छम्मक्छल्लो बहुत दिन बाद मुखातिब हो रही है अपने ही ब्लॉग से। कोशिश रहेगी नियमित आपके सामने आने की।
इरावती और शब्दांकन मे छपी कहानी फिर से आपके लिए है। पढिए- "रंडागिरी।" और हाँ, अच्छी लगे तो एक कमेंट ज़रूर मार दीजिएगा। http://www.shabdankan.com/2014/02/Hindi-Kahani-Randagiri-by-Vibha-Rani.html
रंडागिरी
चौंक गए शीर्षक से? होता
है। पहली बार में। ऐसा ही। प्रेम में बलात्कार, बलात्कार में प्रेम की तरह। बलात्कार में
प्रेम संभव है कि नहीं, पता नहीं, मगर प्रेम में बलात्कार पानी में ऑक्सीजन और हाइड्रोजन की तरह सीधा-सादा, मासूम सच है।
शीर्षक का खुलासा? बस जी, ताल में लय, लय में ताल। सुना तो होगा आप सबने- गुंडागिरी, लोफरगिरी,
गांधीगिरी, रंडीगिरी। इसी का एक्सटेंशन- रंडागिरी।
रंडागिरी की कोई खास
दुकान या पहचान नहीं है। रंडीगिरी की तरह ही यह हर तबके से आता है। शब्द ताकतवर है, क्योंकि इनके
नियंता बड़े ताकतवर हैं। इन नियंताओं की एक ही जात है– रंडागिरी। अब इसमें चाहे
आला पत्रिका के शीर्ष सम्पादक मदनलाल जी हों, जिनका एक फोन किसी भी नेता,
अभिनेता, उद्योगी की कमर ढीली कर दे या फिल्म बनानेवाले खुराना साहब, जिनकी
फिल्म में रोल पाने के लिए लड़के-लड़कियां कमर तक दोहरे-तिहरे होते जाते हैं, या संगीतकार विमल
मोहन जी, जिनके निर्देशन में गा लेना हर नवोदित के लिए सूरज पा लेने
जैसा है या नाटककार सुनील
सिद्धांत जी, जिनके नाटकीय तत्व थिएटर और एक्टर में जान
डाल देते हैं। इन सबकी कलम की नोंक या उनके सितार, तबले, बांसुरी की थाप एक जैसी पड़ती है–बजाने के तरीके भले अलग-अलग हों। वैसे ही, जैसे खाना हर कोई मुंह से ही
खाता है! सो, वे सब कहते हैं– ‘मछली है तो फंसेगी ही।‘ मछली कहती है– ‘जाल है तो हम फंसेंगी ही।‘ सच कौन? मछली कि जाल कि
दोनों? कौन फंसता है, कौन फंसाता है, कौन बचता है, कौन मारता है? निज मन की कथा,
निज मन की प्रथा, निज मन की व्यथा।
इसी कथा-प्रथा और व्यथा के जाल में
फंसने से बची डिम्पल उनियाल है। न फंसने से उपजी त्रासदी को झेलती फिल्मी दुनिया के रोज उगते –डूबते सूरज को देखती-झेलती रेखा सान्याल है। देह को
तबला बनाकर उस पर थाप डलवाने से इंकार करती गायिका
कामिनी तिर्के है। विभिन्न संस्थाओं और उनकी योजनाओं-परियोजनाओं में काम करती मोहिनी अटवाल है और
फिल्म के बाद टीवी के दरवाजे पर किस्मत का माथा बार बार ठोकती पीटती कनक जावाल है।
डिम्पल उनियाल दलदलाती देह से खिल-खिल खिलखिलाती है– ‘मेरी देह देखी है? साले
सम्पादक और प्रकाशक इसके तले दब-पिसकर रह जाएंगे।‘ लेखन और पत्रकारिता के
शीर्ष पर पहुंची डिम्पल उनियाल पॉलिटिकल साइंसवाले डीएसपी बाप के घर में हिंदी
साहित्य से एम.ए. करने की न केवल ठान बैठी, बल्कि कोढ़ में खाज की तरह बाउजी के आगे गा भी आई– ‘पत्रकार बनेंगे! अपने बल पर!’
डीएसपी साहब की इतनी बड़ी साख तो थी ही शहर में कि जिस स्कूल-कॉलेज को बोलते, वह डिम्पल उनियाल को अपने यहां
रखकर अपने भाग्य को सराहता। मगर डिम्पल उनियाल ने अपने पिता की इस ताकत को सिरे से नकार दिया और अकेले दम पर पत्रकारिता की
दुंदुभि बजाने बैठ गईं।
लीजिए जी! अब दरभंगा-मधुबनी जैसी जगह
कोई जगह है और वहां से निकलनेवाले अखबार कोई अखबार कि उसमें काम किए होने की ठसक लेकर दिल्ली आ
जाए कोई – दिल को भूलकर दिमाग की खाने? वह भी बाप के रसूख या किसी और के सहारे के बिना?
आठवाँ आश्चर्य नहीं, सबसे बड़ा आश्चर्य। पर यह हुआ। भले इसके लिए डिम्पल उनियाल को अपने जीवन के कई साल होम
करने पड़े।
पत्रकारिता
के शीर्ष पर बैठी डिम्पल उनियाल को अपने सम्पादक
मदनलाल जी, प्रकाशक राकेश मेहरा समेत सभी खाई में पड़ी सूखी पत्ती सी
दिखते। दरभंगा से निकल डिम्पल उनियाल दिल्ली की दारू
भी देख आई, कपड़े और रेड -ब्ल्यू लाइन बसें भी और घर से दिल्ली तक के रेल के डब्बे सी लंबी
सिगरेट और सिगार भी। कभी सिगरेट और शराब से तथाकथित धार्मिक
लोगों की तरह परहेज करनेवाली डिम्पल उनियाल के घर में
अब अत्याधुनिक बार था, जिसमें ब्लैक एंड माथे, जॉनी वॉकर,
ग्रैंड पियरे और बुशमिल्स ट्रिपल डिस्टिल्ड आइरिश व्हिस्की से लेकर सुला वाइन, काजू फेनी और मार्लबोरो,
डनहिल से लेकर कैमेल तक सभी ब्रांड की सिगरेट। मदनलाल जी को वह अदब से गिलास और ऐश
ट्रे पकड़ाती है। राकेश मेहरा के सामने वह मटर के दाने की तरह खुल जाती है– ‘लो जी मेहरा जी! ये रहा बार और ये रही
बोतलें... सिंगल माल्ट भी है और टीचर-सिग्नेचर भी।‘ डिम्पल को पता है– ग्रैंडपियरे भी दे दो तो
भी बाद में कहेगा– ‘बिना ओल्ड मोंक के तसल्ली नहीं होती जी!’ सो वह ओल्ड मोंक यानी वृद्ध तपस्वी भी
लाकर रख देती है- ‘लो जी! जलाओ कलेजा और तड़पाओ आंत!’
वृद्ध तपस्वी ही भीतर
जाकर अपनी कमर का नाड़ा-फेंटा खोलने लगते हैं। उस नाड़ा-फेंटे के बंधन से मुक्त-उन्मुक्त हो राकेश मेहरा खुलते चले जाते हैं- ‘वो जी! मैं आपको बताऊं डिम्पल जी! वो हर्षराज
जी! अंग-प्रत्यंग ना जी, वो कब का शिथिल हो चुका है। पर अभी भी हर नई को चिपकाए
रखते हैं जी!... देखा था न उस दिन विमोचन समारोह में? ...ओ, अच्छा जी! आप नहीं
थे... कोई नहीं जी! ये लेडीज भी न! जी... कमाल करती हैं वो भी। अब नाम जानकर क्या
करोगे जी?... चलो बताए ही देता हूं... वो... वो रति कामना... जी! क्या नाम भी
रखा है चुनकर... सुनकर ही मुंह में पानी आ जाए...! खैर जी! अपन तो ठहरे सीधे-सच्चे लोग!’
भर देह हंसती डिम्पल उनियाल ग्लास भरकर राकेश जी के
सामने रख देती है। राकेश जी मुंह भरकर तारीफ करते हैं– ‘ओ जी डिम्पल जी! आपकी तो बात
ही जुदा है डिम्पल जी! पर वो जो है ना – रति कामना जी! पता है, बड़े
अजीब- अजीब से प्रोपोजल रख रही थी...’
‘सोने का ही रखा होगा ना!
किताब छपानी है आपके यहां से उसे! जानती हूं मैं उसे! मेरी भी दोस्त रही है वह कुछ दिनों तक...
मेरी सभी सहेलियों से दो-दो, चार-चार हजार के कर्जे ले रखे हैं और सभी मर्द दोस्तों के घर
पाई जाती रही है... तो आपसे भी....! आगे
तो बताओ कि ऐसे ही ये जी ओ जी करते रहोगे आप!”
टीचर अपना सिग्नेचर छोड़
रहा था– ‘ओ डिम्पल जी! मेरे को ना, वो सपोर्ट्सवाली दुकान में ले गई।
बोली– ‘हैं जी राकेश जी! मुझे ना, एक स्वीमिंग कॉस्टूम खरीदनी है। आप पसंद कर दो न मेरे लिए, प्लीज! और जी ना... वो
जी... ना... जी... वो जो फॉरेनवाली लेडीज पहनती है ना... एकदम से टू पीस जी- एकदम से छोटे छोटे कि बस केवल वही-वही ही छुपे और कुछ नहीं। ...वो खरीदा... फिर बोली –‘आप देखेंगे, मैं इसमें कैसी दिखती
हूं?... अब बताओ जी! मैं की करदां? मैं तो पसीने -पसीने हो गया।‘
‘कुछ नहीं जी! आप तो बस जी ये टॉंग चबाओ और पसीना दूर भगाओ! तंदूर से सीधा जल-भुनकर आई है यह मुर्गी
बिचारी, कन्या
कुमारी...!’
किसी की टांग की कैंची
नहीं बनी डिम्पल उनियाल... दिल का जोर था कि दिमाग का कि देह की ताकत का- ’एक नार अनूपम दीख पड़ी...’ का
सवैया-कवित्त! डिम्पल उनियाल कहती है –‘ये मर्द! जानबूझकर चाहते
हैं कि लड़कियां सौ ग्राम की रहें, ताकि एक ही कौर में गटाक्क!
दिल्ली होगी
दिलवालों की! डिम्पल उनियाल के लिए तो दिल्ली दिल दहलानेवाली थी। दोपहर की चाय
पर मार्क्स के मान का मर्दन करते, लेनिन को लात मारते और समाजवाद को सलियाते, माँ
बहन की मरदमारी करते मदनलाल जी अपने चूड़ीदार की सीवन उधेड़ने में लगे थे। लोकेन्द्र जी आ
गए– नए, खुर्राट
अफसर, नई पत्रिका के संपादक! दफ्तर और घरवाली से बची
खुर्राटी कहानियों और सेमिनारों में उतरती। मदनलाल जी चहके –‘भाई! कैसा रहा तुम्हारा
कथा सेमिनार? सुना, भारी संख्या में तितलियां, गेंदे, गुलाब, बेली-चमेली जुटी
थीं– कितनों को
सूंघा? कितनों को मसला?’
‘आप भी मदनलाल जी ...’ लोकेन्द्र जी नई
बहुरिया बन गए।
‘साले! यथार्थ पर लिखते हो तो यथार्थ का साक्षात्कार किया कि नहीं? अरे, बिना
भोगा यथार्थ कोई यथार्थ होता है? यथार्थ पर लिखने के लिए उसका भोग जरूरी है...
बोल, बोल! कितनों को भोगा?’
‘मदनलाल जी! आपको यदि...’
‘तो क्या तू समझता है कि
बिना भोग की माटी-पानी के, मैं यथार्थ की मूली उगाता रहूंगा? अरे, रात दस बजे के
बाद मुझे औरतों की केवल चड्ढियाँ नजर आती है...!’
डिम्पल उनियाल का माथा फटता- ‘उफ़्फ़! औरत! एक तिकोनी भर! औरत! बस
एक चड्ढी भर!’
रेखा
सान्याल तमतमाती– “ये सारे मर्द!”
डिम्पल उनियाल हंसती। पांच साल
पुरानी उसकी दिल्ली, तीन साल पुराना रेखा सान्याल का कोलकाता। शहर बदलने
से लोग भले बदल जाएं, फितरत नहीं बदलती...।’
‘पता है डिम्पल, मेरा बॉस मेरे
से ट्रीट चाहता है। कहता है –‘तुम नीचे से दोगी तो मैं ऊपर से दूंगा – प्रमोशन, पोस्ट,
पैसा...’ मोहिनी अटवाल अटक-अटक कर बोली।
कनक छड़ी सी कामिनी कनक जावाल कुलबुलाती है –‘इनके घरों में मां-बहनें
नहीं होतीं?’
डिम्पल उनियाल लोट-पोट होती है –‘ये इतना सड़ा- गला जोक लेकर तू क्यों
आती है कनक?’
‘इसलिए कि हमारी फिल्लम
लाइन ही सड़ेली-गलेली है। कहते हैं कि मीना कुमारी को एक फिल्लम के एक सीन में
डिरेक्टर ने 37 रीटेक कराए...’
‘रोमांटिक सीन था? मीना कुमारी का? हा...हा...हा!’
‘कड़क झापड़ लगाने का सीन था।’
‘हीरो नाराज था मीना
कुमारी से?’
‘नहीं! डेरेक्टर।’
‘क्यों?’
‘क्योंकि मीना कुमारी उसका जांघ का नीचू आने से मना
करेली थी।’
‘कास्टिंग काउच! हा हा हा!’
‘सोओ या खोओ।’
‘गारंटी कि सोकर सब पा
लोगी?’
‘नहीं। पर आस की टिमटिम
बाती!’
‘आदमियों की जीभ इतनी पतली
क्यों होती है? लपलपाती- कुत्ते जैसी।’
‘सभी की नहीं।’
‘अधिकतर की तो।’
राकेश मेहरा की गोष्ठी
जमी है। सुनील सिद्धान्त जी की जम रही है- ‘अपने को क्या करना? फूल
जब खुद ही खिल-खुलकर झड़ने को तैयार हो?’
‘देखिए जी! कुछ पाने के
लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है।’
मदनलाल
जी भुनभुनाते हैं
-‘औरतें! लिखने का जोंक
क्यों घुसता है उनके भीतर? लिखेंगी भी क्या? महरियों की कहानी!’
‘खुद भी तो वही होती हैं– घर की अनपेड महरी। सो
एक-दूजे का दर्द अच्छे से ...!’ लोकेन्द्र जी ने हाँ के पकौड़े मदनलाल जी
की ओर बढ़ाए। मदनलाल जी और खुराना जी को याद भी नहीं– कितनी महरियां अबतक मठरियां और शक्करपारे बनकर उनकी थलथलाती मोटी तोंद के भीतर चली गईं हैं।
‘अरे डिम्पल जी!’ राकेश मेहरा जी उछले -‘वो एक नई लड़की आई है
मार्केट में!’
‘सेब जैसी? नारंगी जैसी?? लड़की और मार्केट!’
‘खूब लिख रही है। मदनलाल जी ने खूब आगे
बढ़ाया है।’
‘मदनलाल जी ऐसे नहीं हैं।
यार! सभी को मत घसीटो।
‘आप कब से मदनलाल जी की तरफदारी करने लगीं? समीक्षा
लिखानी है उनसे?”
“लो, रेशमी कबाब खाओ!’ बात बदलने में डिम्पल उनियाल उस्ताद हो गई है।
‘वो लड़की भी इतनी ही
रेशमी है। मुंह में डालो– मिश्री सी घुल जाती है।’
‘आपके हाथ नहीं आएगी– निरंजन जी के खेमे की
है।’
‘हे हे हे डिम्पल जी! मैं किसी
लेडीज-वेडीज के चक्कर में कहां पड़ता हूं?’
‘तो सभी से राखी बंधवाते
हो या सभी से दूध पीते हो?’
‘वो जी... दूध तो पहला कदम
है आगे बढ़ने का!’
‘सुधरोगे नहीं राकेश जी!’
‘आप तो आग हैं डिम्पल जी!’
‘पास आना भी मत। भसम हो
जाओगे।’
छुपा जाती है डिम्पल अपना दर्द- अपने लट्ठमार अंदाज के बल पर। अभिनेत्री फरहा की तरह। कहते
हैं कि वह सेट पर सभी से माँ-बहन की गालियों के साथ ही बात करती थी। पूछने पर
बताया था कि ये मर्द जात ना, बड़े कुत्ते होते हैं।
बुलाओ तो सीधा चाटने ही लगते हैं। छूट दो तो हड्डी तक भी चबा जाएँ और डकार भी ना
लें। इनसे बचने का एक ही रास्ता है- खुद कटखन्नी बनी रहो।‘
काजल की कोठरी दर कोठरी... जिस अखबार गई, जिस फील्ड को ज्वायन
किया– एक ना एक तथाकथित गॉडफादर बनाने की ख़्वाहिश से जकड़ा-
अकडा, जो न फादर बनता था न गॉड– केवल...! डिम्पल उनियाल हंसती है
– मन ही मन गॉड के चांद पर एक बिंदी
डाल देती है।
चैनल्स! मीडिया!! अखबार! पत्रिका! फिल्म! टीवी! नाटक! कॉर्पोरेट हाउसेस! फ्रंट पर
सभी को सुन्दर लड़की चाहिए – फर्राटेदार अंग्रेजी, भड़कदार मेक-अप और पैबन्द की तरह के
कपड़े! एकदम टकाटक – नो बहन जी टाइप प्लीज! भारी बदन पर भर बांह का कुर्ता और जीन्स
पर झोला लिए घूमती डिम्पल उनियाल की हलक अंग्रेजी
के नाम से सूखने लगती, जिसे वह खिलंदड़ाना अंदाज़ में उड़ा देती, सिगरेट के छल्ले के साथ। कंधे उचकाती बड़ी बेफिक्र सी लापरवाही के साथ
कहती- ‘मुझे क्या? मुझे
उनके जैसा काउंटर- गर्ल थोड़े ना बनना है। लिखना है बस!’
लिखने का जुनून छाया हुआ है डिम्पल उनियाल पर। कुछ
भी वह लिख सकती है- फिल्म, सीरियल, कहानी, रिसर्च! भीख मांगते बच्चों पर कि
पिक-अप गर्ल्स पर! खदान में मरते मजूरों पर कि पुलिस दमन में मरते अपने ही पुलिसकर्मियों पर! घरेलू हिंसा की सताई औरतों पर कि विपाशा, मल्लिका, विद्या, कंगना पर।
राकेश मेहरा तमतमाया हुआ
था- ‘वो मदनलाल जी! हमें कुत्ता कहता है और रति कामना जी को छिनाल! आप सभी औरतों को भी! आप तो उनकी
छाया से भी दूर रहो डिम्पल जी!’
कौन किसकी छाया से कितना
दूर भागे और क्यों? औरतें जब चड्ढी बन जाएं, औरतें जब मात्र तिकोना पैच बन जाए,
औरतें जब मात्र गेंदा, सेब और संतरा बन जाए!
दादी कहती –‘अरे इन्सान की देह में
एक बित्ते का पेट और गोदाम का गोदाम खाली!’
नानी कहती –‘मेहरारू! बच के! सूरत हो चाहे नहीं। ऊ तिनकोनमा
है ना! तीन कोना से चार कोना कर देंगे लोग और चले जाएंगे।’
मदनलाल
जी ठठाते हैं –‘ये औरतें! लिखेंगी मर्दों
के खिलाफ और छपाने आएंगी हम मर्दों के पास! यही है आज का स्त्री- विमर्श! हमी
सुझाते हैं विमर्श, हमी सजाते हैं कलेवर, हमीं करते हैं विमोचन – मर्दों के ‘पी’ मार्ग से निकला स्त्री-विमर्श
का चमचमाता रंग– रंगीला ‘वी’ शेप का झंडा!’
रेखा
सान्याल पूछती है -‘डिम्पल! कोई औरत क्यों
नहीं होती किसी अखबार या मैगजीन की एडीटर? कंपनी की मैनेजिंग डायरेक्टर? फिल्म-टीवी-म्यूजिक
की डायरेक्टर? सभी ऊंची पोस्टों पर औरतें क्यों नहीं हैं?’
कनक कहती है -‘अरे, वो सब अपुन के लिए
बोलता कि ये सब तो रंडी है- रंडी से भी नीची! रोल का लालच दो और ले
लो उसकी! रंडी को तो पैसे भी देने पड़ते हैं, इनको तो वो भी नहीं...’
‘छिनाल भी तो यही करती है।
कुछ करने, बनने की चाहत में डूबी औरत कब छिनाल बन जाती है, कब रंडी – पता नहीं चलता।’
‘कौन बनाता है हमें रंडी और छिनाल? कौन कराता है हमसे रंडीगिरी? जो चाबी घुमाता, वो बेदाग! सारे हथौड़े ताले पर– टूट, टूट, टूट...! लूट...लूट...लूट!!’ कामिनी तिर्के बड़बड़ाती है।
कनक जावाल सिंगल माल्ट में डूब
जाती है – “अपन नहीं करते रंडीगिरी...! ये साले कुत्ते कमीने कराते हैं हमसे!
औरतों के मन की, दिमाग की, जहीनियत की कोई कीमत ही नहीं! ये इससे लगा, वो
उससे सटा, ये इससे भिड़ा, वो उसपर गिरा... देह से अलग कोई दुनिया ही नहीं।“
‘है! अपने दम पर आगे बढ़ो,
जितना बढ़ सकते हो। हिमालय की चोटी पर पहुंचने का ख्वाब छोड़ दो।’
‘प्रतिभा रहने पर भी?’
‘प्रेसिडेंट बनना है ताई?’ डिम्पल उनियाल ठहाके लगाती हर फिक्र को धुएं
में उड़ाने का अभिनय करती है।
‘अपुन को तो ये अक्खा
दुनिया ही रंडा नजर आती है। अपुन रंडी, वो रंडा! अपुन अगर
रंडीगिरी करती है तो वो सब रंडागिरी करता है!’
‘रंडा! रंडागिरी!! वाह! क्या
मस्त शब्द दिया रे! एकदम ओरिजनल! झकास! फट जाएगी सभी की – रंडा मदनलाल, रंडा राकेश,
रंडा लोकेन्द्र, रंडा निरंजन, रंडा खुराना, रंडा विमल मोहन, रंडा सुनील सिद्धान्त... हा! हा!! हा!!! हा!!!!’
नए शब्द का वितान बढ़ा। नए दृश्य
का विधान बना... भाव आकार लेते गए, चित्र साकार होते
गए... दबे-कुचले दिल शब्द के रास्ते नाक, मुंह, आंख से बह निकले!
‘इस नए और अनोखे शब्द-सृजन
के लिए हो जाए एक जश्न जानी!’
‘जश्न में मत भूल मेरी
रानी कि लिख तो दी तूने बड़ी कंटीली कहानी! पर बोल मेरी मुर्गी! किसके पास है इतना पानी? किसके पास जाएगी? कहां
छपेगी? किधर हलाल होएगी?’
‘वहीं – मदन
जी, विमल जी, पंकज जी, लोकेन्द्र जी, राकेश
जी, खुराना जी, निरंजन जी! ... नाम से क्या फर्क
पड़ता है!... अंजाम पता है- हलाल! हलाली के लिए अपने पास भी रास्ते हैं। भई! मैं तो दारू-सिगरेट
नहीं पीती... मांस-मछली भी नहीं खाती! पर उनको खिलाती हूं– रेस्तरां में ले जाकर। दारू-सिगरेट
नहीं ले जाती, सो कुछ और लेकर जाऊंगी...!
हैंडीक्राफ्टस... रॉ सिल्क... अपने जैसी ही रॉ...अपने
ही जैसी सिल्क...सरसराती- फरफराती। इतना तो करना पड़ता है, वरना कौन बढ़ाएगा तेरे को आगे? हर
शाख पे तो वे ही बैठे हैं...’
‘तो तू खुद है बिछने को
तैयार?’
‘ऊंहूं! वो हैं बिछने और
बिछाने को तैयार! खालिस रंडागिरी! चल, तुझे एक डोसा खिलाऊं! साउथ इंडियन दोसा, उडुपी डोसा, चाइनीज दोसा, भेल दोसा...
घालमेल है, कॉकटेल है, रेलमपेल है... हेड टू टेल है... सर से पांव तक... आपादमस्तक!
हा...हा...हा...! ही...ही...ही..! हे...हे...हे...! हो...हो..हो! अरी ओ कनक? रेखा? मोहिनी??? कामिनी???? तुमलोगों की आंखों में
आंसू? होठों पर आंसू?? जिस्म पर आंसू??? खबरदार! बाअदब,
बामुलाहिजा! होशियार!! ...!! ...!!’###