेस्टेंट को और प्रोटेस्टेंट कैथोलिक को नफरत की निगाहों से देखते हैं. उनके बीच रोटी-बेटी का सम्बन्ध नहीं होने देते. छम्मकछल्लो ने एक बार इद्दत पर आधारित अपनी एक कहानी "बेमुद्दत" भोपाल में आयोजित एक अनौपचारिक गोष्ठी में सुनाई. भोपाल के बडे मशहूर लेखक वहां थे. उन्होंने कहानी को सिरे से नकार दिया यह कहकर कि यह मुसलमान के पृष्ठभूमि की कहानी नहीं है. उनमें ऐसा नहीं होता. बाद में कहा कि उन्हें मुसलमान के इस कौम बोरी मुस्लिम की जानकारी नहीं है. ए पता करेंगे और तब इसके बारे में बात करेंगे." छम्मकछल्लो ने वही कहानी पटना में अपने एक दोस्त -लेखक को दी. लेखक ने कहानी को तो नकारा ही, उन्होंने तो बोरी मुस्लिम, को ही नकार दिया यह कहते हुए कि " क्या बकवास कहानी है. और यह बोरी मुस्लिम क्या होते हैं? हम तो उनको मुसलमान मानते ही नहीं." जैसे हिन्दू धर्म के नुमाइन्दे शूद्रों को हिन्दू या मनुष्य मानते ही नहीं.
छम्मकछल्लो खुश है. धर्म-धर्म के बीच की लडाई नहीं, धर्म के भीतर की ही लडाई में हम बडे तो हम बडे, ''वो छोटा' तो 'वो घटिया", ' वो हमारे धर्म का नहीं' तो 'उसका हमारे धर्म से कोई लेना-देना नहीं" में लोग फंसे हैं. मंटो ने शिया-सुन्नी के आपसी विवादों को लेकर कई कहानियां लिखीं, दलित हिन्दुओं के खिलाफ लिखते हैं, कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट आपस में एक-दूसरे को नहीं मानते. सभी जगह धर्म की एक ही स्थिति है. वह थाली के बैगन की तरह है. जिसे जहां मर्ज़ी, वहां उसे लुढका देता है. काश कि धर्म के भी हाथ-पैर, दिल-दिमाग होते और वह एक स्वतंत्र अस्तित्व की तरह अपने बारे में अपना निर्णय ले सकता. तब शायद दोस्त की बेटी को नामांकन भी मिल जाता और छम्मकछल्लो की कहानी को कुछ सह्र्दय मुसलमान भी, खासकर मुसलमान-लेखक. मुसलमान लेखन जैसे विशेषण देते हुए छम्मकछल्लो बहुत तकलीफ महसूस कर रही है, मगर कई बार तकलीफ होते हुए भी हमें अपनी ज़बान खोलनी ही पडती है. छम्मकछल्लो के सामने उसकी दोस्त की बेटी का मायूस चेहरा है तो उसके सामने उस दोस्त का भी, जिसने अपनी 72 साला सास पर थोपे गए इद्दत की इस प्रथा पर गहरा दुख ज़ाहिर करते हुए कहा था कि अगर तुम कुछ इस पर लिख सकती हो तो लिखो.
छम्छम्मकछल्लो की एक दोस्त है. दोस्त की एक बेटी है. बेटी के हाथ में 12वीं का रिजल्ट है. रिजल्ट के साथ छुपे हैं कई कई सपने उसकी आंखों में. उनमें से एक है, मुंबई के दो बडे संस्थानों में पढने का. दोस्त की बेटी मुतमईन है कि अगर कट ऑफ से मार्क्स कम भी हुए तो उसे कोटा में तो एडमिशन मिल ही जाएगा. मुंबई में सभी शैक्षणिक संस्थानों पर उसके खोलनेवाले धर्म, सम्प्रदाय, कम्यूनिटी की प्रधानता रहती है, जिस समुदाय द्वारा उसे खोला गया है, उसके बच्चों को कम नम्बर मिलने पर भी एडमिशन मिलने की सम्भावना प्रबल रहती है.
दोस्त की बेटी जाती है, दोनों संस्थानों में. आवेदन देती है. उसे कहा जाता है-" यू विल नॉट गेट एडमिशन हेयर."
"बट व्हाइ सर?"
"बिकॉज़, यू डोंट बिलॉंग टू माइनॉरिटी."
"बट आ'म क्रिश्चय्न सर."
"सो व्हॉट! यू आ' नॉट अ कैथोलिक."
"सर. आ' मे नॉट बी ए कैथोलिक, बट आ'म अ क्रिश्च्न नो सर?"
दोस्त की बेटी लौट आती है मायूस होकर. उसकी आंखों में अब सपनों के बदले मायूसी है. मगर इसकी चिंता न तो धर्म के ठेकेदारों को है और ना ही धर्म समुदाय आदि द्वारा खोले गए शिक्षण संस्थानों के ठेकेदारों को. छम्मकछल्लो बचपन से सुनती आई है कि हिन्दू धर्म में ही इतने देवी-देवता, पंथ, सम्प्रदाय होते हैं. मुस्लिम और क्रिश्चन धर्म में ऐसा कोई भेद-भाव नहीं है. छम्मकछल्लो बचपन से देखती आई है कि सभी मुसलमान एक ही भाव से ईद की नमाज़ पढने जाते हैं, एक ही भाव से मुहर्रम के ताज़िए निकालते हैं, सभी क्रिश्चन एक ही भाव से क्रिस्मस और गुड फ्राएडे मनाते हैं. सभी मुसलमान पांचो वक़्त की नमाज़ अदा करते हैं. सभी क्रिश्चन हर रविवार की सुबह के 'संडे मास' में जाते ही जाते हैं. तो फिर यह भेद-भाव कैसा? छम्मकछल्लो को बहुत बाद में पता चला कि मुसलमान में शिया-सुन्नी होते हैं और क्रिश्चन में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट्स. दोनों एक -दूसरे से खुद को बडा साबित करने पर तुले रहते हैं. शिया सुन्नी को और सुन्नी शिया को और कैथोलिक प्रोटेस्टेंट को और प्रोटेस्टेंट कैथोलिक को नफरत की निगाहों से देखते हैं. उनके बीच रोटी-बेटी का सम्बन्ध नहीं होने देते. छम्मकछल्लो ने एक बार इद्दत पर आधारित अपनी एक कहानी "बेमुद्दत" भोपाल में आयोजित एक अनौपचारिक गोष्ठी में सुनाई. भोपाल के बडे मशहूर लेखक वहां थे. उन्होंने कहानी को सिरे से नकार दिया यह कहकर कि यह मुसलमान के पृष्ठभूमि की कहानी नहीं है. उनमें ऐसा नहीं होता. बाद में कहा कि उन्हें मुसलमान के इस कौम बोरी मुस्लिम की जानकारी नहीं है. ए पता करेंगे और तब इसके बारे में बात करेंगे." छम्मकछल्लो ने वही कहानी पटना में अपने एक दोस्त -लेखक को दी. लेखक ने कहानी को तो नकारा ही, उन्होंने तो बोरी मुस्लिम, को ही नकार दिया यह कहते हुए कि " क्या बकवास कहानी है. और यह बोरी मुस्लिम क्या होते हैं? हम तो उनको मुसलमान मानते ही नहीं." जैसे हिन्दू धर्म के नुमाइन्दे शूद्रों को हिन्दू या मनुष्य मानते ही नहीं.
छम्मकछल्लो खुश है. धर्म-धर्म के बीच की लडाई नहीं, धर्म के भीतर की ही लडाई में हम बडे तो हम बडे, ''वो छोटा' तो 'वो घटिया", ' वो हमारे धर्म का नहीं' तो 'उसका हमारे धर्म से कोई लेना-देना नहीं" में लोग फंसे हैं. मंटो ने शिया-सुन्नी के आपसी विवादों को लेकर कई कहानियां लिखीं, दलित हिन्दुओं के खिलाफ लिखते हैं, कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट आपस में एक-दूसरे को नहीं मानते. सभी जगह धर्म की एक ही स्थिति है. वह थाली के बैगन की तरह है. जिसे जहां मर्ज़ी, वहां उसे लुढका देता है. काश कि धर्म के भी हाथ-पैर, दिल-दिमाग होते और वह एक स्वतंत्र अस्तित्व की तरह अपने बारे में अपना निर्णय ले सकता. तब शायद दोस्त की बेटी को नामांकन भी मिल जाता और छम्मकछल्लो की कहानी को कुछ सह्र्दय मुसलमान भी, खासकर मुसलमान-लेखक. मुसलमान लेखन जैसे विशेषण देते हुए छम्मकछल्लो बहुत तकलीफ महसूस कर रही है, मगर कई बार तकलीफ होते हुए भी हमें अपनी ज़बान खोलनी ही पडती है. छम्मकछल्लो के सामने उसकी दोस्त की बेटी का मायूस चेहरा है तो उसके सामने उस दोस्त का भी, जिसने अपनी 72 साला सास पर थोपे गए इद्दत की इस प्रथा पर गहरा दुख ज़ाहिर करते हुए कहा था कि अगर तुम कुछ इस पर लिख सकती हो तो लिखो.
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