हिन्दी में उधारी का धंधा खूब चलता है। नाटक में कुछ ज्यादा ही। हर कोई कहता मिल जाएगा कि हिन्दी में मौलिक नाटक हैं ही नहीं। जो हैं, उनपर काम नहीं किया जा सकता। नतीजा, नाटककार दूसरी भाषाओं के नाटक से अपना काम चलाते हैं। अब इसमें हिन्दी की आत्मा, उसकी सोंध की कल्पना सहारे में फव्वारे की कल्पना है।
जान गे के 'द बेगर्स ऑपेरा, बर्तोल्ट ब्रेख्त के 'द थ्री पेनी ऑपेरा' व वैक्लाव हवेल के बेगर्स ऑपेरा- इन तीन नाटकों से प्रेरित नाटक है- मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी, जिसे पृथ्वी नाट्य महोत्सव में शुरू किया गया। पृथ्वी नाट्य महोत्सव की थीम इसबार संगीतमय नाटक की प्रस्तुति थी। ज़ाहिर है कि यह नाटक भी संगीतमय है। कथा समय १९६४ का है। एक गैंगस्टर का भिखारियों का अड्डा चलानेवाले की लड़की से प्रेम हो जाना और अपने बुढापे की लाठी के छिनने के भय से उसे मार देने की कहानी है यह नाटक। कौशिकभाई कडाकिया की बेटी कोकिला से प्रेम करके फिर उससे शादी कर लेता है, मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी। कोकिला का पिता इसे सह नहीं पाता है। रसुखवाला है, राजनीतिक पार्टियों को चंदे देने का काम करता है। उसकी एक ही ख्वाहिश है कि बेटी उसके पास आ जाये और मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी मारा जाये। इसके लिए वह पुलिस तंत्र का सहारा लेता है और मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी के बाल-सखा और अबके पुलिस कमिशनर की सहायता से उसे मरवा देता है।
नाटक में कलाकारों के अच्छे अभिनय के बावजूद इसमें आत्मा का अभाव दीखता है। न का तेरह हो गया है यह. मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी गुंडा तो है, मगर उसे देख कर लगता है की vah केवल auratbazi karane के लिए hii है। usakii बदमाशी को सिर्फ बोलकर बता दिया जाता है। कडाकिया दीखता है अपने भिखारी के अड्डे को चलाने के लिए काम करते हुए। मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी के जिस प्रेम की बात कही गई है, वह प्रेम नहीं, औरतों से उसकी लाग -लपेट भर ही है। नाटक का सिनाप्सिस यह बताने का प्रयास करता है कि यह नाटक आजादी के बाद लोगों के स्वप्न के टूटने -बिखरने की कथा है, मगर यह टूटन, यह बिखराव कहीं दीखता नहीं, हाँ, नाटक के बिखराव को ज़रूर दिखा जाता है।
संगीतमय नाटक है, इसलिए हर पात्र गाता है, मगर कथा का सूत्र पहले संवाद और फिर गायन में उसी को बताना समय के बोझ को बढाता है। लगभग सभी गाने फिल्मी तर्ज़ पर हें। कहीं -कहीं तो यह पैरोडी अच्छी लगती है, मगर बाद में ऊब होने लगती है। सुर की प्रधानता है, तब मौलिक सुर-ताल आवश्यक है। फिल्मी गीत की प्रधानता तो इस कदर है कि १९६४ के पीरियड में १९६६ की रिलीज़ फिल्म 'मेरा साया' का गीत गाया जाता है।
सेट सादा, मगर आकर्षक है। गेयता में लाइव संगीत है, पार्श्व संगीत रेकर्देड है। यह भी लाइव रहता तो ज़्यादा जानदार बनता। सभी कलाकार अच्छे थे अपने -अपने काम में। लेकिन सबसे अधिक निराश किया किशोर कदम ने। पुलिस कमिश्नर के रुप में इस नाटक में उनके पास कुछ करने को था ही नहीं, इसलिए बिचारे कुछ कर ही नहीं पाए। उनके चहरे पर सदा एक उलझन बनी रही, जो शायद अपने चरित्र को जस्टिफाई न किए जाने के कारण रही हो। किशोर बेहद अच्छे व समझदार कलाकार हैं, फिर भी। मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी के रुप में नावेद असलम ने अच्छा काम किया है, मगर गाने का अभ्यास उन्हें करना होगा। चेतन दातार और सुनील शान्बाग जैसे समर्थ थिएतार्दान से उम्मीद की जा सकती है की वे दूसरी भाषा के बदले अपनी भाषा के नाटकों के साथ काम करें। फिल्म हो या नाटक, छाम्माक्छाल्लो का मानना है की प्रस्तुति तभी दमदार होती है, जब उसकी स्क्रिप्ट अच्छी होती है। तीन तीन रचनाओं का घालमेल भी उलझन पैदा करने के लिए काफी है। नाटक का अंत आज के परिवेश में लाने का कोई तुक नही। वंचितों को तब भी न्याय नहीं मिलता था। इसीलिए तो लोगों का आजादी से मोह भंग हुआ था। लेकिन लगता है कि जैसे आजकल बिना मोबाइल के जीने की कल्पना नहीं की जा सकती, इसीलिए इसमें आधुनिकता का पुट भरना पर और शेयर, अपना बैंक और उसके माध्यम से लोगों को लूटने की बात कहे बिना शायद नाटक अधूरा लगा। और हां, कोकिला और नए दौर की बातें सांकेतिक रुप से कुछ और भी कह जाती हैं. लेकिन, जैसा कि छाम्मकछाल्लो कहती है , इन सब अनुभव के लिए नाटक देखना ज़रूरी है। हो सकता है, आपका अनुभव कुछ दूसरा हो।