बिलासपुर, छत्तीसगढ़ से देवांशु के संपादन में निकलनेवाली त्रैमासिक पत्रिका "पाठ" के जुलाई-सितम्बर,2016 के अंक में तरसेम गुजराल जी द्वारा लिया गया मेरा साक्षात्कार। यह मेरा सौभाग्य है कि तरसेम जी ने मुझे और मेरे लेखन तथा अन्य क्रिएटिव पक्ष को इस लायक समझा। .....आपसबके लिए प्रस्तुत है। आपके खुले विचार आमंत्रित हैं।
कथाकार रंगकर्मी विभा रानी से कथाकार तरसेम गुजराल के सवालों- जवाबो का सिलसिला।
1 जब आपने तय कर लिया कि आप जीवन भर साहित्य, कला, संस्कृति का कार्य करेंगी, तब घर-परिवार में रुकावटें पेश नहीं आईं?
घर परिवार अपनी जगह है और आपका मिशन अपनी जगह। जब आप अपनी राह तय कर लेते हैं, तब आपको सम्झने के लिए आपका घर परिवार तैयार हो जाता है। लेकिन इसके साथ यह भी जरुरी है कि आप परिवार के सहयोग को टेकेन फॉर ग्रांटेड ना लें और अपना सहयोग भी देते रहे। ...मैंने साहित्य को कभी नहीं छोड़ा, न कभी विराम दिया, क्योंकि यह अकेले की साधना है। आप अपनी सुविधा से इसके लिए वक़्त निकाल सकते हैं। मैंने बस, ट्रेन, हवाई जहाजमें, किचन में, बाथरूम में, खाने की टेबल पर और गोद में बच्चे को सुलाते हुए, 2-2 बजे रात में उठकर, 5 बजे सुबह तक लिखा है। मेरे लिए समय,कट ऑफ़ डेट, टारगेट और रिजल्ट का बहुत महत्त्व रहा है। अगर मुझे कहीं एक रचना एक निर्धारित समय तक देनी है और मैंने उसके लिए हामी भर दी है तो मैं इसे कह सकते हैं कि जान पर खेलकर भी समय सीमा में उसे पूरा करने और भेजने की कोशिश करती हूँ। आजकल मेल का ज़माना है तो भेजने में समय नहीं लगता। पहले लिखने,फेयर करने, संभव हुआ तो टाइप करने और फिर डाक से भेजने में काफी समय लगता था। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुसतान, कादम्बिनी आदि में कई लेख इसी तरह लिखे। टारगेट डेट के बाद बमुश्किल मेरे पास समय बचता था। इसी तरह घर,बच्चों और दफ्तर से समय निकालकर लिखना होता था। दिमाग में यही एक बात रहती थी कि अपने वचन और समय पर खरी उतरुं।
नाटक करना समय और बहुत सारे अन्य कमिटमेंट्स मांगते हैं। जब एक समय में मैंने देखा कि घर, परिवार और नौकरी के बीच मैं फिलहाल नाटक को उतना समय नहीं दे सकती तो मैंने एक्टिव थिएटर से कुछ दिनों के लिए विश्राम ले लिया। संयोग या दुर्योग, यह ब्रेक 20 साल तक खिंच गया। इसके काफी नुकसान हुए। लेकिन, इस बीच मैंने कहानियों,लेखों,कविताओं, पुस्तक समीक्षाओं आदि के साथ साथ "दूसरा आदमी दूसरी औरत',"आओ तनिक प्रेम करें", "अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो", "पीर पराई" जैसे नाटक लिखे, जिनका मंचन कई थिएटर ग्रुप्स ने किए। "दूसरा आदमी दूसरी औरत" का मंचन भारंगम में भी हुआ। इस नाटक को आज महाराष्ट्र सरकार के सर्वित्तम नाटक और सर्वोत्तम स्क्रिप्ट के अलावा कई सम्मान मिल चुके हैं। "आओ तनिक प्रेम करें" को मोहन राकेश सम्मान के अलावा महाराष्ट्र राज्य के अलावा गुजरात राज्य के कई पुरस्कार मिल चुके हैं। "अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो" को भी मोहन राकेश सम्मान मिल चुका है। कथा संग्रहों को घनश्यामदास सर्राफ और डॉ माहेश्वरी सिंह महेश पुरस्कार सहित कहानी के लिए "कथा अवॉर्ड" मिले। 2007 से फिर एक्टिव थिएटर में उतरी हूँ और थिएटर को कई सारे क्षेत्रों में एक्सप्लोर कर रही हूँ।सोलो नाटक को अपने थिएटर का आधार बनाया है। थिएटर के माध्यम से कॉरपोरेट ट्रेनिंग, सोलो एक्टिंग क्लास, थिएटर आधारित व्यक्तित्व विकास पर कार्यक्रम कर रही हूँ।रूम थिएटर कांसेप्ट तैयार किया है और इसके माध्यम से नई और छुपी हुई प्रतिभाओं के साथ साथ प्रतुष्ठित लोगों से हस्तक्षेप सहित न्यूनतम लागत पर नाटक उप्लब्ध करा रही हूँ। अभी रूम थिएटर के साथ हम इंदौर गए थे। मुम्बई विश्वविद्यालय के साथ कार्यक्रम कर रहे हैं। संस्थाएं हमें बुला रही हैं। हम नाटक, साहित्य और कला व् संस्कृति को रूम थिएटर के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं।
कहने का मतलब यह कि हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होती हैं। जो हमारी जिम्मेदारियां हैं, उन्हें निभाना पड़ता है। महिलाओं को थोड़ा अधिक ध्यान देना पड़ता है। लेकिन जब आप ये सब कर लेते हैं और अपनी रचनात्मकता के लिए आगे बढ़ते हैं तो घर परिवार आपके साथ होता है। मुझे संतोष है कि मेरी रचनात्मक जिद को मेरे घरवालों ने समझा और मुझे साहित्य, नाटक, प्रशिक्षण और सामाजिक कार्यों को करने में कोई रुकावट नहीं आई। आपको मोरल सपोर्ट मिलता रहे और आप अपनी जिद पर बनी रहें तो उसके रिजल्ट सकारात्मक आते ही हैं। कठिनाइयाँ और तकलीफें साथ साथ आती हैं। सबकुछ हरा भरा नहीं होता। आपमे काँटों से चुभने और चुभे कांटे को निकालने, उसका दर्द सहने और उसे सहकर आगे बढ़ने का माद्दा होना चाहिए।
2 "प्रेम कहीं बिकता नहीं, हाट-बाट-बाजार" कहानी भाषा की संस्कृति पर है या अपार मानवीय प्रेम पर?
दोनों पर। भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति है तो भाषा हमारे बीच दूरियां भी पैदा करता है।यह कहानी मैंने अपने दक्षिण भारत प्रवास के बहुत पहले लिखी थी। भाषा की महत्ता वहां जाने पर समझ आई। भाषा के कारन हम लोगों के अन्य भावों को भी समझने से इनकार कर देते हैं। चूँकि मैंने खुद भी 5 साल तक इसी हिंदी शिक्षण योजना में हिंदी प्राध्यापक के रूप में काम किया है, इसलिए भाषा के टकराव को बहुत करीब से देखा है। लेकिन मैं इस कहानी की नायिका नहीं हूँ। (हाहाहा।) हाँ। कुछ बातें जरूर मेरी हैं इसमे। साथ ही यह कहानी देश की राजभाषा हिंदी के साथ साथ मानवीय मन की कई परतें खोलती हैं। आखिर, ऐसा क्यों है कि हमारे देश में देश की एक राजभाषा के नाम पर इतनी हाय तौबा मची हुई है? फिर भी अहिन्दीभाषी जितना सहयोग हिंदी को आगे बढ़ने में करते हैं, हिन्दीभाषी नहीं। वे हिंदी और हिंदी से जुड़े लोगों का मजाक उड़ाते हैं। लेकिन जब खुद के फंसने की बात आती है, तब हिंदी तो मेरी भाषा है, कहकर अपनी जान बचने में लग जाते हैं। जान छूट जाती है तो हिंदी को फिर से गरीब की भौजाई बनाकर छोड़ देते हैं।ऐसे लोग बड़ी बेशर्मी से यह कहते हैं कि अच्छा हुआ कि अंग्रेज अपनी अंग्रेजी यहाँ छोड़ गए। हमारे बच्चे आजकल दुनिया में अंग्रेजी के बल पर नौकरियां पा रहे हैं। फिर ऐसे ही लोग भारतीय संस्कृति की बात करते हैं। दूसरी भाषाओँ के लोग अपनी भाषा और संस्कृति से भी जुड़े हुए हैं और अंग्रेजी से भी। वे हिंदी से भी जुड़ते हैं क्योंकि वे हिंदी को सहज पाते हैं। सभी अहिन्दीभाषियों के घरों में उनकी भाषा का अखबार आता है। हिन्दीभाषियों के घरों से सबसे पहले हिंदी अखबारों की विदाई होती है। उनके घरों में हिंदी की किताबें नहीं मिलती हैं। यह सब बहुत बड़ा सांस्कृतिक फर्क है। यह मैं अपने 30 सालों के अनुभव से बोल रही हूँ।
3 आपकी कहानी "बेवज़ह" सोचने पर मज़बूर करती है कि भारतीय जन सांप्रदायिक हुआ तो यह प्रक्रिया क्या अंग्रेज काल से आई?
भारतीय जन सांप्रदायिक से अधिक भीडोन्मादी हो गया है। अपने सोचने समझने की ताकत खो बैठा है। एक दूसरे के प्रति नफ़रत ही अपने धर्म से प्रेम का आधार बना दिया गया है। ऐसे में धर्म की बेहद बुनियादी बातें - प्रेम, दया, करुणा, मानवीयता हम भूल बैठे हैं। ये तत्व आज कमजोरी के पर्याय मान लिए गए हैं। धर्म का मतलब अपनी शक्ति का हिंसात्मक और दम्भ भरा प्रदर्शन हो गया है। धर्म का उन्माद अंग्रेजो की देन नहीं है। हाँ, उन्होंने इसे भुनाया।फूट डालो, राज करो की आग जलाई। हमने उसे ज्वाला बना दिया। आज हालात और भयावह हो गए हैं, जिसकी धधक हम सभी महसूस कर रहे हैं। दूसरे, हम अपना विवेक कहीं खो बैठे हैं। धर्म के नाम पर हम भी उन्मादी हो जाते हैं। सच को झुठलाते हैं और झूठ को सच मान बैठते हैं। कहानी की फैंटेसी आज यथार्थ के रूप में हमारे सामने हर रोज घट रही है और हम मूक बधिर बने बैठे हुए हैं। साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाया जा रहा है। आज सोशल मीडिया के द्वारा इसे बहुत सुनियोजित तरीके से फैलाया जा रहा है। दुःख होता है, जब हमारा पढ़ा लिखा समुदाय इस तरह के मेसेज फॉरवर्ड करता रहता है। इससे बचने की सख्त जरुरत है।
4 लेखन में आप सदा आशावादी रही हैं। ऐसी कहानियों के पात्र कैसे चुनती हैं?
आशा जीवन का मूल है। मेरा जीवन तमाम तरह की नकरात्मकताओं के साथ शरू हुआ। छोटी जगह की एक सामान्य शकल-सूरत वाली लड़की के लिए जितनी भी रुकावटें आ सकती थीं, आईं। ऐसे में अपनी सकारात्मकता के साथ ही आगे बढ़ने की सोची। एक राह बंद हुई तो दूसरी खोजी ताकि जीने और आगे बढ़ने का आधार मिले। ...मेरा मानना है कि जीवन कभी ख़त्म नहीं होता। इसलिए अपने पात्रों में भी वह सकारात्मक सोच और स्वाभिमान डालने की कोशिश की। मुझे उन रचनाओं से बड़ी कोफ़्त होती है, जिसमे अंत भी निराशावादी होता है। मुझे लगता है कि मैं उसे पढ़कर ठगी गई। जीवन कभी भी इतना बुरा नहीं होता। यदि सबकुछ इतना ही खराब रहता तो महाभारत या आज के नागाशाकी हिरोशिमा और विश्व युद्धों के बाद तो हमारा नामो निशाँ ही नहीं रह जाता। यह उन लोगों के जीने का जुझारूपन ही है कि इतनी भीषण तबाही के बाद भी वे और हम हैं। निदा फ़ाज़ली ने 1992 के दंगों के बाद लिखा था-
उठ के कपडे बदल, घर से निकल, जो हुआ सो हुआ
दिन के बाद रात, रात के बाद दिन, जो हुआ सो हुआ।"
रात के बाद का दिन ही हमारी आशा का प्रेरणा पुंज है। यह आशावाद ही मेरा भी जीवन है। इसी के बल पर आजतक अपनी सारी लड़ाइयां लड़ती आई हूँ। पढ़ाई जारी रखी। रेडियो में काम किया। घर की स्थिति नाजुक होने पर मोहल्ले के लोगों के कपडे सीकर, स्वेटर बुनकर और रेडियो में काम करके पढ़ाई का खर्च निकाला। यहां तक कि अपनी दुरूह कैंसर जैसी बीमारी को भी इसी आशावाद के साथ झेलने की कोशिश की है।
5 आपने जगह जगह जाकर नाटक खेले हैं। स्वदेश दीपक भी कहानीकार नाटककार थे। उनके नाटक 'कोर्ट मार्शल' के 2000 से ज़्यादा शो हुए। क्या नाटक आपको कहानी से ज्यादा जनप्रिय लगा?
स्वदेश दीपक बहुत बड़े रचनाकार हैं। उनका कोर्ट मार्शल इतना सशक्त नाटक है कि उसे पढ़ भी दिया जाए तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शायद ही कोई ग्रुप हो जिसने कोर्ट मार्शल ना खेला हो। ....कहानी एकांत का विषय है, नाटक सार्वजनिकता का। कहानी अकेले में लिखी जाती है,अकेले में पढ़ी जाती है। नाटक सभी के साथ और सभी के बीच किया जाता है। एक बार में एक कहानी एक पाठक पढ़ सकता है। नाटक एक बार में सैकड़ों हजारों देखते हैं। आप अपनी बात एक साथ, एक ही समय में इतने लोगों तक पहुंचा पाते हैं। मुझे कहानी और नाटक दोनों बहुत पसंद हैं। फिर भी नाटक अपनी तुरंत पहुँच और अधिक सम्प्रेषणीयता के कारण अधिक पसंद है। ...दूसरे, मैं नाटक केवल लिखती ही नहीं, मैं खुद भी थिएटर करती हूँ। थिएटर में 20 साल के अंतराल के बाद मैंने अपने लिए सोलो प्रस्तुति को चुना है, जो बेहद आनंददायी और संतोषप्रद तो है, साथ ही कठिन और चुनौतीपूर्ण भी। नाटक खेलना मेरा जुनून है। एक पागलपन- यह बताने के लिए कि थिएटर हमारे जीवन के लिए क्यों जरुरी है? कि थिएटर के लिए उम्र या कोई भी बंधन आड़े नहीं आता। कि थिएटर से आपको जीने की उमंग और ऊर्जा मिलती है। कि थिएटर आपमे आशावाद का संचार करता है। कि थिएटर आपको अपने जीवन के कार्यक्षेत्र से जोड़कर आपको उसमे एक्सपर्ट बनाता है। मुझे हमेशा लगता है कि हमारे सभी सहित्यिको को थिएटर से जुड़ना चाहिए। थिएटर उनको मंच पर अपने को बेहतर तरीके से प्रस्तुत करने लायक बनाता है।
6 कहानी, नाटक या फ़िल्म- किसमें रचनात्मक संतोष ज्यादा मिला?
तीनों अलग अलग माध्यम हैं। तीनों के अपने अपने रचनात्मक सुख हैं।किसी की किसी से तुलना नहीं की जा सकती। जब मैं नाटक करने की स्थिति में नहीं थी, उस समय लेखन ही मेरी रचनात्मकता और मुझे जिलाए रखने का ज़रिया था। दो साल पहले मुझे कैंसर हुआ। उस समय भी लेखन और वीडियो मेकिंग ने ही मुझे जिलाए और बनाए रखा। सभी माध्यम के लिए आप अपने आपको कैसे तैयार और सुनियोजित करते हैं, यह अधिक महत्वपूर्ण है।मुझे ख़ुशी है कि मैं अपना संतुलन लेखन, थिएटर, प्रशिक्षण, सामाजिक कार्यों सहित राजभाषा हिंदी सभी में बनाकर रख पा रही हूँ। मैं बहुत प्रयोगवादी हूँ और मानती हूँ कि जो काम मैं कर सकती हूँ, उसमें हाथ ज़रूर आजमाना चाहिए। बीमारी के दौरान मेरा घर से बाहर निकलना बंद हो गया तो मैं वीडियो बनाने और उसे यू ट्यूब पर अपलोड करने लगी। यहाँ तक कि घर की सब्जियों फलों के छिलकों से खाद भी बनाया। ये सारे काम आज भी जारी हैं। मुझे लगता है कि हमें अपनी सारी संभावनाओं के लिए अपने आपको खुला रखना चाहिए। मौके आते हैं, उसे लपकिये और अपना काम कीजिये।
7 अपने जयशंकर प्रसाद पर फ़िल्म की। वे हिंदी के बहुत बड़े कवि हैं। परंतु क्या बड़े कहानीकार नहीं?
मैंने जयशंकर प्रसाद पर फिल्म्स डिवीजन के लिए स्क्रिप्ट लिखी है। उस फ़िल्म में उमा डोगरा, ललित परिमू जैसे कलाकारों ने काम किया है। प्रसाद हिंदी के बहुत बड़े साहित्यकार हैं। वे एक साथ कवि, कहानीकार, नाटककार हैं। उनपर फ़िल्म लिखना मेरे लिए एक गौरवपूर्ण अनुभव था। फ़िल्म निर्माण के दौरान प्रसाद जी के बेटे रत्नशंकर प्रसाद जी से भी भेंट हुई थी। वह भी मेरे लिए एक उपलब्धि थी। प्रसाद जी की कविताओं, कहानियों व् नाटकों पर काम होना बाकी है। मेरी दिली इच्छा है कि मैं उनके नाटक "ध्रुवस्वामिनी" की एकल प्रस्तुति करूँ।
8 आपने लिली रे के उपन्यास 'पटाक्षेप' का हिंदी रूपांतर किया। कृपया लिली रे जी बारे में कुछ बताएं। हम साधारण हिंदी के पाठक प्रांतीय भाषाओँ के लेखकों के बारे में कम क्यों जानते हैं?
लिली रे मैथिली की बेहद सशक्त रचनाकार हैं। उनका लेखन विश्व क्लासिक की श्रेणी में आता है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अन्य देशी विदेशी भाषाओँ के रचनाकारों को तो जानते समझते हैं, लेकिन हिंदी के आसपास की भाषाओं पर ध्यान नहीं देते। भारत की अन्य भाषाओँ के साथ ऐसा नहीं है। बँगला, मराठी, कन्नड़, गुजराती के साहित्य हिंदी में उपलब्ध हैं। लिली रे मैथिली साहित्य की पहली सहित्य अकादमी विजेता महिला लेखक हैं । वे अपने समय की सबसे बोल्ड महिला कथाकार रही हैं। महिला बोल्ड लेखन को आज फैशन बताया जा रहा है। लिली जी ने लगभग 40 साल पहले "रंगीन परदा" जैसी बेहद बोल्ड कहानी लिखी। यह मेरी खुशकिस्मती है कि उन्होंने मुझे अपने लेखन के हिंदी अनुवाद के लायक मुझे समझा। पटाक्षेप के अलावा अबतक उनकी अन्य 3 किताबें मेरे द्वारा अनूदित होकर आ चुकी हैं-बिल टेलर की डायरी, जिजीविषा और सम्बन्ध। लोगों को उनकी किताबें जरूर पढ़नी चाहिए। मुझे लगता है कि अगर आज वे मैथिली के अलावा किसी अन्य भाषा में लिख रही होतीं तो उनकी पहचान विश्व स्तर की होती।
9 'पटाक्षेप' उपन्यास की पृष्ठभूमि नक्सलवादी आंदोलन है। शोषण के विरुद्ध इस बड़े संघर्ष को या तो खौफनाक बताया गया या रोमांटिक। उपन्यासकार का दृष्टिकोण क्या है?
उपन्यासकार ने यह दिखाने की कोशिश की है कि इस तरह के आंदोलन के प्रणेता या नेता कैसे अवसर और लाभ मिलने पर खुद सुविधाभोगी हो जाते हैं, जिससे आंदोलन तो कमजोर पड़ते ही हैं, उसमें शामिल लोगों का या तो मोहभंग होता है या उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता।
10 क्या दलित साहित्य और नक्सलवादी साहित्य में कोई सम्बन्ध है? अस्वीकार दोनों में एक जैसा है।
दोनों ही निषेध का साहित्य है। दोनों ने ही सत्ता और समाज की व्यवस्था से बहुत झेला है। एक समाज की व्यवस्था से और दूसरा सत्ता की व्यवस्था से। अस्वीकार्यता उनकी नियति है। कबतक आप अपने को बहिष्कृत, तिरस्कृत, उपेक्षित देखना और इसतरह जीना पसंद करेंगे? साहित्य हमेशा से प्रतिरोध के स्वर को मुखर करता रहा है।
11 आपके नाटक "मियां मुसलमान' के सन्दर्भ में सारंगीवादक लतीफ़ खां की बात याद आती है। वे कहते हैं कि हमारा मज़हब तो संगीत है। क्या आज समाज में समाज की भूमिका की जगह जाति-सम्प्रदाय को देखा जा रहा है, जबकि वह एक संगठित समाज है। राजनीति संबंधों को संभालने की जगह कुठाराघात क्यों करती है?
जाति और समाज हमने अपनी जीवन व्यवस्था को सहज और सुचारू बनाने के लिए शुरू की थी। आज उसे अपने जन्म और कर्म का आधार मान लिया गया है। बरसों पहले एक टीवी चैनल पर उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ साहब से एक मशहूर एंकर ने सवाल किया था कि आप गंगा को कैसे देखते हैं। मेरा दावा है कि वे यह सवाल पं छन्नूलाल मिश्र जी से हरगिज हरगिज़ नहीं करते। हमारा धर्म वह नहीं है, जिसमे हम पैदा हुए हैं। हमारा धर्म वह है, जो हमारा कर्म है। हमारा धर्म हमारी शिक्षा है। हमारा धर्म हमारी बुनियादी संस्कृति, सभ्यता और रीति रिवाज हैं। समाज जबतक यह नहीं सोचेगा, जातिगत और धर्मगत भेदभाव बढ़ाया जाता रहेगा। राजनीति का काम है इन असंतुलनों को समाप्त करना। लेकिन राजनीति अपने आप में तमाम असंतुलनों का अखाड़ा बना हुआ है। विभूति नारायण मिश्र ने लिखा था कि दंगे राजनेताओं द्वारा शुरू करवाए जाते हैं, जबतक वे चाहते हैं, दंगे होते रहते हैं, जब वे चाहते हैं, दंगे बंद हो जाते हैं। ..हमें लगता है कि हम निरीह जनता हाय भरने के सिवा कुछ नहीं कर पाते। लेकिन जब हम सत्ता बदल देने तक की ठान लेते हैं और उसे बदल देते हैं तो यह तो बाएं हाथ का खेल है। सवाल अपनी मानसिकता को बदलने और तदनुसार व्यवहार करने का है।
12 सिमोन द बोउवार कहती हैं कि स्त्रियां प्रायः सोचती हैं कि एक स्त्री के लिए इतना ही बहुत है। वे और आगे जाने की कोशिश नहीं करतीं। अपने क्षेत्र में बेमिसाल होने की कोशिश वे एक अपराध बोध समझती हैं। कैरियर कभी भी एक ठोस अस्तित्ववाली चीज नहीं होता। हमेशा यह दुविधा होती है कि क्या मैं कैरियर अपनाऊँ या मैं घर में रहकर परिवार की देखभाल करूं? उन्हें कोई कैरियर अपनाना भी होता है, तो उसके लिए तैयारी करनी होती है। अपने आप को पूरी मेहनत और मेहनत से उसमे लगाना होता है। अपने अपने तौर पर कैसा महसूस किया है?
यह हमारे समाज की सोच है और आज भी यही स्थिति है। आप देखिये, ऊँचे पदों पर कितनी महिलाएं हैं? पुरुष एक साथ दो तीन काम करना चाहे तो कर लेगा। वह घर में मेहमान को बिठाकर अपने काम पर निकल भी जाएगा। औरतों पर ये सारी जिम्मेदारियां डाल दी जाती हैं। वह ये सब ना करे तो गिल्ट उनमे ऐसा डाला जाता है कि वे इस गिल्ट में मरने लगती हैं। आज भी उन्हें दुहरी तिहरी मेहनत करनी पड़ती है अपने आपको साबित करने के लिए। काम करनेवाली लड़कियां शादी या बच्चे के बाद काम छोड़ देती हैं। यह उनकी मजबूरी है। मैं किसी भी काम के लिए घर और समाज का समर्थन बहुत अहम् मानती हूँ। अभी भी हमारे आसपास ऐसे क्रेशेज नहीं हैं, जहाँ माताएं अपने बच्चों को डाल सकें। अभी भी ऐसी मानसिकता नहीं बन पाई है कि घर के काम को पति-पत्नी के बीच शेयर कर लिया जाए। स्त्री को आजादी के नाम पर काम करने को कहा तो जाता है, लेकिन साथ में यह भी कह दिया जाता है कि घर-परिवार की जिम्मेदारी तुम्हारी है। जो करना चाहो, करो, लेकिन मेरे रूटीन में कोई बाधा न आए।
यह तो एक पक्ष हुआ। दूसरा पक्ष खुद महिलाओं के लिए है। वे खुद भी कई बार आरामदेह हालत में रहना पसंद करती हैं। कैरियर को लेकर वे बहुत अग्रेसिव नहीं होती। वे यह नहीं सोचतीं कि यह मेरा जीवन है और इसे मुझे ही बनाना है। मेरी एक रिश्तेदार हैं। दिन रात पति से प्रताड़ित होती हैं। लेकिन घर पर बनी हुई हैं, सिर्फ इसलिए कि बाहर निकलने में उन्हें भयंकर संघर्ष करना पडेगा। जो मर्द स्त्री को अपनी कमाई की धौंस देता रहे, मेरे ख्याल से उस घर में किसी स्त्री का रहना बहुत सअरे समझौतों को सामने ला पटकता है। ...मेरी एक दोस्त हैं। स्त्री विमर्श पर बढ़ चढ़कर बोलती हैं और घर में पति से गालियां सुनती और मार खाती हैं।....कई जगहों पर महिलाएं अपने औरतपन को भी भुनाने में पीछे नहीं रहतीं। इससे यह सिंग्नल जाता है कि वे सभी के लिए सहज उपलब्ध हैं। दहेज़ और रेप के नाम पर कई ने बेकसूरों को फंसाया है। हम स्त्रीवादी नारों में इन हकीकतों को भूल जाते हैं। इनपर ध्यान देना बहुत जरुरी है। औरतें अपने जीवन की बेहतरी के लिए खुद भी नहीं सोचतीं।मुझे पता है कि काम से लौटकर उन्हें घर के काम निपटने होते हैं। लेकिन महीने में एक दिन तो वे शाम में अपनी पसंद के काम के लिए कहीं किसी कार्यक्रम में जा सकती हैं। आखिरकार वे घर परिवार के साथ तो जाती ही हैं। एक दिन तो घर को कह सकती हैं कि आज मैं खाना नहीं बनाऊँगी या आज बाहर से मांगा लेते हैं या आज ब्रेड बटर खा लेते हैं। मुझे पता है, ऐसे में घर में हंगामा मचेगा, लेकिन मचने दीजिये ना। अंतत: घर को समझना ही पडेगा कि आपका भी अपना एक जीवन है और आपको भी अपना एक स्पेस चाहिए।
मेरा हमेशा अपनी मेहनत पर विश्वास रहा है । तैयारी जब हमें खाना बनाने और बर्तन कपडे धोने तक की करनी होती है, तो कैरियर की तैयारी से कैसे बचा जा सकता है। मैंने जो भी काम किया है, लेखन, नौकरी, थिएटर, गायन- पूरी मेहनत से किया है और आजतक कर रही हूँ। मैं सभी से कहती हूँ कि सफलता का कोई शार्ट कट नहीं होता और मेहनत से भागकर सफलता नहीं पाई जा सकती। मैं पूजा पाठ तो नहीं करती, लेकिन मेरे लिए मेरे सभी काम मेरी पूजा हैं।
13 आपका फ़िल्म मेकिंग से सम्बन्ध रहा है। लेस्ली उडविन की एक घंटे की फ़िल्म 'इंडियाज डॉटर' पर हंगामा क्यों? आज वित्त मंत्री तक कह रहे हैं कि मामूली सी बलात्कार की घटना का प्रचार अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन उद्योग को अरबों डॉलर का नुकसान पहुंचा देता है। आपकी प्रतिक्रया?
फ़िल्म बहुत घटिया तरीके से बनाई गई है। तथाकथित स्त्रीवादियों को यह अच्छा लग सकता है। फ़िल्म बनाना इसका उद्देशय नहीं है। घटना को चटपटा बनाकर दिखाना इसका उद्देश्य है।
जहाँ तक रेप का सवाल है, इसे रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर की श्रेणी में रखा जाना आवश्यक है। मेरा मानना है कि ह्त्या गैर इरादतन और अनजाने में हो सकती है। लेकिन रेप और डकैती सोच समझकर ही की जाती है। रेप कभी भी गैर इरादतन नहीं हो सकता। रेप स्त्री को तन से बढ़कर मन से तोड़ता है। पुरुष समाज से विश्वास की ह्त्या करता है। इसलिए, इसे कभी भी हल्केपन से नहीं लिया जाना चाहिए। रेप के आरोपियों को रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर के अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और उन्हें इतनी कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए कि लोग रेप से पहले दस बार सोचें- अपनी जान की सलामती को लेकर।
जो देश के पर्यटन और देश की छवि को धूमिल होने की बात कह रहे हैं या रेप करनेवालों को उम्र की गलती मानकर उसे यूँ ही हवा में उड़ा देने की बात कह रहे हैं, वे असल में इंसान हैं ही नहीं। मैं यह भी नहीं कह सकती कि उनके घर में किसी का रेप हुआ होता तो वे उस दर्द को समझते। क्योंकि ऐसी बात सोचना भी किसी स्त्री के प्रति हमें गुनाहगार बनाता है। खबरों पर शर्म करना हमे आना चाहिए और उस पर रोकथाम के लिए तुरतं कार्रवाई अनिवार्य है ताकि हमारे देश के सिस्टम और कानून व्यबस्था पर सारे विश्व को इत्मीनान हो सके।
हमें यह भी देखना होगा कि रेप क्यों हो रहे हैं? समाजशास्त्री इसे बेहतर तरीके से समझ और समझा सकते हैं। इसके पीछे हमारी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था और बेटे बेटी के भेद को समझना बहुत ज़रूरी है। माँ बाप और समाज जबतक बेटे को बेटी से ऊपर समझते रहेंगे, उन्हें अपने को मर्द बच्चा बताकर अभिव्यक्ति से रोकते रहेंगे, उनमें हिंसागत भावना तेजतर होती जाएगी। इसे समझने की बेहद ज़रूरत है।
14 वर्जीनिया वुल्फ के "रूम ऑफ़ वन्स ओन" में सत्रहवीं शताब्दी की लेखिका डचेज पत्थरमार शब्दों में कहती हैं- "औरतें चमगादड़ों, उल्लुओं की तरह ज़िंदा रहती हैं, पशुओं की तरह कहती हैं और केंचुओं की तरह मरती हैं।" क्या ऐसी स्थिति से नारी शक्ति का उदय हुआ?
नारी शक्ति प्रकृति की देन है। प्रकृति ने स्त्री को मानसिक रूप से अधिक मजबूत बनाकर भेजा है। लेकिन, कालांतर में उसे दबाते हुए, उसकी सत्ता को छीनकर अपना आधिपत्य जमाते हुए उसे कमजोर कर दिया गया। बार बार उनके भीतर यह भावना भर दी गई कि वह हर तरह से कमजोर और आश्रित है। पहले किसी को कमजोर करो। फिर उसके हालात सुधारने के किए सभा सेमीनार करो। यह बेहद हास्यास्पद है। औरतों को अपनी शक्ति का अहसास खुद करना होगा। केंचुए या चमगादड़ की स्थिति से वे तभी बाहर निकल सकेंगी। जब औरतें कहती हैं कि हम तो मर्दों की खिदमत के लिए ही पैदा हुई हैं तो मुझे औरतों पर नहीं, उस घर और उसके आसपास रहनेवाले मर्दों और समाज की घटिया सोच पर दया आती है। क्यों उस घर के मर्द यह सुनकर गर्व से सीना चौड़ा करते हैं? क्यों वे यह नहीं समझते और उन्हें समझाते कि हम तुम एक स्वस्थ इंसान, परिवार और समाज बनाने के लिए हैं न कि मालिक और नौकर बनने और बनाने के लिए।
15 क्या आप साधारण मनुषय और लेखक में फ़र्क़ समझती हैं?
लेखक भी साधारण मनुष्य ही है। उसके भीतर लिखने की कूवत है। इसलिए, साधारण मनुष्य जो सोचता है, लेखक उन्हें शब्द दे देता है। लेकिन लेखक इसे अपना अहम् मानकर इतराए ना। साधारण मनुष्य ही उसे लेखन का खाद, बीज, माटी सबकुछ देता है। लेखक इसका आभार अवश्य माने।
16 किस बड़े रचनाकार, समाजशास्त्री, या दार्शनिक ने आपको प्रभावित किया और क्यों?
मुझे सबसे अधिक प्रभावित मेरी माँ ने किया। वही मेरे लिए रचनाकार, समाजशास्त्री और दार्शनिक रही हैं। उसके बाद मैं जिस समाज के बीच पली, बढ़ी, उन्होंने मुझे सोच के सारे तत्व दिए। मेरी बेटियों ने भी मुझे बहुत प्रभावित किया और कर रही हैं। फिर भी अगर आप नाम ही जानना कहेंगे तो सबसे पहले मुझे भारतीय मिथक ने प्रभावित किया है। मैं दंग हूँ कि हमारा समाज तब कितना प्रगतिशील था और आज उसी को आधार मनाकर हम कितने संकुचित होते जा रहे हैं और कोढ़ में खाज की तरह उसे भारतीय संस्कृति से जोड़ भी दे रहे हैं। मुझे मंटो, फैज़, कबीर, मार्क्स, भगत सिंह, मंडन मिश्र की पत्नी भारती मिश्र, डॉ कलाम, गांधी जी, डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बहुत प्रभावित किया है। आजादी के आंदोलन में जाने से पहले डॉ राजेन्द्र प्रसाद अपनी पत्नी से पत्र लिखकर पूछते हैं कि तुम क्या कहती हो इस बारे में? साहित्य में मुझे सबसे अधिक फणीश्वरनाथ रेणु ने प्रभावित किया। मैं राजेन्द्र यादव से भी बहुत प्रभावित रही हूँ। नासिरा शर्मा, संजीव, मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। अर्चना वर्मा और रोहिणी अग्रवाल के समीक्षात्मक विचार बहुत प्रभावित करते हैं। प्रेम भारद्वाज का संपादकीय बहुत अच्छा लगता है। नाटकों में संजय उपाध्याय, वामन केंद्रे, डॉ देवेन्द्र राज अंकुर बहुत कुछ सीखने को देते हैं। ये सब तो महज चंद नाम हैं। नामों की श्रृंखला बहुत लंबी होती जाएगी। मुझे किसी से भी सीखने में कोई उज्र नहीं, क्योंकि अपने भीतर के विद्यार्थिपन को मैंने जिलाकर रखा हुआ है।
17 कभी उपन्यास लिखने का नहीं सोचा?
हाय रे। आपने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया। चार उपन्यास के प्लाट दिमाग में सड़ रहे हैं। समझ ही नहीं पा रही कि नाटक जैसा कठिन लेखन मैं कर ले रही हूँ और उपन्यास पर हाथ क्यों नहीं उठ रहा? लेकिन, न तो हारी हूँ और ना अभी चुकी हूँ। इसलिए उपन्यास भी आएगा। जिद्दी हूँ, सनकी हूँ। बस, इस ज़िद और सनक के उपन्यास तक पहुँचने की देर है।
18 बाजार और रचना के द्वंद्वात्मक सम्बन्ध को कैसे समझें?
मेरा मानना है कि जो रचेगा, वही बचेगा। और जो बढ़िया रचेगा, वह कालान्तर तक बचेगा। रचना के बीच बाज़ार इस रूप में आ गया है कि आपकी मार्केटिंग आपके बारे में बढ़िया लिखवाती और कहवाती है। इसका असर इस रूप में आया है कि लेखन की भी मार्केटिंग सी होने लगी है। एक आपाधापी मची है। हर कोई लेखन को मैनेज करने की दिशा में भाग रहा है। ऐसे ऐसे रचनाकार पुरस्कृत और सम्मानित हो रहे हैं कि हैरानी होती है।
बाजार और रचना एक दूसरे के पूरक हैं। बाजार हर समय हमारे साथ रहा है। बाजार का दवाब रचनाकार पर लिखने का दवाब बनाता है। तय हमें करना है कि हम बाजार के कितने गिरफ्त में आते हैं। ...बाजार हर समय खुद को बदलता है।बाजार की नब्ज़ को पहचानकर खुद को उस हिसाब से बदलने में आप लोगों तक सहजता से पहुंच पाते हैं। आज पॉपुलर कल्चर का दौर है। ऐसे में हम किस तरह से अपने पाठकों या दर्शकों तक पहुँच सकते हैं, यह हमें तय करना ही होगा।
19 स्त्री विमर्श की कर्तमान दशा?
स्त्री विमर्श केवल लेखन से ही नहीं होता। वह आपकी विचारधारा से जुड़कर आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है, तब स्त्री विमर्श पर व्यवहारिक रूप में बात की जा सकती है। केवल लेखन में जोर शोर से लिख देना या सोशल साइट्स पर नारे लगा देने से कोई भी विमर्श सार्थक स्वरूप नहीं ले पाता। हमें देखना होगा कि यदि हम स्त्री पर विमर्श करते हैं तो एक स्त्री के लिए हम क्या कर रहे हैं? क्या हमारी कथनी और करनी एक सी है? अगर है तो ऐसे विमर्श की कोई ज़रूरत ही नहीं रह जाती।
स्त्री विमर्श को आज एक फैशन बना दिया गया है। लोग स्त्रीवादी लेखन पर अश्लीलता का आरोप लगा रहे हैं। यह आरोप दुर्भाग्य से महिला लेखकों पर लगाया जाता रहा है। बोल्ड लेखन पुरुषों द्वारा हो तो उसे यथार्थपरक मान लिया जाता है। अरसा पहले एक कहानी पढ़ी थी कि एक माँ अपनी दो तीन महीने की बच्ची को अपने पति के पास छोड़कर बाजार जाती है और बच्ची का बाप उसकी नैप्पी बदलने से हिचकिचा रहा है कि इससे उस बच्ची का अंग उसे दिख जाएगा और वह यह कैसे झेल पाएगा। इसे लोगों ने बेहद यथार्थपरक बताया। मेरा तो मन लिजलिजा गया। मैं सोचने लगी कि चंद घंटे में अगर एक बाप अपनी नवजात के लिए ऐसा सोच रहा है तो एक माँ तो जाने कितने सालों तक अपने बेटे का सबकुछ करती है। तो क्या एक औरत के मन में यह बात आ सकती है कि वह अपने बेटे को कैसे नहलाए-धुलाए, सू सू पॉटी कराए, क्योंकि ऐसा करने से तो उसे उसके अंग दिखते रहेंगे। आप क्या लिखते हैं और कैसे लिखते हैं, यह देखना और उस पर सोचना बेहद ज़रूरी है।
20 जो कुछ लिखा-पढ़ा, उससे संतुष्ट हैं?
बिलकुल नहीं। संतुष्टि मेरे जीवन में कभी रही नहीं। यही मेरी जिजीविषा है। मैंने तो कुछ भी पढ़ा लिखा नहीं है। लाइब्रेरी तो छोड़िये, अपने घर पर जितनी किताबें और पत्र पत्रिकाएं आती हैं, उन्हें भी नहीं पढ़ पाती हूँ। कब मन भर पढ़ लिख पाऊँगी, पता नहीं।