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Monday, February 2, 2009

राजेन्द्र बाबू का भाषा प्रेम

डोक्टर राजेन्द्र प्रसाद भाषा के बहुत प्रेमी थी और विविध भाषा-भाषी से उनकी ही भाषा में बात कराने का प्रयास करते थे। सीखने की ललक युवाओं से भी अधिक थी। इसी ललक ने उन्हें बुढापे में संस्कृत सिखाई, जिसका उपयोग श्रृंगेरी मैथ के जगदगुरु शंकराचार्य के साथ बात-चीत करके किया। दुभाषिये की ज़रूरत उन्हें नहीं पडी।
बात शाययद सन १९२५ की थी। सत्याग्रह की कितनी योग्यता इस देश में है, यह परखने के लिए कांग्रेस के नेताओं का एक दल सरे देश के दौरे पर निकला। राजेन्द्र बाबू को दक्षिण में उत्कल से लेकर बंगाल, असम होते हुए पश्चिमोत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तक सभी जगह जाना था। वे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में साधारण हिन्दी, जिसे बाद में हिन्दुस्तानी कहा गया, का प्रयोग करते रहे। बंगाल में बांगला में भाषण दिया। असम में संस्कृत मिश्र हिन्दी रही, उडीसा में जटिल संस्कृत बहुल हिन्दी बोलते रहे जो धीरे धीरे उर्दू इलाके की और बढ़ते हुए पंजाब-सिंध से होकर पशिक्मोत्तर प्रदेश में फारसी, अरबी मिश्रित कठिन उर्दू हो गई। हर इलाके में ऎसी कोशिश की की लोग उनकी बातों को पूरी तरह समझ सकें।
जब वे राष्ट्रपति थे, तब इरान के शाह भारत -यात्रा पर आए। प्रोटोकोल के मुताबिक राजेन्द्र बाबू ने उनका स्वागत किया। दोनों प्रमुख एक ही गाडी से राष्ट्रपति भवन आए। रास्ते में राजेन्द्र बाबू ने बी ऐ तक पढी हुई फारसी का प्रयोग किया और दुभाषिये के सहारे के बिना ही उनसे भली-भाँती बातें करते आए। जाहिर है, शाह बड़े खुश हुए और प्रधान मंत्री से इस पर अपनी खुशी भी ज़ाहिर की।
मातृभाषा तो राजेन्द्र बाबू kii भोजपुरी थी, मगर हिन्दी पर पूरा अधिकार था। वे हिन्दी के व्यावहारिक ज्ञान के हिन्मायाती थे। अपने भाषणों में वे उसी कोटेशन को डालते, जिसका अर्थ उन्हें पाता होता। उनका मानना था की दूसरों की भाषा जानने से आप उस व्यक्ति के साथ बहुत अच्छे सम्बन्ध बना सकते हैं, उनके दिल में अपनी जगह बना लेते हैं। कहना न होगा की इन सब भाषाओं के साथ अन्ग्रेज़ी के भी वे बहुत अच्छे जानकार थे। संविधान के 'सेक्युलर स्टेट ' के हिन्दी अर्थ 'धर्म निरपेक्ष के वे ख़िलाफ़ थे। उअनकी नज़र में "इसका मतलब यह हुआ की भारत का संविधान किसी धर्म को मानता ही नहीं।' उनहोंने कहा की जिन लोगों ने उस अन्ग्रेज़ी शब्द सेक्युलर का प्रयोग किया, उनहोंने सब सब धर्मों के प्रति समान भाव रखने का विचार रझा था, न की समान विरोध अथवा उपेक्षा रखने का विचार।

3 comments:

sushant jha said...

मैंने ऐसा ही कुछ सर गंगानाथ झा के बारे में भी सुना था। वे सामने वाले से उसी की भाषा में बात करते, और वहुधा मैथिली ही बोलते। आज के लोग इतने नकलची हो गए हैं कि बिना जरुरत के भी अंग्रेजी बोलते हैं और ऐसा लगता है कि आनेवाले वक्त में अपनी विशालता की वजह से हिंदी और मजबूरी की वजह से अंग्रेजी ही बच पाएगी,धीरे-धीरे सारी भाषाएं खत्म होती जाएगी।

Mahendra said...

ye lekh unn logo ko jarur padna chaahiye jinse sawal hindi me pucho to jabab english me dete hai

अनुनाद सिंह said...

..."वे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में साधारण हिन्दी, जिसे बाद में हिन्दुस्तानी कहा गया, का प्रयोग करते रहे। बंगाल में बांगला में भाषण दिया। असम में संस्कृत मिश्र हिन्दी रही, उडीसा में जटिल संस्कृत बहुल हिन्दी बोलते रहे जो धीरे धीरे उर्दू इलाके की और बढ़ते हुए पंजाब-सिंध से होकर पशिक्मोत्तर प्रदेश में फारसी, अरबी मिश्रित कठिन उर्दू हो गई। हर इलाके में ऎसी कोशिश की की लोग उनकी बातों को पूरी तरह समझ सकें।"

बहुत अच्छी बात पता चली। ऐसे ही महान व्यक्ति भारत का राष्ट्रपति होता रहे तो कया बात होती। किन्तु भारत का दुर्भागय है कि इसकी बागडोर एक विदेशी मानस वाले "परिवार" ने "हाइजैक" कर ली है।