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Friday, June 6, 2008

घुड़सवारी - राजेन्द्र बाबू की

कहा जाता है कि डॉ राजेन्द्र प्रसाद के पिताजी को घुड़सवारी का बेहद शौक था। इसलिए उन्होंने अपने दोनों बेटों, महेन्द्र बाबू व राजेन्द्र बाबू को भी बहुत अच्छा घुड़सवार बना दिया था।
एक बार किसी संबंधी या मित्र की बरात में दोनों भाई गए। जनवासे में उन्हें ठहराया गया। जनवासे से बहुत ही ठाठ बात से बरात लड़कीवालों के दरवाजे तक पहुँचती। रास्ते में जहाँ खुला मैदान मिलता, लड़कीवाले वहाँ बरात की अगवानी के लिए आते। फ़िर तो दोनों पक्षों में घुड़ दौड़ की होड़ लग जाती।
इस बार इन दोनों भाइयों को दो घोडे दिए गए। संयोग से राजेन्द्र बाबू को मिला घोडा बेहद मुंहजोर, पर दौड़ने में सबसे तेज़ था। घुड़ दौड़ शुरू होते ही वह गाँव के बदले बाहर मैदान की और भाग चला। मुंहजोर इतना कि लगाम खींचने के बावजूद वह राजेन्द्र बाबू के कब्जे में नहीं आया। बारे भाई महेन्द्र बाबू, ज़ाहिर है, बड़े चिंतित हुए। जबतक वे अपने घोडे को पीछे ले जाते, तबतक तो राजेन्द्र बाबू का घोडा नौ-दो-ग्यारह हो गया था। उनका पता लगानेवाले भी खाली हाथ लौट आए। सभी अपनी-अपनी आशंका में डूबे हुए ही थे कि सभी ने देखा, अपने घोडे को बहुत ही धीमी चाल से चलाते हुए राजेन्द्र बाबू वापस आए। उतरने पर बताया कि " जब यह किसी भी प्रकार से वापस आने को तैयार नहीं हुआ, तो मैंने लगाम में ढील दे दी कि देखें, कहाँ तक ,कितना दौड़ सकता है? रास्ते में इसने मुझे गिराने की कोशिश की, किंतु मेरा आसन पक्का था, इसलिए मैं गिरा नहीं। लगभग सात-आठ मील दौड़कर घोडा जब अपने आप ही थकने लगा, तो मैं इसे वापस फेर सका और अब इसे इतना थका दिया है कि चाबुक मारने, एड लगाने पर भी अधिक दूर नहीं दौड़ सकता। अब यह सोलह आने मेरे काबू में आ गया है।"

-साभार- पुन्य स्मरण, लेखक- मृत्युंजय प्रसाद (राजेन्द्र बाबू के सुपुत्र)
विद्यावती फौन्देशन, पाटलिपुत्र कोलोनीपटना- ८०००१३, फोन- ०६१२-२६२६१८/224559

Tuesday, June 3, 2008

मुगदर के हाथ, राजेन्द्र बाबू के साथ

एक पाठक ने हमें यह सुझाव दिया है कि किताब व प्रकाशक का नाम-पाता दे दिया जाए, ताकि पाठअक इस किताब को स्म्गार्हित कराने में मदद मिल सके। उनकी राय का सम्मान करते हुए अबसे राजेन्द्र बाबू के प्रसंग लिखते समय किता के साथ- साथ प्रकाशक का भी नाम-पाता दिया जाएगा। )
(आन्दोलन में अपनी पढाई छोड़कर आनेवालों के लिए देश में जगह-जगह पर राष्ट्रीय विद्यापीठ व विद्यालय स्थापित किए गए थे- १९२९ में। बिहार विद्यापीठ के प्रथम प्राचार्य डॉ राजेन्द्र प्रसाद थे। वे स्वय वहा छात्रों को पढाया भी करते, जो कालांतर में अत्यधिक व्यस्तता के कारण छूटता चला गया। वहाँ छात्र रोजाना कुछ सामूहिक व्यायाम किया करते। वहाँ पर मुग्दारों की तीन जोदियाँ थी, जिनमें एक बहुत वज़नी, एक हलके वजन औए एक मध्यम वज़न की थी।
एक बार राजेन्द्र बाबू बिहार विद्यापीठ में ठहरे हुए थे। मुगदर फेरने के तरीके को देख कर वे बोले- "तुमलोगों के मुगदर फेरने का तरिक्का ग़लत है। तुमलोग बहुत फुर्ती से बिना हाथ रोके मुगदर फेरते जाते हो। देखने में यह बहुत सुंदर तथा प्रभावकारी लगता है। किंतु, इसमें तुम्हारे हाथों व कन्धों पर बहुत अधिक वजन पङता है। तेजी से चलाने से मुगदर आप ही चलने लगते हैं और भुजाओं व मांसपेशियों का विकास नहीं हो पाता, क्योंकि उन्हें बहुत कम बल लगाना पङता है। सही तरीका यह है कि धीरे-धीरे मुगदर फेरो, जिसमें हर पल उन्हें फेरने में बल लगाते ही जाना पड़े और जब तुम्हारे हाथ ऊंचे से झुककर कन्धों तक जाएं, टैब उन्हें धरती के समानांतर ला कर सीधे रखो और पल भर के लिए मुगदर को वेग से रोक लो। रोकने में तुम्हें बल लगाना होगा। फ़िर वैसे ही नीचे से उठाते समय फेरो तो फ़िर रोकने व दोबारा उठाने में भी अधिक बल लगाना पड़ेगा।" फ़िर सबसे हलकी जोडी लेकर उनहोंने मुगदर फेरने के कई नए-नए हाथ भी दिखाए व बताये। राजेन्द्र बाबू के पिटा बहुत ही अच्छे कसरती जवान थे और बहुत ही बलवान थे। उन्होंने राजेन्द्र बाबू और उनके बारे भाई महेन्द्र बाबू उनके बचपन में बहुत सी देसी कसरतें अखाडे भेजकर सिखाई थी, जिनमें से मुगदर फेरना भी थी।
-साभार- पुन्य स्मरण
विद्यावती फौन्देशन
२७४, पाटलिपुत्र कोलोनी
पटना- ८०००१३, फोन- ०६१२-२६२६१८/224559