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Saturday, December 29, 2007

एकालाप 'life is not a dream"


छाम्माक्छाल्लो काफी दिन बाद आपसे मुखातिब हो रही है। इस बीच वह अवितोको द्वारा प्रस्तुत अपने एकपात्रीय नाटक 'life is not a dream" मे लगी रही। फिनलैंड के बाद मुंबई में यह उसका पहला शो था, पिछले हफ्ते। आज फिर से इसका शो है। ५० मिनट के इस एकालाप का मुख्य स्वर एक स्त्री के अस्तित्त्व को एक व्यक्ति के रुप में पहचाने जाने की तलाश है। समष्टि से व्यष्टि और व्यष्टि से समष्टि की ऑर जाने की कथा है यह। नाटक भारतीय समाज मेंरह रही स्त्री की मनोदशा, उसकी दबी, दबा कर रख दी गई कामनाओं के पंख फैलाकर आकाश की अनंत ऊंचाई को छूने की लालसा की कहानी कहता है। यह अपने समाज की हर उस स्त्री की कहानी है, जो सिर्फ मैं, बहन, बीबी, बेटी की भूमिकाओं में कैद करके रख दी जाती है। उसकी अपनी भी इच्छाएँ, महत्वाकांक्षाएं हैं, हो सकती हैं, इस पर कोई नहीं सोचता। वह सबके लिए है, मगर खुद ही खुद के लिए नहीं।
इस नाटक की खासियत यह रही कि इससे सभी ने अपने आपको रिलेट कर लिया। सभी को लगा, जैसे यह उसी की कहानी है। छाम्माकछाल्लो इसे अपनी उपलब्धि मानती है। दिल्ली से सुशांत झा की टिप्पणी महत्वपूर्ण है, जो नीचे दी जा रही है- 'life is not a dream"-Really this topic is not catching the attention of people, they still think about man when age old people are discussed...we dont have any agenda about the women who are age-old and alone also ॥living in the far-off places...abandoned by migrant children।The photograph is quite representative॥and worth its message।
तस्वीर यहाँ भी दी जा रही है। छाम्माकछाल्लो इसे हर जगह प्रस्तुत करना चाह रही है। अपने किसी भी बंधु का सहयोग पाकर इसे अपार ख़ुशी होगी। अवितोको इससे पहले एक और एकपात्रीय नाटक प्रस्तुत कर चुका है, "अए प्रिये तेरे लिए'। अभी वह दो अन्य नाटकों पर काम कर रहा है, जिसके बारे में छाम्माकछाल्लो बाद में जानकारी देगी।

Thursday, December 13, 2007

उधार की कहानी पर नकदी दुकान

हिन्दी में उधारी का धंधा खूब चलता है। नाटक में कुछ ज्यादा ही। हर कोई कहता मिल जाएगा कि हिन्दी में मौलिक नाटक हैं ही नहीं। जो हैं, उनपर काम नहीं किया जा सकता। नतीजा, नाटककार दूसरी भाषाओं के नाटक से अपना काम चलाते हैं। अब इसमें हिन्दी की आत्मा, उसकी सोंध की कल्पना सहारे में फव्वारे की कल्पना है।
जान गे के 'द बेगर्स ऑपेरा, बर्तोल्ट ब्रेख्त के 'द थ्री पेनी ऑपेरा' व वैक्लाव हवेल के बेगर्स ऑपेरा- इन तीन नाटकों से प्रेरित नाटक है- मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी, जिसे पृथ्वी नाट्य महोत्सव में शुरू किया गया। पृथ्वी नाट्य महोत्सव की थीम इसबार संगीतमय नाटक की प्रस्तुति थी। ज़ाहिर है कि यह नाटक भी संगीतमय है। कथा समय १९६४ का है। एक गैंगस्टर का भिखारियों का अड्डा चलानेवाले की लड़की से प्रेम हो जाना और अपने बुढापे की लाठी के छिनने के भय से उसे मार देने की कहानी है यह नाटक। कौशिकभाई कडाकिया की बेटी कोकिला से प्रेम करके फिर उससे शादी कर लेता है, मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी। कोकिला का पिता इसे सह नहीं पाता है। रसुखवाला है, राजनीतिक पार्टियों को चंदे देने का काम करता है। उसकी एक ही ख्वाहिश है कि बेटी उसके पास आ जाये और मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी मारा जाये। इसके लिए वह पुलिस तंत्र का सहारा लेता है और मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी के बाल-सखा और अबके पुलिस कमिशनर की सहायता से उसे मरवा देता है।
नाटक में कलाकारों के अच्छे अभिनय के बावजूद इसमें आत्मा का अभाव दीखता है। न का तेरह हो गया है यह. मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी गुंडा तो है, मगर उसे देख कर लगता है की vah केवल auratbazi karane के लिए hii है। usakii बदमाशी को सिर्फ बोलकर बता दिया जाता है। कडाकिया दीखता है अपने भिखारी के अड्डे को चलाने के लिए काम करते हुए। मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी के जिस प्रेम की बात कही गई है, वह प्रेम नहीं, औरतों से उसकी लाग -लपेट भर ही है। नाटक का सिनाप्सिस यह बताने का प्रयास करता है कि यह नाटक आजादी के बाद लोगों के स्वप्न के टूटने -बिखरने की कथा है, मगर यह टूटन, यह बिखराव कहीं दीखता नहीं, हाँ, नाटक के बिखराव को ज़रूर दिखा जाता है।
संगीतमय नाटक है, इसलिए हर पात्र गाता है, मगर कथा का सूत्र पहले संवाद और फिर गायन में उसी को बताना समय के बोझ को बढाता है। लगभग सभी गाने फिल्मी तर्ज़ पर हें। कहीं -कहीं तो यह पैरोडी अच्छी लगती है, मगर बाद में ऊब होने लगती है। सुर की प्रधानता है, तब मौलिक सुर-ताल आवश्यक है। फिल्मी गीत की प्रधानता तो इस कदर है कि १९६४ के पीरियड में १९६६ की रिलीज़ फिल्म 'मेरा साया' का गीत गाया जाता है।
सेट सादा, मगर आकर्षक है। गेयता में लाइव संगीत है, पार्श्व संगीत रेकर्देड है। यह भी लाइव रहता तो ज़्यादा जानदार बनता। सभी कलाकार अच्छे थे अपने -अपने काम में। लेकिन सबसे अधिक निराश किया किशोर कदम ने। पुलिस कमिश्नर के रुप में इस नाटक में उनके पास कुछ करने को था ही नहीं, इसलिए बिचारे कुछ कर ही नहीं पाए। उनके चहरे पर सदा एक उलझन बनी रही, जो शायद अपने चरित्र को जस्टिफाई न किए जाने के कारण रही हो। किशोर बेहद अच्छे व समझदार कलाकार हैं, फिर भी। मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी के रुप में नावेद असलम ने अच्छा काम किया है, मगर गाने का अभ्यास उन्हें करना होगा। चेतन दातार और सुनील शान्बाग जैसे समर्थ थिएतार्दान से उम्मीद की जा सकती है की वे दूसरी भाषा के बदले अपनी भाषा के नाटकों के साथ काम करें। फिल्म हो या नाटक, छाम्माक्छाल्लो का मानना है की प्रस्तुति तभी दमदार होती है, जब उसकी स्क्रिप्ट अच्छी होती है। तीन तीन रचनाओं का घालमेल भी उलझन पैदा करने के लिए काफी है। नाटक का अंत आज के परिवेश में लाने का कोई तुक नही। वंचितों को तब भी न्याय नहीं मिलता था। इसीलिए तो लोगों का आजादी से मोह भंग हुआ था। लेकिन लगता है कि जैसे आजकल बिना मोबाइल के जीने की कल्पना नहीं की जा सकती, इसीलिए इसमें आधुनिकता का पुट भरना पर और शेयर, अपना बैंक और उसके माध्यम से लोगों को लूटने की बात कहे बिना शायद नाटक अधूरा लगा। और हां, कोकिला और नए दौर की बातें सांकेतिक रुप से कुछ और भी कह जाती हैं. लेकिन, जैसा कि छाम्मकछाल्लो कहती है , इन सब अनुभव के लिए नाटक देखना ज़रूरी है। हो सकता है, आपका अनुभव कुछ दूसरा हो।

Monday, December 10, 2007

सोच का जलवा

छाम्मक्छाल्लो आजकल जिस थिएटर ग्रुप में है, वहाँ एक लड़का है, जो शादी करना चाहता है। छाम्माक्छाल्लो ने उससे शादी की अपनी शर्तें आदि पूछीं। उसकी नज़र में एक लड़की का तसव्वर आया था, मगर लडके की बात सुनकर वह पीछे हट गई। लडके ने कहा कि उसे हाउस वाइफ चाहिए। यहाँ तक तो फिर भी ठीक था, मगर उसके आगे जो उसने कहा, उससे छाम्माक्छाल्लो दहल गई। उसने कहा कि भले ही उसे भूखी रहना पड़े, एक रोटी खानी पड़े, वह काम नहीं करेगी।
छाम्माक्छाल्लो ने अपने जीवन में बडे संघर्ष देखे हैं . आज वह अपने जीवन में अपनी माँ का योगदान इस रूप में देखती है कि अगर उसकी माँ पढी- लिखी नहीं होती, काम नहीं कर रही होती, तो आज छाम्माक्छाल्लो भी यहाँ नहीं होती। लडके ने कहा कि इस मामले में उसका अनुभव अच्छा नहीं है। हो सकता है। मगर, अच्छे-बुरे लोग हर समय में होते हैं। कंस दुष्ट था, तो क्या दुनिया के सारे मामा दुष्ट हो जाएंगे और अपनी बहनों की संतान की जान के पीछे पड़ जायेंगे?
आज क्या, यह हर समय का तकाजा है कि महिलाएं स्वावलम्बी बनें, आर्थिक रूप से आत्म निर्भर बनें, ताकि किसी भी आपातकाल के समय वह अपने बाल बच्चों का साया बनकर खडी हो सके। स्वावलम्बी बनने से उनमें अपना भी एक आत्म विश्वास बढ़ता है, जिसका असर उनकी आनेवाली पीढी पर पड़ता है।
लड़का थिएटर में है। छाम्मक्छाल्लो थिएटर को जीवन की सबसे बड़ी पाठशाला मानती है। मगर इस सोच के साथ औए ऎसी सोच के साथ कला के क्षेत्र में काम करनेवालों के मन में स्त्रियों के प्रति क्या भाव आते होंगे, यह सोच कर छाम्मक्छाल्लो फिर से सोच में पड़ जाती है। इस पूरे हिन्दुस्तान में एक अच्छी खासी आबादी इस बात पर टिकी होती हैं कि स्त्रियों के बाहर जाकर काम करने से वे बिगड़ जाती हैं, उनका चरित्र गिर जाता है। छाम्मक्छाल्लो सोचती है कि बाहर काम करने जानेवाली महिलायें अनायास ही इस सोच की शिकार हो कर अनजाने में ही चरित्रहीन कहलाने को अभिशप्त हैं।

Sunday, December 9, 2007

आजा बच ले!

हाल में आई माधुरी दीक्षित की फिल्म 'आजा नाच ले' के एक गीत के कारण उत्तर प्रदेश में इसे कोप का शिकार होना पडा। फिल्मकार ने इस पर बहस करने के बदले माफी माँग लेना ज़्यादा ठीक समझा। देश के बुद्धिजीवियों ने भी इस पर कुछ कहना उचित नही समझा।
तस्लीमा नसरीन का मामला भी गर्म ही है। सभी बुद्धिजीवी, महिला संगठन आदि इस पर बहस कर रहे हैं कि उन्हें शरण दी जाए या नहीं। तस्लीमा आधुनिकता का प्रतीक बन गई हैं, बोल्ड लेखन की आइकन मानी जा रही हैं। लेकिन उन्होंने भी अखबारों में छपी खबर के मुताबिक किताब से आपत्तिजनक पृष्ठ निकाल दिए हैं।
कबीर, शुक्र है कि इस काल में पैदा नही हुए। हुए होते तो ककर -पाथर जोडि के' या 'पाहन पूजे हरी मिले'' आदि पर उनके नाम से भी फतवा जारी कर दिया जाता। वे तो अमीर भी नहीं थे और ना ही प्रभुत्वशाली ही। उनकी तो राह चलते ठुकाई हो जाती, या पाश, चन्द्रशेखर की तरह हत्या कर दी जाती।
ज़माना डर का है। डरते रहिये। पत्रकारिता का क्षेत्र हो या लेखन या फिल्म का, खतरा कोई मोल नहीं लेना चाहता। वरना, किसी एक के कहने पर जाती, धर्म इतना आगे हो जाता है कि उसके आगे सदियों से चली आ रही कहावतें, लोकोक्तियाँ, सब बदल दिए जा सकते हैं। छाम्माक्छाल्लो को याद है कि बचपन में अपने स्कूल में वे सब एक गीत गाते थे-
गप्प सुनो भाई गप्प, अरे गप्पी मेरा नाम, गए, चढ़े खजूर पर और खाने लगे अनार। चींटी मरी पहाड़ पर, खींचन लागे चमार।' इस गीत का उपयोग छाम्मक्छाल्लो ने बच्चों के लिए लिखे अपने नाटक में किया है। इसे सुनते ही हमारे एक शुभ चिन्तक ने कह दिया, यह शब्द हटा दीजिए, वरना॥ उनके वरना में छुपे डर को मैं समझ गई हूं। अब कलाल को कलाल न कहे, शूद्र को शूद्र न कहे, लेकिन जब सरकारी आरक्षण व फायदे की बात आती है, तब जाति प्रमाण पत्र पर जाति का नाम देते हुए कोई झिझक नहीं लगती किसी को भी। अब इसे आप क्या कहेंगे?

Saturday, December 8, 2007

नाटक 'chhaliyaa' का छलावा

नाटक छलिया का आमंत्रण बहुत दिनों से था। सो कल छाम्मकछाल्लो कल इसे देखने गई। दा शंकर शेष लिखित इस नाटक का निर्देशन शांतनु छापरिया ने किया है। शांतनु अनुभवी निर्देशक व कलाकार हैं, मगर इस मंच पर बेहद थके थके से लगे। अन्य कलाकार ने भी कोई खास रूचि जैसे नहीं दिखाई थी, सिर्फ नटवर जी के किरदार को छोड़कर। पूरे नाटक में वही एक ऐसे पात्र थे, जिनका आना दर्शकों को राहत देता था।
नाटक की कथा वस्तु से छाम्मकछाल्लो को अपने लिखे नाटक 'अये प्रिये तेरे लिए' याद आयी। पुरुष के छलावे का शिकार स्त्रियाँ होती आई हैं। वह छलिया यदि पति हो तो ऐसे दर्द की पीर बड़ी घनी हो जाती है। यह एक ऐसा दुःख होता है, जिसे स्त्री किसी को बता नहीं सकती, बस मन ही मन घुटती रहती है। 'छलिया' की नायिका विशाखा अंधी है, मगर बड़ी अच्छी उपन्यासकार है। कवि पति को अपने कवित्व पर विश्वास नहीं, इसलिए वह विशाखा का लेखक बन जाता है और उसकी लिखी रचने अपने नाम से छपाता है। बाद में उसके एक मित्र आनंद को इसका पता चलता है। वह विशाखा की आंखों का आपरेशन कराता है और उसकी आँखें ठीक हो जाती हैं। इस बीच पति यानी देव के संबंध अपनी टाइपिस्ट से हो जाते हैं, जिसके लिए वह फ्लैट तक खरीदता है।
नाटक में कई तरह की विषमताएं हैं। टाइपिस्ट उसके सारे काम करती है, उससे प्रेम भी करती है, विशाखा की तथाकथित सेवा करती है, मगर पूरे नाटक में एक बार भी वह टाइप करने नहीं बैठती। संवाद अब की हिन्दी के अनुसार न होने के कारण अब बोझल से लगते हैं। शंकर शेष ने जब इसे लिखा था, तब की भाषा और आज की भाषा में बड़ा फर्क है।
सबसे अजीब ही नाटक का अंत- भारतीय स्त्री का अखंड चरित्र की "भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है'। सारी बातें जानने के बाद और अब अपने अंधत्व से मुक्ति के बाद भी नायिका का इसी भाव से पति को स्वीकार करना आज किसी भी नारी को शायद ही सुहाए।
हिन्दी में आज के लेखक को पचास हजार की अग्रिम रायल्टी मिल जाती है, यह ऐसा सुन्दर स्वप्न है हिन्दी के लेखकों के लिए कि वह अगला कई जन्म 'मुझे चांद चाहिए' जैसे ख्वाब को देखते हुए गुजार सकता है। दूसरे, हिन्दी लेखन में साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार तो होते हैं, राष्ट्रीय पुरस्कार तो छाम्मकछाल्लो के हिसाब से फिल्मों को मिलता है।
सेट इतना भारी भरकम की बस। और प्राप्स का इस्तेमाल नहीं, जैसे टाइप राइटर का, बुक शेल्फ का। नाटक को प्रयोग के स्तर पर करने से दर्शकों की कल्पनाशीलता बढ़ती है। यह हमें नहीं भूलना होगा कि नाटक से केवल दर्शकों का मनोरंजन ही नहीं होता, नाटक और रंगमंच लोगों को शिक्षित करने का सशक्त माध्यम भी है। और सबसे बड़ी बात , इसकी अवधि। विषय और उसके कलेवर को डेढ़ घंटे में आसानी से समेता जा सकता था, मगर इसे मध्यांतर मिलाकर पूरे ढाई घंटे तक खींचना दर्शकों के धीरज की परीक्षा ही लेना था। ऐसा नहीं कि ढाई घंटे का नाटक होना नहीं चाहिए या होता नहीं, मगर उसके लिए कंटेंट चाहिए। खैर, नाटक देखना अपने आप में एक सीख होती है और सीखने के लिहाज़ से भी जब कभी मौका मिले, इसे देखने जरूर जाएँ।

Wednesday, December 5, 2007

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवा:। यानी जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहा देवता निवास करते हैं। मगर देवताओं के घरों, यानी मंदिरों में ही नारियों का कोई सम्मान नहीं। यह अनुभव पिछले कई सालों से खूब हो रहा है। कई साल पहले औरंगाबाद गई। पता चला, वहाँ लेटे हुए हनुमान की बहुत बड़ी मूर्ति स्थापित है। जब वहा गई, तब एक निश्चित सीमा के बाद स्त्रियों का प्रवेश वर्जित। इसके बाद शिरडी गई । वहां भी हनुमान का मंदिर है। वहाँ भी वही निषेध। अभी-अभी मुम्बई के दादर स्थित लक्ष्मी नारायण या स्वामीनारायण मंदिर गई। वहाँ भी यही हाल। ऐसे में यह कहना कहाँ तक सच रह जाता है कि जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहा देवता निवास करते हैं। हनुमान मंदिर में यह दलील दी जाती है कि वे ब्रह्मचारी हैं, इसलिए स्र्तियों का प्रवेश वर्जित है। छाम्मकछाल्लो का कहना है कि क्या स्त्रियाँ हनुमान मंदिर में उनसे इश्क लड़ाने जाती हैं, पूजा के बदले? क्या स्त्रियों के मन में हनुमान या किसी अन्य देवता को देख कर काम की भावना जागती है? आज क्या, सदियों से घर-घर में धर्म-कर्म की व्यावहारिक ठेकेदार स्त्रियाँ ही हैं। पूजा-पाठ से लेकर व्रत उपवास तक सभी जगह औरतें यह जिम्मेदारी बड़ी ख़ुशी से निभाती हैं। वह भी किसके लिए? अपने पति, बच्चों, घर के लिए। कभी किसी स्त्री ने कहा है कि वह अपने लिए पूजा करती है कि केवल वह सुखी रहे, घर के अन्य लोग भाड़ में जाएँ। अगर ऐसा नहीं है तो मंदिरों में स्त्रियों को उस हद तक जाने की इजाज़त क्यों नहीं है, जिस सीमा तक पुरुष पूजा करने जाते हैं। छाम्माक्छाल्लो आजतक इस चाल को समझ नहीं पाई हैं। पुरुषों की रासलोलुपता का इलजाम स्त्रियों पर क्यों? आपके जवाब से छाम्माक्छाल्लो को शायद कुछ रास्ता मिले।