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Friday, March 6, 2009

जेल में राजेन्द्र बाबू की कैदी के रूप में सबसे बड़ी लाचारी

इस बार डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद पर कुछ लिखने से पहले लेख पर छपी टिप्पणियाँ आपके अवलोकन के लिए। इसे हमारे मित्र व् राजेन्द्र बाबू के अनन्य भक्त हर्ष प्रसाद ने लिखा है। छाम्माक्छाल्लो अब से हर लेख पर पुस्तक का नाम आदि विवरण देने का प्रयास करेगी। आप सभी पाठकों और शुभ चिंतकों से अनुरोध है की इस किताब को खरीद कर बालिकाओं को साक्षर बनाने में अपना योगदान दें। हर्ष जी की टिपण्णी यहाँ प्रस्तुत है. vaise harSh jii, kahiin kuchh bhii avaidh kaary nahiin ho rahaa hai raajendr baaboo ke baare mein jaanakaarii dene mein. kaii baar pustak kaa naam aadi diyaa jaa chukaa hai, kaii baar rah gayaa hai. )

(आदरणीया विभा जी, राजेन्द्र बाबू की जीवनी के इतने अंतरंग उल्लेख तो आपने निश्चित ही कहीं से उद्हृत किये होंगे। हम पाठकों को उन संदर्भ ग्रंथों की सूची चाहिए, अन्यथा ऐसी कहानियाँ भ्रामक भी हो सकती हैं और यदि कहीं से उद्हृत हैं तो सन्दर्भ पुस्तक के बारे में न बताना अवैध और अनधिकृत होता है।इस सन्दर्भ में हमारी चर्चा हो चुकी है.जिस किताब से ये कहानियाँ अपने ब्लॉग पर आप धड़ल्ले से उध्रित करती जा रहीं हैं, आप को अच्छी तरह मालूम है किइस किताब की प्रत्येक प्रति की बिक्री से प्राप्त अल्प धनराशि बिहार की अप्राधिक्रित, पददलित और शोषित बच्चियों के नाम जाती है. इस सन्दर्भ में हमारे और आपके बीच चर्चा हो चुकी है. ऐसी लेखिका जो 'बालचंदा' और 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' जैसे नाटक लिख सकती है, उसका सब कुछ जानते हुए भी ऐसा संवेदनाविहीन होना खटकता है. हर्ष)

जेल में हर प्रकार की बड़ी या छोटी लाचारियाँ होती हैं। अगर वह न रहे तो जेल जेल ही न रहे। इन लाचारियों में भी सबसे बड़ी लाचारी तब होती है, जब बंदी अपने सगे-सम्बन्धियों, स्नेहियों, मित्रों को महाविपत्ति में पडा सुनता है और उनके साथ दुःख बांटना तो दूर, दिलासा के दो शब्द भी नहीं कह सकता। ऐसे में सबसे बड़ा संकट होता है किसी की बीमारी या मृत्यु।

राजेन्द्र बाबू अन्तिम बार ९ अगस्त, १९४२ से १५ जून, १९४५ तक पटना जेल में रहे। ज़ाहिर है, इतनी बड़ी अवधि में कई दुखद घटनाएँ घटीं। इन सभी से राजेन्द्र बाबू को बड़ा कष्ट होता। अपने घर में भी बड़ी दुखद मृत्यु उनकी बड़ी भतीजी की हुई। वे पटना आकर, जेल में राजेन्द्र बाबू से मिलकर अपने घर वापस गईं। वहीं कुछ दिनों बाद उनकी मृत्यु हुई। घर में सभी भही -बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण वे सबकी बहुत प्यारी थीं। राजेन्द्र बाबू को उनकी मृत्यु से बहुत दुःख हुआ।

मित्रों में सबसे पहले गए गांधी जी के निजी सचिव महादेव देसाई। च्मपारण के आन्दोलन के समय उनसे राजेन्द्र बाबू की घनिष्ठ दोस्ती हो गई थी। महादेव भाई के निधन से उनका पूरा परिवार बहु दुखी हुआ। गांधी जी का तो मानो दाहिना हाथ ही टूट गया।

बिहार में भी कई मित्र इस दरम्यान गुजर गए। विशेषकर वैद्यराज ब्रजबिहारी चतुर्वेदी जी का जाना। वे पीयूशामानी तो थे ही, आयुर्वेद के पुनरुद्धार के लिए बड़ा परिश्रम किया था। अन्यों में बिहार के कांग्रेसी नेता बाबू राम दयाल सिंह का नाम आता है। वैसे ही एक बुजुर्गवार मित्र थे डाक्टर सर गणेश दत्त सिंह। राजनीतिक मेल उनका कभी नहीं रहा, मगर सामाजिक व्यवहार में वे बहुत ही मधुर व् स्नेही थे। राजेन्द्र बाबू के साथ उनका प्रेम राजनीतिक विरोधों के बावजूद एक समान बना रहा।

जेल में रहते हुए ये सब लाचारियाँ राजेन्द्र बाबू ने खूब झेलीं।

साभार- पुन्य स्मरण, मृत्युंजय प्रसाद, विद्यावती फाउन्देशन, २७४, पाताली पुत्र कालोनी, पटना- 800013

3 comments:

समयचक्र said...

बहुत बढ़िया प्रस्तुति .

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर आलेख...

विष्णु बैरागी said...

सचमुच में बहुत अधिक वेदनाएं झेली उन्‍होंने।