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Thursday, March 5, 2009

बाबा, फ़िर जेल कब जाओगे?

डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद जब पटना सदर जेल में थे, तब श्री गोडबोले के आदेश से कई डाक्टरों ने उनकी जांच की। इससे धीरे-धीरे उनकी सेहत में सुधार आने लगा। कुछ दिन बाद निकट के सम्बन्धियों से मुलाक़ात की सुविधा मिलाने लगी। एक माह में २ मुलाकातें और २ पात्र लिखने की छूट थी। राजेन्द्र बाबू ने पात्र लिखने के बदले मुलाक़ात का विकल्प लिउया। यानी अब माह में ४ मुलाकातें यानी हर हफ्ते मुलाक़ात। मुलाक़ात में पहले केवल ५ लोगों को जाने दिया जाता था। बाद में घरवालों के लिए इसमें थोड़ी छूट मिलाने लगी। बीमारी के कारण राजेन्द्र बाबू से मुलाकातें उनके लिए तय कमरे में होती थी, बाद में वही कमरा उन्हें दे भी दिया गया रहने के लिए। मुलाकातें भी इसी कमरे में होतीं। राजेन्द्र बाबू उस कमरे में १९४२ से १९४५ तक रहे। उनके साथ दूसरे बड़े लोग, जो वहाँ कैद करके लाये गए थे, वहीं उनके साथ रहे। उनकी देखभाल के लिए पहले बाबू मथुरा प्रसाद और बाद में श्री चक्रधर शरण वहीं रखे गए। हजारीबाग जेल से पारी-पारी कई अन्य मित्रों को भी सरकार वहाँ ले आई।
मुलाक़ात के लिए सारा परिवार, जो उस दिन पटना में होता, जाता। ५ की गिनती में बच्चे नहीं आते थे। १९४२ में राजेन्द्र बाबू का पोता अरुणोदय प्रकाश लगभग एक साल का था। वह भी जाता था। धीरे-धीरे वह चलने और दौड़ने लगा। जेल के फाटक पर पहुंचाते ही उसे खोलने के लिए शोर मचाने लगता। अपनी तोतली जुबां में पुलिस को दांत भी लगाता। फाटक खुलते ही वह सीधा राजेन्द्र बाबू के कमरे की दौड़ लगाता। वह उसे ही अपने बाबा का घर समझ बैठा था। जेल में बच्चों को २-३ बार मिठाईयां मिलीं। फ़िर क्या था, बच्चे वहाँ पहुंचाते ही खाने-पीअने की फरमाइशें शुरू कर देते। राजेन्द्र बाबू भी मुलाक़ात के दिन पहले से ही इसका प्रबंध करके रखते।
बच्चों को सप्ताह में एक बार बन-संवर कर जेल जाने की आदत पड़ चुकी थी। इसे वे सैर-सपाटे का एक हिस्सा मानने लगे थे। इसमें मिठाई का भी काफी लोभ थाजब १९४५ में राजेन्द्र बाबू छूटकर घर आए तो उनके पोते को बड़ी खुशी हुई। फ़िर जब उसके जेल जाने यानी सैर का दिन आया तो उसे न कोई बाबा के घर (जेल) ही ले गया और ना ही किसी ने उसे मिठाई ही दी। तब उसे बाबा का घर आना रुचा नहीं। तीसरे-चौथे दिन तो उसने पूछ ही liyaa-" बाबा, फेर जेल कब जैईब'?

3 comments:

ghughutibasuti said...

आपने बच्चे की मासूम बात बताने के लिए लेख लिखा। पढ़कर आनन्द भी आया और इसी बहाने राजेन्द्र प्रसाद जी के बारे में अधिक जानने को भी मिला। हर महापुरुष एक सामन्य पिता, बाबा भी होता है।
घुघूती बासूती

हर्ष प्रसाद said...

आदरणीया विभा जी,

राजेन्द्र बाबू की जीवनी के इतने अंतरंग उल्लेख तो आपने निश्चित ही कहीं से उद्हृत किये होंगे. हम पाठकों को उन संदर्भ ग्रंथों की सूची चाहिए, अन्यथा ऐसी कहानियाँ भ्रामक भी हो सकती हैं और यदि कहीं से उद्हृत हैं तो सन्दर्भ पुस्तक के बारे में न बताना अवैध और अनधिकृत होता है.इस सन्दर्भ में हमारी चर्चा हो चुकी है.

हर्ष

हर्ष प्रसाद said...

जिस किताब से ये कहानियाँ अपने ब्लॉग पर आप धड़ल्ले से उध्रित करती जा रहीं हैं, आप को अच्छी तरह मालूम है किइस किताब की प्रत्येक प्रति की बिक्री से प्राप्त अल्प धनराशि बिहार की अप्राधिक्रित, पददलित और शोषित बच्चियों के नाम जाती है. इस सन्दर्भ में हमारे और आपके बीच चर्चा हो चुकी है. ऐसी लेखिका जो 'बालचंदा' और 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' जैसे नाटक लिख सकती है, उसका सब कुछ जानते हुए भी ऐसा संवेदनाविहीन होना खटकता है.

हर्ष