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छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

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Thursday, December 4, 2008

काश की तुम मेरी सेवा में आ गए होते.

१९ नवबर, २००८ की शाम, एक संदेश मेरे मोबाइल पर ब्लिंक हुआ, २४ को आपकी सेवा में नहीं आ सकूंगा। यह संदेश राजीव सारस्वत का था, जिसे मैंने अपनी २४ से होनेवाली कार्यशाला में सत्र लेने के लिए बुलाया था। उसने कहा था की शायद संसदीय समिति के निरीक्षण कार्य के लिए उसे कह दिया जाए। ऎसी हालत में वह नहीं आ सकेगा। उसे संसदीय समिति के निरीक्षण कार्य के लिए ड्यूटी मिल गई थी, इसलिए उसने माफी माग ली।

२६ नवम्बर से मुंबई में आतंकवाद का जो नंगा नाच खेला गया, उसने राजीव को भी अपनी चपेट में ले लिया। होटल ताज में उसकी ड्यूटी थी। उस दिन उसे भी एक गोली लगी। दूसरे दिन यानी २७ तक उसका अपने घर व् दोस्तों के साथ संपर्क बना रहा। फ़िर वह टूट गया और ऐसा टूटा की बस टूटा ही रह गया। अन्यों की तरह वह भी इस आतंकवाद की भेंट चढ़ गया। प्रिंट व् मीडिया में तरह-तरह की खबरें छपती रहीं, पर अंत में सभी एक बात पर एकमत थे की इन सबके पीछे का सच यह है की राजीव अब हमारे बीच नहीं है।

मेरे जानिब से केवल एक राजीव नहीं गया, बल्कि सय्कारों राजीव चले गए। कोई पूछे उनके घर के लोगों से उनकी वेदना। हमारे पास न तो शब्द हैं, न आंसू। क्या कहें और कितना कहें? क्या बहायें और कितना बहायें? लोग सरकार से इन खूनों का हिसाब मांग रहे हेम? मगर कोई क्या कहे? लोग अपनी संवेदना में मोमबत्ती जलाकर प्रार्थना कर रहे हैं। काश की ईश्वर कहीं हो और वह इन सबकी प्रार्थना सुन लेता। लोगों को तो अपने -अपने परिजनों की लाशें भी इतनी क्षत -विक्षतsथिति में मिलीं की वे कह बैठें की दुश्मनों के साथ भी ऐसा न हो। राजीव का शव भी इस बुरी तरह से जला हुआ मिला की लोग उसके बदले उसके ताबूत के ही दर्शन कर सके। आतंक से बड़ा आतंक तो अब यह है की हमारी जान बचाने के लिए हमारे पास कोई नहीं है। कोई सुरक्षा नहीं, कोई चौकसी नहीं, अब आप अपनी तक़दीर के हवाले से ज़िंदा हैं तो हैं। तक़दीर के ही हवाले से जिसदिन चले जायेंगे, चले जायेंगे, बाक़ी अन्य सभी हादसों की तरह इस हादसे पर भी आंसू बहा कर, दिल को तसल्ली देकर रह जायेंगे। हम आम जन की कौन सुनेगा? राजीव से तो यही कहा जा सकता है की काश, उस दिन २४ को तुम मेरी सेवा में आ ही गए होते तो आज तुम हमारे बीच होते। हम -तुम पहले की ही तरह अपने विषय पर बात करते हुए आपस में हँसी-मज़ाक भी कर रहे होते। लेकिन अब ऐसा कुछ भी नहीं है। यह केवल मेरे साथ नहीं, बल्कि हम जैसे कईयों के साथ है, जो अपने-अपने हित-मित्र-नातों को खो चुके हैं। आज सभी के मन में यही एक सवाल है की कब हम इन सबसे निजात पायेंगे? आपके पास कोई ठोस जवाब हो तो हमें भी बताएं, वरना सभी को माकूल जवाब देने में सक्षम मैं आज यहाँ पर ख़ुद को अक्षम पा रही हूँ।

Tuesday, November 11, 2008

कोसी की बाढ़ और राहत के सामान

कोसी की बाढ़ की विभीषिका किसी से छुपी नहीं है। सभी ने अपने-अपने स्तर पर राहत और बचाव के काम किए हैं। यह होना भी चाहिए और ज़रूरी भी है। आज भी कोसी की स्थिति भयावह है और बाढ़ से जूझ रहे इलाकाइयों के लिए आज भी यह एक डरावना स्वप्न लेकर आती है। आज भी विआरापुर, बसंत पुर आदि के लोगों में अफरा-तफरी मच जाती है और लोग अपने-अपने घर (अगर अब भी उनके घर घर कहे जाने लायक हैं) भाग आते हैं, यह हल्ला सुन कर की "पानी आया, पानी आया।"
बिहार जाना हमेशा से सुखद रहा है। इस बार भी बिना किसी तय कार्यक्रम के चली गई। बिहार में हो रहे परिवर्तन को देखकर बहुत सुकून मिलता है। जमालपुर से मुंगेर जाते हुई चिकनी सड़क पर दौड़ती गाडी को दिखाते हुए कवि श्याम दिवाकर कहते हैं- "देखा है बिहार की सड़क इतनी अच्छी इससे पहले?" पटना की सरक पर रिक्शेवाले से पूछने पर वह मुस्कुराते हुए कहता है की अब बहुत अच्छा लग रहा है।" ऑटो रिक्शे पर जींस और टॉप पहने लड़कियां बिंदास आकर किसी भी पुरूष या लडके की बगल में जा बैठती हैं। होटलों, रेस्तराओं में लड़कियां अपने झुंड के साथ बैठी है, और हंस -बोल रही हैं। लग रहा था, पटना, मुम्बई एक हो गया है।

मगर नहीं। एक झटका लगता है पटना रलवे स्टेशन पर उतरत समय। उतरना बहुत मुश्किल हो रहा था। पैर बार-बार किसी चीज़ से टकरा जा रहे थे। सामने अम्बार की तरह बिकहरे हुए थे कपरे- गर्म कपरे, सूती कपडे -ढेर के ढेर। लगा की यह कोसी के राहत कार्य के लिए रखा गया होगा और फ़िर यहीं परा रह गया होगा। मेरी इस बात पर मुहर लगाई कुली ने। बोला- "राहत वाले आए थे लेकर और ले जाने के बदले यहीं छोड़ कर चले गए। मेरी नज़रों के आगे वे सभी पीडित घूम गए, जिनके और जिनके परिवार, बच्चों के पास तन ढंकने के लिए पूरे लपाड़े नहीं होंगे। जिन्होनेने एकत्र कराने का महान काम किया होगा, वे तनिक और आगे बढ़ा कर उन्हें पीडितों तक पहुंचा देते तो जाने कितनो का भला हो गया होता। लोगों ने अपने अपने घरों से कपडे निकाल कर दिए होंगे इस संटाश के साथ की ये सही लोगों तक पहुँच जायेंगे। मगर हुआ क्या? यहाँ सरकार और व्यवस्था को नहीं कहा जा सकता। निष्चुइत रूप से उन उत्साहियों के बारे में कहा जा सकता है की ऐसा क्या हो गया की लोग सामान एकत्र कर के फ़िर उन्हें न पहुचाकर उसे बेकार का सामान बनाकर छोड़ दिया। याहू पर बिहारियों का एक ग्रुप है जो कोसी पीदितोने के लिए कपडे खरीदने की बात कर रहा है। उनसे भी अपील की अगर खरीद रहे हों तो ज़रूर ऐसी व्यवस्था करें की कपडे उन तक पहुंचे, अन्यथा ऐसा ना हो की वे सब भी किसी प्लेत्फौर्म या स्टेशन या बस अड्डे पर परे मिलें।

Friday, October 31, 2008

छाम्माक्छाल्लो की एक और मैथिली कहानी- आओ तनिक प्रेम करें.

इस कहानी के आधार पर इसी नाम से एक नाटक लिखा गया हिन्दी में।

आऊ कनेक प्रेम करी माने बुझौअल जिनगीक
'हे ये..., कत' गेलहुँ? आऊ ने एम्हर।'
'की कहै छी? एम्हरे त' छलहुँ तखनी स'। कहू, की बात?'
'किछु नञि! मोन होइय' जे अहाँ अईठाँ बैसल रही।'
'धुर जाऊ! अहूँ के त' ... एह! एतेक काज सभ पसरल छै। बरखा-बुन्नीक समय छै। दिन मे अन्हार भ' जाइ छै। तइयो अहाँ कहलहुँ त' बैसि गेलहुँ आ देखियौ जे लग मे बैसल-बैसल अनेरे कएक पहर निकलि गेलै। ताबतिमे त' हम कतेको काज छिनगा नेने रहितह।ँ!'
'आहि रे बतहिया ! सदिखन काजे-काज, काजे-काज ! यै, आब के अछि, जकरा लेल एतेक काज करै छी। सभ किओ त' चलि गेल हमरा-अहाँ के छोड़ि के, जेना घर स' बाहर जाएत काल लोग घरक आगू ताला लटका दै छै। हे बूझल अछि ने ई कहबी जे सभ किओ चलि गेल आ बुढ़बा लटकि गेल। तहिना हम दुनू लटकि गेल छी अई घर मे।'
'एह! छोड़ू आब ओ गप्प सभ। आ हे, अपना धिया-पुता लेल एहेन अधलाह नञि बाजबाक चाही। आखिर हुनको आओरक अपना-अपना जिनगी छै। बेटी के त' अहां ओहुनो नञि रोकि क' राखि सकै छी। आनक अमानति जे भेलै। बाकी बचल दुनू बेटा त' बूझले अछि जे जामुन तडकुन खेबाक आब हुनकर उमिर नञि रहलन्हि। एहेन-एहेन गप्प पर त' ओ सभ भभा क' हँसि पड़तियैक।'
'नञि! से हम अधलाह कत' सोचलहुँ आ कियैक सोचब। एतेक बूड़ि हम थोड़बे छी। मुदा, जे मोनक पीड़ा अहूँक संगे नञि बाँटब त' कहू, जे हम कोम्हर जाइ।'
'कतहु नञि! अहि ठाँ बैसल रहू। हम अहाँ लेल चाय बना क' आनै छी। अहाँ जाबति चाय पियब, ताबति हम भन्सा-भात निबटा लेब।'
'ठीक छै, जाऊ! अहाँ आओर के त' चूल्हि-चौकी आ भन्सा भात स' ततेक ने फैसिनेशन अछि जे किओ किछु कहैत रहय, अहाँसभ स' ओ छूटि नञि सकैय'।
'से नञि कहू। आई कोनो लड़की कि जनीजात चूल्हि मे सन्हियाय नञि चाहै छै। मुदा ओकरा आओर के त' जन्मे स' पाठ पढ़ाओल जाइ छै जे गै बाउ, बेटी भ' क' जनमल छें त' चूल्हि स' नाता त' निभाबहि पड़तौ। कतबो पढ़ि-लिखि जेबें, हाकिम-कलक्टर भ' जेबें, मुदा भात त' उसीनही पड़तौक। आब हमरे देखि लिय'। हम की पढ़ल-लिखल नञि छी कि नौकरी मे नञि छी। माय-बाउजी भने पाइ स' कने कमजोर छलाह, मुदा मोन स' बहुत समृद्घ। तैं त' पढ़ौलन्हि-लिखौलन्हि। नौकरी लेल अप्लाई केलहुँ त' नीके संयोगे सेहो भेंटि गेल। आर नीक कही अपन तकदीर के जे अहाँ सन जीवन साथी सेहो भेटल जे डेगे-डेग हमर संग रहलाह। मुदा तइयो देखियौ जे बेसिक फर्क जे छै, से अहूँ की बिसरि सकलहुँ? आइ धरि कहियो कहलहुँ जे सपना, रह' दियऊ अहाँ भानस-भात । हम क' लेब कि घर ठीक क' लेब कि धिया-पुता के पढ़ा लेब।'
'आब लगलहुँ अहूँ रार ठान'। ताइ स' नीक त' सएह रहितियैक जे अहाँ किचन मे जा क' अपन काज करू। हँ, चाय सेहो द' दिय'।'
'से त' अहाँ कहबे कहब। बात लागल जे छनाक स'। अहिना त' अहाँ आओर हमरा आओरक अबाज के बंद करैत एलहुँए।'
'सपना, अहाँ एना जुनि सोचू। आई तीस बरख स' हम दुनू एक संगे छी। पूर्ण भरोस स', संपूर्ण आत्मसमर्पण, विश्र्वास आ सहयोग स'। हमरा बुते जे भ' सकल, कहियो छोड़लहुँ नञि। ठीक छै जे हम कहियो एक कप चायोटा नञि बनेलहुँ, मुदा आदमी आओरक सहयोग देबाक माने की खाली भन्से मे घुसनाई होई छै? अहाँ मोन पाडू, हम कहियो कोनो बात पर टोकारा देलहुँ? अहाँ जे पकाबी, जे खुआबी, जे पहिराबी, जेना अहाँ राखी। कहियो कोनो आपत्ति कएल की।'
'हमरा हँसी आबि रहलए अपन एहेन समर्पित पति पर।'
'मुदा हमरा नञि आबि रहलए। हमरा गर्व अछि अपन एहेन सहयोगी पत्नी पर जे हमर कन्हा स' कान्हा मिला क' हमरा संगे-संगे चललीह। मुदा, आई ई सभ उगटा-पुरान कियैक?'
'टाइम पास कर' लेल आ अहाँ जे कहलहुँ, अई ठाँ बैस' लेल, त' बैसि के अहाँक मुंह त' नञि निरखैत रहि सकै छी ने।'
'निरेखू ने, किओ रोकलकए अहाँ के कि टोकलकए अहाँके।'
'धुर जाऊ, अहूँ त...! आब ओ सभ संभव छै की? अरे, जहिया उमिर छल, जहिया समय छल, तहिया त' कहियो हमर मुंह निरेखबे नञि कएलहँु आ नहिए निरखही देलहुं। चाहे हम किछुओ पहिरि-ओढ़ि ली, चाहे बाहर स' हमरा कतेको प्रशंसा भेटि जाए, अहाँक मुंह स' तारीफक एकटा बोल सुन' लेल तरसि गेलहुँ। बोल त' बोल, एकटा प्रशंसात्मक नजरियो लेल सिहन्ता लागले रहि गेल। आ तहिना अहांक पहिरल ओढ.ल पर कहियो एपी्रशिएट कएलहुँ, तइयो मुंह एकदम एके रस - शून्य, भावहीन ...'
'एह! एना जुनि कहू। अहाँक सज-धज देखिक' हमरा जे प्रसन्नता होइत छल, से हम कहियो ­नञि शेयर कएलहुँ अहाँ स', से कोना कहि सकै छी। दिनभर अहाँक रूप आँखिक सोझा नचैत रहैत छल आ राति मे ओ सभटा प्रशंसा रूपाकार लेइत छल। तहिना अहांक मुंह स' अपन, प्रशंसाक बोल भरि दिन चानीक घंटी जकाँ मोन मे टुनटुन बाजत रहैत छल आ मोन के उत्फुल्ल बनौले रहै छल। मुदा, अहाँ कहियो ओहि समय कोनो सहयोगे नञि देलहुँ या कहियो संग देबो केलहुँ त' बड्ड बेमोन से'। हम कहियो पूछलहुँ जे अएं यै, एना कियैक करै छी अहाँ? अहींक मर्जी मुताबिक हम ओहूठाँ चलैत रहलहुँ।'
'हे! सरासर इल्जाम नञि लगाबी। देखियौ, हमरा लेल जेना अहाँ महत्वपूर्ण छी, तहिना अहाँक प्रत्येक बात हमरा लेल महत्वपूर्ण अछि। हम अहाँक संग नञि देलहुँ अथवा बेमोन स' देलहुँ त' कियैक ने अहाँ पूछलहुँ कहियो, अथवा हम झँपले-तोपले किछु कहबो केलहुँ त' कियैक ने तकरा पर बिचार केलहुँ, कहियो खुलिक' चर्च केलहुँ.। ... हे लिय'..., चाय लिय'... अपनो लेल बना लेलहुँ। भन्साघर स' चिकरि चिकरि क' बाज पड़ै छल। किओ सुनितियैक त' कहतियैक जे बतहिया जकाँ एकालाप क' रहल छै कि ककरो संगे झगड़ि रहल छै।'
'चाय त' बड्ड दीब बनलए।'
'एह! याहि टा गप्प पहिनहुँ कहियो कहने रहितहुँ। अई तीस बरख में आइए नीक चाय बनलैय' की?'
'छोड़ू ने पुरना गप्प सभ! आब धीया-पुताक घर में ई सभ कथा-पेहानी नीक लागतियैक की?'
'कियैक ने नीक लागतियैक? ई सभ त' जीवनदायी धारा सभ छै जाहि स' जीवनरूपी वृक्षक डाल-पात सभके भिन्न भिन्न स्रोत स' जीवनशक्ति भेटैत रहै छै। अरे, धिया-पुताक सोझा अहाँ कहिये दितहुँ त' अई मे कोनो ऐहन अधलाह कर्म त' नञि भ' जइतियैक जाहि स' ओकरा आओरक आगाँ हमरा आओर के शर्म कि झेंप महसूस होयतियैक!'
'अहाँ बात के तूल द' रहल छी।'
'नञ! स्थितिक मीमांसा क' रहल छी। चीज के रैशनलाइज क' रहल छी।'
'हमरो दुनूक जिनगी केहेन रहलए। नेना छलहुँ त' पढ़ाई, पढ़ाई, पढ़ाई! माय-बाउजी कहैत छलाह जे बाउ रौ, इएह त' समय छौक तपस्याक। एखनि तपस्या क' लेबें त' आगाँ एकर मधुर फल भेटतौ। पढ़ बाउ, खूब मोन लगाक' पढ़ ! आ हम पढ़ैत गेलहुँ - फर्स्ट अबैत गेलहुँ। नीक नोकरीयो लागि गेल। बाउजी सत्यनारायण भगवानक कथा आ अष्टयाम सेहो करौलन्हि। हुनका बड्ड सौख छलै जे हुनकर पुतौहु पढ.ल-लिखल, समझदार आ मैच्योर्ड हुअए। तकदीरक बात कहियौ जे हुनकर ईहो सेहन्ता पूर्ण भ' गेलै। हुनका अहॉँ सन पुतौहु भेटलै, रूप आ व्यवहारक गरिमा स' परिपूर्ण।
'चाय त' सठि गेल। आओरो ल' आबी की?'
'नञि! हमरो जिनगी सोगारथ भेल अहाँ के पाबि क'। कतेको परेशानी भेल, अहाँ सभस' निबटैत गेलहुँ, एकदम स' धीर थिर भ' क'।'
'त' की करितहुँ! जहन हम दुनू प्राणी एकटा बंधन में बंधा गेलहुँ त' तकर मान मरजाद त' निभाबही पड़तियैक ने! आ कथा खाली हमरे आ अहाँटाक संबंध धरि त' सीमित नञि रहै छै। एकर विस्तार अहाँक परिवार, हमर परिवार आ फेर अपन बाल-बच्चा धरि होइत छै, आ हे, एहेन नञि छै जे हम सीता-सावित्री जकाँ मुंह सीने सबकुछ टॉलरेट करैत गेलहुँ। कएक बेर हम अपन टेम्पर लूज केलहुँ। मुदा अहाँक तारीफ, अहाँ अपन टेम्पर कहियो नञि लूज केलहुँ।'
'महाभारत स' बच' लेल। आह! पत्नीक आघात स' कोन एहेन मनुष्य अछि जे बाँचि सकलए।'
'मजाक जुनि करू! अहँू सीरियस छी त' हमहूँ सीरियस छी। हमर अपन इच्छा छल नान्हिटा स' जे पढ़ब-लिखब। पढ़ि लिखिक' अपना पएर पर ठाढ़ होएब। आर्थिक परतंत्रता अस्वीकार्य छल। हमरा अई बात पर पूर्ण संतोख अई जे हमर ई इच्छाक पूर्ण आदर आ सम्मान भेटल अहां स'। हमर नौकरी पर हमरा स' बेसी प्रसन्नता अहाँक बाउजी के भेल छल। हमर एकगोट संगी हमरा चेतौने छल जे देखब, बुढ़बाक खुशी अहाँक पगार ओसुलबा स' त' नञि अछि। हमरो लागल छल। मुदा धन्न कही हुनका, नञि कहियो पुछलन्हि जे हमरा की आ कतेक दरमाहा भेटैय' आ नञि कहियो ओकरा मादे कोनो खोजे-पुछारी कएलन्हि। सएह अहँू संगे भेल। अहँू कहियो नञि पूछलहुँ जे हम की सभ करै छी। अपन पगार के कोना खर्चै दी॥ हमरा त' कएक बेर इएह होइत रहल जे अहाँ पूछै छी कियैक ने? तहन ने हम अपन आमदनी आ आमद स' बढ़ल खर्चाक हिसाब अहाँ के दितहुँ। नतीजा, आर्थिक स्वतंत्रता हासिल कएलो सन्ता कहियो आर्थिक रूपे स्वतंत्र नहिं भ' सकलहुँ। कहियो अपना मोने अपना ऊपर किछु खर्च नञि क' सकलहुँ। अहाँ संगे ई नञि छल। अहाँ त' 'ईट, ड्रिंक आ बी मेरी' मे यकीन करैत एलहुँ आ एखनो करै छी।'
'अई मे अधलाहे की छै? मनुक्खक अई जिनगी मे अछिए की? खाई, पीबि, मस्त रही।'
'भने ओहि मे सभ किओ सफर करी।'
'से कोना? कहियो अहाँके हम कोनो कष्ट देलहुँए?'
'किऐक ने? कोनो समय एहेन नञि भेल जे कोनो खास खास बेर पर हमर नोर नञि खसल हुअए। कहियो कोनो काज-परोजन भेल, कि तीज तेवहार कि ककरो बर्थ डे कि वेडिंग, सभठाँ त' पल्ला झाड़ि लेइत अएलहुँ जे पाई नञि अछि।! तहन हम की लोकक ओहिठाँ खाली हाथे पहुँचतहुं आ कहितहुं जे हमर हस्बैंड कहै छथि जे हुनका लग पाइ नञि छै तैं हम आओर हाथ झुलबैत चलि ऐलहुँए। किओ पतियैतियैक।'
'अहाँ लग त' रहै छल ने।'
'हँ, कियैक ने कहब। ई बुझलहुँ जे ई 'छल' के मेंनटेन करबा लेल हम कतेक बेर अपन मोन के मारि-मारि के राखलहुँ।'
'एह छोड़ू ई सभ गप्प। खाएक लेल की बनाएब?'
'जे कही अहाँ? हमरा आओर के त' ईहो कहियो स्वतंत्रता नञि रहल जे अपना मोने, अपन पसीनक खाना बनाबी।'
'फेर ब्लेम! आइ अहाँ के भ' की गेलए?'
'अहाँ संग लड़ियाएबक खगता। जिनगी भर जकरा लेल अहां पलखतियो भरि समय नञि देल।'
'हम अहाँके संतुष्ट नञि क' सकलहुँ कहियो, अहाँ से कह' चाहै छी?'
'हँ, सएह कह' चाहै छी?'
'बाई एवरी पॉसिबल वे?'
'यस, बाइ एवरी पॉसिबल वे?'
'फिजिकली, मेंटली, मौनेटरली, सेक्सुअली।'
'हँ, सभतरहें।'
'अहाँ हमरा कमजोर बना रहल छी।'
'अहसास करा रहल छी।'
'अपन परिस्थिति पर गौर नञि क' रहल छी। हम बिजी, अहां बिजी। हमर अएबाक-जेबाक कोनो निश्चित समय नञि। अहाँके ऑफिसक संगे-संगे घरक, धिया-पुताक जिम्मेवारी। बखत कत' छल जे प्रेम-मुहब्बतक मादे सोचितहुँ।'
'तैं त' जीवन झरना सुखा गेल ने? व्यस्तता त' जिनगीक अभिन्न अंग छियै। तैं, अई व्यस्तताक कारणे हम आओर कहियो की नहाएब-धोएब आ कि कपड़ा पहिरब छोड़ि देलियै, वा बिसार गेलियै?'
'धिया-पुताक घर मे, आई कुंड बी सो फ्रैंक ...'
'व्यर्थ इल्जाम द' रहल छी। फ्रैंकनेसक माने ई नञि जे अहाँ हमरा कोरा मे बैसेने रहू सभ समय। फ्रैंकनेस माने छै फुल व्यवहारक, फुल अप्रोचक फ्रैंकनेस। अहाँ से फ्रैंक नञि भेलहुँ, नतीजा हम नञि भ' सकलहुँ, नतीजा धिया-पुता सभ नञि भ' सकल।'
'धिया-पुता के त' बड्ड नीक जकाँ राखलहुँ। बेटीयो जीन्स आ मिनी पहिरि क' घूमल, फ्रेंड्स सभक संगे सिनेमा गेल, पार्टी कएल, कहियो टोकारा नञि केल।'
'मुदा, कहियो फ्रैंक भ' क', खुलिक' गप्प-सप्प सेहो त' नञि कएल। एकदम फॉर्मल फैमिली बनिक' रहि गेल अपन परिवार। ई हमर कहबा नञि, अहाँक बेटीयेक कहब अछि।'
'अही स' सभ किओ सभ किछु कियैक कहैत अछि। हमरा स' त' आइ धरि किओ किछु नञि कहलक?'
'अहाँ से मोके कोम्हर देलियै? तैं त' कहलहुँ, बेहद फॉर्मल फैमिली।'
'चलू छोड़ू, आब फेर स' शुरू करब जिनगी - सभटा शौख पूरा क' देब।'
'जिनगीक ओ बीति चुकल 30 साल आ तीस वर्षक पल-पल पहिने घुरा दिय'।'
'जे भ' सकै छै से कहू।'
'त' कहू जे भन्सा की बनाबी? छीमीक खिचड़ी कि छीमीक परोठा।'
'आब जे अहाँ खुआबी। बजला पर कहब जे हम अहाँ के मौके नञि देइ छी।'
'से त' कहबे करब। अपरोक्ष रूप स' अहाँक पसीन-नापसीन पूरा घर पर हावी रहलै।'
'से कोना?'
'चलू, भन्से से शुरू करी। अहाँ के सौंफ देल मलपुआ पसीन नञि, इलाइची देल खीर, सेवई पसीन नञि। आ हमरा आओर के ओ सभ बड्ड पसीन। हमरा बिन सौंफक पुआ आ बिनु इलाइचीक खीर सेवई बनेबाक आदत पार' पड़ल।'
'त' ई त' नञि कहलहुँ जे अहाँ आओर नञि खाई।'
'ईहो त' नञि कहल जे ठीक छै, कहियो-कहियो हमहूं सौंफ-इलायचीबला पुआ, खीर, सेवई खा लेब, तहन ने बुझितहुं? आ अपना स्वादक अनुसारे अलग स' चीज बनाबी, ई कोनो जनीजात स' पार लागलैये जे हमरा स' लागितियैक।'
'अच्छा, आगां बढू।'
'बढ़ब, पहिने भन्सा चढ़ाइए आबी।'
'आइ उपासे पड़ि जाइ त' केहेन रहत। तखनि स' अहाँक मुंह स' भानस-भानस सुनि क' कान पथरा गेल आ पेट अफरि गेल।'
'उहूँ! एखनि त' डिनर गोल क' देब आ अधरतिया के हाँक पाड़ब जे हमरा भूख लागलए। उठू, किछु अछि बनल त' दिय'। किछु नञि अछि त' ऑमलेटे ब्रेड सही।'
'जाऊ तहन, जे मर्जी हुअए, करू।'
'हे, हम एखने गेलहुँ आ एखने एलहुँ। ताबति अहाँ बउआक ई मेल पढ़िक' ओकरा जवाब पठा दियऊ।'
'हँ, ओहो लिखलकए जे बड्ड नीक लागि रहलए। अपन देश स' एकदम अलग, सभकिछु एकदम व्यवस्थित। मर्यादित, संतुलित। आखिर अमेरिका छियई ने। धन्न कही आईटी बूम के जे बच्चा सभक रोजगारक नव अवसर भेंटि रहल छै। भारतीय कंप्यूटर इंजीनियर्स के कतेक डिमांड छै फॉरेन कंट्री मे। देखबै जे दस मे स' तीन टा इंजीनियर अमेरिका त' आन आन देशक रूख क' रहल अछि।'
'प्रतिभाक पलायन थिकै ई। इंर्पोटेस ऑफ टेक्नॉलाजी संगे इंपोटेंसी ऑफ अवर टैलेंट छै। बाहरी टेक्नॉलॉजी पर बिढ़नी जकाँ लूझै छी। ओ सभ रोटी देखबैत अछि, हम सभ कुकुर जकाँ बढ़ि जाइ छी।'
'अहाँक बेटो बढ़ल अछि, से जुनि बिसरी।'
'हम इन जेनरल कहि रहल छी। अपन देशक त' ई स्वभावे बनि गेल छै, घरक जोगी जोगड़ा, आन गामक सिद्घ। इंटर्नल टैलेंट के पहिचान' लेल, रिकग्नाइज कर' लेल पहिने कोनो बुकर प्राइज, ऑस्कर अवॉर्ड, नोबल प्राइज चाही, नञि त' सभ किओ फ्रॉड, धोखेबाज ...' अपने ओहिठां त' लोक आओर एतेक तरहक एक्सपेरिमेंट करैत अछि। लोक कतेक महत्व दइत छै।'
'से सभ त' छै। ई नियति हमही आओर बनाक' राखल अछि। तैं त' आइ अनिमेष हमरा आओर लग नञि अछि। अमेरिका मे अछि। पता नञि कहिया घुरत?
'आ जौं नञि घुरलै आ ओम्हरेक मेम ल' आनलक तहन?'
'तहन की? अहाँ सासु पुतौहु रार मचाएब। हमर काज त' आशीर्वाद देबाक धरि अछि। से भूमिका हम निबाहि लेब।'
'त' सभटा सासु अपना पुतौहु स' रारे मचबै छै? हमही दुनू सासु-पुतौहु मे ई देखलहुँ कहियो? आब अनिमेष जकरा स' विवाह करौ, हमरा लेल धन सन! हमरा कोना आपत्ति नञि!'
'भन्सा भ' गेल त' दइए दिय'। खाअक' सूतब।'
'एतेक जल्दी?
'थकान लागि रहल अछि।'
'पहिल बेर एतेक बतियौलहुँए ने? हरारति त' लागबे करत। घरवाली संग एतेक बेसी गपियेनाइ कोनो मजाक बात छै!'
'हे, एके प्लेट मे निकालू ने।'
'आई एतेक प्रेम कथी लेल ढरकि रहल अछि?'
'सभटा पिछला हिसाब रफा-दफा कर' लेल।'
'त' पुरनका तीस बरख पहिने घुराऊ!'
'से त' नञि भ' सकैय', मुदा पुरना तीस बरख के अगिला तीस बरख मे मिलाक' जिनगीक ताग के आओर मजबूत करबै। आऊ! बैसू एम्हर। हे, लिय। हमरा हाथे खाऊ!'
'हमरा डर होइयै जे हमर हार्ट फेल नञि भ' जाए।'
'नञि होएत। आ हेएबो करत त' हमहूँ संगे-संगे चलि जाएब। हे, लिय' ने। खाऊ ने। अहींक हाथक बनाओल त' भोजन अछि।'
'हम अपने हाथे खाएब। दोसराक हाथे खएला स' पेट नञि भरत।'
'मोन भरत। आई पेट भर' लेल नञि', मोन भर' लेल खाऊ।'
'तहन त' आओरो नञि खाएब। मोन जहन भरिए जाएत त' जीबि क' की करब? मोनक अतृिप्त त' जिनगी जिबाक बहाना होइ छै।'
'ई सभ फिलॉसफी छोडू आ खाना खाऊ। अरे, अरे, दाँति कियैक काटलहुँ।'
'भोजन में चटनी नञि छल नें, तैैं...' हे, भ' गेल। आब नञि खाएल जाइत हमरा स'।'
'ठीक छै। चलू तहन।'
'कत'।'
'चलू त' पहिने। आई चलू, हमर कन्हा थाम्हि क' चलू। अइ्‌ दुनू बाँहक घेरा मे चलू।'
'व्हाई हैव यू बीकम सो रोमांटिक?'
'कहलहुँ ने जे पछिला तीस बरख के अगिला तीस बरख मे शामिल कर' जा रहल छी। हे, इमानदारी स' कहब', अहां के नीक लागि रहलए हमर ई स्पर्श!'
'कोनो भावना नञि उमड़ि रहलए। अहाँ ईमानदारीक प्रश्न उठाओल, तैं कहि रहल छी।'
'आब?'
'ऊँहूँ।'
'आब? मोनक दरवज्जा बंद क' क' नञि राखू। कनेक फाँफड़ि छोड़ि दियौक। भावनाक बयार के घुस' दियौक।'
'हमरा रोआई आबि रहलए।'
'त' कानि लिय' अई ठाँ, हमर छाती पर माथ राखिक'। मोन हल्लुक भ' जाएत।'
'बेर-बेर सोचना आबि रहल अछि पुरना दिन। तखन कियैक ने ... एतेक व्यस्तताक की माने भेलै जहन हमही दुनू अपना के अपना दुनू स' अलग ल' गेलहुँ।'
'माने छलै ने? अपन जिनगी बनेबाक। धिया-पुताक जिनगी बनेबाक। ई सभ लक्ष्य छल आ अर्जुन जकाँ हम सभ ओहि लक्ष्यक प्राप्ति लेल चिड़ैक आँखिक पुतली धरि तकैत रहलहुँ।'
'हमर पलक मिझा रहलए।'
'मिझाए दियऊ। बन्द पलक, फुजल अलक। एखनो अहाँक केश ओतबे नरम, आ मोलायम अछि।'
'आब त' सभ टा' झड़ि गेलै।'
'जे छै से बहुत सुंदर छै। आह! मोनक कोन्टा मे ठेलि-ठूलि क' राखल सुषुप्त भावना सभ... जेना छोट-छोट फूँही बनिक' रोम-रोम के भिजा रहल अछि। रोम-रोम भुलुकि रहल अछि। ई की अछि?'
'अहसास। हमहँू अई अहसासक फूंही मे भीजि रहल छी। अहाँक तन स' माटिक सोन्हपनि आबि रहल अछि। थाकल दकचाएल जिनगी मे एकगोट नव संचार आबि रहलए। नस-नस वीणाक तार जकाँ झंकृत भ' रहलए। सृष्टिक ई अमूर्त आनंदक क्षण अछि, दिव्य, भव्य, अलौकिक !'
'एक-एक साँस स' बजैत स्वर्गीय संगीत। आइ धरि कहियो नञि अनुभव कएने छलहुँ। आई अनुभव क' रहल छी।'
'आऊ, अई अनुभव सागर मे डूबि जाइ- गहीर, आओर गहीर, कामनाक सीपी फोली! भावनाक मोती बटोरी। आसक ताग मे ओइ मोती के गँूथि माला बनाबी आ दुनू एकरा पहीरि ली।'
'जिनगी एतेक सुंदर नञि लागल पहिने कहियो।'
'मौने मुखर रहल सदिखन। आई शब्द मौनक देबाल के ढाहि रहल अछि।'
'ढह' दियऊ ! सभटा वर्जना ढह' दियऊ !'
'जिनगीक बदलइत रूप किओ नञि बूझि सकलए। अहाँक रोम-रोम स' झरैत ओस बुन्न ! एक-एक श्र्वास स' अबैत जुही, गुलाब, मौलश्रीक सुगंधि। आऊ, डूबि जाइ अइ मे!'
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'जिनगी पहेली अछि, बुझौअल अछि।'
'ऊँहूँ! जिनगी जिनगी अछि।'
'माने?'
'माने की? एखनि धरि मतलबे बूझ' मे लागल छी? धुर जाऊ! अहाँ बड्ड ओ छी।'
'ओ छी, माने केहेन छी?'
'ओ माने ओ। आओर किछु नञि!'
'अहूँ एकदम नेन्ना जकाँ करै छी।'
'नेन्ना त' बनिये गेलहुँ। अहाँ नञि बनलहुंए की?'
'बनलहुँए ने।'
'तहन?'
'तहन की?'
'तहन माने जिनगीक रूप देखी आ मस्त रही।'

Tuesday, October 14, 2008

राजेन्द्र बाबू की विदेश यात्रा, ज्योतिष और उनके कपडे

राजेन्द्र बाबू पढ़ने में बहुत तेज़ थे, इसलिए उनके बड़े भाई सहित हित-मित्रों की राय बनी की वे इंग्लॅण्ड जाकर वहाँ से आई सी एस की परीक्षा दें। घरवालों से छिपाकर तैयारी हो रही थी, कोट- पैंट सिलाए गए थे, मगर भेद खुल गया और उनकी दादी उन्हें घर पकड़कर ले आईं, क्योंकि तब विदेश जाना बहुत ग़लत माना जाता था। तब राजेन्द्र बाबू ने अपने लिए इंतज़ाम किए गए सभी कपडे व् पैसे अपने एक दूसरे मित्र को, जिनकी ऎसी कोई योजना नहीं थी, उन्हें दे दिए। वे मित्र आगे चलाकर पटना हाई कोर्ट के जज बने। वे थे- श्री सुखदेव प्रसाद वर्मा।
उन्हीं दिनों की एक मनोइरंजक घटना है। जब विदेश यात्रा की गुप-चुप तैयारी चल रही थी, तब राजेन्द्र बाबू अपने दो अन्य मित्रों के साथ कलकत्ता में घूमते-घामते किसी वृद्ध बंगाली ज्योतिषी के यहाँ पहुंचे। वे एक से बोले- "तुम्हारे भाग्य में विदेश यात्रा नही लिखा है।" सब हंस परे, क्योंकि वह मित्र धनी भी था और पारिवारिक विरोध भी नही था। राजेन्द्र बाबू से कहा की तुम्हारा जाना बही नहीं, २० साल बाद होगा और तीसरे को, जिसकी कुछ तैयारी नहीं थी, कहा की तुम्हें जल्द जाना होगा। तीनों ने इसे बकवास माना। मगर संयोग कहें की पहला मित्र वाकई नहीं जा सका। वह बंबई गया और वहा के समुद्र को dekh kar घबरा गया। (तब विदेश यात्रा समुद्र से होती थी) राजेन्द्र बाबू के बारे में कहा ही जा चुका है। लेकिन उस तीसरे का कार्यक्रम आनन्-फानन में बन गया। राजेन्द्र बाबू ने कभी उस व्यक्ति का नाम नहीं बताया। राजेन्द्र बाबू का जाना १९०७ के बदले १९२८ में हुआ, वकालत के सिलसिले में। १९२० में उन्होंने वकालत छोड़ दी थी, मगर अपने बुजुर्ग मित्र व् मुवक्किल हरिहर प्रसाद सिंह के कहने पर केवल उसी केस के लिए लादे। इसके बाद आजीवन कूई अन्य केस नहीं लिया।
१९२८ में इंग्लैंड जाने के लिए गर्म ऊनी कपडे के बंद गले के लंबे कोट, पतलून व् टोपियाँ सिलवाई गईं। कुछ ऊनी कपडे वे विलायत साथ ले गए सिलवाने के लिए। मगर विलायती दर्जी हिन्दुस्तानी कैसा तो सिल पाता। उसने जैसे सिले, राजेन्द्र बाबू ने पहन लिए। बटन टेढी लाइन में तनके थे, काज भी बन गए थे। राजेन्द्र बाबू ने मान लिया की इन्हें ही पहनना है। साथ के मित्रों, वकीलों ने आपत्ति की तो हंसते हुए बोले, " अंग्रेजों को देशी कोट में क्या पाता चलेगा की क्या टेढा है, क्या सीधा है। किसी ने अगर टोक भी दिया तो कहूंगा की यह भी नया फैशन है।

Friday, October 10, 2008

कपडे और राजेन्द्र बाबू

कपडों के मामले में राजेन्द्र बाबू का सदा से यही विचार रहा की कपडे स्वच्छ, आरामदेह व् शरीर की रक्षा करनेवाले हों। इससे अधिक ध्यान देने की ज़रूरत नहीं। इसलिये स्कूल कॉलेज जाते समय पाजामा और शेरावानी जैसा कुछ पहनते थे और घर पर धोती -कुर्ता। वकालत के समय भी यही ढर्रा रहा। खुले गले का कोट -पतलून कलकत्ता या पटना हाई कोर्ट में नहीं पहना। वकालत के लिए तय बेंड बांधते और गाउन पहनते। ताई का तो सवाल ही नहीं था। सरदी से बचाव के लिए बंद गले के लंबे कोट का व्यवहार करते रहे।
उदार तो इतने की कपडे ख़राब सिलने पर भी दर्जी से कुछ नहीं कहते, चुपचाप पहन लेते। सन १९४० से भी पहले की बात है। पटना खादी भंडार में रामदास प्रधान नाम के दर्जी काम करते थे। उनकी ज़बान जितनी तेज़ चलती, केंची की धार उससे भी अधिक तेज़ और बेलगाम रहती। नतीजा साफ़ था। कई बार ऐसा हुआ की कुरते की दोनों बाँहें न तो एक सी और न ही बराबर बनीं। किसी ने कहा की इनसे कपडे बिगाड़ने के पेसे वसूलने चाहिए। राजेन्द्र बाबू ने हंस कर कहा की "दूसरे तो इनका बनाया कपडा पहनते नहीं, अब अगर हम भी ना पहनें, तो यह दरजी क्या करेगा? चलो, लम्बी बांह को एक अधिक मोड़ देकर पहन लूंगा।"

Wednesday, October 8, 2008

राष्ट्रपति भवन का शाही भोज और राजेन्द्र बाबू

कायस्थों में मांसाहार सदा से मान्य रहा है, मगर बचपन के बाद राजेन्द्र बाबू शाकाहारी ही बने रहे। शाकाहारी भोजन में भी सदा, तेल, घी, मिर्च मसाले से दूर। दूध इन्हे अति प्रिय था। गो सेवा संघ की स्थापना के बाद केवल गाय का दूध, दही, घी लेने का नियम बना लिया था। प्रायः शाम या तीसरे पहर नाश्ते में चने का भूंजा बहुत दिनों तक पसंद करते रहे, जो राष्ट्रपति भवन में भी चलता रहा- कभी कभार।
इन आदतों के कारण राष्ट्रपति भवन की बड़ी- बड़ी पार्टियों में भी उनका भोजन वही रहा। उनके लिए उनके निजी चौके से एक ही बार थाली आती। यानी वे दावत में शामिल तो होते थे, मगर दावत की कोई भी चीज़ नहीं खाते। केवल कभी-कभार अतिथि के सम्मान के लिए भोजन के अंत में कॉफी की प्याली मुंह से लगा लेते।
एक बार किसी देश के राजदूत का पत्र स्वीकार कर उन्हें मान्यता देन के लिए परम्परानुसार आयोजित होनेवाले छोटे से समारोह का अवसर था। परिचय पत्र प्रस्तुत करने के बाद, रिवाज़ के मुर्ताबिक, दरबार हॉल से राजदूत को कमरे में अपने साथ लिअवा कर राष्ट्रपति उनके साथ बातें करते और उन्हें चाय-नाश्ता कराते। चाय-पान कराके, राजदूत को विदा कराने के बाद राजेन्द्र बाबू आए और हंसते हुए कहा की आज वे अच्छी मुसीबत में फंस गए। कायदे के मुताबिक, अंत में पान की तश्तरी आई। राजदूत ने पान उठा लिया। उनके सम्मान के लिए उन्हें भी पान लेना पडा। पान चूंकि कोई विदेशी लेता नही, और वे भी नहीं लेते, इसलिए उगलदान रखने का ख्याल कभी आया नहीं। पान की पीक फेंकने की कोई सुविधा न देख, उन्हें उसे निगल जाना परा। बिचारे राजदूत को भी यही करना पडा। शायद वह यह जानता ही न हो की पान की पीक निकाल कर फेंक दी जाती है।

Monday, October 6, 2008

अनोखी स्मरण शक्ति- राजेन्द्र बाबू की

बट १९३९-४० की है। नेता जी के कांग्रेस से त्यागपत्र देने के बाद राजेन्द्र बाबू सभापति चुने गए थे। कई कारणों से उन्हें यह पद स्वीकार्य न था। फ़िर भी, इस पद पर उन्हें काम करना पडा। तब वे पटना के सदाकत आश्रम में थे। एक दिन दोपहर के भोजन के बाद आधा घंटा के विश्राम के बाद वे अपाने तत्कालीन सचिव श्री चक्रधर शरण के छोटे से कमरे में गए और आलमारी खोल कर कुछ खोजने लगे। पूछने पर पाता चला कि जिन्ना का पत्र किसी फाइअल में होना चाहिए। आज के समाचार पत्रों में उनका एक बयान आया है, जिसका उत्तर देना आवश्यक है। चक्रधर जी के लौटने तक नही रुका जा सकता। इसलिए राजेन्द्र बाबू ने अपनी स्मृति पर भरोसा करते हुए पत्र देखे बिना ही उत्तर लिखने का निरणय किया।
उन दिनों सदाकत आश्रम में बिजली नहीं थी। लहभग १ घंटे में दैनिक समाचार पत्र के डेढ़-दो कॉलम के आकार का उत्तर तैयार हुआ। पटना के पत्रकार- संवाददाता बुलाए गए और उन्हें प्रेस की प्रतिलिपि दी गई। jinnaa
साब के यहाँ दफ्तर बहुत ही कुशलता से काम करता था। सभी कागजात बहुत संभालकर रखे जाते थे। इसलिए जिस पात्र की ज़रूरत परती, मानत क्या, सेकेंड में हाज़िर हो जता। ऐसे व्यक्ति को उत्तर देने में सबसे बड़ा काम होता है पिछले पत्रों को बार बार पढ़ लेना, ताकि उत्तर देने में कोई छिद्र न निकल सके। परन्तु राजेन्द्र बाबू ने अपनी स्मरण शक्ति के भरोसे जिन्ना साब को जवाब दिया था। पर उस पात्र को पढ़ने के बाद जिन्ना साब को ऐसा कुछ भी कहने का मौका न मिला की उस पात्र में अमुक विषय को छोर दिया गया है या अपने मन से कुछ जोर दिया गया है।

Thursday, August 21, 2008

छाम्माक्छाल्लो की एक मैथिली कहानी- 'माउगि' यानी 'औरतें'



विभा रानी (लेखक- एक्टर- सामाजिक कार्यकर्ता)
बहुआयामी प्रतिभाक धनी विभा रानी राष्ट्रीय स्तरक हिन्दी व मैथिलीक लेखिका, अनुवादक, थिएटर एक्टर, पत्रकार छथि, जिनक दर्ज़न भरि से बेसी किताब प्रकाशित छन्हि आ कएकटा रचना हिन्दी आ र्मैथिलीक कएकटा किताबमे संकलित छन्हि। मैथिली के 3 साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखकक 4 गोट किताब "कन्यादान" (हरिमोहन झा), "राजा पोखरे में कितनी मछलियां" (प्रभास कुमार चाऊधरी), "बिल टेलर की डायरी" व "पटाक्षेप" (लिली रे) हिन्दीमे अनूदित छन्हि। समकालीन विषय, फ़िल्म, महिला व बाल विषय पर गंभीर लेखन हिनक प्रकृति छन्हि। रेडियोक स्वीकृत आवाज़क संग ई फ़िल्म्स डिविजन लेल डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म, टीवी चैनल्स लेल सीरियल्स लिखल व वॉयस ओवरक काज केलन्हि। मिथिलाक 'लोक' पर गहराई स काज करैत 2 गोट लोककथाक पुस्तक "मिथिला की लोक कथाएं" व "गोनू झा के किस्से" के प्रकाशनक संगहि संग मिथिलाक रीति-रिवाज, लोक गीत, खान-पान आदिक वृहत खज़ाना हिनका लग अछि। हिन्दीमे हिनक 2 गोट कथा संग्रह "बन्द कमरे का कोरस" व "चल खुसरो घर आपने" तथा मैथिली में एक गोट कथा संग्रह "खोह स' निकसइत" छन्हि। हिनक लिखल नाटक 'दूसरा आदमी, दूसरी औरत' राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के अन्तर्राष्ट्रीय नाट्य समारोह भारंगममे प्रस्तुत कएल जा चुकल अछि। नाटक 'पीर पराई'क मंचन, 'विवेचना', जबलपुर द्वारा देश भरमे भ रहल अछि। अन्य नाटक 'ऐ प्रिये तेरे लिए' के मंचन मुंबई व 'लाइफ़ इज नॉट अ ड्रीम' के मंचन फ़िनलैंडमे भेलाक बाद मुंबई, रायपुरमे कएल गेल अछि। 'आओ तनिक प्रेम करें' के 'मोहन राकेश सम्मान' से सम्मानित तथा मंचन श्रीराम सेंटर, नई दिल्लीमे कएल गेल। "अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो" सेहो 'मोहन राकेश सम्मान' से सम्मानित अछि। दुनु नाटक पुस्तक रूप में प्रकाशित सेहो अछि। मैथिलीमे लिखल नाटक "भाग रौ" आ "मदद करू संतोषी माता" अछि। हिनक नव मैथिली नाटक -प्रस्तुति छन्हि- बलचन्दा।
विभा 'दुलारीबाई', 'सावधान पुरुरवा', 'पोस्टर', 'कसाईबाड़ा', सनक नाटक के संग-संग फ़िल्म 'धधक' व टेली -फ़िल्म 'चिट्ठी'मे अभिनय केलन्हि अछि। नाटक 'मि. जिन्ना' व 'लाइफ़ इज नॉट अ ड्रीम' (एकपात्रीय नाटक) हिनक टटका प्रस्तुति छन्हि।
'एक बेहतर विश्र्व-- कल के लिए' के परिकल्पनाक संगे विभा 'अवितोको' नामक बहुउद्देश्यीय संस्था संग जुड़ल छथि, जिनक अटूट विश्र्वास 'थिएटर व आर्ट-- सभी के लिए' पर अछि। 'रंग जीवन' के दर्शनक साथ कला, रंगमंच, साहित्य व संस्कृति के माध्यम से समाज के 'विशेष' वर्ग, यथा, जेल- बन्दी, वृद्ध्राश्रम, अनाथालय, 'विशेष' बच्चा सभके बालगृहक संगहि संग समाजक मुख्य धाराल लोकक बीच सार्थक हस्तक्षेप करैत छथि। एतय हिनकर नियमित रूप से थिएटर व आर्ट वर्कशॉप चलति छन्हि। करती हैं। अहि सभक अतिरिक्त कॉर्पोरेट जगत सहित आम जीवनक सभटा लोक आओर लेल कला व रंगमंचक माध्यम से विविध विकासात्मक प्रशिक्षण कार्यक्रम सेहो आयोजित करैत छथि।

माउगि
- विभा रानी.

माउगि, माउगि, गे माउगि, गे माउगि! तों माउगि, हम माउगि, ई माउगि, ऊ माउगि - सभ किओ माउगे-माउगि। ऊँहूँ - सभ किओ भला माउगि हुअए। ई तय कर' बाली तों के? अएं गे? तोरा कहिया स' भेटलौ ई हक? ई सभ काज-धंधा हमरा आओरक अछि - हमरे आओर के करे दें। देख त' कने, तोहरो आओर के कतेक रंग-बिरंगा रूप दिया देलियौ! माउगि, गे माउगि, बुझै छैं कि नञि गै!
हँ यो! तैं त' हम भेलहुँ माउगि - माने ओकलाइन, डाक्टराइन, मास्टराइन - आ हड़ही-सुड़ही सभ भेल मौगी, जनी जाति, हमरा आओर स' हीन। नञि बुझलियै। धुर्र जाऊ! हमरा आओर स' ऊपर भेलीह स्त्रीसभ, जेना किरण बेदी, मेधा पाटकर, फ्‌लेविया एग्नेस त' ई सभ, त' ओ सभ आ सभ स' ऊपर नारी - आदरणीया, परमादरणीया; जेना सीता, जेना सावित्री, जेना गांधारी, जेना कुंती, जेना द्रौपदी ... उँह! द्रौपदीक नाम नञि ली। हे! बड़ खेलायल मौगी छली। ओकरा नारीक पद पर प्रतिष्ठित केनाई! सत्तरि मूस गीड़ि के बिलड़ो रानी चललीह गंगा नहाए। ऋषि-मुनि आओर के कोन कथा - एतेक ताप-तेजबला साधु महातमा सभ आ माउगि के देखतही वीर्य चूबि जाइ छै; घैल में त' पात पर त' माछक पेट मे त' कहाँ दनि, कोम्हर दनि दान द' देइत छथि जेना हुनक वीर्य-वीर्य नञि भेलै कोनो रत्नक खान भ' गेलै।
छोडू ई सभ कथा-पेहानी। आऊ असली बात पर - माने माउगि पर। की कहू, कतबो ई नारी, स्त्री, माउगि, मौगीक वर्गीकरण भ' गेल हुअए, मुदा वास्तविकता त' ई छै जे मूलत: हम सभ माउगे छी - माउगि।
अहिना दू गोट माउगि छली, माने मध्यवर्गीय परिवारक दू गोट माउगि। अहाँ चाही त' सुभीता लेल हुनक नाम राखि सकै छी - दीपा आ रेशमा। दुनू पड़ोसिया। एकदम दूध मे चीनी जकाँ बहिनपा, दुनू के एक-दोसराक घरक हींग हरदिक पता, ई दुनूक घर में एक एकटा मौगी छल, कहि लिय' जे ओकर दुनूक नाम छल भगवती आ जोहरा आ ओ दुनू ई दुनूक ओहिठाम चौका बासन करैत छली। संयोग छल, जोहरा दीपा ओहिठाम काज करै छलै आ भगवती रेशमा ओहिठाम. हौजी, बड़का शहर मे ई सभ चलै छै। ओहिना, जेना आइ काल्हि शहर मे दंगा आ खून-खराबा फटाखा जकाँ फुटैत रहै छै आ लोक आओर तीमन-तरकारी जकाँ कटाएत रहै छै। की कहू जे जाहि शहर मे ई चारू माउगि रहै छली, ओहि शहर मे दंगा संठीक आगि जकाँ धधकि उठलै। आ सभ माउगि एके जकाँ भ' गेलै - मांगि आ कोखिक चिन्ता स' लहालोट।
आब जेना दीपे के देखियौ। शहर मे तनाव छलै। तइयो लोग अपन-अपन ड्यूटी पर निकलि गेल छलै। मुदा बेरहटिया होबैत-होबैत पता लागलै जे शहरक स्थिति आओर खराब भ' गेलै त' सभ किओ 'जइसे उडि जहाज कौ पंछी, पुनि जहाज पै आयौ' बनि बनि अपन अपन जहाज दिस पडाए लागल। रेशमा स' दीपा के ई समाचार भेटलै, ओम्हर ठीक दू बजेक बेरहटिया मे मनोज बाबू घर स' बहिरा गेलाह। दीपा टोकबो कएलकै - 'शौकत भाइक फोन आएल छलै रेशमा कत' जे शहरक हालति आओर खराब भ' गेल छै। लोग-बाग घर घुरि रहल अछि आ अहाँ सभ किछु जानि-बुझिक' तहयो बाहरि निकलि रहल छी। जुनि जाऊ।'
आब ओ मरद मरदे की जे अपना घरवालीक कहल राखि लियए। आ दीपा त' माउगि स' एक कदम आगां छली - स्त्री छली - पढ़ल-लिखल, सुंदर, स्मार्ट आ अपन बिजनेस सेहो चलब' बाली, जकरा मे सभटा आभिजात्य भरल रहनाइ अपेक्षिते नयिं, परम आवश्यक अछि। मुदा बावजूद एकटा सफल स्त्रीक, ओ छली त' माउगे।
सत्ते, कहियो कहियो के मायक कहल ई कथा मोन पडिये जाइत अछि जे माउगि कतबो पढ़ल हुअए कि सुंदर कि स्मार्ट कि बिजनेसवुमन, रहत त' माउगे आ तैं चूल्हि त' फूंकैये पडतै आ घर वा घरबलाक चिंता मे सुड्डाहि होबैये पडतै ओकरा। तैं रातुक एगारह बाजि गेलाक बादो मनोज के नहिं घुरलाक कारणे ओ अत्यन्त चिंतित आ परेशान छलै। ओकरा रहि-रहि क' बुझाए जे कॉलबेल बजलै, खने दरबज्जा फोलए त' खने खिड़की पर जा क' ठाढ़ भ' जाए। सांस भांथी जकाँ चलि रहल छलै आ मोनक सभटा परेशानी मुंह पर लिखा गेल छलै। मना कएलो पर जहन मनोज नञि रूकल छलाह त' कहने छलै - जल्दीए आएब। जवाब भेटल छलै -'आइ त' फल्ना डेलीगेशन आएल अछि।'
'माने रातिक एक-डेढ़ बजे धरिक छुट्टी।' दीपाक माउगि ओकर भीतरे-भीतरे बाजलै। तहन कियैक एगारहे बजे स' एतेक बेचैनी छै? ओकरा त' दू बजे रातिक बाद परेशान होएबाक चाही। मनोज बाबू लेल दू बजे रातक घुरनाई कोनो नव कथा त' छलै नञि! मुदा दंगा जे नएं कराबए।
हारि-थाकि क' ओ घर स' निकललै आ अपना बगले बला कॉलबेल दबेलकै। अहू मे एकटा माउगि छलै - रेशमा। परेशानी ओकरो संपूर्ण देह पर अक्षर-अक्षर लिखाएल। ओकरो घरबला घुरल नञि छलै। मुदा फोन कएने छलै -'हालति बड्ड खराब छै। दरबज्जा आदि नीक स' लगाक' राखने रहब। हाथ मे सदिखन एकटा चक्कू वा एहेने कोनो चीज सेहो राखने रहब। पतियाएब नञि ककरो पर चाहे ओ कतबो नजदीकी हुअए।'
दुनू माउगि एक-दोसरा के देखि क' तेना चेहैली जेना एक-दोसरक सोझा मे दूध चीनी सनक संबंधवाली दीपा आ रेशमा नञि, गहुँमन आ बिज्झी हुअए। रेशमा एतेक देर राति मे ओकर आएब पर चेहैली त' दीपा रेशमाक गस्सा मे फंसल चक्कू देखि क'।
माउगि त' माउगे होइत छै - एतेक अविश्र्वास स' काज थोडबे छलै छैक। आ ई स्त्री माने दीपाक त' सौंसे देहे पर परेशानी छपाएल छलै। शौकत त' फोनो क' देने छलाह। मुदा मनोज के त' तकर कोनो परवाहिए नञि छलै। रहितियैक त' एतेक प्रतिकूल परिस्थिति मे ओकरा मना करबाक बादो जयतियन्हि की? आ मानि लिय' जे बड्ड खगता छलैन्हे जेबाक, तें चलि गेलाह। मुदा चलि गेलाक माने ई त' नयिं जे एकदमे स' निश्चिन्त भ' क' बैसि जाइ; बेगर ई महसूस कएने जे दीपा कतेक चिंतित आ परेशान हेतीह। धुर्र? माउगि आओर लेल किओ एतके परेशान हुअए!
दुनक दुनू माउगिक मुंह मे जेना बकार नञि छलै। अंतत: रेशमा सेहे चिनियाबदाम जकाँ एक-एक टा शब्द चिट चिट क' क' तोडैत-भांगैत बाजलै -
'बच्चे सो गए? मेरे तो अभी-अभी सोए हैं।'
'हँ! हुनका आओर के की पता जे दंगा-फसाद की सभ होइ छै। स्कूल नञि गेनाई त' ओकरा आओर लेल पिकनिक भ' गेलै'। भरि दिन ऊधम मचा-मचाक' थाकि-हारिक' एखने सूतल अछि।'
'मनोज भैया लौटे?'
'घुरि गेल रहितियन्हि त' हम की अईठां रहितहुँ?' स्त्री मोने मे बाजलै। प्रत्यक्षत: मूड़ी नयिं मे डोला देलकै।'
'ये भी अभी तक नहीं लौटे हैं। मगर फोन कर दिया है कि लौटेंगे। फिर भी गर हालात ज्यादा खराब हुए तो उधर ही कहीं किसी रिश्तेदार के यहाँ रूक जाएंगे।' माउगि बाजलै।
स्त्री चुपचाप ओकर मुंह तकैत रहि गेलै। ओहि दीपा रूपी स्त्रीक चेहरा पल-पल बदलि रहल छलै। माउगि रेशमा कहलकै - 'उनका फोन नहीं आया है तो तू ही पता कर ले न?'
'कत'? ओ कत छथि, हमरा कहि के जाइ छथि जे कहै छी जे फोन करी आ की दनि करी, कहाँ दनि करी।' स्त्री अपन विवशता मे खौंझैली।'
'हौसला रखो। सब ठीक हो जाएगा।'
मुदा सभ ठीक नञि भेलै। माउगिक मरद आबि गेलै। शौकत भाइ के देखि क' रेशमाक मुंह मुरझाएल फूल पर मारल पानिक छींटा जकाँ तरोताजा भ' उठलै। दीपाक चेहरा पर सेहो आंशिक आश्र्वस्तिक भाव उभरलै। बेस! एक गोट त' सकुशल आबि गेलाह। आब दोसरो आबि जाथि त' आ निश्चिंत भ' जयतियैक। अहिना सबहक सर समांग सकुशल अपना अपना बासा घुरथि जाथु त' सबहक घरक जनी जाति के कतेक आश्र्वस्ति भेंटतैक! ओ शौकत भाइ स' शहरक मूड पर कनेक गप सप कर' चाहै छलै। मोन मे छलै जे आकर परेशानी आ चिंता स' शौकत भाइ सेहो कनेक सरोकार राखति। पूछथि कनेक मनोजक मादे, कहथि कनेक शहरक हालचालि। मुदा शौकत भाइ त' तेहेन ने सख्त नजरि स' घूरि क' रेशमा के देखलनिह कि ओहि नजरिक कठोरता आ बेधकता दीपा सेहो बूझि गेलै आ कहलकै -'चलै छी रेशमा, बच्चा सभ असगरे छै।'
बाहर मे दंगा आ घर मे भूकंप आबि गेलै। मर्द प्रतिवादक गाड़ी पर फर्राटा स' सवार भ' गेलै -'कहा था न कि किसी अपने कहे जानेवाले पर भी भरोसा मत करना। क्या जरूरत थी इतनी रात को इसे बिठाए रखना? इन काफिरों का कोई भरोसा है क्या?'
'रेशमा, ई कोफ्ता शौकत भाइ लेल। दिने मे बनौने छलहुं। हमरा बूझल अछि जे हिनका कोफ्ता बड्ड पसंद छै।' स्त्रीक फेर प्रवेश भेलै। माउगि फेर सहमि गेलै। मर्द फेर तनतना गेलै।ओ अई लल्लो-चप्पो स' प्रसन्न ­नञि भेलै। स्त्रीक गेलाक बाद गरजलै -'फेंक दो इसे डस्टबिन में। क्या ठिकाना, कुछ मिला-विला कर लाई हो।'
माउगिक करेज कनछलै -'अहीं सभ एक-दोसरा लेल दुश्मन भ' सकै छी। माउगि त' माउगे होइत छै। सभटा दुख त' ओकरे माथ पर बजरै छै। ओकर मरद के किछु भ' जेतै त' ओकरा अहिना अपन सगरि जिनगी काट' पड़तै। आ अहाँ आओरक घरवाली मरतै त' कब्र मे देह गललो ­नञि रहतै कि दोसर निकाहक मुबारकबाद बरस' लागतै। यौ - माउगि हिन्दू-मुसलमान आ कि क्र्रिस्तान नञि होई छै। ओ खाली माउगे होइत छै।'
मुदा नञि! माउगि खाली माउगे नञि होइ छै। ओ नारी, स्त्री, माउगि, मौगी सभ भ' जाइ छै। आ सेहो कठपुतरी बनिक'। आब देखियौ ने! शौकत भाइ एम्हर पहिने आगि जकां बररसलन्हि आ फेर कने प्रेमक फूंही खसबैत आस्ते आस्ते क' क' तेना ने बुझेलखिन्ह जे कि रेशमा सेहो पतिया गेलै आ तय क' लेलकै जे ई कोफ्ता काल्हि भिन्सर मे बर्तन मांजयबाली के द' देल जेतै। ओम्हर दू बजे राति मे घुरल मनोज बाबू नामक मरदक फरमान सेहो निकललै जे आओर कतहु जाइ त' जाइ, बगल बला घर मे कथमपि नञि। ठीक पुरना जमानाक राजकुमार बला कथा जकाँ - पूब जाउ, पच्छिम जाउ, उत्तर जाउ मुदा दक्षिण कहियो नञि जाउ आ अहि अतिरिक्त सावधानी मे ओ सभस' पहिल काज कएल जे अपन दरबज्जा पर साटल 'ऊँ' स्टिकर के नोंचि-चोथि क' उजाड़ि देलन्हि।
आबी, कनेक एम्हर ईहो दुनू गोट मौगीक खोज खबरि ल' ली। ई दुनू मौगी ऊपरका दुनू स्त्री आ माउगि स' जुड़ल छली से त' अहां अओर के मोने हएत। ई दुनू छल भगवती आ जोहरा जे दीपा आ रेशमाक घर मे बर्तन चौका करै छल। ईहो एकटा संयोगे छल जे भगवती नामक मौगी रेशमा नामक माउगिक घर मे काज करै छलै आ जोहरा नामक मौगी दीपा नामक स्त्रीक घर मे। ईहो दुनू मौगी उपरकी दुनू माउगे जकां पड़ोसिया छलै।
आइ भगवतीक घर मे भम्ह लोटै छलै। आध सेर आटा बांचल छलै। तकरे रोटी बनाक' अपन चारू धिया-पुता के खुआ देने छलै - भिन्सरे मे। आब बेरहटिया स' ई अधरतिया भ' गेलै। दोकान बंद आ पाइक खूँट खुल्ला। कोनो दिस स' रस्ता नञि! धिया-पुता के ठोक-ठाकि क', एक-दू चमेटा खींचि क' सुता देने छलै। आब जागल-जागल भरि पोख पहिने अपन मरद के गरियौलकै जे ठर्रा आ अढ़ाई सौ रूपैयाक लालचि मे दंगा फोड़'बला लेल काज कर' चलि गेल छलै। ओहि स्त्री दीपे जकाँ ईहो भगवती मौगी अपना मरद के रोकबाक प्रयास कएने छलै आ मनोजे बाबू जकाँ ओकरो मरद ओकर अक्किल के ओकर ठेहुन मे रोपैत चलि गेल छलै आ बाद मे चेथड़ी भेल देह ओकर अक्किल के ओकर ठेहुन मे स' निकालि क' माथ मे राखि देलकै। मुदा एखनि त' माथ मे राखल अक्किल सेहो भुतियाएल छलै। हारि थाकि क' ओ धिया-पुता लग ढेर भ' गेलै जे आब त' भिन्सरे मे भ' सकै छै किछु। करफू लागल रहौ कि किछु। पुलिसबला गोली मारौ कि डंडा। मेम साब ओहिठां त' जाइए पड़तै। दू गोट लोभ - पगार भेटबाक आ सदिखन जकाँ अहू बेर ततेक बचल-खुचल भेटि जेबाक आस जाहि स' चारू धिया-पुताक खींचखाचि क' जलखई त' भइये जाइ छै। मुदा भिन्सर त' हुअए पहिने! हे सुरूज महराज! जल्दी बहार आबथु!'
सुरूज महाराज त' प्रकट भेलाह, मगर दोसर मौगी ई मौगीक रस्ता छोपि देलकै -'तुम बच्चावाली औरत! तुम किधर कू जाएगा ये आफत में। मेरे कू जाने दो। अपुन का क्या है? अकेला औरत। पुलिसबाला गोली मार भी दिया तो क्या हो जाएंगा। और जो नहीं मारा तो तेरा मेम साब का भी काम अपुन करके आ जाएंगा आउर तेरा पगार आउर खाने-पीने का जो कुछ भी देंगा वो सब लेके आ जाएंगा। ठीक?' आ अंचरा मे स' गरम-गरम चारि टा भाखरी निकालि क' थम्हा देलकै - एतबे बचल छलै, तैं एतबे ...
जाबथि भगवती किछु सोचय, किछु बाजय, जोहरा नामक ई दोसरकी मौगी चिड़ै जकाँ फुर्र स' उड़ि गेलै। भगवती मौगी थकमकाएले रहि गेलै, जेना जोहराक मरद दंगा बलाक बीच मे फंसल थकमकाएले रहि गेल छलै आ पछाति मे अपन टूटल - भांगल फलक ठेला आ ओहि पर सजाओल सभटा फले जकाँ पिचा-पिचू के थौआ-थौआ भ' गेल छलै। दीन ईमानक पक्का, पाँचो बेरक नमाजी आ सभटा जनानी के दीदीए आ भाभी कहैबला ओकर मरद जोहरा हिरदै में जिनगी भर लेल कांट छोड़ि गेलै - ओकर देह भरि पोख देखबाक साध मोने मे रहि गेलै आ तहिये स' ई काँट कहियो ओकर पूरा देह मे गड़' लागै छै आ कहियो अपन मरदे जकाँ मौगीक अपनो सौंसे मोन आ देह थौआ-थौआ भेल बुझाए लागै छै।
नुका-चोरा क', झटकारि क' जोहरा दुनू स्त्री आ माउगिक घरक काज कर' पहुँचि गेलै। वाह रे पुलिसबलाक चौकस नजरि! अल्लाह! जोहरा शुक्र मनौलकै। जाए बेर सेहो नञि पडए ओह दरिंदा सभक नजरि त' बेस। आएल त' असगरे छलै, जाएत त' भगवतीक दरमाहा आ खाए-पियक समान सेहो रहतै। खेनाइ-पिनाइ त' रोड पर चलि जेतै आ पाइ जानि नञि ककरा पाकिट मे - दंगाबलाक कि पुलिसबलाक।
माउगि आ स्त्री कतेक बेर दुनू मौगी स' ठट्ठा केने छलै - "गै, दुनू अपन-अपन मेमसाब बदलि ले। मियां मियांक घर मे आ हिंदू हिंदूक घर मे। तहियाक मजाक आइ दुनू माउगि आ स्त्री के वास्तविक लागि रहल छलै - दुनू मरद जे झोटैंला पंचक ई मजाक पर कहियो कान नञि देलन्हि, आइ गंभीर फैसलाक तीर, कटार ई दुनू माउगि पर संधानि देलन्हि। फर्मान बंदूक स' गोली जकाँ बहिरा गेल छलै आ ई दुनू के आब ओहि गोली के अपना-अपना करेज मे धँसा क, धँसलाक बाद अपना-अपना के जीवित, चालू पुर्जा राखैत ओहि फर्मान पर अमल करबाक छलै।
जहिया ठेला छलै, फल छलै आ फलक ताजगी जकाँ मुस्की मारैत ओकर मरद छलै, तहिया जोहरा के काजक कोनो दरकार नञि छलै। दीपा ओकर चेहराक मासूमियत आ खबसूरती देखि क' सोचै बेर-बेर - जे कोनो नीक घरक स्त्री रहितियैक त' रूप-रंग झाड़-फानूस जकाँ चमकतियैक। मुदा एखनि त' ओकर उदास मुंह, उड़ल रंग आ बेजान कपड़ा। हठात ओकरा जोहरा मे रेशमाक झलक भेटलै त' बड़ी जो स' ओ चेहा उठलै। मोने मोन अपना के लथाड़लकै। जतेक गारि अबै छल, सभटा अपना मोनक ऊपर खाली क' देलकै। जोहरा काज क' क' रेशमा ओहिठां चलि गेल छलै। मनोज बाबू सुतले छलाह। दीपा फ्रिज मे स' झब-झब समान सभ बाहर कर' लागलै।
फेर कॉलबेल। फेर दीपाक मुंह। फेर रेशमाक बदलैत रंग। रेशमा स' कोनो औपचारिक रिश्ता त' छलै नञि! तै धड़ाधड़ि भन्से मे चलि गेलै -'जोहरा! ई खाए पियक समान सभ छै। भगवती के द' दिहें।'
'लेकिन मैं जो ये सब तुझे दे रही हूँ, ये सब केवल तेरे लिए हैं। किसी काफिर-वाफिर को नहीं देगी तू और सुन! कल से तू उधर नहीं, इधर काम करेगी। दस रूपए ज्यादे ले लेना। चलेगा। वो चाहे तो उधर करले। कल साहब यही कह रहे थे।'
थकमक भेल स्त्री दीपा देखलकै - भन्साघरक स्लैब पर जोहराक देल खाद्य सामग्री मे रतुक्का कोफ्ता। ओम्हर कोफ्ता ओकरा अंगूठा देखा रहल छलै आ एम्हर रेशमाक गप्प ओकर करेज पर आड़ी चला रहल छलै। त', कतेक पतिव्रता स्त्री छै। पति जे कहलकै, तुरंत ओकर ताबेदारी मे लागि गेलै। आ ओ? दू बजे राति मे घुरल मनाज् बाबू स' फिरकापरस्ती पर बहस केलकै आ जोहरा भगवतीक प्रसंग पर मना क' देलकै जे ओ नञि करतै काज कर' बालीक अदला-बदली।
मुदा आब? जौं ई मौगी मानि गेलै त' ओकरा त' डबल फैदा। आ ओम्हर बेचारी भगवतीक काजक नोकसान। तहन त' नीके छै ई अदलाबदली। तैं ओहो दही में सही मिलेलकै। ओना त' ओहो अदला-बदली के व्यावहारिकताक जामा त' पहिराइये देने छलै जहन कि फ्रिज से खाद्य सामग्री निकालि क' ओ भगवती लेल आनने छलै। कहियो ई नञि देखल-सुनल जे काज करए किओ आन आ खाएक पियक भेटै कोनो आन के।
मुदा ई मौगी ! जोहरा मौगी! केहेन खरदार! केहेन जबर्दस्त! केहेन जोरगरि! ओ चकचक करैत दुनू माउगिक मुंह देखलकै। बाजलै किछु नञि। खाली रेशमा स' कहलकै -'करफू लगा हुआ है। भोत मुश्किल से आया मैं। कल आने को होएंगा कि नेई, मालूम नेई। भगवती अपना पगार वास्ते बोला है। आप दे देंगा तो मैं ले जाके उसकू दे देंगा।'
'बोल उसे वो खुद आकर ले जाएगी। जब तू आ सकती है तो वो क्यों नहीं। और अच्छा है न! पुलिस की नजर चढ़ गई तो एक काफिर तो घटेगा कम से कम।'
कि माउगि गै माउगि! हम माउगि, तों माउगि, ई माउगि; ओ माउगि - सभ माउगे-माउगि! इहो चारो माउगे माउगि। मुदा ई मौगी - छोटहा लोग - मसोमात जोहरा त' जेना पुलिसक गोली आ दंगाबलाक ईंट, पत्थर, बोतल घासलेट तकरो सभ स' बेसी आक्रांत भ' उठलै। काली जकाँ, दुर्गा जकाँ, चंडी जकाँ ! 'मेम साब! आप दोनों अपना-अपना सामान रख लो। मेरे कू नेई चाहिए ऐसा खाना, जिसमें शैतानी खून बोलता हो। ई दंगा - आप दोनों का मन मे इतना फरक पैदा किएला है कि आप दोनों एक मिनट में अपना से गैर बना दिया। भगवती तो बच्चा लोग का खातिर आने को तैयार था। मईच रोका उसकू कि मेरा क्या! मइ अकेला माणस। पुलिस गोली मारेंगा तो भी क्या चला जाएंगा मेरा। पण उसकू कुछ होएंगा तो उसका बच्चा लोग यतीम हो जाएंगा, जैसे मइ हो गया अपना मरद का जाने से। आपलोग बड़ा लोग। इसलिए आपलोग का बड़ा बात। बड़ा समझदारी। मेरे कू तो खोपड़ी नेई। आपको भगवती को नेई रखना, मति रखो। उसका पगार नेई देने का, मति दो। लेकिन कल से मइ भी काम पर नेई आने का। लेकिन उसका पहिले अभी आपका घर मे मइ जो काम किया, वो पइसा मेरे कू अब्भी का अब्भी देने का। वो मेरा हक्क है। मइ उसकू लेके जाएंगा आउर जो मर्जी आएंगा, करेंगा। आपका ई भीख नेई चाहिए मेरे कू।'
मौगियो आओर बाजि सकै छै, सोचि-समझि सकै छै! एहेन अजगुत कथा ! बाप रौ बाप! दुनू माउगि के साँप सुंघा गेलै। ई मौगी भ' क' एतेक नाटक! माउगिक सोझा मे एकर एतेक टनटनी छै ने। कनेक साहेबक सोझा मे पड़' दियौक। सभटा बिलाडिपन एके क्षण मे घुसडि जेतै आ ओ फेर केथरी जकां गुड़िया-मुड़िया जेतै। रेशमा सोच लागलै। यदि शौकत मियां उठि क' आबि जाथु त' एकर मुंहक टनटनी एखने बंद भ' सकै छै।
नीक भेलै। शौकत मियां आबि गेलाह! भन्साघरक स' भोरुक्का चाहक गन्धक बदला ई खिच-खिचक गंध बर्दाश्त नञि भेलै आ अधकचरा भेल नीनक खौंझ स' भरल ओ बाहर निकललाह!
'क्या हुआ? सुबह-सुबह चाय देने के बदले घर को कर्बला का मैदान क्यों बना रखा है?' ड्राइंग रूम भड़कलै। रेशमाक चेहरा चमकलै। दीपा शरीर स' एम्हर छलै आ मोन स' मनोज कत'। तैं ओ संभ्रमित सेहो भेलै। मुदा जोहरा ओहीठां छलै - तन आ मोन दुनू स'। कतहु कोनो तरहक बनावटी चमक नञि, मुंह पर कोनो तरहक भ्रमक चेन्हासी नञि। ओ माथ पर ओढ़नी धेलकै आ भन्साघरक खिचखिच के ओतहि छोड़ैत ड्राइंगरूम में पहँुचि गेलै -'साब! मेरे कू बताओ, ये दंगा हम और आप कराया क्या? आओर जो कराया, उसका बदन का एक बाल भी गिरा क्या? भगवती का आदमी गया, मेरा मरद गया। तो क्या ये सब उसका, मेरा या आपका चाहने से हुआ? कल को खुदा न करे, आपको या वो साब को कुछ हो जाता तो वो सब आपका या आपका मेमसाब लोग का चाहने से होता था क्या? आओर ये मारामारी का फरक किसका पर गिरेंगा साब। हम औरत लोग पर। बेवा तो अपुन लोग होता है न साब! और बेवा खाली बेवाइच कहलाता - हिन्दू बेवा आ मुसलमान बेवा नेई। साब, मइ जाता। बस मेरा आज का काम का पइसा दे दो। उस पइसा से मेरे जो मर्जी करेंगा, जिसके लिए मन करेगा सामान खरीदेंगा।'
ड्राइंगरूम गरजलै -'क्या बकवास लगा रखी है। रेशमा, तुम इनलोगों को यहाँ से भगाती क्यों नहीं?
भन्साघर फेर डेराएल चिड़ई भ' गेलै। दीपा स' आब सहन नञि भेलै। ओ जाए लेल डेग उठेलकै। जोहरा एक पल भन्साघर मे मोजद दुनू माउगि के देखलकै। फेर ओकरो डेग उठलै। आ भन्साघर जेना भूकंप स' डोल' लागलै। आब कनेक स्थिर भेलै। स्वरक अरोह-अवरोह मे सेहो स्थिरता अएलै। उठल डेग स्वर स' मिलान कर' लागलै -'जोहरा, ये सब ले जाओ और भगवती की पगार भी। हालात ठीक होने पर ही उसे घर से निकलने देना और तुम भी तभी आना। और दीपा, बैठो न! चाहो तो तबतक शौकत मियां से बात करो या फिर यहीं किचन मे मेरे साथ। मैं तुरंत चाय बनाती हूँ। जोहरा, तुम भी पीकर जाना।'
वाह रे तिरिया चरित्तर वाह! ऋषि मुनि सभ कहिये गेलैन्हिए जे देवो नञि जानि सकलाह त' पुरूषक कथे कोन? किन्तु अईठां एहेन कोनो गुंफित रहस्य नञि छलै, नञि त' काम केलिक कोनो नुका छिपी छलै, ने नैनक कटाक्ष आ बैनक मुस्कान छलै। अईठाँ त' एकेटा चीज पसरल छलै - चाह मे, पत्ती में, चीनी मे, कप मे - माउगे -माउगि। चाह, दूध, चीनी आगिक गरमी स' एके रंग ध' लेइत छै, एकमेक भ' जाएत छै। बनल चाह मे से चाहक रंग, दूध, चीनी के अलग-अलग करब मोश्किल। ईहो माउगि सभ चाहे जकाँ एक मेक भ' गेल छलै।
शौकत साहब ड्राइंगरूम में चाहक चुस्की ल' रहल छलाह। चाहक भाफ ड्राइंगरूम ठरल, बर्फ भेल सर्दपना के तोड़लकै कि नञि, पता नञि; मुदा सौंसे भन्साघर मे भाफक नरम गरमी पसरि गेलै। आ ओहि नरम-गरम माहौल मे देखाई पड़लै जे एकटा मौगी चीज बतुस आ भगवतीक पगार ल' क' झटकल चलल जा रहल छै। एक गोट स्त्री आ दोसर माउगिक आँखिक पानि टघरि क' चाहक प्याली मे खसि रहल छलै। चाह नमकीन भेलै कि मीठे रहलै, सेहो नञि बुझेलै। खाली एक गोट स्वर ओहि भन्साघर मे बरकि गेलै - बरकैत गेलै - 'दीपा हम औरतों के दुख कितने एक समान होते हैं न!'
'भगवान नञि करथु ककरो माँगि आ कोखि उजड़ै।'
'आ श्मशानक मनहूसियत ककरो घर मे पैंसए।'
लोक आओर कहे छै, माउगि-माउगि अलग होई छै - नारी, स्त्री, महिला, माउगि, मौगी, जनी - हौ जी ई एतेक नाम द' देने ओ सभ बदलि जाइ छै की ? कहू त' ! एहनो कतहु भेलैये !

Monday, August 11, 2008

जादू की झप्पी यानी टच थेरेपी

छाम्माक्छाल्लो ने इस बार काफी अरसे बाद फ़िर से फ़िल्म 'मुन्नाभाई एम् बी बी एस ' देखी। देखने के बाद यह उदगार सबसे पहले निकला-"अब 'लगे रहो मुन्ना भाई' देखना चाहिए।' दोनों ही फलमें मानवीयता के पक्ष को उकेरती है। मुन्ना डाक्टर नहीं बन पाता, मगर अपने मानवीय संवेदनशीलता से वह सबका दिल जीत लेता है। एक गुंडे के भी ह्रदय परिवर्तन की यह कहानी है कि प्रेम किसी को किसतरह से नकारात्मक से सकारात्मक में बदल देता है। 'मुन्नाभाई एम् बी बी एस' की एक और दिलफ़रेब बात है- जादू की झप्पी यानी चुम्बन- आलिंगन । यह चुम्बन -आलिंगन दोस्त का, माँ का, बेटे का, पिता का, प्रेमी का, प्रेमिका का - यानी किसी का भी हो सकता है। बात आलिंगन-चुम्बन की नहीं, इसके अहसास की है। भारतीय मूल्यों मेंभी बड़े के चरण स्पर्श कराने का मकसद एक और बड़े के प्रति अपना सम्मान ज़ाहिर करना है तो दूसरी और उस स्पर्श के एवज में मिले सर पर आशीष का परस। यह दिल और भाव से जुडा होता है। इसी को माँ अम्र्तिनान्दमयी सभी को बांटती हैं, इसी एक परस से लोग नया जीवन पा लेते हैं। यही परस का सुख आज के शब्दों में टच थेरेपी कहलाती है। किसी का परस जब अप्पको निराशा के गहरे गर्त से बाहर निकाल ले आए, आपमें जीने की नई उमंग व् हिम्मत, ताक़त पैदा करे, आपको अपने जीवन का रास्ता दिखने लगे, तो समझें, यह परस आपके जीवन में संजीवनी बनाकर आयी है।
छाम्माकछाल्लो आज भी बड़ी मायूस होती है, जब वह देखेआती है कि इतने पावन परस को लोग या तो समझते नहीं हैं, या उसका ग़लत अर्थ लगाते हैं या फ़िर उसे बुरी नज़र से देखते हैं। उसका पूरा विश्वास है कि परस की जादू की झप्पी तासीर अपने संग एक नया सुहावना मौसम लेकर आती है।

Tuesday, August 5, 2008

एक चमत्कार फ़िर से हो जाए!

छाम्माक्छाल्लो आज बड़े उधेड़बुन में है। वह मुंबई की निकिता पटेल के मामले का हश्र देख अचंभित है। ३१ वर्षीया निकिता पटेल पहली बार माँ बन तही है। किसी भी स्त्री के लिए माँ बनना उसका सबसे बड़ा सपना होता है। निस्संदेह निकिता भी इस सपने में डूबी रही होगी की २४ सप्ताह के गर्भ धारण के बाद उसे पता चला की भावी शिशु का दिल पूरी तरह से ब्लाक है। वह अदालत का दरवाजा खटखटने गई इस उम्मीद के साथ की उसे उस शिशु को नष्ट कराने की इजाज़त मिल जाए। मगर ३-हफ्ते तक मामला लटकने के बाद कोर्ट उसे इसकी इजाज़त नही देता। डॉक्टरों की आशंका है की जन्म से ही बच्चे को पेसमेकर लगाना होगा। यह तकलीफ़देह, खर्चीला दोनों ही है।
छाम्माकछाल्लो गर्भपात के समर्थन में नहीं है। "अभिमन्यु की भ्रूण ह्त्या" उसकीबेहद चर्चित कहानियो में से एक है। अभी इसका रेडियो नाट्य रूपांतर भी हुआ है। मगर ऐसे मामले में, जब बच्चे की स्वस्थ जिंदगी और माँ-बाप की खुशाली का सवाल है, मेरे मत से निकिता को इसकी इजाज़त मिलनी चाहिए। कोई भी माँ अपने बच्चे की मृत्यु कामना नहीं करती। मगर शिशु के आगमन के बदले पहले से ही उस शिशु के दुःख दर्द का अंदाजा जिस माँ को है, इस माँ की ममता और विकलता को बचाने के लिए कोर्ट क्या कुछ भी नहीं कर सकती? निकिता की इमानदारी रही की वह अदालत चली गई। देश में न जाने कितने केस होंगे, जो बिना किसी लिखा पढ़त के समाप्त हो जाते हैं। बालिका भ्रूण ह्त्या तमाम निषेधों और कोर्ट आदेश के बावजूद देश में जारी है। निकिता का यह केस नहीं है।
छाम्माक्छाल्लो सोच रही है की कल जब निकिता उस बच्चे को जन्म देगी, तभी से उस मासूम की निरंतर शल्य क्रिया, पलमें तोला, पल में माशा होती जाती उसकी तबीयत को शारीरिक, मानसकी, आर्थिक स्तर पर झेलने के लिए विवश होगी। और खुदा न खास्ता, जन्म के बाद बच्चे को कुछ हो जाता है तो देखे गए, जन्म दिए गए बच्चे से बिछुड़ने की पीर कोई माँ ही समझ सकती है।
छाम्मालाछाल्लो बस प्रार्थना कर रही है की निकिता का यह भावी शिशु एक बार डाक्टर की रिपोर्ट झुठला कर स्वस्थ रूप में सामने आए। दुनिया में बहुत तरह के चमत्कार होते हैं, आइये, मनाएं की एक चमत्कार यह भी हो जाए।

Tuesday, July 29, 2008

आबाहु सब मिली कर रोबहू बिहारी भाई!

दो माह पहले मैं मुंबई से दिल्ली जा रही थी राजधानी से। यह वह समय था जब राजस्थान गुर्जर आन्दोलन से जल रहा था । उस लाइन की सभी ट्रेनें या तो रद्द थीं, या रूट बदलकर जा रही थीं। एक बुजुर्ग मराठी सज्जन भी दिल्ली जा रहे थे। कुछ विशुद्ध बिहारी, जो इस व्यवस्था में भी लालू की कमी निकाल रहे थे, उन्हें कोस रहे थे, जैसे गुर्जर आन्दोलन का सारा श्रेय उन्हें ही जाता हो। उनका टिकट वेटिंग पर था। राजधानी में वेटिंग पर कोई यात्रा नहीं कर सकता, मगर समय की नजाकत को देखते हुए इसकी इजाज़त दी गई थी। पहले तो वे सज्जन टीटी से बर्थ को लेकर खूब लड़े, फ़िर उन्हें दिल्ली में पहुंचकर उसे देख लेने की धमकी दी गई। बाद में बर्थ मिल जाने पर उन्हें अपने जीवन का ज्यों नया "बर्थ" मिल गया। अब वे पैर फैलाकर आराम से पसरकर लगे बिहार और बिहारियोम को कोसने। उन मराठी सज्जन ने कहा कि "मैंने तो बिहार की काफी तारीफ़ सुनी है।" बिहारी सज्जन ने तुनकते हुए कहा, "आपसे किस (बेवकूफ) ने कह दिया।" फ़िर वे बोले, "मैं लालू के इलाके का हूँ। और मैं जानता हूँ कि लालू ने किस कदर बिहार को मटियामेट कर दिया। " बुजुर्ग ने कहा कि उनके कारण तो रेल के किराए में भी कटौती आई है, गरीब रथ जैसी ट्रेने खुली हैं, रेलवे प्रौफिट में हैं। "बिहारी सज्जन गीता का ज्ञान दे रहे कृष्ण की तरह मुस्काए और उसके बाद लालू क्या हैं, कैसे हैं, यह सब लेकर उनका ज्ञान वर्धन कराने लगे। इन सबका लब्बो- लुबाब यह कि आपने अगर बिहार के बारे मैं कुछ अच्छा सुन भी लिया है तो आप या बिहार इस काबिल नहीं। बुजुर्ग ने बताया कि मेरा बेटा जिस इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ता है, वहाँ बिहारी बच्ची भी हैं। मेरा बेटा उनसे सुअकर मुझे बता रहा था। सुनकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था, पर अब आप कह रहे हैं की ऐसा कुछ भी नहीं है।

बिचारे वे बिहारी छात्र , जो बिहार की छवि अपने तरीके से सही रूप में दिखाना चाहते थे, उनकी कम अकली पर आप भी रोइए। क्यों वे बिहार को बाद से साद मुं पहुंचाना चाह रहे हैं? एक गाना हैं ना की 'कोई दुश्मन घाव लगाए तो मीत जिया बहलाए, मनमीत जो घाव लगाए, उसे कौन बचाए।'

बिहारी ग्रुप के पुष्पक पुष्प का आक्रोश, दुःख मीडिया के प्रति है। भाई मेरे, हम सभी मीडिया हैं, अपने अपने स्टार पर। किसी की भी छवि को संवारने या बिगाड़ने का काम और दायित्व हमारा भी होता है। जबतक सभी बिहारी इस बात को नहीं समझेंगे, अपने बिहारी और भारतीय होने का गौरव अपने भीतर नहीं भरेंगे, तबतक सभी बिहारी इस तरह के भेद-भाव का शिकार होते ही रहेंगे। पहले तो अपने लोगों को यह कहना - समझना सिखाएं कि बिहार का मतलब केवल लालू नहीं है

Saturday, July 26, 2008

अजय टीजी के लिए

अजय टीजी फ़िल्म मेकर हैं, और अपने स्वतन्त्र देश में अपनी अभिव्यक्ति की सज़ा पा रहे हैं। ५ मई, २००८ से वे छत्तीसगढ़ की जेल में बंद हैं। उन्हें छुडाने के लिए अदूर गोपल कृष्णन, श्याम बेनेगल, मृणाल राय जैसे फ़िल्म मेकर अपनी अपील दे चुके हैं। अजय टीजी को आप जाने, अपने को व्यक्ति समझने के लिए यह ज़रूरी है। उनके लिए एक कविता -
"यह कोई नहीं है समर्थन
यह है अपनी मज़बूरी की लिजलिजाती, बू से भरी अपनी देह का एहसास
कि इसमें रहता है एक मन भी
और उस मन का मन होता है कि वह बोले, देखे, दिखाए वह सब
जिसे देखने से हमारा मन हो सकता है ख़राब
जिसे चख कर हमारी जीभ में भर सकता है करेले का कड़वापन
जिसे सूघ कर हमारे दिमाग की नस-नस में भर जाती है वह असहनीय दुर्गन्ध।
मेरे भाई अजय,
तुम बेवकूफ तो नहीं थे या पागल, कि चल पड़े थे एक ख्वाब की कालीन बुनने
जिसमें हर कोई है भरे पेटवाला,
हर बच्चे की पीठ पर है बस्ता
हर माँ के चहरे पर है मुस्कान
हर व्यक्ति के पास है कमाने-खाने के साधन
किस दुनिया में हो मेरे भाई।
क्या तुम्हे नहीं पता कि अभी-अभी तो जान बची है उनकी
यह भी तो एक सत्य है ही ना
कि किसी के जीने के लिए किसी को मरना ही पङता है
अब ऐसे में देश मर भी गया तो क्या?
यह तो खुशी मनाने की बात है, जैसे सभी ने खुशिया मनाई थीं
जब लटकाया गया था सद्दाम हुसैन
जब कहा गया कि उसके फांसी पर लटकने के वक़्त
सोया हुआ था आका
अवाम जग रही थी
और चिपकी हुई थी टीवी
लोगों ने गिलगिला कर हर्ष से तालियाँ बजाई थीं
और चैन की साँस ली थी कि
आजाद हुए शैतान से।
आका तेल के कुँए पर बैठ मुस्कुरा रहा था
अब ठहाके लगा रहा है
अब भी लोग ले रहे हैं चैन की साँस
बच गए हम
अब आयेगा देश में सुख-सुविधाओं का रेला
अब अजय भाई, तुम भी तो नाहक झगड़ बैठते हो
मत्था टेक लो
आका खुश तो बच जाओगे तुम
पर ऐसा हो सकता है क्या अजय भाई।
मेरा मन कहता है
अभी तुम नहीं हुए हो इतने स्वार्थी कि
हम सबको मार दो देश की तरह
तुम्हारी लड़ाई ही तो ताक़त है उन सबकी
जो झेल रहे हैं अपने ही घर में आग, पानी, हवा का प्रकोप।
उनके लिए तो तुम्हारी-हमारी बात ही रखेगी जले पर फाहा
तुम अपने एहसास एक साथ रहो भाई,
हमें खुशी है कि धरती भारी नहीं है पूरी शैतानों से।
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Monday, July 21, 2008

जाना भाई राजेन्द्र पांडे का

कल बहुत दिन बाद चौपाल में जाना हुआ। चौपाल मुम्बई के रचनाधर्मियों के लिए है और इसकी सबसे बड़ी खासियत है कि इसका कोई फंड नहीं होता और उससे भी बड़ी बात है कि इसमें किसी के बाल की खाल नहीं उधेडी जाती। खैर, घुसते ही भाई अतुल तिवारी मिले और कहा "आपको पता है कि नहीं कि भाई राजेन्द्र पांडे नहीं रहे? आज ही सुबह वे हमसे बिछुड़ गए।"
भाई राजेन्द्र पांडे बिछुड़ गए और मेरे मन में अनेक हलचल छोड़ गए। पिछले दो-तीन दिनों से उन्हें फोन कराने की सोच रही थी, मगर किसी न किसी कारन से बस टालता ही रहा। अब लगता है कि बात कर ली होती तो आज दिल में यह कचोट नहीं रह जाती। एक शख्श, जो बिना किसी स्वार्थ के किसी की मदद करता हो, तमाम जानकारियां देता हो, गाइड, फ्रेंड, फिलौस्फर, यह सब भाई राजेन्द्र पांडे ही हो सकते थे। मेरे नाट्य लेखक को उभारने में उनका बहुत बड़ा योगदान है।
आज से लगभग १० साल पहले, जब मैंने अपना पहला नाटक लिखा, "मदद करो संतोषी माता' , उस पर रंग-पाठ आयोजित हुआ। एक बेहद मशहूर रंगकर्मी आए। उन्होंने न केवल इसे खारिज कर दिया, यह कह कर कि बहुत कमजोर नाटक है, बल्कि यह भी परोक्ष रूप से कह दिया कि क्यों लिखना, जब लिखना नहीं आता। यह भी कि हमारे पास बाक़ी कामों से वक़्त नहीं मिलता किहम स्क्रिप्ट काम करें। मैं आज भी मानती हूँ किफ़िल्म, सीरियल, नाटक का सबसे मजबूत पक्ष स्क्रिप्ट ही है। वह ठीक है तो उसे पढ़ भी दिया जाए तो रचना का आनंद आता है। लेकिन, दुर्भाग्य कि स्क्रिप्ट पर काम करना कोई पसंद नहीं करता। भाई राजेन्द्र पांडे ने भी नाटक में कमियाँ बताईं, मगर कहा कि इस पर काम किया जा सकता है। इस पर काम हुआ और बाद में इसे हिन्दी व् मैथिली दोनों में लिखा गया।
काम न केवल इस पर हुआ, बल्कि मेरे हर नाटक पर उनकी प्रतिक्रया मिलाती रही। "अए प्रिये तेरे लिए " के मंचन को देखने के बाद वे बोले कि अब आपसे नाटक और अधिक मांगने की मेरी अपेक्षा बढ़ गई है।'
२००५ में मोहन राकेश सम्मान की प्रविष्टि भेजने के लिए जिस तरह से वे मेरे पीछे पड़े, वह आज तक मुझे नहीं भूलता। हर दूसरे दिन एक संदेश मिल जाता- "भेजा?"। मैंने कहा कि मेरे पास अभी फार्म नही आया है, इसलिए नहीं भेज पा रही हूँ, उनहोंने अपना फार्म मुझे भेज दिया यह कहकर कि आप इसमें अपनी प्रविष्टि भेज देन, मैं नहीं भेज रहा हूँ।" मैंने भेज दी। दुबारा मेरा फार्म आने पर बोले, एक और भेज दों। मैंने एक और भेज दी। संयोग कि दोनों ही नाटक 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' और 'आओ तनिक प्रेम करें' को मोहन राकेश सम्मान से नवाजा गया।
मि. जिन्ना नाटक में मेरे अभिनय को देख कर बोले, ' अब मेरी अपेक्षा आपसे और भी बढ़ गई । मेरे दूसरे नाटक 'लाइफ इस नत अ ड्रीम के किसी भी शो में सेहत ख़राब होने के कारण नहीं आ सके।
अवितोको की हर गतिविधि की जानकारी लेने में वे सबसे आगे रहते। अवितोको के वार्षिकांक के लिए उनहोंने एक लेख भी लिख कर दिया था। नटरंग में उनहोंने अपने लेख में अवितोको की गतिविधि का ज़िक्र किया था और मुझे सूचना दी कि लेख में अवितोको है। और यह सब बिना किसी निजी सरोकार के। जेल की हमारी गतिविधियों पर वे कहते रहे कि मुझे आपके साथ एक बार जेल जाना है। अब तो वे ख़ुद इस दुनिया की जेल से ही छूटकर आजाद हो गए। उनका जाना एक उस महान विचार का जाना है, जो बगैर किसी स्वार्थ या अतिरिक्त प्रसिद्धि पाने की लालसा से उपजता है। भाई राजेन्द्र पांडे की अनगिनत किताबें और उनकी रचनाएं हम तक हैं। वे विविधता में लिखते रहे- नाटक, व्यंग्य, आलोचना, कवितायें। खूब लिखा और उतने ही नम्र बने रहे। कभी चहरे पर शिकन तक नहीं। हिन्दी के इतने बड़े पैरोकार कि अन्ग्रेज़ी जानते हुए भी, कभी भी उसका प्रयोग नहीं किया। राजेन्द्र पांडे भी, हम अपनी श्रद्धांजलि ही आप तक पहुंचा सकते हैं। अफसोस जीवन भर लगा रहेगा कि क्यों मैंने फोन नहीं किया, क्यों आपसे बात नहीं की?

Monday, July 14, 2008

हर बार की शूली- टुकडा आसमान भी उनके लिए नहींं?

बचना चाहती रही हूँ, अब इस तरह के विषय पर लिखने से, मगर हर बार कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है की लिखना पड़ जाता है। समाज में समानता की बात गोहरानेवालों को भी यह शायद नागवार गुजरे, मगर सोच के स्तर पर जबतक बात नहीं आयेगी, कुछ भी समाधान नहीं निकलेगा। हम केवल लकीर पीटते रहेंगे और एक दूसरे पर इल्जाम लगारे रहेंगे।
हाल ही में एक अखबार ने यह सर्वे किया की हिंद्स्तान में तलाक की डर क्यों बढ़ रही है? इसके सामान्य उत्तर के रूप में कह दिया गया की महिलाएं ही इसके मूल में हैं। उनकी शिक्षा, उनकी आर्थिक आत्म निर्भरता उन्हें तलाक की ओर प्रेरित कर रही है।
सुनने में यह बहुत सरल, सहज और सच सा जान पङता है। मगर इसके मूल में बातें कुछ और भी हैं। महिलायें अगर आज पढ़ लिख रही हैं, आर्थिक रूप से सक्षम हो रही हैं तो इसलिए नहीं, कि वे घर, परिवार या रिश्ते, सम्बन्ध को नहीं मानना चाहतीं। ऐसा होता तो वे शादी करना ही नहीं चाहतीं। करतीं भी नहीं, परिवार, बच्चे कुछ भी नहीं चाहतीं। बीएस आजाद पंछी की तरह घर और दफ्तर और उसके बाद यहाँ- वहाँ डोलती रहतीं। मगर ऐसा नहीं होता। लड़कियां शुरू से ही घर में रहना पसंद करती रही हैं, आज भी करती हैं। हाँ, अपनी चाहत के नाना रूपों को वह निखारना चाहती हैं, अपनी प्रतिभा को नए -नए आयाम देना चाहती हैं और इस देश का नागरिक होने के नाते यह उनका मौलिक अधिकार है। अपने को एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में देखने के बाद अगर उन पर तोअहामत लगाए जाएँ तो यह मेरा भी कहना होगा कि ऐसे में उनका अपना वह तथाकथित घर छोड़ देना उनके लिए ज़्यादा मायने वाला होगा। महिला या लड़की से पहले एक इंसान हैं, और उन्हें इसी रूप में देखे जाने की ज़रूरत है। ऐसा न होने पर वे घर छोड़ती हैं या रिश्तों को तिलांजलि देती हैं तो यह सोचने वाली बात है कि इतने के बावजूद हम और हमारा समाज अपनी सोच में बदलाव क्यों नहींं लाता? क्यों उसे घर की लाज, घर की सबसे जिम्मेदार सदस्य, घर चलानेवाली और ये-वो से अभिहित किया जाने लगता है? वह सब करने को वह तैयार है, पर उसके लिए भी तो सोचें कि उसे एक व्यक्ति के रूप में अभी भी हम क्या दे रहे है? आज सवाल स्त्री-पुरूष के बीच भेद बढ़ाने का नहीं, दोनों के बीच एक सामंजस्य स्थापित करने का है और इसके लिए हर पक्ष को बराबर- बराबर की साझेदारी निभानी ही होगी। महिलाओं पर हर बार की तरह दोषारोपण कराने की आदत से अब बाज़ आने की ज़रूरत है।

Sunday, July 13, 2008

कलाकारी- इरेजर की या कलाकार की?

आज एक छोटी सी फ़िल्म देखी- 'कलाकार'। मुख्य भूमिका रजित कपूर की। फ़िल्म अवाक। कहीं- कहीं गति में चार्ली चैपलिन की तरह लगती। संवाद समझाने के लिए लिखे हुए संवाद आते, जो कभी-कभी अनावश्यक लगते, जेसे किसी के दरवाजा खटखटाने पर -"नोंक-नोंक" कहना। हा, सारे कैप्शन अन्ग्रेज़ी में थे।
फ़िल्म की कहानी के लिए कुछ मौर्यकालीन समय जेसा पीरियड चुना गया था। कलाकार को आदेश हुआ है, प्रधान मंत्री की बेटी की तस्वीर में सुधार करने के लिए। कलाकार जब भी उस पर काम करता है, कभी छींक आने से तो कभी मच्छर के काटने से तासीर बिगड़ जाती है। वह काफ़ी परेशान व् चिंतित है। उसका दोस्त अंत में उसकी सहायता करता है। अचानक वह इरेजर ईजाद करता है और इसके बल पर कलाकार तस्वीर सही-सही बना देता है।
फ़िल्म के अंत में फ़िल्मकार के साथ बातचीत थी। भावना सोमाया इसे प्रस्तुत कर रही थीं। उनहोंने इसे बहुत ब्रिलियंट फ़िल्म बताई। पता नहीं, यह मौके की नजाकत थी, एक प्रस्तुतकर्ता की भुमिका में होने के नाते या सचमुच फ़िल्म उन्हें अच्छी लगी।
छाम्माक्छाल्लो समझ ना सकी कि यह फ़िल्म है क्या? यदि यह इरेसर की उत्पत्ति के लिए फ़िल्म थी, तब तो कोई बात नहीं। मगर एक कलाकार के माध्यम से इसे व्यक्त करने की कोशिश में यह एक हास्य ही उत्पन्न कर सका। कोई भी कलाकार इरेजर के इस्तेमाल से बड़ा नहीं हो सकता। हमारे गुरु हैं- पोलाजी सर, वे कहते हैं, "अगर तुमने ग़लत स्ट्रोक लगा भी दिए तो कोशिश करो कि उस ग़लत स्ट्रोक को अपने ब्रश या पेन्सिल से कैसे ठीक कर सकते हो? उसे ठीक करने के लिए इरेज़र का इस्तेमाल तुम्हारी कल्पना को छोटा करता है।" यह बात नई कलाकार विधा सौम्य भी मानती है। हम भी जब कभी आर्ट वर्कशौप करते हैं, बच्चों को इरेसर नही देते। वे शुरू में मायूस होते हैं, मगर बाद में अपनी ही कल्पना के अलग-अलग परिणाम देख खुश होते हैं। आज कल स्कूलों में भी बच्चों को इरेज़र के लिए हतोत्साहित किया जाता है, ताकि वे ग़लत ना लिखें, वरना इरेज़र तो है, मिटा देंगे, यह प्रवृत्ति बच्चे के मन में बढ़ने लगती है। दूसरे,इरेज़र के इस्तेमाल से कागज़ पर सफाई नहीं आती है।
छाम्माक्छाल्लो इस बात से मुतास्सिर है कि इरेज़र का इस्तेमाल होना चाहिए, मगर वहाँ, जहाँ इसके बिना काम ना बने। रचनात्मक कामों में इसका इस्तेमाल रचनात्मकता को कम करता है। फ़िल्म का यह संदेश फ़िल्म को कथ्य के स्तर पर कमजोर करता है और संदेश देता है कि आख़िर यह कलाकारी कलाकार की हुई या इरेज़र की?

Friday, June 6, 2008

घुड़सवारी - राजेन्द्र बाबू की

कहा जाता है कि डॉ राजेन्द्र प्रसाद के पिताजी को घुड़सवारी का बेहद शौक था। इसलिए उन्होंने अपने दोनों बेटों, महेन्द्र बाबू व राजेन्द्र बाबू को भी बहुत अच्छा घुड़सवार बना दिया था।
एक बार किसी संबंधी या मित्र की बरात में दोनों भाई गए। जनवासे में उन्हें ठहराया गया। जनवासे से बहुत ही ठाठ बात से बरात लड़कीवालों के दरवाजे तक पहुँचती। रास्ते में जहाँ खुला मैदान मिलता, लड़कीवाले वहाँ बरात की अगवानी के लिए आते। फ़िर तो दोनों पक्षों में घुड़ दौड़ की होड़ लग जाती।
इस बार इन दोनों भाइयों को दो घोडे दिए गए। संयोग से राजेन्द्र बाबू को मिला घोडा बेहद मुंहजोर, पर दौड़ने में सबसे तेज़ था। घुड़ दौड़ शुरू होते ही वह गाँव के बदले बाहर मैदान की और भाग चला। मुंहजोर इतना कि लगाम खींचने के बावजूद वह राजेन्द्र बाबू के कब्जे में नहीं आया। बारे भाई महेन्द्र बाबू, ज़ाहिर है, बड़े चिंतित हुए। जबतक वे अपने घोडे को पीछे ले जाते, तबतक तो राजेन्द्र बाबू का घोडा नौ-दो-ग्यारह हो गया था। उनका पता लगानेवाले भी खाली हाथ लौट आए। सभी अपनी-अपनी आशंका में डूबे हुए ही थे कि सभी ने देखा, अपने घोडे को बहुत ही धीमी चाल से चलाते हुए राजेन्द्र बाबू वापस आए। उतरने पर बताया कि " जब यह किसी भी प्रकार से वापस आने को तैयार नहीं हुआ, तो मैंने लगाम में ढील दे दी कि देखें, कहाँ तक ,कितना दौड़ सकता है? रास्ते में इसने मुझे गिराने की कोशिश की, किंतु मेरा आसन पक्का था, इसलिए मैं गिरा नहीं। लगभग सात-आठ मील दौड़कर घोडा जब अपने आप ही थकने लगा, तो मैं इसे वापस फेर सका और अब इसे इतना थका दिया है कि चाबुक मारने, एड लगाने पर भी अधिक दूर नहीं दौड़ सकता। अब यह सोलह आने मेरे काबू में आ गया है।"

-साभार- पुन्य स्मरण, लेखक- मृत्युंजय प्रसाद (राजेन्द्र बाबू के सुपुत्र)
विद्यावती फौन्देशन, पाटलिपुत्र कोलोनीपटना- ८०००१३, फोन- ०६१२-२६२६१८/224559

Tuesday, June 3, 2008

मुगदर के हाथ, राजेन्द्र बाबू के साथ

एक पाठक ने हमें यह सुझाव दिया है कि किताब व प्रकाशक का नाम-पाता दे दिया जाए, ताकि पाठअक इस किताब को स्म्गार्हित कराने में मदद मिल सके। उनकी राय का सम्मान करते हुए अबसे राजेन्द्र बाबू के प्रसंग लिखते समय किता के साथ- साथ प्रकाशक का भी नाम-पाता दिया जाएगा। )
(आन्दोलन में अपनी पढाई छोड़कर आनेवालों के लिए देश में जगह-जगह पर राष्ट्रीय विद्यापीठ व विद्यालय स्थापित किए गए थे- १९२९ में। बिहार विद्यापीठ के प्रथम प्राचार्य डॉ राजेन्द्र प्रसाद थे। वे स्वय वहा छात्रों को पढाया भी करते, जो कालांतर में अत्यधिक व्यस्तता के कारण छूटता चला गया। वहाँ छात्र रोजाना कुछ सामूहिक व्यायाम किया करते। वहाँ पर मुग्दारों की तीन जोदियाँ थी, जिनमें एक बहुत वज़नी, एक हलके वजन औए एक मध्यम वज़न की थी।
एक बार राजेन्द्र बाबू बिहार विद्यापीठ में ठहरे हुए थे। मुगदर फेरने के तरीके को देख कर वे बोले- "तुमलोगों के मुगदर फेरने का तरिक्का ग़लत है। तुमलोग बहुत फुर्ती से बिना हाथ रोके मुगदर फेरते जाते हो। देखने में यह बहुत सुंदर तथा प्रभावकारी लगता है। किंतु, इसमें तुम्हारे हाथों व कन्धों पर बहुत अधिक वजन पङता है। तेजी से चलाने से मुगदर आप ही चलने लगते हैं और भुजाओं व मांसपेशियों का विकास नहीं हो पाता, क्योंकि उन्हें बहुत कम बल लगाना पङता है। सही तरीका यह है कि धीरे-धीरे मुगदर फेरो, जिसमें हर पल उन्हें फेरने में बल लगाते ही जाना पड़े और जब तुम्हारे हाथ ऊंचे से झुककर कन्धों तक जाएं, टैब उन्हें धरती के समानांतर ला कर सीधे रखो और पल भर के लिए मुगदर को वेग से रोक लो। रोकने में तुम्हें बल लगाना होगा। फ़िर वैसे ही नीचे से उठाते समय फेरो तो फ़िर रोकने व दोबारा उठाने में भी अधिक बल लगाना पड़ेगा।" फ़िर सबसे हलकी जोडी लेकर उनहोंने मुगदर फेरने के कई नए-नए हाथ भी दिखाए व बताये। राजेन्द्र बाबू के पिटा बहुत ही अच्छे कसरती जवान थे और बहुत ही बलवान थे। उन्होंने राजेन्द्र बाबू और उनके बारे भाई महेन्द्र बाबू उनके बचपन में बहुत सी देसी कसरतें अखाडे भेजकर सिखाई थी, जिनमें से मुगदर फेरना भी थी।
-साभार- पुन्य स्मरण
विद्यावती फौन्देशन
२७४, पाटलिपुत्र कोलोनी
पटना- ८०००१३, फोन- ०६१२-२६२६१८/224559

Friday, May 30, 2008

राजेन्द्र बाबू से भी पहले तिलक-दहेज़ -साभार 'पुन्य -स्मरण'

डॉ राजेन्द्र प्रसाद के बारे भाई महेन्द्र प्रसाद देश व समाज की सेवा अपने ढंग से किया करते थे। उनके समय में छपरा में नाटक खेले जाते थे। सामाजिक नाटकों का क्या प्रभाव परता था, यह एक उदाहरण से पाता चलता है।
तिलक-दहेज़ पर आधारित नाटक 'भारत स्मरणीय' नाटक खेला गया। टैब छपरा में पंडित विक्रमादित्य मिश्र नामक बहुत बारे ज्योतिषी रहते थे। उन्होंने अपने लडके का ब्याह तय कर दिया था। वे भी यह नाटक देखने आए थे। दूसरे ही दिन उनहोंने अपने भावी समधी को बुलाकर कहा कि 'ये तिलक की राशी मैं लौटा रहा हू। ' कन्या के पपीता घबदाये क्योंकि तिलक लौटाने का अर्थ है- ब्याह से इनकार करना। पंडित जी ने कहा, 'विवाह होगा, और इसी कन्या से होगा। किन्त्न्यु कल जो मैंने नाटक देखा और उसमें लड़की के पिटा कि जो दुर्गति देखी, उससे मैं समझ गया हूँ कि तिलक लेना महा पाप है। कन्या पक्ष पैसे लेने को राजी नहीं। अंत में इस विवाद का हल निकाला गया कि तिलक के वे रुपये कन्या के लिए स्त्री-धन के रूप में मान लिया जाए और जितनी भी रस्में आदि हैं, उनमें दस्तूर के मुताबिक मट्टी रकम न दी जाए और न ली जाए। केवल एक रुपया हर रस्म पर दिया जाए और इस प्रकार आगे का लें-देन आठ- दस रुपयों में समाप्त कर लिया जाए।
थिएटर की यह ताक़त अदभुत है। और यह समझ भी कि यदि व्यक्ति चाहे तो क्या नही कर सकता?
आज भी तिलक-दहेज़ कम नहीं हुआ है। हैरानी है किवार स्वयम भी इसके पक्ष में रहता है और इस मुद्दे पर घर-परिवार की दुहाई देकर चुप हो जाता है। कुछ लडके हैं, जो माँ-बाप कि इस इच्छा को सफल नहीं होने देते। वैसे सभी लड़कों और तिलक की चाह न रखनेवाले माता-पता को सलाम। सोचें, कि अगर यह उस ज़माने में सम्भव था तो आज जबकि समय इतना आगे बढ़ गया है और लडके-लड़की दोनों अपने पैरों पर क्खादे है, तो आज यह सब क्यों मुमकिन नहीं हो सकता। छाम्माक्छाल्लो का सपष्ट मत है कि ऐसा सम्भव है। बस आपकी नज़र और मन के भाव चाहिए।

Thursday, May 29, 2008

महाभारत किसलिए हुआ था?

छाम्माक्छाल्लो आज एक सेमिनार में थी। सेमिनार गीता ज्ञान के ऊपर aadhharit thaa। ka2rporeT जगत में giita को अज शिद्दत से समझाने की कोशिश की जा रही है। स्वामी जी गीता के माध्यम से Conflict Management and Dicision Making पर बात कर रहे थे। प्रसंगवश उनहोंने यह कहा कि महाभारत की लड़ाई द्रौपदी कू सार्वजनिक रूप से अपमानित कराने के कारण हुई थी। छाम्माक्छाल्लो की समझ में यह बात नहीं आई। महाभारत का युद्ध धर्म, अधिकार की वापसी और न्याय का युद्ध है। दिनकर ने बहुत खूब कहा है-
"अधिकार खो कर बैठा रहना यह महा दुशाकर्म है
न्याय्याढ़ अपने बंधू को भी दंड देना धर्म है
इस तत्व पर ही पांडवों का कौरवों से रण हुआ
जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ।"
छाम्माक्छाल्लो ने स्वामी जी से पूछा कि द्रौपदी तो बाद में अपमानित हुई सार्वजनिक, लेकिन जब वह अपने ही घर में ५ पुरुषों के बीच बाँट दी गई, टैब क्यों नहीं हुआ महाभारत? क्या जो अपराध या ग़लत काम घर, परिवार, समाज की सहमति से हो, वह ठीक और जो ना हो, वह ग़लत हो जाता है? स्वामी जी के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। छाम्माक्छाल्लो को लगता है कि यदि उसी समय द्रौपदी ने इसका विरोध कीया होता तो आज महिलाओं और बच्चियों पर जो अपने ही नजदीकियों द्वारा अत्याचार किए जा रहे हैं, वे शायद न होते।
प्रसंगवश स्वामी जी ने यह भी कहा कि गावं में आज भी स्त्रियाँ भाव से अधिक बंधी हैं, इसलिए वहांआन कलह आदि कम होते हैं, जबकि शहर में स्मार्ट स्त्रियों मी भाव को तिलांजलि दे दी है, इसलिए वे किसी के भी प्रती भावुक नहीं हैं, न घर, न पति, ना बच्चे। भाव और ह्रदय के नाम पर कबतक स्त्रियों को बरगलाया जाता रहेगा, यह पाता नहीं। छ्हम्माकछाल्लो ने कहा किस्मार्टनेस बुद्धिमानी से आती है और भाव को थोडा कम करके भुद्धि को वहाँ जगह देना आज की मांग है, ताकि स्त्रियाँ केवल छुई-मुई सी नाज़ुक सी गुडिया भर ही ना बनी रह जाए- ता उम्र, जन्म जन्मांतर। आख़िर कबतक भावना के नाम पर उन्हें दरकिनार किया जाता रहेगा? और आज जब स्त्रियाँ दिल और दिमाग दोनों से अमज्बूत हो रही हैं तो इसका असर समाज पर आ रहा है॥ आज के युवा, खासकर लड़कों की सोच में बदलाव आया है। यह सकारात्न्म्मक बदलाव अगली पीढी को और मजबूती देगा। निशचय ही इसका सेहरा आज की पढी-लिखी स्त्रियों पर जाता है, और हाँ, उनके माता-पिटा कू भी यह श्री है कि उन्होंने अपनी बेटियों को पढाया। बौद्धिक रूप से मज़बूत हो कर आज स्त्रियाँ अपने आपको हर कठिन हालत से लड़ने के लिए तैयार रखती हैं।
स्वामी जी के पास इसका भी कोई जवाब न था। न, भ्रमित ना हों कि वे कोई सड़क छाप महात्मा या साधू थे। अईईती के इंजीनियर थे। १० साल तक कार्पोरेट जगत में काम कराने के बाद अब अपना प्रतिष्ठान चलाते हैं और जगह-जगह प्रबंधन से संबंधित विषय पर अभिभाषण देते हैं।
छाम्माक्छाल्लो को लगा कि समाज में तक ये वर्ग भेद लगा रहेगा, एक सफल कार्पोरेट की संकल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि कार्पोरेट ही सबसे पहले महिलाओं को यह कहा कर खारिज कराने का प्रयास करता रहता है कि महिलायें ज़्यादा भावुक होने के कारण सही निर्णय नहीं ले पातीं, जबकि आज वे दिल और दिमाग के अद्भुत संयोजन के बल पर हर काम को बखूबी अंजाम दे रही हैं। सोच में यह बदलाव ज़रूरी है- चाहे वह द्रुँपदी हो या आज की नारी।

Wednesday, May 28, 2008

अब मम्मियों को छेड़ना होगा जेहाद

छाम्माक्छाल्लो शादी-ब्याह के समय बहुत मद मस्त हो जाती है कि अब उसे गाने, खाने, नाचने, मौज मस्ती कराने का मौका मिलेगा। मगर वह इसमें लिंग आधारित व माँ -बाप की दखल अंदाजी देख कर आहात है। माता- पिटा बच्चे के लिए सबकुछ हैं, मगर इसका यह मतलब नहीं कि वे बच्चों की इच्छा पर और खासा कर शादी-ब्याह के मामले में एक दम से तानाशाह हो जाएं।
अभी भी हिन्दुस्तान में प्रेम विवाह या पानी पसंद के विवाह को उतनी वरीयता नहीं दी जाती। बच्चों को पढ़ने, पहनने की आजादी देनेवाले मैं-बाप अभी भी इस पर अपना एकाधिकार समझते हैं। लड़केवाले और लड़कीवाले का गत फर्क यहाँ ऐसा सर चढ़कर बोलता है कि शादी के नाम से नफ़रत सी होने लगती है। शादी के बाद की असमानता, असंतुलन तो बाद की चीज़ है।
लड़की आज किसी भी मामले में लड़कों से कम नहीं हैं। बेटियों को भी मैं-बाप बेटों की तरह ही पढा रहे हैं। यह संतोष की बात होते हुए भी शादी के मुद्दे पर उन्हें आजादी न देना बच्चों के प्रति कहीं न कहीं एक अविश्वास को दिखाता है। एक शादी का खर्च तो लड़का-लड़की खोजने में ही ख़त्म हो जाता है। उस पर से बार-बार लड़की को हर लड़केवाले के सामने सजा-धजा कर प्रस्तुत करना। यह अपने आप में इतना गलीज लगता है, जैसे बेटियाँ न हीन, प्रसाधन या सजावट का कोई सामान हो गई, जो पुकार-पुकार कर कहता है कि लो मैं प्रस्तुत हूँ। आओ, मुझे देखो, परखो।
परखने की घटना- कोई हाथ फैलाकर तो कोई साड़ी टखने तक उठा कर देखेंगे कि लड़की कहीं लूली- लंगडी तो नहीं। आँखें ऊपर उठावायेंगे कि कहीं वह कानी तो नहीं। सवाल ऐसे-ऐसे कि मन करे कि एक बड़ा सा पत्थर उठाक आर सामने वाले ल्के सर पर मार दिया जाए।
उससे भी हैरानी की बात है कि इन बेतियूं की माताएं यह सब परम्परा के नाम पर अच्छा समझती रहती हैं। वे ख़ुद अपने समय में अपने को बीसियों बार इस दिखाने की नारकीय स्थिति से गुजर चुकी होती हैं। फ़िर भी अपनी बेटी को भी इसी स्थिति का सामना कराने के लिए मज़बूर करती हैं। बेटियाँ अभी भी मैं- बाप के कहे अनुसार चलती हैं तो यह सोच कर कि आख़िर लो वे माँ -बाप हैं। तो माँ- बाप को भी इतना अधिकार तो देना ही होगा कि बेटियाँ अपनी पसंद का लड़का तय करे और माँ- बाप अपनी सहमति कि मुहर उस पर लगाएं। बहस बहुत हो सकती है कि अगर लड़का अच्छा न निकला तो? तो इसकी भी क्या गारंटी कि माँ- बाप द्वारा पसंद किया गया लड़का सही ही होगा? इसमें पिटा से अधिक माँ की भुमिका है। माँ अपने समय को याद करे और बेटियों को इस तरह का शो केस बनने से बचाए।
ऐसा होता है तो छाम्माक्छाल्लो इसे अपने जीवन की एक और सफलता समझेगी। हे आज की माम्मियो, आप पढी-लिखी, समझदार हैं। आप अपने बच्चों के भीतर विश्वास भरें। भरोसा रखें, वे आपका विश्वास कभी नहीं तोदेंगे। उन्हें अपना जीवन जीने व अपना जीवन साथी ख़ुद चुनने की आजादी दीजिये। आख़िर कार यह उनकी जिन्दगी है और यह जिंदगी अब आपसे ज़्यादा उम्र और संभावनाओं की है। बको अन्य भी महत्वपूर्ण काम कराने के लिए सोचने दीजिये। शादी भी एक अहम् पक्ष है, इअसके लिए उसे आजादी दें।

Thursday, May 22, 2008

राजेन्द्र बाबू का पत्र- पत्नी के नाम -साभार- पुन्य स्मरण

इस पत्र से पाता चलता है कि टैब के नेता देश के लिए कितने प्रतिबद्ध रहते थे। घर-परिवार , पैसे उनके लिए बाद की बातें होती थी। मूल भोजपुएरी में लिखा पत्र यहाँ प्रस्तुत है-
आशीरबाद,
आजकल हमनी का अच्छी तरह से बानी। उहाँ के खैर सलाह चाहीं, जे खुसी रहे। आगे एह तरह के हाल ना मिलला, एह से तबीयत अंदेसा में बातें। आगे फील-पहल कुछ अपना मन के हाल खुलकर लीखे के चाहत बानीं। चाहीं कि तू मन दे के पढी के एह पर खूब बिचार करीह' और हमारा पास जवाब लिक्जिः'। सब केहू जाने ला कि हम बहुत पधालीन, बहुत नाम भेल, एह से हम बहुत र्पेया कमेब। से केहू के इहे उमेद रहेला कि हमार पढ़ल-लिखल सब रुपया कमाय वास्ते बातें। तोहार का मन हवे से लीखिह्तू हमारा के सिरिफ रुपया कम्माये वास्ते चाहेलू और कुनीओ काम वास्ते? लड़कपन से हमार मन रुपया कमाय से फिरि गेल बातें और जब हमार पढे मी नाम भेल टी' हम कबहीं ना उमेद कैनीं कि इ सब र्पेया कमाए वास्ते होत बातें। एही से हम अब ऐसन बात तोहरा से पूछत बानी कि जे हम रुपया ना कमाईं, टी; तू गरीबी से हमारा साथ गुजर कर लेबू ना? हमार- तोहार सम्बन्ध जिनगी भर वास्ते बातें। जे हम रुपया कमाईं तबो तू हमारे साथ रहबू, ना कमाईं, तबो तू हमारे साथ रहबू। बाक़ी हनारा ई पूछे के हवे कि जो ना हम रुपया कमाईं टी' तोहरा कवनो तरह के तकलीफ होई कि नाहीं। हमार तबीयत रुपया कमाए से फ़िर गेल बातें। हम रुपया कमाए के नैखीं चाहत। तोहरा से एह बात के पूछत बानीं, कि ई बात तोहरा किसान लागी? जो हम ना कमैब टी; हमारा साथ गरीब का नाही रहे के होई- गरीबी खाना, गरीबी पहिनना, गरीब मन कर के रहे के होई। हम अपना मन मी सोचले बानीं कि हमारा कवनो तकलीफ ना होई। बाक़ी तोहरो मन के हाल जान लेवे के चाहीं। हमारा पूरा विश्वास बातें कि हमार इस्त्री सीताजी का नाही जवना हाल मी हम रहब, ओही हल में रहिहें- दुःख में, सुख में- हमारा साथ ही रहला के आपण धरम, आपण सुख, आपण खुसी जनिः'। एह दुनिया में रुपया के लालच में लोग मारत जात बाते, जे गरीब बातें सेहू मारत बातें, जे धनी बाते, सेहू मारत बातें- टी' फेर काहे के तकलीफ उठावे। जेकरा सबूर बातें, से ही सुख से दिन कातात बातें। सुख-दुःख केहू का रुपया कमैले और ना कमैले ना होला। करम में जे लिखल होला, से ही सब हो ला।
अब हम लीखे के चाहत बानी कि हम जे रुपया ना कमैब टी' का करब। पहीले टी' हम वकालत करे के खेयाल छोड़ देब, इमातेहान ना देब, वकालत ना करब, हम देस का काम करे में सब समय लगाइब। देस वास्ते रहना, देस वास्ते सोचना, देस वास्ते काम करना- ईहे हमार काम रही। अपना वास्ते ना सोचना, ना काम करना- पूरा साधू ऐसन रहे के। तोहरा से चाहे महतारी से चाहे और केहू से हम फरक ना रहब- घर ही रहब, बाक़ी रुपया ना कमैब। सन्यासी ना होखब, बाक़ी घरे रही के जे तरह से हो सकी, देस के सेवा करब। हम थोड़े दिन में घर आइब, टी' सब बात कहब। ई चीठी और केहू से मत देखिः', बाक़ी बीचार के जवाब जहाँ तक जल्दी हो सके, लीक्जिः'। हम जवाब वास्ते बहुत फिकिर में रहब।
अधिक एह समय ना लीक्हब।
राजेन्द्र
आगे ई चीठी दस-बारह दीन से लीखाले रहली हवे, बाक़ी भेजत ना रहली हवे। आज भेज देत बानी। हम जल्दीये घर आइब। हो सके टी' जवाब लीखिः', नाहीं टी' घर एल पर बात होई। चीठी केहू से देखिः' मत। - राजेन्द्र
पाता- राजेन्द्र प्रसाद, १८, मीरजापुर स्ट्रीट, कलकत्ता
(अब आप सोचें कि ऐसे पत्र को पाकर उनकी पत्नी के क्या विचार रहे होंगे और देश को पहला राष्ट्रपति मिलाने में उअनाकी क्या भुमिका रही होगी?)

Wednesday, May 21, 2008

फर्क विकसित और विकासशील देशों का

एक कार्यक्रम में थी छाम्माक्छाल्लो थी - इ-लर्निंग, distant learning and Cross Knowledge पर। फ्रांस के एक प्रेजेंतर अपना प्रेजेंटेशन देनेवाले थे। किन्ही तकनीकी कारणों से उनका प्रेजेंटेशन न हो सका। काफी देर वे इस प्रयास में रहे कि प्रेजेंटेशन ठीक हो जाए और वे अपनी बात कह सकें। मगर उसे आज ठीक न होना था, न हुआ। और इसके अभाव में वे एक लाइन भी अपने प्रोजेक्ट के बारे में न बोल सके। केवल इधर-उधर की बातें करते रहे। एकाध सवाल पूछे जाने पर भी वे उसका समुचित उत्तर न दे सके। अंत में वे बैरंग वापस चले गए।
यही वाक़या कल छाम्माक्छाल्लो और उसके अन्य सहयोगियों के साथ हुआ।देश भर के लोग जमा थे। सभी अपना अपना प्रेजेंटेशन इ-मेल के माध्यम से भेज चुके थे। बावजूद इसके, सभी अपने साथ पेन ड्राइव व सी दी लेकर आए थे। कल भी पी सी में कुछ खराबी होने के कारण सेव किया प्रेजेंटेशन नहीं दिखाया जा सका। अंत में सभी की सी दी व पेन-ड्राइव काम आए। वह भी नहीं चलता तो लिखित डाटा व अपने दिमाग में स्टोर किए डाटा से काम चलाया जाता। हमें कल लगा था कि हिन्दी (अभी भी) के कारण यह तकनीकी बाधा है। मगर आज वह भ्रम दूर हो गया था।
छाम्माक्छाल्लो के सामने यह फर्क साफ हुआ कि विकासशील देश अपनी सुविधाओं और तकनीक पर इतने निर्भर और आश्वस्त रहते हैं कि इस तरह की अवांछित स्थिति आ सकती है, ऐसा वे सोच ही नही पाते, जबकि हम जैसे विकासशील देश के लोग हर तरह की आशंकाओं से जूझते हुए पलते-बढ़ते हैं, इसलिए हर स्थिति केलिए तैयार रहते हैं। और सबसे बड़ी बात कि दिमाग से खाली नहीं होते। जिसपर बात करनी है, उसपर पूरी तरह से मानसिक तैयारी रहती है। अपने लक्ष्य को पाने की हर कोशिश करते हैं। छाम्माक्छाल्लो को लगा कि आज यह स्थिति हमारे किसी भी व्यक्ति, अधिकारी के साथ होती तो वह अपने प्रेजेंस ऑफ माइंड से बगैर पावर प्वायंत प्रेजेंटेशन के भी एक सुंदर प्रस्तुति दे सकता था। यह अपने काम के प्रति की जिजीविषा है। अपने को प्रस्तुत कराने की लगन है। वह इस तरह तो बैरंग नहीं ही लौटता।

Thursday, May 15, 2008

घर-घर देख, एक ही लेखा

दो दिन पहले अखबार में ख़बर थी कि ब्रिटेन के पूर्व प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर की पत्नी चेरी ब्लेयर ने अपने पति पर आरोप लगाया कि उसके गर्भपात की संवेदनशील ख़बर को पति ने अपनी राज नीति के लिए इस्तेमाल किया। छाम्माक्छाल्लो खुश हो गई क्योंकि उसने अपनी किसी रचना में यह लिखा था कि अत्याचार या ज़ुल्म दिखाने के लिए पेट -पीठ पर जले का, हाथों के कटे-फटे का दिखाना ज़रूरी नही है। मन की मार बड़ी मारक होती है। इसे किसी को दिखाया भी नहिंजा सकता। इसके पहले अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की khabarein आपको पाता ही है। अपने देश मेंयः सब saamaany है। फर्क सिर्फ़ इतना है कि वहां की पत्नियों में यह साहस है कि वे अपने पतियों के ख़िलाफ़ बोल सकें। यहाँ यह्दुर्लभ है। पति-पत्नी या किसी के प्रेम प्रसंग बाहर आ ही नहीं सकते, अगर वह राजनीति में हो। खूब सारे हंगामे, खूब सारे लोगों की जान कि बलि और जिनके बारे में लिखा जाए , वे तेल लगे चमड़े पर पानी की बूँद की तरह फिसला कर निकल लें।

छाम्माक्छाल्लो सोच रही है कि आख़िर पत्नियां होती किसलिए हैं? माना कि पति के हर सुख-दुःख में उसके कंधे से कंधा मिला कर चलने के लिए, मगर इसका मतालाब्यः तो नहीं कि उसे अपने काम केलिए इस्तेमाल कर लिया जाए। उसे समझाया जाए कि यह करना पति के हक के लिए कितना ज़रूरी है। चेरी लिखती हैं कि वे दर्द और रक्त स्राव से छातापता रही थीं, और टोनी उन्हें इस बात के लिए राजी कर रहे थे कि उअके गर्भपात कीखाबर का ज़ाहिर होना देश की राजनीति के किए कितना ज़रूरी है। उम्र के मध्य में पहुंचकर उनका गर्भ ध्हरण करना टोनी को एक फीकी सी टिप्पणी करवाता है- 'मैं निश्चित नहीं हूँ कि ५० साल की उम्र में मेंएन बाप बनाना चाहता हूँ कि नहीं।

छाम्माकछ्क्ल्लो एअसे में सोचने लग जाती है कि स्त्रियाँ कितनी मज़बूर हो जाती हैं पति का साथ देने के लिए,सिर्फ़ इस कारण से कि आखिरकार यह पति का मामला है और 'भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है।' मान कर। अगर पश्चिम में सरी और हिलेरी भी ऐसा कराने ओइरउर सोचने के लिए मज़बूर हैं तो हम हिन्दुस्तानियों की तो बात ही और है। उन्हें तो घुट्टी में मिलाती है नसीहत और यह कि यही तुम्हारी नियति है। चेरी और हिलेरी, चाम्माक्छाल्लो क्या कहे आपसे और अपनी जैसी अन्यों से।

आपको कुछ लगता है तो बताएं.

Saturday, May 10, 2008

पुण्य स्मरण डा राजेन्द्र प्रसाद का.

छाम्माक्छाल्लो के एक मित्र हैं। 'मि जिन्ना' नाटक के दौरान उनसे पहचान हुई। बातों में बातें निकलती रहीं। बिहार और राजनीति की चर्चा होने पर देश के सबसे पहले राष्ट्रपति डाराजेन्द्र प्रसाद का ज़िक्र न हो, यह मुमकिन न था। जिन्ना' के दौरान उस समय कि परिस्थितियों पर चर्चा होतीं। एक आम बिहारी कायस्थ मानसिकता पर भी बात होती कि हर कायस्थ अपने को राजेन्द्र प्रसाद से नातेदारी जोड़ लेता है। नाटक के दौरान मित्र इतनी अन्दरून बातें बताते कि छाम्माकछाल्लो को हैरानी होती। और एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने अपने सम्बन्ध का खुलासा किया कि डाराजेन्द्र प्रसाद उनके परनाना हैं। फ़िर यह अनुरोध आया कि आप इस बात को सार्वजनिक नहीं करेंगी। छाम्माक्छाल्लो को यह अच्छा लगा। उसे याद आया कि किसी कार्यक्रम में नसीरुद्दीन शाह के बेटे इमाद को अपना प्रोग्राम देना था। उसने ख़ास तौर पर गुजारिश की थी कि उसके परिचय में उसके माता-पिटा का नाम न शामिल किया जाए। यह कोई हेकडी नहीं, बल्कि अपनी कूवत अपने बूते बाहर लाने लाने का साहस है।

मित्र के सव्जन्य से हमें डाराजेन्द्र प्रसाद के ऊपर उनके बेटे श्री मृत्युंजय प्रसाद की लिखी किताब मिली- "पुन्य स्मरण" छाम्माकछाल्लो किताब पढ़ने के बाद इसके कुछ हिस्से आप सबके सामने लाने का लोभ रोक नहीं पा रही है। यह इसे लिए भी ज़रूरी है कि हम जाने अपने भूले-बिसरे नेताओं को, जिन्होंने इस देश को आजाद कराने में कितनी अहम् भुमिका निभाई थी। यह केवल उनकी तपस्या नहीं थी, उनके संग उनके पूरे परिवार की आहुति होती थी।

आचार्य शिव पूजन सहाय ने डाराजेन्द्र प्रसाद को बिहारियों का 'गृह देवता' कहा है। डा विश्वनात्न प्रसाद वर्मा ने उन्हें 'हिमालय के उत्तुंग शिखर की भाँती शीर्षस्थ स्थान' दिया है। डा श्रीरंजन सूरिदेव ने कहा है कि 'वे अपने सिद्धांत के लिए ही जिए और उसी के लिए मरे।'

आगे जब कभी छाम्माक्छाल्लो उनके बारे में लिखेगी, आप देखेंगे कि किस तरह यह आदमी अपनी काबिलियत के सहारे इस ऊंचाई तक बढ़ा। देश की सेवा निस्वार्थ भाव से की। राष्ट्रपति पड़ पाकार भी जिन्हें कभी कोई अभिमान न हुआ। नेहरू से सिद्धांत को लेकर हमेशा तनी रही। असल में नेहरू नही चाहते थे कि वे देश के पहले राष्ट्रपति बनें। यहाम तक कि १३ मई, १९६२ को राष्ट्रपति पड़ से अपनी सेवा निवृत्ति के १० माह पहले डाराजेन्द्र प्रसाद सख्त बीमार पड़े। बचने कि कोई उम्मीद न थी। उन्हें एक प्राइवेट नर्सिंग होम मी दाखिल कराया गया। नेहरू जी को लगा कि अब वे शायद बच नहीं पायेंगे। इसलिए उनहोंने एक और उनकी राजकीय सम्मान के स्साथ अंत्येष्टि के लिए आदेश दिए और दूसरी और उनके तात्कालिक उत्तराधिकारी की भी सोचने लगे। इन सबके साथ ही उनके दिमाग में उनके अंत्येष्टि स्थल की भी बात घूम रही थी। "From Curzon to Nehru and after" में लिखा है- " He (Nehru) did not want th e ceremony to be performed next to Rajghat, Gandhi's cremation ground, but he feared that MP's from Bihar, Prasad's home state would insist that this site to be chosen. He accordingly asked Home Minister Shastri to find a place as far from Rajghat as possible. This was a very delicate mossion and had to be performed secretly. Shashtri, accompanied by the Chief Commissioner of Delhi, Bhagwan Sahay, was driven by Dy. Commissioner sushitlal banerji, along the banks of Jamuna and chose a spot a couple of furlongs from Rajghat for the cremation.

Fortunately, Prasad survive the illness. The site, Shashtri selected for the President's cremation was used to cremate Shashtri in 1966 and became known as Vijayghat."

छाम्माक्छाल्लो की कोशिश होगी कि वह इस तरह के प्रसंग इस किताब से व अन्य किताबों से भी दे, ताकि आप देश की इस महान विभूति को और भी अच्छे से जान सकें।

Wednesday, May 7, 2008

क्या हम सचमुच देश प्रेमी हैं?

जुस्सी- फिनलैंड के हेलसिंकी विश्व विद्यालय में हिन्दी का छात्र, लगभग ८० % दृष्ठीनता का शिकार। भारतीय दर्शन व कला, संस्कृति ने उसे हिन्दी पढ़ने की और भेजा। पिछले साल फिनलैंड में मेरी उसके साथ मुलाक़ात हुई थी। हिन्दी ब्रेल की तलाश में वह यहाँ आया है-पत्नी एवा के साथ। मुंबई आने के पहले ही उसका मेल आ गया था। यहाँ आते ही फोन। मिलाने का समय तय हुआ, दोनों आए। सहारे पर मिलाने की खुशी। मगर आते ही अपने अनुभव बयान किए, उससे सदमा लगा। मोबाइल फोन के बहाने किसी दुकानदार ने उन्हें धोखा दिया और जब एवा उनके यहाँ नेट पर काम कर रही थी, उसने अपना पर्स दुकानदार की डेस्क पर रखा था। उम्मीद तो रही ही हिगी कि सब कुछ ठीक रहेगा। पर, दूसरे दिन जब उसने अपना पर्स खोला तो उसने पाया कि उसमें से उसके २०० यूरो गायब हैं। वे पुलिस के पास गए तो उस इलाके की पुलिस ने उन्हें संबंधित पुलिस स्टेशन जाने को कहा। वे पेशोपेश में थे। मुझसे पूछा। बाद में उनकी भी राय बनी कि पैसे तो वापस मिलाने नहीं तो क्यों इस झंझट में पड़ा जाए।

एवा और जुस्सी की बात ने मुझे इस देश का वासी होने के कारन आहात किया। उनके यहाँ कोरी या इस तरह की वारदातें नहीं होतीं। सुखी, संपन्न देश। मगर हम अपने यहाँ आए मेहमानों को थागेम, उनके साथ धोखाधडी करें तो वे क्या इमेज लेकर जायेंगे हमारे देश किहोना तो यह छाहिये कि ऐसा व्यवहार दें कि वे तो ख़ुद आयें ही, साथ-साथ दूसरों को भी ले कर आयें। पर्यटन को बढावा मिलेगा, देश के खजाने में पैसा आयेगा। इसके लिए हमें कुछ भी अपने जेब से खर्च नहीं करना पडेगा। सिर्फ़ अपने आचरण, आदत मं थोडा बदलाव लाना होगा।

एवा ने यह भी बताया कि यह एक हादसा भले उनके साथ हो गया, मगर यहाँ आकर वे बेहद खुश हैं। उन्हें यहाँ कि सबसे अच्छी बात लगी - लोगों के चेहरों पर खुशी देख कर। हर उम्र, तबके के लोग दिल से ह्नासते हैं। इसका कारण उसने जानना चाहा। इस देश कि संस्कृति- धीरज, संतोष, आशावादिता कि, परिवार और रिश्तों कि मज़बूती कि, जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हमें प्रभावित करते हैं। उसने इस बात को महसूस किया कि यहाँ पर साथ रहने और अब ७ साल के बाद शादी कराने कू लेकर लोग तनिक चौंकते हैं।

जुस्सी हिन्दी कि ब्रेल सीखा कर हिन्दी ब्रेल में किताब पढ़ना चाहता है। वह हिन्दी बोल लेता है। इसका उसे फायदा मिल रहा है। कहता है- " यह मेरे लिए बहुत सुविधा जनक हो गया कि मुझे हिन्दी आती है। यहाँ बहुत से लोग ऐसे हैं जो अंग्रेजी नहीं जानते, नहीं बोलते।" वह यहाँ के नेशनल असोसिएअशन् फॉर ब्लाइंड गया, जहाँ से लौट कर उसने खुशी महसूस कि। फिनलैंड में मैंने पाया कि लोग भारत के ओप्रती बेहद आकर्षण महसूस करते हैं। यही आकर्षण लाहौर में भी महसूस किया। यहाँ के लिए आज का सबसे बड़ा आकर्षण यहाम कि हिन्दी फिल्में हैं, जिन्हें वे बॉलीवुड फ़िल्म कहते हैं। वहां इन फिल्मों के गीतों कि धुनों पर पागालूँ कि तरह नाचते हुए लोगों को देखा। जुस्सी भी यहाँ कि फिल्मों का आनंद लेना चाहता है, यहाँ कि ढेर सारी बातें जानना चाहता है। हर सैलानी के मन में यह भाव रहता है, मगर, जब उसके साथ धोखा वह अन्य ग़लत हराक़तेम होती हैं तो केवल हमारा नहीं, देश का सर नीचा होता है। क्या हम इअताने लापरवाह या अपने कर्तव्य बोध से रहित हो गए हैं कि देश और देश प्रेम जैसी कोई बात ही ना रह जाए चाँद पैसों के आगे। तो फ़िर काहे को हम देश भक्त यार। काहे को गर्व क्कारें अपनी भारतीय संस्कृति, कला, साहित्य, धरोहर, मूल्यों, आचारों, विचारों पर?

Saturday, May 3, 2008

१ मई को सलाम!

१ मई छाम्माक्छाल्लो के लिए बहुत मायने रखता है। विश्व मज़दूर दिवस और महाराष्ट्र दिवस के अलावे भी यह उसके लिए अहम् है। १ मई,2001 को ही उसने अपनी संस्था 'अवितोको' की आधार शिला रखी. आज अवितोको ७ साल का हो गया। अवितोको का जन्म उसके ३रे बच्चे कि तरह ही है। न कोई शोर- शराबा, न कोई आडम्बर, बस मन ही मन एक संकल्प लिया उअर अवितोको का काम शुरू हो गया। इसके बाद लगातार -काम और काम- सामान्य जन से लेकर विशेष वर्ग के लोगों तक, बच्चों से लेकर वृद्धाश्रम मी रह रहे तक। मानसिक रूप से बाधित बच्चों से लेकर जेल में रह रहे बंदियों और उनके बच्चों तक। कला, थिएटर, साहित्य, संस्कृति के माध्यम से। जेल के बच्चे कहते हैं, वे डाक्टर बनेगे, हीरों बनेगी। जेल के बंदी कविताओं के माध्यम से अपने मन की बातें कहते रहे। उनकी कवितायें, हंस, ज्ञानोदय, कादम्बिनी, वागार्थ आदि में प्रकाशित हुई। उनके बनाए चित्र केवल चित्र नहीं, उंकी अभिव्यक्ति के माध्यम रहे हैं। उनके द्वारा खेले गए नाटक में उनके जीवन की dhadakan रही है। उनकी कला kritiyaan अपने जीवन का सुंदर dastaavez हैं। अवितोको का जीवन दर्शन ही है- रंग जीवन, yaanii aart and थिएटर फार all। और ऐसे में ये sabhii sahabhaagii अपने काम से अवितोको के लिए एक naii cunautii लेकर आते रहे हैं। इसी की एक kadii मी नया जुदा है अवितोको के naatakon का pradarshaan। 'अए priye तेरे लिए' usaka pahala नाटक thaa और अभी doosaraa नाटक चल रहा hay- 'Life is not a Dream'। २००७ में finlainD में isakii pahalii प्रस्तुति के बाद mumbai में इसके manchan हुए और अब २९ aprail को इसे rayapur में खेला गया। aalekh v प्रस्तुति छाम्माक्छाल्लो की है और nirdeshak हैं shrii ar एस vikal। raaypur में lagabhag ७०० लोगों के saamane इसे manchit किया गया और sabhii ने एक स्वर से इसे saraha। यह न केवल chhammakachhallo के लिए, varan थिएटr जगत ke lie utsaah kii baat rahii. yah galat saabit huaa ki log thietar नही देखते या dekhana नही चाहते। achchhi chiizen हर कोई chaahataa है।
अवितोको अब अपने इस नए साल में फ़िर से तैयार है- कला, थिएटर varkshaap, नाटक के प्रदर्शन और जेल के बंदियों के लिए अलग-अलग karyakramon के साथ। isamein, उनके साथ srijanatmak kaaryakram के साथ- साथ उन्हें अपने जीवन koo नए svaroop में देखने के बारे में vichaar kiyaa jaaega। उनकी pratibhaaon को saamane लाने के liee karyakram हैं।
अवितोको हर वर्ग से judate हुए अनेक prashikShan karyakramon के साथ भी है। inamein हैं- "Time Management', Self Exploration', Know yourself Better', 'Guilt Management', राजभाषा Management Through self Management' etc.
छाम्माक्छाल्लो को इस बात का संतोष है कि आप sabakaa साथ और sahayog उसके साथ है। डर असल यह usakii अपनी nahiin, एक samaveta prayaas की yaatra है, padaav- डर- padaav तय कराने के silasile हैं।

Sunday, April 27, 2008

हम खुश हैं कि हमने लाहौर देखा

लाहौर। बचपन से ही मन में बसा एक नाम-बडा मजबूत सा-शायद लोहा से मिलता-जुलता होने के कारण, जैसे बचपन में कराची और रांची मेरे लिए एक ही जगह थी। मां ने जब बताया कि रांची हिन्दुस्तान में और कराची पाकिस्तान में है तो उस समय भी लगा कि इतने एक जैसे नाम दो देशों में क्यों? मोहन जोदाडो और हडप्पा सभ्यता और तक्षशिला के बारे में इतिहास में पढती तो रही, मगर तब यह नहीं समझ में आया था कि यह पाकिस्तान में है, जैसे बचपन में यह कभी समझ में नहीं आया कि टैगोर या बंकिम बांग्ला के लेखक हैं।
बहरहाल
पाकिस्तान देखने, घूमने की तमन्ना अन्य किसी भी देश जाने से ज्यादा थी। बिटिया के पढाई के सिलसिले में वहां जाने से यह इच्छा और बलवती हुई
लोगों की भवें और सिकुडीं -अच्छा। पाकिस्तान में पढाई भी होती है? वहां इंडिया से ज्यादा स्टडी इन्फ्रास्ट्रक्चर है? आज से बीस साल पहले चीन जाते समय भी भवें तनी थीं -और कोई देश नहीं मिला तुम्हें? पाकिस्तान से लौटने पर लोगों ने कहा -शुकर है, जिंदा लौट आई।
कितना कम और कितना गलत जानते हैं हम अपने ही पडोसी और एशियाई मुल्कों के बारे में। पश्चिमी मीडिया को धन्यवाद कि वह हमारे इन भ्रमों को, सन्देहों को बढाने में और भी मदद करता है। लाहौर यात्रा ने हमारे इन भ्रमों को तोडा। वीजा की औपचारिकता निभाने के बाद हम 4 अप्रैल को आखिरकार लाहौर पहुंच ही गए। जिस लाहौर नई देख्या, समझो जन्मयाई नहीं। हमने लाहौर देखा। देखने के बाद इस बात पर यकीन हुआ।
इतनी चौडी-चौडी सडकें-आठ भागों में बंटी-सर्विस रोड ग्रीन बेल्ट-नहर मुख्य सडक-यही दोनों तरफ। ड्राइविंग बाई तरफ की ही है साफ-सफाई के मामले में दिल्ली से भी आगे मुंबई की तो बात ही न की जाए। भीतरी सडकें भी यहां के बडे शहरों की मुख्य सडकों जितनी चौडी। रिहाइशी इमारतों का प्रचलन ही नहीं-शहर क्षैतिजाकार में फैला हुआ-लोगों के अपने-अपने घर-ज्यादा से ज्यादा दो मंजिल तक - घरों के क्षेत्रफल देखने के लिए केवल आंखें नहीं, गर्दन दायें से बांये घुमानी पडती। मुंबई की रिहाइशी इमारतों के बडे-बडे गेट जैसे इन घरों के गेट।
लाहौर कभी पुराना सांस्कृतिक बढ रहा-विभाजन ने इस गढ में भयानक सेंध लगाई और धीरे-धीरे कला की धरोहरें गायब होने लगीं-कभी यहां फिल्मों का गढ था-आज की पुरानी बडी-बडी हस्तियां, प्राण, देवानन्द वगैरह लाहौर से ही थे। भीष्म साहनी और बलराज साहनी यहां के गवर्नमेंट कॉलेज की देन थे। फैज अहमद फैज की बेटी और बीकन हाउस नैशनल यूनीवर्सिटी की डीन सलीमा हाशमी कहती हैं-मेरी बेटी हिंदी जानती है-भीष्म जी के बच्चों के साथ उसने हिन्दी सीखी और बाद में भीष्म जी की चीजें यहां की यूनीवर्सिटी से निकलवाने में बिटिया की हिन्दी बहुत काम आई।
विभाजन के बाद लोगों का इधर से उधर और उधर से इधर का विस्थापन हुआ-मंटो और नूरजहां जैसी हस्तियां उधर चली गई। सियासी मसलों ने एक-दूसरे के प्रति और ज्यादा जहर बोया, काटा, उगला। जानकार कहते हैं कि 1965 तक लाहौर में हिंदी ओर पाक की फिल्में आमने-सामने मुकाबले पे लगती थी। तब कई बार हिंदी फिल्में रोक देनी पडती थीं। 1965 के बाद हिंदी फिल्मों पर बैन लगा और इस्लाम और सियासतदानों के जानिब से फिल्में बनने की संख्या कम होती चली गई। तब ग्यारह स्टूडियो होते थे, जो आज घटकर दो-तीन रह गए हैं। इनमें भी टेलीविजन कार्यक्रमों के शूट होते हैं।
हम भी दिमाग में यह तसव्वर बनाकर चले थे कि लाहौर एक बन्द, घुटा-घुटा सा शहर होगा - गरीबों, मजलूमों से घिरा खातूनों के पर्दो से जकडा, मौलवियों, मुल्लाओं की टोपियों, दाढियों, चोगों से घिरा मगर ऐसा कुछ न था। यहां भी उसी वर्ग की औरतें बुर्का पहनती हैं, जिस वर्ग की अपने यहां। लडकियां जीन्स में, खुले सर इधर से उधर रंग-बिरंगे फूलों और तितलियों की तरह लहराती, बलखाती मिलीं। हां, स्कर्ट अलबत्ता नहीं दिखी और ना ही खुली पोशाक - तंग मोहरी की शलवार और उसके ऊपर कमीज और दुपट्टा दुपट्टा सर पर अपने-अपने पारिवारिक चलन के मुताबिक बीएनयू की ग‌र्ल्स हॉस्टल की वार्डन गजाला बताती हैं - हम जब इंडिया गए, तब हमने सोचा था, सबकुछ अलग होगा, पर हमारी लडकियों ने कहा - हाय अल्ला। यहां की भैंसें तक हमारी भैंसों जैसी ही है।
बाजार, दुकान, लोगों के आपसी हंसी-मजाक, शोहदे और मनचले सभी एक ही जैसे। हमें कभी नहीं लगा कि हम इनसे कुछ अलग हैं। हकीकत तो ये थी कि दिखना भी नहीं चाहते थे। पहले दिन बिन्दी लगाई, दसरे दिन से छोड दी। साडी हमारी राष्ट्रीय पोशाक है, वहां साडियां अब केवल किसी खास मौके पर पहनी जाती है-कमर, पीठ, पेट आदि के दिखने के कारण इसे बहुत अच्छा नहीं माना जाता मगर पसंद सभी को है।
पुरुषों की पोशाक कुर्ता-शलवार (पठान सूट) है और हर तबके के लोग इसे पहनते हैं - पैंट-शर्ट पढा-लिखा तबका ज्यादा पहनता है। पाकिस्तान उच्चायोग में तो यह वर्दी ही थी। एक डेलीगेशन वहां मिलने आया। पूरे ग्रुप ने कुर्ता, शलवार, जैकेट पहन रखा था।
लडकियां पढ रही हैं, मगर ख्वातीनों के अधिक काम करने का चलन कम है। शायद इसीलिए मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि मैं क्या करती हूं? लेकिन तथाकथित ऐसे बन्द मुल्क में महिला ट्रैफिक पुलिस और होटल में वेट्रेसेस भी मिलीं। टेलीविजन पर अब खबरें पढनेवाली या एंकरिंग करनेवालियों के सरों पर चादरें नहीं होतीं।
पंजाब होने के कारण लहजा ठेठ पंजाबी है, मगर तलफ्फुज बिल्कुल साफ। मुल्क बनने के बाद उर्दू में तर्जुमा और आम जिन्दी में उनका इस्तेमाल बढा है-एक्सक्यूज मी की जगह बात सुनें और सिग्नल और रेड, यलो, ग्रीन लाइट के बदले इशारा। लाल, पीली और सब्ज बत्तियां, लेफ्ट और राइट के बदले उल्टे और सीधे हाथ कहने का प्रचलन है। बोलने से पहले अस्सलाम वालेकुम बोलना जिन्दगी का हिस्सा है, यहां तक कि फोन पर भी हैलो के बदले अस्सलाम वालेकुम।
मजहब और अल्लाह खून के कतरे की तरह समाया हुआ है - इंशाअल्लह, माशाअल्लाह, अल्लाह की मेहरबानी, अल्लाह का शुक्र वगैरह सहज तरीके से जबान में बस गए हैं। बोलनेवालों को अहसास भी नहीं होता कि वह इन अल्फाजों के इस्तेमाल कर रहा है। मैंने गौर किया कि यहां भी भगवान मालिक है, भगवान की दया से आदि खूब बोला जाता है। बस पढा-लिखा तबका और धर्म से तथाकथित परहेज रखनेवाले इसे नहीं बोलते।
मुल्कों की समानता में एक बडी समानता है - भिखारियों की और धार्मिक स्थलों पर तथाकथित लोगों द्वारा आपको घेर लेने की। हर मोड पर, बाजार में, होटलों के आस-पास-मसलन यहां की तरह वहां भी यह नजारा बेहद उदास करता है-भीख ही मांगनी थी तो अलग ही क्यों हुए? वाघा बॉर्डर पर यह सवाल बार-बार मन को मथता रहा-रोजाना की झंडा उतारने की 25 मिनट की परेड देखने लायक है। जबानों की आवाज से उडते परिन्दों को देखकर यह गीत याद आता रहा -
पंछी, नदिया, पवन के झोंके, कोई सरहद ना इसे रोके
सरहद इंसानों के लिए है, सोचो तुमने और हमने क्या पाया इंसां होके
परेड के दौरान दोनों ओर के हुजूम के जज्बात से लगे, कि काश-यह गेट हमेशा के लिए खुल जाता-दोनों ओर के लोग एक-दूसरे से मिल जाते, दूरियां खत्म हो जाती। वाघा पर ही हमें इंडियन नेटवर्क भी मिल गया। दिलों के नेटवर्क मिलें और 50 मिनट की हवाई यात्रा की दूरी और अमृतसर से लाहौर की 60 किलोमीटर की दूरी - सबकुछ नामालूम सी, मगर दो मुल्कों के कायदों-कानूनों में फंसकर इतना बडा मसला हो जाता है कि हिम्मत जवाब देने लगती है, यह खत्म हो जाए तो कितना अच्छा हो।

Tuesday, April 1, 2008

घोडे का क्या हुआ????

छाम्माक्छाल्लो आज इसी बस में दफ्तरअमूमन वह सामान्य बस में आती है। लोकल ट्रेन में भी उसने एक बार दो साल तक १स्त् क्लास में सफर किया था। अपने अनुभव के आधार पर वह कह सकती है कि दिल और दिलवाले मिलते हैं तो बस आम जन के बीच ही। ये तमाम पैसे वाले दिल और भावनाएं क्या जानें, क्या समझें? अगर उअनामें से कोई समझ ले तो समझिए कि आप ने आज सचमुच कोई अच्छा काम किया होगा। पैसे का रुतबा उनके से आगे दस कदम होता है और आगे आगे जा जा कर बोलता है।
इसी बस में लगभग तिगुना किराया लगता है। स्फिर भी सुविधाजनक है। मगर इस सुविधा को भोगते हुए लोगों के उपर एक दंभ, एक अंहकार रहता है, वह देखते ही बनता है। १स्त् क्लास में भी यात्रा करते समय दिल की बेदर्दी बारे करीब से देखी और अचानक एक दिन एहसास हुआ कि छाम्माक्छाल्लो में भी उसके कीटाणु आने लगे हैं तो उसने एक झटके में १स्त् क्लास से जाना चूद दिया।
आज इसी बस में बैठी। क्योंकि देर हो रही थी। पीछे से बस कब आती, पाता नही था। सो...
मेरे बगल में एक युवक बैठा। परेशान सा। पहले तो उसने अपने बैग में से खाने का डब्बा निकाला। बिचारे को इतनी भी फुरसत नही मिल पईई थी कि घर में चार कौर पेट में कुछ दल्ला ले। औरतों के साथ तियो यह महत मामूली, रोजाना का किसा सा है। खैर! पेपर पढ़ते हुए और नसता करते हुए के बीच में एक फोन आया। उसके किसी परिचित का एक्सीडेंट हो गया था। बातचीत से लगा कि दुर्घटनाग्रस्त आदमी या तो साईस था या रेस कोर्स का जॉकी या घोडे की शौकिया सवारी करता होगा। वह घोडे से गिर पडा। काफी चोट आई थी, अंदरूनी। पता नहीं, क्या हो, ऎसी आशंका आई। अफसोस के च च च भी निकले। फ़िर तपाक से पूछा, " उसका तो जो होना था, सो तो हुआ, पर तुम ये तो बताओ कि घोडे को कहीं ज़्यादा लगी तो नहीं?" छाम्माक्छाल्लो का मन किया कि तपाक से पशु प्रेमी संस्थान को फोन करे और बता दे कि देखिए, कितना ख्याल है उसे घोडे का।" आपो भी लगता हो तो बताएं॥ इंसान बहुत सस्ता है, एक मांगो, कई मिल जायेंगे। पर ghoDa, पाता है कितना मंहगा है? लाखों लाख रुपये का एक मिलता है। उसे सहेजना, उसकी देख भाल कितना मुश्किल है? और ऐसे में उसे कुछ हो जाए तो ? " आदमी की चिंता वाजिब थी।

Friday, March 21, 2008

होली तो हो, पर ऎसी नहीं.

अभी मेरे घर के सामने होलिका- दहन की तैयारी चल रही है। मुंबई में शाम में ही होलिका दहन होता है, स्त्री -पुरूष, बच्चे सभी अग्नि कुंड की पूजा करते है, अबीर, और प्रसाद अर्पित करते हैं और कामना करते हैं कि बस ऐसे ही जीवन रंगमय बना रहे।
याद आती है अपने यहाँ की एक होली, सन् १९६७ की। मेरी बहन की शादी के बाद पहली होली थी॥ हम सभी तो बेहद छोटे थे, मगर जीजा जी शब्द की गुदगुदी से वाकिफ थे। जीजाजी आए हुए थे। हम सबकी उन्हें रंग में भिगोने, डुबोने की अपनी योजनाथी।
शाम में होलिका- दहन, जिसे सम्मत जलाना कहते हैं के लिए मोहल्ले के लडके लकडियाँ मांगने आए। दादी ने दो तीन गोड़हे (गोबर से बने लंबे आकार के उपले) दिए। लड़कों ने और माँगा। दादी ने दो-तीन और दिए। लडके 'और दो' पर अडे हुए थे, क्योंकि तब हमारे यहाँ गाय थी, और दादी उसके गोबर से उपले बनाती थीं। फ़िर से एक- दो देने के बावजूद वे नहीं माने। दादी ने अब और देने से मना कर दिया।
हमारी तरफ़ आधी रात में सम्मत जलाई जाती है। लड़कियों- स्त्रियों के लिए सम्मत जलना देखना वर्जित है। कारण? बहुत सी बातों की तरह इसका भी पता नहीं। कलकी होली की तैयारी करके और जीजाजी को कैसे तंग किया जाए, इन सबकी योजना बनाकर हम सो गए।
हमारे यहाँ काम करने चनिया दाई आती थी, मुंह अंधेरे ही। माँ ने दरवाजा खोल दिया और सो गई। पल भर भी न बीता होगा कि चनिया दाई की बडबड सुनाई दी-" आयें ये चाची, पिछुती (पिछवाडे का) दरवाजा आज बंद करना भूल गई थीं क्या?" माँ हदबदाकर उठीं - "भाई को बोला था, शायद भूल गया हो।" पर तबतक तो सुबह का उजाला भी होने लगा था और माजरा सारा साफ-साफ दिखाई देने लगा था। सम्मत जलानेवाले ने दादी के गोड़हे न देने का बदला चुकाया। पिछवाडे का दरवाजा, दोनों शौचालय के दरवाजे, गाय के घर को गिराने से बचाने के लिए टेक लगाई गई सीढ़ी, और भी जलावन के सामान, लकडी के टुकडे -सब सम्मत की भेंट चढ़ा आए थे।
होली की उमंग को तो पाला मार ही गया, सबसे अधिक शर्मिंदगी उठानी पडी माँ-बाबुजी को जीजाजी के सामने। वे क्या कहेंगे कि कैसे सब चोर हैं? उससे भी ज़्यादा, अब सुबह की दैनिक क्रिया से कैसे निवृत्त हुआ जाए? ओह! आज भी माँ-बाउजी का वो चेहरा नहीं भूलता। हम लोग तो बच्चे थे, जीजाजी भी एकदम नए दामाद थे, सो होली तो हुई, मगर जो ज़ख्म लगा, वह आज तक नहीं भरा।

Wednesday, March 19, 2008

अल्ला तेरे एक को इतना बड़ा मकान?

आज भोपाल में हूँ। जब कभी यहं आती हूँ, अच्छा लगता है। अच्छे लोग, कला- संकृति की आब अब भी बची हुई दिखती है। कहीं भी आइये, कहीं ना कहीं, कुछ न कुछ आपकू दिख ही जायेगा। अभी यहाँ आदि रंग मेला लगा हुआ है। आदिवासियों की भूली- बिसरी प्रजातियों उनकी कला को सामने लानेका एउद्देस्ति से लगाया गया है यह मेला। वास्तव में कैसा है, यह तो देखने पर ही पाता चलेगा।
यह शहर धड़कना जानता है। मैं यहाँ की नहीं हूँ, फ़िर भी यहाँ आना अच्छा लगता है। हरी भटनागर, राजेश जोशी, कमला प्रसाद जी हैं। बारे अपनापे से मिलते हैं। सत्येन कुमार भी थे। बड़ी ही सौहार्द्र पूर्ण मुलाक़ात रही थी उनसे।
ये तो बुद्धिजीवी लोग हैं। यहाँ के लोग भी अपनी बातों में अदब का पुट भरने में पीछे नहीं रहते। बात काफी पुरानी है, शायद १५-१६ साल पुरानी। हमें भोपाल से इंदौर के लिए जाना था। हम पुराने भोपाल पहुंचे, जहाँ बड़ी मस्जिद या जमा मस्जिद के पास से टैक्सी मिलती थी, इंदौर जाने के लिए। हमने टैक्सी ली। मेरे सहयोगी ने मेराजानकारी में इजाफा करते हुए कहा कि यह यहाँ कि बड़ी मशहूर मस्जिद है। मुझे यह मस्जिद देख कर निदा फाज़ली का एक शेर याद आ गया। मैंने कहा-
"बच्चा बोला देख कर, मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को इतना बड़ा मकान? "

टैक्सी ड्राइवर चचाजान शायद रफीक भाई थे या अशरफ भाई, (नाम याद नहीं आ रहा। बुजुर्ग। उन्होंने कहा, "मैडम, उन शायर जनाब को यह कहना चाहिए इस लाइन को तरमीम कर के-
"अल्ला तेरे एक को इतने सारे मकान?"
बात में दम था। मैंने उन्हें कहा, मैं आपकी यह तरमीम निदा साब तक ज़रूर पहुंचा दूंगी।"
और मुम्बई पहुँच कर मैंने निदा साब को फोन किया, सारा वाक़या सुनाया।
आज भी इतने सारे मन्दिर मस्जिद देखकर टैक्सी ड्राइवर चचाजान की बात याद आती है। भोपाल पहुँच कर तो याद आती ही आती है। यह भी कि हम एक दस बाई दस के कमरे के लिए तरसते हैं, और एक इस अनाम, अन्नं देह धरी के लिए इतने सारे इन्तजामात? खुदा खैर करे, ईश्वर, यदि आप कहीं हैं तो अपने साथ साथ सबका भला करे। मजाक में भी 'भाला' नहीं।

Tuesday, March 18, 2008

मुट्ठी भर खुला आसमान

शनिवार था। अचानक फ़िल्म देखने का मूड बना, बराए सुझाव अजय- रोमानियन फ़िल्म- 'फोर मंथ्स , थ्री वीक, टु डेज।' १९८७ का पीरियड। तब गर्भपात अवैध था। इसके लिए क्या-क्या दिक्कतें आती हैं। उफ़! देखने योग्य फ़िल्म। हालांकि इसे फिल्मकार ने दोस्ती की अद्भुत मिसाल का रूप दिया है। यह भी है। ज़रूर देखें।
टिकट लेने जब विंडो खोज रही थी, तब अपने आगे अपनी ही उम्र की एक महिला को भागते देखा। पाता चला, वह भी इसी फ़िल्म के लिए आई है, अखबारों में रिव्यू पढ़कर। अकेली। वह भी, मैं भी। ऐसे में दुकेले हो जाना हम दोनों को अच्छा लगा। उसने एक और मरित्थी फ़िल्म की कहानी बताई। कहानी सुनकर लगा कि यह तो नाटक का विषय लगता है। आकर पढा तो सचमुच नाटक पर आधारित फ़िल्म। अश्विनी भावेकर अच्छी और संवेदनशील कलाकार है। हिन्दी में उसका उपयोग सही तरीके से नही हो सका।
मुझे उस महिला कि एक बात अच्छी लगी- "अब हमें संग साथ की कामना छोड़ देनी चाहिए। अकेले निकालो, एन्जॉय करो। '
सचमुच, महिलाएं अभी तक संग साथ की ही कामना में रह जाती हैं और अपने हिस्से के आसमान का छोटा सा टुकडा जो होता है, उसे भी खो बैठती हैं। शुक्रिया स्मृति, इस बात की स्मृति के लिए!