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छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

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Sunday, May 24, 2009

बन सकता है ताज महल फ़िर, चाहनेवाले अब भी बहुत हैं.

छाम्मक्छाल्लो की एक बुआ थी. खूब पूजा-पाठ वाली. शादी हुई. संयोग ऐसा कि फूफा भी उतने ही धार्मिक विचारोंवाले थे. बुआ की निभ गई. खूब निभी. ऐसी कि बस पूछें मत.
फूफा अक्सर छाम्मक्छाल्लो के घर आते. घर के वे दामाद कहलाते. सो उसी तरह से उनकी आव-भगत छाम्मक्छाल्लो के माता-पिता करते. बुआ भी जब जब मायके आती, छाम्मक्छाल्लो के घर ज़रूर आती. उनका चन्दन टीका,, गले में कंठी छाम्मक्छाल्लो व् उसकी अन्य बहनों को बड़ा आकर्षित करता. बुआ तब शायद लहसुन-प्याज खाती थीं. बाद में वह भी छोड़ दिया. फूफा ने भी. उनकी भक्ति के किस्से शहर भर में ही नहीं, शहर के बाहर भी मशहूर थे. बाद में उन दोनों ने मिल कर अपने शहर में एक मंदिर भी बनवाया- राम-सीता का.
बुआ के पास पैसे खूब थे, मगर छाम्मक्छाल्लो को याद नहीं आता की वे बच्चों के लिए कही कुछ ले कर आई हों. सो जब वे आतीं, सभी बच्चे उन्हें प्रणाम करते और अपने-अपने धंधे पर निकल जाते. छाम्मक्छाल्लो माँ के पास देर तक बैठी रहती और उनके किस्से सुनती रहती.
छाम्मक्छाल्लो को बुआ तो अच्छी लगती मगर फूफा नहीं. इसकी वज़ह थी. छाम्मक्छाल्लो की बड़ी बहन शादी करने लायक हो गई थी. छाम्मक्छाल्लो का परिवार पढा-लिखाथा. माँ-बाउजी दोनों शिक्षक थे, लिहाजा, बच्चे भी पढ़ रहे थे. माँ-बाउजी के पास पैसे नहीं थे, मगर शिक्षा थी. फूफा के पास पैसे थे, नाम था, मंदिर के कारण, सो माँ-बाउजी जब तब उनसे बहन के लिए किसी लडके को खोज देने की बात करते. फूफा माँ- बाउजी की हैसियत आंकते और कहते- "फलानी जगह पर एक लड़का है. मिडल पास है, कपडे की दूकान पर बैठता है." या फलाने जगह पर एक लड़का है, गुड की आधात में काम करता अहै, चार सौ कमाता है. छाम्मक्छाल्लो सुन कर इतना चिढ जाती कि बाद में कहती माँ से कि वह बुआ-फूफा की आव-भगत क्यों करती है? खैर, बाद में दीदी का ब्याह प्रोफेसर से हुआ.
यही बुआ- फूफा की अपनी प्रेम कथा है. दोनों में अगाध प्रेम था. अपने बुढापे में बुआ बीमार रहने लगी. जीवन के अंतिम समय में वे बहुत बीमार थीं. जब उनके जाने का समय आया तब उनहोंने खुद बेटे से कहा कि वे उन्हें कमरे से निकाल कर आँगन में तुलसी चौरे के पास सुला दें. जब तक यह इंतजाम किया गया और बुआ को आँगन में लाया गया, तबतक वे अचेत हो चुकी थीं. किसी तरह बहुओं ने उन्हें गंगाजल पिलाया. उनहोंने अंतिम सांस ली. घर में कुहराम मच गया.
बुआ का एक छोटा सा पोता था. वह बाहर भागा अपने दादा को दादी की खबर सुनाने. वह दौडा उनके पास और बोला- "दादा, दादा, दादी मर गईं" फूफा बाहर से भीतर आये. आँगन में तुलसी चौरे के पास बुआ का पार्थिव शरीर रखा था. बहुएँ व् अन्य सभी रो रही थीं. फूफा चुपचाप बुआ तक चल कर आये, उनके पास बैठे, और उनका हाथ पाकर कर बोले- "मुझे छोड़ कर जा रही हो?" और यह कहा कर वहीं लुढ़क गए. पूरे शहर में शोर हो गया. शहर की तो छोड़ ही दे, किन-किन गाँवों और शहरों से लोग उनके दरसन के लिए आये. बड़ी धूम-धाम से दोनों कि शवयात्रा एक साथ निकाली गई, अगल-बगल चिता जली. बाद में उनके बेटों ने उनके नाम से एक और मंदिर बनवाया- फिर से राम-सीता. का.
छाम्मक्छाल्लो के साथ-साथ आप भी कह सकते हैं कि प्रेम कि यह अद्भुत मिसाल है. ताज महल यहाँ भी बना, मगर प्रेम के शिवाले के रूप में नहीं, भक्ति के रूप में. प्रेम भी अपने अनंतिम रूप में भक्ति ही हो जाता है. छाम्मक्छाल्लो को आज भी यह वाक़या एक मिथ के रूप में लगता है. उसे सिर्फ लगता है तो यही कि मंदिर तो बुआ-फूफा ने बनवाया ही था. उनके नाम पर बाद में मंदिर के बदले कोई स्कूल या अस्पताल बनता तो उनके प्रेम को और भी विस्तार मिलता. वह सब तो नहीं बना, मगर प्रेम का ताज महल तो बन ही गया-भले मंदिर के रूप में ही सही.

Friday, May 22, 2009

हम हिन्दू वो मुसलमान है.

छम्मक्छल्लो तब मिडल स्कूल में पढ़ती थी. तब एक ही स्कूल हुआ करता था और अधिकारी से लेकर चपरासी तक सभी के बच्चे उसी स्कूल में पढ़ते थे. उस स्कूल में एक टीचर आईं- बीबी शहजादी. वे वहां लड़कियों को उर्दू पढाने आई थीं. उर्दू पढ़नेवाली लड़कियां उन्हें उस्तानी कहतीं और हम सब उस्तानी जी. तब छम्मक्छल्लो को लगता था कि उनका नाम ही उस्तानी जी है. उसे बहुत बाद में पता लगा कि उनका नाम बीबी शहजादी है.
उसी स्कूल में दो और टीचर थीं. एक कृष्ण की उपासिका थीं और दूसरी राम की. दोनों के क्वार्टर्स एक दूसरे से सटे हुए थे. उसतानी जी को भी स्कूल में ही क्वार्टर मिला था, लेकिन वह थोड़ी दूर पर उनके क्वार्टरों से बिलकुल उलटी दिशा में था. इसलिए राम और कृष्ण की इन उपासिकाओं के लिए कोई संकट नहीं आया था.
स्कूल में सरस्वती पूजा खूब धूम धाम से होती. स्कूल में ही प्रसाद के लिए चूरन और बुंदिया बनते. पूजा के बाद सभी टीचर्स को ज़रा अच्छी मात्रा मैं अलग से प्रसाद मिलता. ज़ाहिर था कि एक हिस्सा उस्तानी जी के लिए भी होता. छम्मक्छल्लो को बड़ी हैरानी होती कि उस्तानी जी बड़े प्रेम भाव से उस प्रसाद को न केवल अपने यहाँ रखतीं, बल्कि उसे खातीं भी और अपनी शागिर्दों को खिलाती भी.
मगर उस्तानी जी या उनकी शागिर्दों के यहाँ से आई कोई भी चीज़ खाने की तो दूर, उसे छुआ भी नहीं जाता. खुद उस्तानी जी उसे किसी को भी नहीं देतीं. एक अलिखित सा व्यवहार था कि सभी हिन्दू घरों का खाना उनके यहाँ जाएगा, लेकिन उनके या अन्य मुसलमानों के यहाँ का खाना हिन्दुओं के घरों में देना तो दूर, उसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था.
छम्मक्छल्लो के लिए बचपन से यह परेशानी का बायस बनता कि लोग उस्तानी जी के यहाँ का क्यों नहींं खाते. एक आम बच्चे की तरह उसने भी अपनी माँ से इस बाबत पूछा. सपाट जवाब मिला, "क्योंकि वे मुसलमान हैं." छम्मक्छल्लो ने फिर तर्क किया,"लेकिन वे तो हमारे घर का खाती हैं." "वे खा सकती हैं, हम नहीं." "मगर क्यों?" फिर वही जवाब कि "वे मुसलमान हैं." छम्मक्छल्लो ने फिर से कहा "तो क्या इसका मतलब कि हम हिन्दू बड़े हैं?" "हां." "मगर कैसे? वे तो हमारा खा लेते हैं तो कायदे से वे ही हमसे बड़े हुए." "बहस नहीं." तब छम्मक्छल्लो सचमुच में छोटी थी, मगर यह उलटबांसी उसे तब भी समझ नहीं आई थी, आज भी नहीं आती है. एक ही समय में एक धर्म बड़ा और एक छोटा कैसे हो जाता है? क्या अपनी उम्र से? यदि यह भी मान लिया जाए कि हिन्दू धर्म इस्लाम से बड़ा है तो बड़े को तो और भी सहिष्णु होना चाहिए. वै़से भी हम हिन्दू अपने-आपको बहुत सहिष्णु समझते हैं. ऐसे में छम्मक्छल्लो को आज तक समझ में नहीं आया कि एक मुसलमान एक हिन्दू के घर का तो खा-पी सकता है, मगर एक हिन्दू एक मुसलमान के घर का क्यों खा-पी नहीं सकता? मुसलमान की तो छोडिये, ये हिन्दू अपने ही हिन्दुओं से भेद-भाव करते है और तब वे धर्म की सीढी से उतरकर जाति के छज्जे पर जा बैठते हैं. छम्मक्छल्लो के स्कूल की जो राम-कृष्ण भक्त अध्यापिकाएं थीं, वे किसी के यहाँ का कुछ नहीं खाती-पीतीं. वज़ह कि वे अधिक भक्त हैं इसलिए किसी का छुआ नहीं खातीं. लेकिन वे यह अपेक्षा ज़रूर रखती थीं कि लोग उनके यहां की चीजें न केवल खाएं, बल्कि उस पर अपनी पूरी श्रद्घा और आस्था भी व्यक्त करें, प्रसाद की तरह उसे ग्रहण करें. लोग-बाग़ करते भी, सिर्फ इसी एक आधार पर की वे दोनों बहुत बड़ी भक्तिन हैं. लेकिन छम्मक्छल्लो की परेशानी थी की वो जितनी बड़ी भक्त थीं, उतनी ही ज़्यादा कट्टर भी. तो क्या भक्ति कात्तारता को जन्म या बढावा देती है?
छम्मक्छल्लो के स्कूल में हर परीक्षा के समय पाक विज्ञान की भी परीक्षा होती थी, जिनमें लड़कियों को दिए गए मेनू के अनुसार चीजें बनाकर अध्यापिकाओं को टेस्ट करानी होती थीं. हालांकि यह अभिभावकों की नज़र में खाने-पीने का एक बहाना माना जाता और इसकी खूब आलोचना होती. मगर परीक्षा में पास करने के लिए इस परीक्षा में भी शामिल होना कटाई ज़रूरी था. सो सभी टीचर्स एक लम्बे टेबल पर बैठतीं थीं और उनके सामने स्कूल में लगे केले के पेडों से तोडे केले के पत्ते बिछा दिए जाते थे. सभी परीक्षार्ती उसी पत्ते पर अपनी बनाई हुई चीजें परसतीं. राम-कृष्ण भक्त टीचर्स के लिए भी पत्ते लगते, लेकिन वे न तो आतीं, न खातीं. लेकिन यह भी नहीं होता कि उनके नाम के पत्ते न लगें. तब तो अहम् पर चोट लगनेवाली बातें होतीं. इन पत्तों में भी एक पत्ता अलग से लगा होता, मुसलमान छात्राओं द्वारा बना कर लाइ गई चीजें इन्हीं पत्तों पर परोसी जातीं. इन्हें कोई भी नहीं खाता. इन पत्तों को उठा कर फिर से उसतानी जी के यहाँ भिजवा दिया जाता. उसतानी जी उन्हें अपनी छात्राओं में बाँट देतीं. यह भी तब किसी ने नहीं पूछा कि अगर आपको खाना ही नहीं है तो उनसे परीक्षा क्यों ले रही हैं? लेकिन नहीं, गलत कह गई, उनके यहां की चीजें टेस्ट करने के लिए उस्तानी जी से कहा जाता. वे चखती और अपनी सहमति-असहमति दर्ज करतीं और उस हिसाब से उस छात्रा को अंक मिलते.
छम्मक्छल्लो के पाठक कहते हैं कि हिन्दुओं की बुराई ही वह क्यों करती है? उन सबसे यह कहना चाहती है कि यह बुराई का वर्णन नहीं है, यह वे स्थितियां हैं जो किसी को भी अपने ही देश में, समाज में दोयम दर्जे का बनाती है. हिन्दू हिन्दुस्तान मैं हैं और बहुसंख्या में हैं, उस नाते उन्हें अपने में अहसास है की वे बड़े हैं. छम्मक्छल्लो का कहना है की अगर वे बड़े भाई है, तो बड़े भाई के कर्तव्य का पालन करें. बड़े भाई का कर्तव्य होता है कि वह्सभी के साथ प्रेम, मेल बना कर रखे न कि खुद भी नफ़रत का पाठ पढ़े और दूसरों को भी पढाएं. अगर वह ऐसा करता है तो किस बात का वह बड़ा भाई या किस लिए उसे श्रेष्ठ कहा जाये? दूसरी बात छम्मक्छल्लो खुद उस तथाकथित हिन्दू परिवार से है. तो अपने घर की बातें उसे दूसरों के घर से अधिक पता है. उसकी तो यही कोशिश होगी कि वह पहले अपने घर के जाले को साफ़ करे. छम्मक्छल्लो आज भी याद करती है तो उसे आर्श्चय होता है कि कैसे उस्तानी जी यह सब करते -करते वक़्त सामान्य बनी रहती थीं. छम्मक्छल्लो इस बात की कल्पना से ही घबरा जाती है कि कोई उससे इस तरह के भेद-भाव करे. वह तो उस जगह, उस घर जाना छोड़ देगी. मगर अपने ही घर और अपने ही देश में अपने ही लोगों द्वारा यह सब हो तो कोई कैसे सहे और क्यों सहे?

Thursday, May 21, 2009

आइये करें मंदिरों में छेड़छाड़

छाम्माक्छाल्लो स्वभाव से ईश्वर विरोधी नही है. मगर जब धर्म के नाम पर वह ऎसी-वैसी हरक़त होते देखती है तब उसे धर्म के इन ठेकेदारों के प्रति घृणा होने लगती है. उसे लगाने लगता है कि वह क्यों ऎसी जगह आ कर अपना समय और मन खराब कर रही है.
बात बहुत पुरानी है. छाम्माक्छाल्लो के बचपन की. उसके घर के पास एक मंदिर था. अन्यों की तरह छाम्माक्छाल्लो भी कभी माँ के साथ तो कभी मोहल्ले की भाभियों, चाचियों के साथ वहां जाया करती थी. मंदिर छोटा था, मगर बहुत प्रसिद्द था. वहां हर आम मंदिर की तरह राम से लेकर शंकर, गणेश, हनुमान सभी की मूर्तियाँ थीं और सभी अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार सभी वहां जाते रहते थे. मंदिर में ही एक धर्मशाला भी थी, जिसमें शादी-ब्याह के अवसर पर मोहल्ले की बेटियों की बरात टिका करती थी. वहां एक कुँआ था, जिसमें से लोग अपने काम-काज के साथ-साथ पूजा-पाठ के लिए भी पानी भरते थे. मंदिर के अहाते में आम, अमरूद के पेड़ों के साथ-साथ गेंदा, गुलाब, बसंत मालती के फूल भी होते थे. श्रद्धालू इन फूलों से पूजा करते थे. कुल मिला कर माहौल बहुत अच्छा था.
वहां केवल एक ही कमी थी, मंदिर के पुजारी बहुत गांजा पीते थे और बहुत क्रोधी थे, क्रोध में आते तब बहुत गंदी-गंदी गालियाँ देते. मगर इसके अलावा और कुछ नहीं. कभी किसी ने उन्हें किसी भी लफडे में पड़ते नहीं देखा, कुछ गलत करते नहीं देखा.
जब बरात आती किसी की भी, महिलाओं का मंदिर जाना रुक जाता. बारातियों को जैसे जन्म सिद्ध अधिकार मिल जाता था बदतमीजी करने के लिए. जैसे ही किसी महिला को देखा नहीं, कि शुरू और अगर उनके साथ कोई लड़की हो तब तो उनकी बदतमीजी का कोई ठिकाना ही नहीं होता था. महिला, लड़की या उसके परिवार के लोग इसलिए बारातियों को कुछ कह नहीं पाते थे कि किसी की बेटी की शादी का सवाल होता. इसलिए यही बेहतर समझा जाता कि ऐसे वक़्त मंदिर न जाया जाये.
मंदिर में अक्सर राम चरित मानस का नौ दिनों तक चलनेवाला नवाह पाठ होता. बड़े पैमाने पर उसका आयोजन होता. शहर के सभी लोग उसमें अपना यथासम्भव योगदान देते. नवाह पाठ के लिए पंडितों की टीम होती जो बारी-बारी से नवाह पर बैठते. मुख्य पाठकर्ता मानस की चौपाई बोलते और पूरी टीम उसे दुहराती. इनके साथ -साथ शहर के अनेक स्त्री-पुरुष, बच्चे होते, जो मानस की चौपाई को दुहराते. शाम में किसी बाबा का प्रवचन होता जिसे सुनने के लिए भारी संख्या में स्त्री -पुरुष पहुंचते. इस पाठ या प्रवचन में न जाना जैसे इसका अपमान माना जाता और न जानेवालों को बड़ी हिकारत की नज़र से देखा जाता. छाम्माक्छाल्लो की माँ अपनी स्कूली व्यस्तता के कारण जाने से रह जातीं, जिसका उन्हें बड़ा मलाल होता. छाम्माक्छाल्लो भी कभी-कभी अपने मोहल्ले की चाचियों, भाभियों या हम उम्र के साथ निकल जातीं.
उस बार नवाह का आयोजन था. छाम्माक्छाल्लो अपनी एक सहेली के साथ नवाह में गई थी. बैठने से बेहतर था कि साथ-साथ मानस का पाठ कर लिया जाय. छाम्माक्छाल्लो और उसकी सहेली एक-एक मानस ले कर पाठ के लिए बैठ गई. आमने-सामने पंडितों की टोली थी. सामने एक ३०-३२ साल का भी पंडित था. वह पाठ करते-करते बार-बार छाम्माक्छाल्लो की सहेली की ओर देख लेता. उसकी नज़रों में कुछ सहजता न थी, इसे छामाक्छाल्लो उस छोटी सी उम्र में भी महसूस कर गई थी. (हमारे छेड़छाड़ वाली मानसिकता को सलाम) वह इधर-उधर देख रही थी कि तभी एक फूल उसकी सहेली के मानस पर आ कर गिरा. छाम्माक्छाल्लो चौंकी. उसे लग तो गया था कि यह उस पंडित का ही काम हो सकता है, मगर वह आश्वस्त नहीं थी. अब उसका मानस के पाठ में ध्यान नहीं रह गया था. वह बार-बार बेचैनी से इधर-उधर देख रही थी कि दूसरा फूल भी आकर गिरा. इस बार उसने उस पंडित को फूल फेकते हुए देख लिया था. बड़ी सफाई से उस पंडित ने मानस का पाठ करते-करते पूजा केफूलों में से एक फूल उठाकर उसकीसहेली की तरफ उछाल दिया था. तब लड़कियों को कहाँ यह सीख दी जाती थी कि कोई तुम्हारे साथ ऎसी हरक़त करे तो तुंरत उसकी पोल खोल दो. यहाँ तो उसे ही दोषी ठहराया जाने लगता है कि ज़रूर उसी ने कोई हरक़त की होगी, वरना इतनी लड़कियां, औरतें वहां हैं, किसी और के साथ तो ऎसी कोई बात नही हुई. वे दोनों बेहद डर गईं. उस पंडित को तो कुछ कहने की हमने हिम्मत थी नहीं, लिहाजा वहां से चुपचाप उठा कर वे दोनों आ गईं.
दूसरे दिन भी जाने पर वही खेल. अब उस पंडित की आन्खोंं में एक जबरदस्त गुंडई मुस्कान होती. वह किस्सी फिल्म के विलेन की तरह लगता. उसकी और देखने की हिम्मत न होती. जब कभी नज़र मिल जाती तो पाठ करते-करते भी उसके चहरे पर एक कमीनी मुस्कान तैर जाती. उस मुस्कान में इतनी अश्लीलता होती कि छाम्माक्छाल्लो सिहर उठी. आज भी उस नज़र को यद् करा के वह सिहर उठी है.
शाम में प्रवचन होता. एक बाबा जी थे, बड़े-बड़े बाल- भांग से चढी लाल-लाल अधखुली आँखें. वे दो-चार लाइन प्रवचन में कुछ बोलते, फिर कोई भजन या मानस की लाइन अपने हारमोनियम पर गाते और बेतरह झूमने लगते. उनके झूमने से उनके बाल भी बुरी तरह झूमते और. खूब देर तक झूमने के बाद वे एक झटके से सर उठाते, उनकी आँखें तब और भी लाल हो गई रहती, पान सेभरे मुंह से पीक भी निकल कर फ़ैल गई होती, स्त्रियाँ और पुरुषगन जय हो के नारे लगाने लगते.
इस तरह के प्रवचन या सत्संग में स्त्री और पुरुषों के बैठने की अलग-अलग जगह होती. उस रात छाम्माक्छाल्लो भी अपने मोहल्ले की चाची के साथ प्रवचन सुनने गई थी. बाबा जी का झूमना उसे बेहद असहज लग रहा था. कुछ देर बाद उसने लक्ष्य किया कि बाबा झूमने के बाद सर को झटका देने के बाद स्त्रियोवाले घेरे में एक ख़ास जगह पर देखते और वहां अपनी नज़रें स्थिर कर लेते. उनकी नज़रों का पीछा करने पर पता चला कि वहां मोहल्ले की एक नव विवाहिता और बेहद सुन्दर बहू बैठी है. अपनी उम्र, शादी आदि के हिसाब से उसने रंगीन साड़ी पहन रखी थी और थोडा मेक अप किया हुआ था. उस बाबा जी को किसी ने कुछ नहीं कहा, सब उनके प्रवचन पर लहालोट होते रहे, मगर उस बहू पर सबने लानते-मलामतें भेजनी शुरू कर दी कि क्या ज़रुरत थी ऎसी चटक-मटक साड़ी पहनने की, कि ठोर रांगेने की कि स्नो- पाउडर लगाने की.
यह हमारा धर्म है, जिसे बेहद सहिष्णु, बेहद पवित्र, बेहद ऊंचा माना जाता है. धर्म ज़रूर ऊंचा होगा, मगर धर्म के आसन पर बैठनेवाले ये तथाकथित लोग धर्म की आड़ में क्या-क्या गुल खिलाते हैं, इसे कौन देखेगा, कौन सोचेगा? बहू को तो बिना बोले फतवा मिल गया, छाम्माक्छाल्लो या उसकी सहेली उस पंडित के बारे में बोलती तो उसे भी यही सब सुनने को मिलता. इस गलीज हरक़त के खिलाफ क्या वे लोग बोलेंगे जो आज भी धर्म या देवी-देवता के नाम पर आक्रामक हो जाते हैं, क्योंकि आज भी यह सब मानसिकता नहीं बदली है और न बदली है छेड़छाड़ की प्रवृत्ति.

Wednesday, May 20, 2009

हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते

नया ज्ञानोदय के अप्रैल 2009 अंक में प्रकाशित सुप्रसिद्ध मलयाली कवि के सच्चिदानंद की एक कविता उद्धृत है- "मैं एक अच्छा हिन्दू हूं /खजुराहो और कोणार्क के बारे में मैं कुछ नहीं जानता / कामसूत्र लो मैंने हाथ से छुआ तक नहीं दुर्गा और सरस्वती को नंगे रूप में देखूं तो मुझे स्वप्नदोष की परेशानी होगी हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते जो भी थे उन्हें हमने काशी और कामाख्या में प्रतिष्ठित कियाकबीर के राम को हमने अयोध्या में बंदी बनाया गांधी के राम को हमने गांधी के जन्मस्थान में ही जला दिया आत्मा को बेच कर इस गेरुए झंडे को खरीदने के बाद और किसी भी रंग को देखूं तो मैं आग-बबूला हो जाऊंगा मेरे पतलून के भीतर छुरी हैसर चूमने के लिए नहीं, काट-काट कर नीचे गिराने के लिए..."

यह मात्र संयोग ही नहीं है की हम कही भी कभी भी प्यार की बातें करते सहज महसूस नहीं करते। यहाँ प्यार से आशय छाम्माक्छाल्लो का उस प्यार से है जो सितार के तार की तरह हमारी नसों में बजता है, जिसकी तरंग से हम तरंगित होते हैं, हमें अपनी दुनिया में एक अर्थ महसूस होने लगता है, हमें अपने जीवन में एक रस का संचार मिलाने लगता है. मगर नहीं, इस प्यार की चर्चा करना गुनाह है, अश्लीलता है, पाप है और पाता नहीं, क्या-क्या है. हमारे बच्चों के बच्चे हो जाते हैं, मगर हम यह सहजता से नहीं ले पाते कि हमारे बच्चे अपने साथी के प्रति प्यार का इज़हार करें या अपने मन और काम की बातें बताएं. और यह सब हिंदुत्व और भारतीय संस्कृति के नाम पर किया जाता है.
अभी- अभी छाम्माक्छाल्लो एक अखबार में पढ़ रही थी फिल्म निर्माता राकेश रोशन का इंटरव्यू, उनकी फिल्म काईट के बारे में, जिसमें उनके अभिनेता बेटे ने चुम्बन का दृश्य दिया है. साक्षात्कार लेनेवाले की परेशानी यह थी कि यह चुम्बन का दृश्य हृतिक रोशन ने किया कैसे, और एक पिता होने के नाते राकेश रोशन ने यह फिल्माया कैसे और उसे देखा कैसे? बहुत अच्छा जवाब दिया राकेश रोशन ने कि अब इस फिल्म में मैं प्रेम के लिए चुम्बन नहीं दिखाता तो क्या हीरो- हीरोइन को पेड़ के पीछे नाचता- गाता दिखाता? जान लें कि इस फिल्म कि नायिका भारतीय नहीं है. राकेश रोशन ने कहा कि एक अभिनेता के नाते उसने काम किया है, वैसे ही ,जैसे उसने कृष में लम्बी-लम्बी छलांगें लगाईं थीं.
जिस प्रेम से हमारी उत्पत्ति है, उसी के प्रति इतने निषेध भाव कभी-कभी मन में बड़ी वितृष्णा जगाते हैं. आखिर क्यों हम प्रेम और सेक्स पर बातें करने से हिचकते या डरते हैं? ऐसे में सच्छिदानंदन जी की बातें सच्ची लगती हैं कि हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते, और अब उन्हीं के अनुकरण में हमारे भी नही होते. आखिर को हम उन्हीं की संतान हैं ना. भले वेदों में उनके शारीरिक सौष्ठव का जी खोल कर वर्णन किया गया है और वर्णन के बाद देवियों को माता की संज्ञा दे दी जाती है, मानो माता कह देने से फिर से उनका शरीर, उनके शरीर के आकार-प्रकार छुप जायेंगे. वे सिर्फ एक भाव बनाकर रह जायेंगी. यक्ष को दिया गया युधिष्ठिर का जवाब बड़ा मायने रखता है कि अगर मेरी माता माद्री मेरे सामने नग्नावस्था में आ जाएँ तो मेरे मन में पहले वही भाव आयेंगे, जो एक युवा के मन में किसी युवती को देख कर आते हैं. फिर भाव पर मस्तिषक का नियंत्रण होगा और तब मैं कहूंगा कि यह मेरी माता हैं.
समय बदला है, हम नहीं बदले हैं. आज भी सेक्स की शिक्षा बच्चों को देना एक बवाल बना हुआ है, भले सेक्स के नाम पर हमारे मासूम तरह-तरह के अपराध के शिकार होते रहें. आज भी परिवारों में इतनी पर्दा प्रथा है कि पति-पत्नी एक साथ बैठ जाएँ तो आलोचना के शिकार हो जाएँ. अपने बहुचर्चित नाटक "वेजाइना मोनोलाग" के चेन्नई में प्रदर्शन पर बैन लगा दिए जाने पर बानो मोदी कोतवाल ने बड़े व्यंग्यात्मक तरीके से कहा था की इससे एक बात तो साबित हो जाती है की मद्रास में वेजाइना नहीं होते.
देवी देवता की मूर्ती गढ़ते समय तो हम उनके अंग-प्रत्यंग को तराशते हैं, मगर देवी देवता के शरीर की काट कोई अपनी तूलिका से कर दे तो वह हमारे लिए अपमान का विषय हो जाता है. छाम्माक्छाल्लो की समझ में यह नही आता कि इस दोहरी मानसिकता के साथ जी कर हम सब अपने ही समाज का कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं. देवी-देवता को हम भोग तो लगाते हैं, देवी देवता का मंदिरों में स्नान- श्रृंगार, शयन सबकुछ कराते हैं, मगर देवी देवता अगर देवी-देवता के जेंडर में हैं तो हम उनके लिंग पर बात क्यों नहीं कर सकते? आज भी सेक्स पर बात करना बहुत ही अश्लील मना जाता है. और यह सब इसलिए है की हम सब इसके लिए माहौल ही नहीं बना पाए हैं. एक छुपी-छुपी सी चीज़ छुपी-छुपी सी ही रहे, हर कोई इसे मन में तो जाने मगर इस पर बात ना करे, इस पर चर्चा ना करे. ऐसे में छाम्माकछाल्लो के साथ-साथ आप सबको भी यकीन करना होगा की हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते और उनके अनुसरण में हमारे भी.

Tuesday, May 19, 2009

युवाओं का उत्साह- माशा अल्लाह!

छाम्माक्छाल्लो दो दिनों से अपने एक प्रशिक्षण कार्यक्रम पर है। अलग-अलग जगह के अलग-अलग उम्र के सहभागी हैं। इनमेंसे एक सहभागी है एकदम नई उम्र काम एक लड़का, बच्चा कहना जिसे ज़्यादा ठीक रहेगा। मगर दफतर है, इसलिए सहभागी ही कहा जा सकता है। वह नई उम्र का है, अभी-अभी कम्पनी ज्यायन की है। उत्साह से लबरेज, काम में तेज़ और कुछ न कुछ करमे के माद्दे से भरा। अभी अभी उसके साथ १५ मिनट तक बातें हुई। वह अपने काम और काम में अपनी सफलता की बातें बताता रहा। छाम्माक्छाल्लो को भी उसने फ़टाफ़ट दो-तीन सलाहें दे दीं। सलाह अच्छी हैं, कितनी कार्यान्वित की जा सकती हैं, यह बाद की बातें हैं। मगर अभी जो मुख्य बातें उभर कर आई, वह यह की नए बच्चे काम कराने के लिए बने हैं, उनसे उनके मन की बातें निकलवाइये, उनसे उनके कांसेप्ट पर बातें करें और उसे यथा सम्भव कार्यान्वित करें। कोई शक नहीं की आपके कार्य क्षेत्र में एक नया स्पंदन आएगा।
अफसोस यह है की हमारी व्यवस्था में ऊंचे ऊंचे पदों पर बड़ी उम्र के लोग बैठे होते हैं। उनका भी दोष नहीं होता। अपनी सेवा देते-देते अपनी कार्य कुशलता के बल पर वे इस ऊंचाई तक पहुंचाते हैं। मगर ऊंचाई तक पहुँचने के बाद उनमें एक कमी यह अ जाती है की वे थोड़े हठीले हो जाते हैं। अपने अनुभव और उम्र से वे यह समझाने लगते हैं की उनकी ही बातें और विचार सही और कार्यान्वित कराने लायक हैं। ऐसे में सच्चमुच पीढी का संघर्ष सामने नज़र आने लगता है। युवाओं में उम्र का जोश, उम्र का उत्साह और स्फूर्ति होती है, जिसका लाभ बड़ी उम्र के बड़े अधिकारी अपने अनुभव और उनके उत्साह को ब्लेंड करके ले सकते हैं। इससे काम भी आगे बढेगा और कम्पनी भी। छाम्माक्छाल्लो यह देख कर बड़ी खुशहुई की उस युवा में काम कराने का अतिरिक्त जोश है। युवाओं से यही तो अपेक्षा है। वे देश और विश्व की नई ताक़त और जोश बनाकर आ सकते हैं। इससे समाज का हर पक्ष मजबूत बनेगा। छाम्माक्छाल्लो युवाओं की इस ताक़त और उत्साह के प्रति अपनी आस्था प्रकट करती है।
मगर इसके साथ ही छाम्माक्छाल्लो युवाओं की ताक़त को जाया होने देने, गैर परिणाम वाली जगह पर अपनी ताक़त बरबाद कराने के ख़िलाफ़ है। उनकी ताक़त बरबाद होने का मतलब है उनकी अपनी ताक़त के साथ-साथ देश, समाज, परिवार और विश्व की ताक़त का बरबाद होना।

Wednesday, May 13, 2009

कायस्थ तो बोलो, मगर चमार नहीं

बात बहुत पुरानी है। तब छाम्माक्छाल्लो शायद पांचवी या छठी क्लास में पढ़ती थी। वह अपनी माँ के साथ देवघर गई थी। पहली बार और अचानक यह कार्यक्रम बना था। छाम्माक्छाल्लो जिद करके गई थी। सबसे छोटी संतान होने के कारण शायद उसकीजिद मान भी ली गई।

मन्दिर में घुसाने के पहले छाम्माक्छाल्लो को माँ ने सिखाया की कोई पूछे की तुम्हारी जाती क्या है तो बोल देना की कायस्थ हूँ। "क्यों?' माँ ने तब की माँओं की तरह जवाब दे दिया "ऐसे ही." वहा तो खैर यह नौबत नही आई की कोई जाती पूछता और मुझे कुछ बताना पङता।

बात आई-गई हो गई। मगर उसी साल या अगले साल दशहरे के समय इस सवाल से वास्ता पड़ ही गया। छाम्माक्छाल्लो के शहर में हर साल दुर्गा बिठाई जाती हैं। उस समय उनकी पूजा करनेवालों की भीड़ खूब होती है। सप्तमी का दिन था- दुर्गा की आँखें खुलने का दिन। लोगों की भीड़ थी। बच्चों की तो सबसे ज़्यादा। छाम्माक्छाल्लो भी अपनी एक बहन के साथ दुर्गा के मंडप के पास खडी थी और दुर्गा जी की आँखें खुलने की राह तक रही थी। तभी एक महिला वहां आईं। उनके पास पूजा का सामान था, सो जाहिर था की वे पूजा कराने आई हैं। उनहोंने छाम्माक्छाल्लो को एक नज़र देखा, छाम्माक्छाल्लो शायद तब बड़ी गरीब दिखती थी। (अभी भी वही हालत है)। उनकी नज़र में पूरी हिकारत थी। उनहोंने छाम्माक्छाल्लो से दूर हटने के लिए कहा। न जाने क्यों उसे बड़ा गुस्सा आया। शायद जिस जगह वह खडी थी, वहा से उसे दुर्गा की प्रतिमा थोडी बहुत दिख रही थी। वह यह जगह खोना नहीं चाह रही थी। न जाने कैसे छाम्माक्छाल्लो उनके कहने का आशय समझ गई और छूटते ही कहा की "क्यों जाऊं, मैं तो कायस्थ हूँ।" आर्श्चय की इतना कहते ही महिला के तेवर बदल गए और वह सामान्य हो गई। छाम्माक्छाल्लो को बड़ी खुशी हुई। उसकी बहन ने उससे पूछा की तुमने ऐसा क्यों कहा की तुम कायस्थ हो? छाम्माक्छाल्लो ने उसे धीरे से चुप रहने को कहा। बाद में उसे समझाया की देखा नहीं, कायस्थ बोलने से उसने हटाने के लिए नही कहा।

छाम्माक्छाल्लो बचपन में एक गीत गाती थी- गप्प सुनो, भाई गप्प सुनो। अरे गप्पी मेरा नाम, गई, चढी खजूर पर और खाने लगी अनार। चींटी मारी पहाड़ पर खींचन लागे चमार, कैसे जूते बन गए, बचपन के हज़ार। " अभी जब वह एक नाटक बच्चों के लिए लिख रही थी तो यह गीत डालने की ज़रूरत पडी। उसके एक हितैषी ने समझाया की जाती सूचक शब्द हटा दें। छाम्माक्छाल्लो ने पूछा, क्यों? और जवाब पाने से पहले ही जवाब समझ में आ गया। नाटक अधूरा रह गया।

एक जाती बोलो, तो सर गर्व से ऊंचा हो जाता है, एक बोलो तो हंगामा हो जाता है। माँ ने अपने वैश्य जाती के होने की बात छुपानी चाही। प्रिंसिपल हो कर भी सामाजिक तनाव व् दवाब कुछ तो ऐसा रहा ही होगा। वह अब छाम्माक्छाल्लो की समझ में आ रहा है। इस जाती-पाती के चक्कर में हम राजनीति खेल रहे हैं, सबकुछ डाव पर लगा रहे हैं, केवल यह समझाने से इनकार कर रहे हैं की किसी भी जाती में कोई भी पैदा हुआ हो, है तो वह इंसान ही। लेकिन नहीं, जिस बात पर हमारा कोई बस नही, (किसी ख़ास घर में, खास माँ-बाप के यहाँ जन्म लेना), उस पर तो हम नाज़ करते हैं और जो हमारे अपने बस की बात है, (अपनी सोच को विक्सित करना), उस पर कोई तवज्जो देना पसंद नहीं करते।

वैसे बात में से बात निकली है तो छाम्माक्छाल्लो बता दे की बचपन में जिस कायस्थ होने की बात कही थी, उसे यह नहीं पाता था की एक दिन उसकी नियति कायस्थ परिवार की बहू बन जाना है।

Tuesday, May 12, 2009

बह रहा आस्था के सैलाब में सब कुछ

आज अंगारिका चतुर्थी है, हिन्दुओं के लिए पावन दिनों में से एक और। वैसे इस पर्व के बारे में महाराष्ट्र में ही आ कर मालूम पडा। यह तीन संयोगों को मिला कर बना दिन है- कृष्णपक्ष के मंगलवार को पडी चतुर्थी का दिन। साल में यह दो या तीन बार आता है। इस साल यह पहली बार आया है और दूसरा शायद सितम्बर में आयेगा।
छाम्माक्छाल्लो के ऑफिस जाने के रास्ते में मुम्बई का मशहूर मन्दिर सिद्धि विनायक आता है। छाम्माक्छाल्लो पिछले १४ सालों से यह मन्दिर रोज आते-जाते देखती है। इस मन्दिर और इस मन्दिर में आनेवाले भक्तों के बदलाव को भी देखती आ रही है। पहले यहाँ इतनी भीड़ नही होती थी। मंगलवार या किसी ख़ास दिन तनिक भीड़ हो जाती थी। गणपति के दूध पीनेवाले दिन भी यहाँ खूब भीड़ जमा हुई थी।
पर अब यह भीड़ आपको हमेशा दिखेगी। पहले उम्र दराज़ लोग, घूमने आनेवाले लोग, सैलानी आदि यहाँ आते थे। पर अब तो नियमित आनेवालों की संख्या में नित नया इजाफा होता जा रहा है। अंगारिका के दिन तो भीड़ की पूछिए ही मत। एक रात पहले से ही लोग यहाँ अपना नंबर लगाना शुरू कर देते हैं। दो-तीन किलोमीटर लम्बी लाइन तो साधारण बात है। मेरी समझ से सुबह की लाइन में लगे हो तो शाम तक ही नंबर आता होगा। छाम्माकछाल्लो ने कभी भी इस लाइन का हिस्सा बनाना नहीं चाहा।
अब तो भीड़ का चेहरा भी बदलने लगा है। पहले बुजुर्ग, घरेलू महिलाएं आदि आते थे। अब तो युवक-युवतियां, स्कूल-कालेज जानेवाले बच्चे इस लाइन में अधिक नज़र आते हैं। काम से छुट्टी ले कर वे आते हैं। इसे श्रद्धा कहा जा सकता है। मगर छाम्माक्छाल्लो को यह बात पचती नहीं। भगवान कण-कण में विद्यमान हैं। पूरी श्रद्घा से आप कहीं से भी उसे पुकारें, वे आपकी मदद को दौडे चले आयेंगे। लेकिन अपने काम -काज को छोड़कर सिर्फ़ एक ख़ास दिन में इतनी लम्बी लाइन लगा कर कुछ सेकेण्ड के दर्शन से क्या मिल जानेवाला है, यह समझ में नहींं अता। यूथ, जिन पर देश का भविष्य टिका है, उनकी इस तरह की मानसिकता कभी-कभी डराती है। यह भक्ति का सैलाब है या अपनी कमजोरियों को एक अदृश्य ताकतवर के सामने ला पटकना। आत्म विशवास की कमी पीरों-दरगाहों, मंदिरों के चक्कर लगवाने लगती है। तो क्या हमारे आज के युवा, वह भी मुम्बई जैसे शहर के युवा क्या डरे हुए हैं या उनमें आत्म विशवास की कमी है? छाम्माक्छाल्लो को ऐसा कुछ नहीं लगता। मगर फ़िर भी इनकी बढ़ती संख्या चौंकाती है। छाम्माकछाल्लो इस भीड़ से यह भी पूछना चाहती है की इतना समय क्या आप किसी सामाजिक काम में या अपने ही कार्य स्थल में उतनी ही श्रद्घा से देने की इच्छा रखते हैं? आस्था का यह कौन सा और कैसा स्वरूप है?

Sunday, May 10, 2009

होठो की बिजली -कहानी

छाम्माक्छाल्लो की यह कहानी अभी-अभी आरा, बिहार से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका "जनमत" में और इसके बाद rachnakarblogspot.com में छपी है। बहुत ही संवेदनशील मुद्दे पर कहानी है। आप सबका ध्यान और विचार की उसे प्रतीक्षा रहेगी/ लिंक है- http://rachanakar.blogspot.com/2009/05/blog-post_08.html

चींची हल्के से कराही तो शानो के मुंह से एक ठंडी आह निकल गई -‘हाय मेरे रब्ब! ये कौन से दिन तूने दिखाए हैं मुझे? क्या गुनाह था मेरा और इस नन्हीं सी जान का!‘ आँसू बेसाख्ता उसके गालों पर ढुलकने लगे।
टप्-टप्! आँसू की चंद बूँदें चींची के चेहरे पर पड़ी । वह फिर हल्के से कुनमुनाई और धीरे से आँखें खोली, जैसे आँखें खोलने में भी उसे बड़ी तकलीफ हो रही हो। आँसुओं से तर-ब-तर शानो का चेहरा सामने था -‘ममा!‘ बेहद बारीक, अस्फट स्वर में निकला उसके मुंह से, जिसने शानो को चौकन्ना कर दिया। चींची उसे आवाज दे रही है, उसे ऐसा लगा। आँसुओं से भरी आँखों में उसे चींची की धुंधली सी शकल नजर आई। गले में पड़ी चुन्नी से झट-पट अपना चेहरा पोंछ डाला। खुद को दुत्कारा -‘क्या कर रही है वह?‘ उसने तय किया था कि वह उसके सामने खुद को कमजोर नहीं बनाएगी। रोएगी तो कतई नहीं। बच्चे तो यूँ भी अपनी माँ को रोते देख बुझ जाते हैं या खुद ही रोने लगते हैं।
उसके भाई का यह बड़ा प्यारा शगल था। जब भी आता, चींची के सामने शानों को पीटने का अभिनय करता -‘मारूँ तेरी मम्मी को? आ, ये ले, और ये, और ये..‘ हाथ उठाकर झूठ-मूठ के थप्पड़ शानों की पीठ, हाथ, गालों पर लगाता। शानों भी उसका आनंद लेते हुए रोने का अभिनय करती। बच्चे अपनी माँ से कितना जुड़े होते हैं, इस अभिनय से उसे समझ में आता। चींची पहले देखती, फिर उसके चेहरे पर हवाइयाँ उडतीं, फिर वह चिल्लाते हुए शानो के पास दौड़ती, उसे कसके पकड़ लेती और फिर जोर-जोर से रोने लगती। उसे रोता देख मामा और वह दोनों ही हँसने लगते। मामा चींची को गोद में भर लेता। उसे कसकर भींचता, चूमता। कभी-कभी तो इतना कि उसकी जकड़न के कसाव में उसकी साँसे दबने लगती, ब्याधे के पंजे में फंसी नन्हीं चिड़िया की तरह वह उससे छूटने के लिए छटपटाने लगती। मामा शानो से कहते -‘देखो, कैसे छूटने के लिए मचल रही है। प्यारी बच्ची, नहीं छोडूँगा तुम्हें।‘ और तड़ातड़ उसके गाल पप्पियों से भर देता। इतना कि थूक उसके गालों पर सन जाते। मामा फिर जेब से चौकलेट निकालते, उसे देते और जमीन पर उतार देते। शानो वारी-वारी जाती - भाई के इस प्रेम पर। कित्ता चाहता है चींची को। कभी-कभी तो वह यह भी कह देती -‘तू ही इसका कन्यादान करना भैया। तुझे बेटी नहीं है न! घर भरा-भरा, चमकदार और रोशन लगने लगता है, अगर बेटियाँ हो तो।‘
चींची के पापा का भी यही मानना है। चींची में उनकी जान बसती है। चींची के जन्म पर नर्सिग होम में नर्सें दाइयाँ खामोश हो गईं। बेटा होने पर उनकी बाँछें खिल जाती हैं। घरवालों से इनाम-इकराम ज्यादा मिलता है। ऑपरेशन थिएटर के बाहर बेचैनी से घूम रहे पापा ने नन्हीं काँय की आवाज सुनी। उनके दिल की धडकन बढ़ गई। वे इंतजार कर रहे थे कि अंदर से कोई निकलकर उन्हें उस नन्हीं सी जान की सूचना देगा। नन्हीं काँय-काँय खामोश हो गई और अंदर से कोई निकला भी नहीं। वे नर्वस होने लगे। अंदर सब ठीक-ठाक तो है न! उन्होंने अपनी माँ को देखा, जिन्होंने तबतक जच्चे-बच्चे की कुशलता और सलामती कें लिए जाने कितनी पूजा-मन्नत मान दी।
तभी ऑपरेशन थिएटर का दरवाजा खुला और दो नर्सें नमूदार हुई। पापा झट से बढे, बेचैनी, आकुलता और सवालों के साथ। नर्स ने बुझी आवाज में कहा -‘लड़की है।‘
‘कैसी है?‘
‘ठीक ही है। लड़कियाँ तो काठ होती हैं। उन्हें जल्दी कुछ नहीं होता।‘
पापा भड़क गए -‘ऐसे क्यों बोल रही हैं आप? बच्चा मेरा है। लड़का है या लड़की, उस पर खुशी या नाराजगी जताने का अधिकार हमारा है। बच्चे के जन्म की खबर सुनाने का यही तरीका आपको सिखाया गया है?‘
‘सॉरी सर! हम जब भी किसी को बेटी के जनम होने की खबर देते हैं, उनके चेहरे बुझ जाते हैं। कोई-कोई तो डाँट भी देते हैं कि ऐसे उछलती-कूदती आ रही है, जैसे बेटा हुआ है।‘
चींची की हल्की कुनमुनाहट से शानों फिर से चौंकी। वह रो क्यों रही है? उसे चींची को अहसास कराना है कि उसे कुछ नहीं हुआ है, उसने कुछ नही किया है। यह सब तो महज संयोग है, किसी भी एक्सीडेंट की तरह - हवाई जहाज क्रैश कर जाने की तरह, ट्रेन पट्टी से उतर जाने की तरह, बस के गड्ढे में गिर जाने की तरह।
चींची इतना समझ लेगी? क्यों नहीं? लड़कियाँ वैसे भी ज्यादा समझदार होती हैं। शानो ने खुद के सवाल पर खुद से जवाब दिया। टीवी पर देखती तो सारी घटनाएँ-दुर्घटनाएँ, बिखरे सामान, कराहते लोग, खून के धार, खून के छींटे, खून...।
खून चींची के बिस्तर पर फैल गया है। पैड पर पैड वह लगाती जाती है। खून का बहना कम नहीं होता। शानों को लगता है, दुनिया का सारा खून इसके भीतर जमा हो गया है।
चींची के बिस्तर के सामने खिड़की खुलती है। उस खिड़की के सामने एक बड़ा सा पेड़ है। पता नहीं, अशोक का, गुलमोहर का या किसका। पेड़ की हरियाली शानो को भाती है। उसका मन करता है कि वह पेड़ की सारी नन्हीं कोमल पत्तियाँ तोड़कर उसका हरा रस निकाल ले और उसमें चींची को डुबो दे। जब वह उसमें से निकले, तब वह पेड़ की तरह हरी-भरी दिखे, उस पर बैठनेवाली चिडियों की तरह उड़े, फुदके, चींचीं करे।
चिड़िया जैसी ही तो है। जभी तो उसने उसका नाम रखा चींची। पूरे घर में वह चिड़िया की तरह की फुदकती रहती है। इकहरी देह, लगता, उड़ रही है। शानो को हमेशा डर लगता रहता, इत्ती तेज हवा सी भागती है, कहीं गिर न पड़े, कही हाथ पैड न तोड़ बैठे, कहीं मुंह कान न फोड़ बैठे। एक बार गिर ही गई थी। ललाट पर एक बड़ा सा जख्म हो गया था। चार टाँके लगे थे। चींची ने पहली बार खून देखाक्था। ‘मम्मी...‘ मारे डर के वह चिल्ला पड़ी। भय से उसकी पूरी देह ठंडी हो गई।
उस दिन के इत्ते से खून के मुकाबले आज का खून... शानो की पूरी देह झुरझुरा गई। चींची ने शानो को देखा। कंबल में से उसके काँपते नन्हे हाथ बाहर निकले और निकल कर शानो का हाथ पकड़ लिया। वह कुछ बोलना चाह रही है, मगर बोल नहीं पा रही। शानो समझ गई कि वह क्या कहना चाहती है। उसे खुद पर फिर गुस्सा आया। क्यों अपने आँसुओं पर काबू नहीं पा रही वह? बच्ची को ताकत देने के बजाय उसे कमजोर कर रही है। मामा वाला खेल वह भी रचा रही है - रूलाओ और मजे लो।
‘नहीं।‘ शानो ने बाबा आदम वाला बहाना दुहराया -‘मैं रो नहीं रही बेटे। आँख में कुछ चला गया था न!‘ उसने रूमाल भी नहीं निकाला। बस, चुन्नी के कोर से आँख में पड़े ‘कुछ‘ को निकालने का दिखावा करती रही। फिर बताया -‘वो सामने पेड़ पर चिड़िया बैठी है न! उसे मैं बड़े गौर से एकटक देख रही थी। पता है, एकटक कुछ भी देखने से आँखों में पानी आ जाता है। तू मुझे देख, तेरी भी आँख में पानी आ जाएगा।‘
‘ये क्या बोल गई वह?‘ शानो चौंकी। खुद से खुद को हजारहाँ लानत-मलामत ठोकी। एक तो जीवन भर का न भूलने वाला गम और उसपर से वह उसे आँखों के पानी का अभ्यास करा रही है, बनिस्पत इसके कि वह उसके होठों की कलियों के खिलने के उपाय करे।
शानो ने चींची को सहारा देकर उठाया। उसे गोद में उठाकर बाथरूम ले गई। पूरा बैड भीग गया था। शानो की हिम्मत पैड को देखने की न हुई। उसने उसे कागज में लपेटकर डस्टबिन में डाल दिया। चींची को कमोड पर बिठाया। साफ-सफाई की, नया पैड लगाया, फिर गोद में उठाकर वापस बिस्तर पर ले आई। बिस्तर पर कमर के पास रबरशीट लगी हुई थी। उसपर बिछी चादर खराब हो चुकी थी। शानो ने चादर बदलकर चींची को फिर से बिस्तर पर सुला दिया।
‘भैया मेरे, राखी के बंधन को निभाना।‘ शानो फिर से चौंक उठी। बिन मौसम के यह शहनाई कैसी? आजकल तो रक्षाबंधन पर भी रेडियो, टीवी पर ये सब गाने नहीं बजते। तो फिर? अचानक उसे याद आया, आज रक्षाबंधन है। इसीलिए! पर, इसबार तो उसने राखी भेजी ही नहीं। किसे भेजती! किस भाई के लिए? जिस भाई को वह अपना सबसे बड़ा हितैषी समझती थी, वही उसकी पीठ में छुरा घोंपकर भाग गया। उसके गले में कुछ अटकने लगा। साँसें तेज होने और आँखें धुंधलाने लगीं। चींची उसी की ओर देख रही थी। उसकी नजरों और नजरों में उठते सवालों के बबूल से बचने के लिए वह बाथरूम में घुस गई।
चींची बोल नहीं पा रही है। डॉक्टर ने कहा है -‘नॉर्मल होने में थोड़ा वक्त लगता है। ऐसे मामलों में विक्टिम्स को डबल शौक लगता है, अगर अक्यूज्ड उसका अपना हो।‘
‘कोई दुश्मन घाव लगाए तो मीत जिया बहलाए, मनमीत जो घाव लगाए, उसे कौन बचाए।‘ फिल्मवाले कभी-कभी कितना सटीक लिख जाते हैं। आज ये लाइनें उसके ऊपर चरितार्थ हो रही है।
‘चींची? कुछ खाओगी बेटा?‘ आठ दिन हो गए। चींची ने कुछ भी नहीं खाया है। शुरू के चार दिन तो वह सलाइन पर रही और उसके बाद फ्रूट, जूस, दूध, सूप आदि पर। डॉक्टर ने कह दिया है -‘शी कैन ईट नाऊ, जो भी वह चाहे।‘
‘चींची, पित्ज्जा मँगवाऊँ? खाओगी ना? चिकन या मशरूम टॉपिग? या इडली? कितनी खाओगी? दस से काम चल जाएगा तुम्हरा?‘ शानो बोलती है ताकि चींची हँसे। मगर चींची की आँखों में इन सबको सुनकर कोई चमक नहीं उगती। वह चुपचाप शानो को देखती रहती है।
‘टीवी ऑन कर दूँ? क्या देखोगी? कार्टून? डिस्कवरी? एनीमल प्लैनेट?‘ शानो उसकी पसंद के चैनल्स के नाम दुहराती है। कार्टून और उसमें भी टॉम एंड जेरी पर तो वह दिलोजान से फिदा है। उसकी ऊँची खिलखिलाहट ही बता देती कि वह क्या देख रही है।
‘अच्छा, पता है चींची। रात में मैंने एक सपना देखा। आओ, तुम्हें सुनाऊँ!‘ और चींची की सहमति असहमति जाने बगैर वह बताना शुरू कर देती है, बिना कॉमा, फुलस्टॉप के, जैसे उसे सपना सुनाने की सजा मिली हो। उसने आँखें बंद कर लीं। चींची की हथेली अपनी मुट्ठी में भर ली। उसे लग रहा था कि यदि उसने आँखें खोल दीं तो उसकी आवाज बैठ जाएगी या फिर आँखें खोली तो वह धुंधलाने लगेंगी।
पता नहीं चींची सो गई क्या? सपने के नाम पर क्या वह सुनाती रही, उसे खुद नहीं पता। शानो ने धीरे से आँखें खोली। डरते-डरते चींची की ओर देखा। चींची उसी की तरफ देख रही थी। उसकी इस नजर में उसे चींची नहीं, चींची के पापा नजर आए। घृणा, हिकारत, धिक्कार से भरी सूरत - ‘तुम्हारी। सिर्फ तुम्हारी वजह से यह सबकुछ हुआ है। और बुलाओ मायकेवालों को। रोकने पर तो तुम औरतें टेसुए बहाने लगोगी। इल्जाम लगाने लगोगी कि हम मर्द तुम्हारे घर के लोगों को देखना ही नहीं चाहते।‘
इस हिकारत से शानो घबड़ा गई है। उसे इस समय एक संबल चाहिए, उसके लिए, चींची के लिए। शानो का चेहरा फिर से आँसुओं से भर जाता है। उसके होठ फडफडाते हैं, वह बोलना चाहती है, विरोध जताना चाहती है -‘ऐसा नहीं है, जिसने... लेकिन मायका-मायका कहकर बार-बार ताने क्यों दे रहे हो? तुम्हारे रिश्तेदार भी तो ऐसा कर सकते थे। तब क्या मैं यूँ ताने दे पाती? हमारे लिए तो तुम्हारे-हमारे सभी के रिश्तेदार हमारे रिश्तेदार हो जाते हैं। तब तो हमारे लिए अपने घर-परिवार वाली बात हो जाती है। घर-परिवार, मान-मर्यादा!‘
मर्यादा और प्रतिष्ठा तो अभी भी है। मगर उससे ज्यादा अहम है चींची की जान। शानों ने चींची की ओर देखा। चींची एकटक उसे ही देखे जा रही थी। शानो उसके सिरहाने बैठ गई और उसका सिर अपना गोद में ले लिया। फिर धीरे-धीरे उसके बालों में उंगलियाँ फिराने लगी।
चींची की पुतलियाँ खुले हुए में चारो ओर घूमीं और फिर शानो पर जाकर टँग गई। उसकी पलकें झपक तक नहीं रही थीं। शानो सिर से पैर तक काँप गई। क्या सोच रही होगी वह इस समय? क्या आ-जा रहा होगा इसके मन में? क्या यह अपनी बात, अपने अहसास मुझे बता पाएगी? उसके अनुभवों के दंश को मैं समझ सकूँगी? क्या वह ताउम्र सामान्य हो पाएगी? क्या मैं कभी नार्मल हो पाउँगी? क्या हम दोनों एक-दूसरे के प्रति सहज हो सकेंगे?
बालों में उंगलियाँ और मन में विचार साथ-साथ घूमते रहे। चींची ने धीरे-धीरे आँखें बंद कर लीं। शानो की उंगलियाँ शायद उसे सुकून पहुँचा रही थीं। वह सुकून की सीढी दर सीढी उतरने लगी, उतरती गई, उतरती गई, फ्रिल लगी चेकदार गुलाबी फ्रॉक उसके नीचे उतरने से लहरा रही थी। छोटे-छोटे बालों की दो प्यारी-प्यारी पोनियाँ, उसमें झालरदार रबड बैंड, पैरों में सफेद मोजे और गुलाबी बूटियाँ। किसी गुडिया सी प्यारी चींची गौरैया सी फुदकती सीढियाँ उतर रही थी। सीढियाँ उतरते-उतरते वह बड़े से मैदान में आ गई। मैदान के चारों ओर अलग-अलग फूलों की क्यारियाँ बनी थीं- लाल, पीले गुलाब, गेंदे, बेली और पता नहीं कौन-कौन से फूल । उसे तो इत्ते नाम भी नहीं पता। शानो ने पाँच फूलों के नाम भी सिखा दिए थे । पाँच-पाँच जानवरों, चिडियों, फलों, सब्जियों आदि के नाम के साथ ताकि किसी अच्छे से स्कूल की नर्सरी में उसका नाम लिखा जाए। उसने तो अबतक केवल तीन ही फूल देखे थे। गेंदा, गुलाब और कमल। बाकी अपनी किताब में।
चींची फूलों को सूँघने लगी। उनसे बतियाने लगी। गेंदे के फूल की पंखुडी तोडकर होठों पर लगाया और जोर से फूँक मारी - पीं... पीं... की तेज संगीतमय आवाज निकली। उसे मजा आया। दुबारा फूँक मारी तो और तेज संगीतमय आवाज निकली। उसे मजा आया। फर से फूँक मारी तो फट की आवाज के साथ पंखुडी फट गई। चींची हँस पड़ी। उसने दूसरी पंखुडी ली, फिर तीसरी, फिर चौथी। इस संगीत में कितना आनंद है। वह गुलाब की ओर मुडी। गुलाब की पंखुडी तोडी और मुंह में भर कर चुभलाने लगी। ममा बताती है कि गुलाब की पंखुडी खाई जाती है। इससे मुंह में गुलाब की सुगंध भर जाती है और होंठ और जीभ लाल हो जाते हैं। उसने ढेर सारी पंखुडी खा डाली। अब उसका मन करने लगा कि वह अपने लाल हो गए होठ और जीभ देखे।
‘मैं दिखाता हूं तुम्हें। चलो मेरे साथ। मेरी प्यारी सी चींची रानी।‘ किसी ने उसे गोद में उठा लिया।
चींची ने देखा और मारे खुशी के चिल्ला पड़ी -‘अरे, मामू आप?‘
‘क्या खाएगी मेरी चींची? आईस्क्रीम, कुल्फी, चॉकलेट, पेपी...‘
‘चॉकलेट खाने से मेरे पेट में कीडे हो जाते हैं। खुद ही चॉकलेट में कीडे होते हैं। वही पेट में चले जाते होंगे और आईस्क्रीम से मेरा गला खराब हो जाता है। सर्दी भी हो जाती है। फिर ममा मुझे डॉक्टर अंकल के पास ले जाती है। डॉक्टर अंकल बोलते हैं, मुंह खलो, ऐसे आ.. जबान बताओ। यूँ...ई... फिर दवाइयाँ देते हैं। मुझे एकदम पसंद नहीं दवा खाना।‘
‘ओहो, नानी मेरी। सीधे-सीधे बोल ना कि नहीं खाएगी तू। तो चल, कुछ पीते हैं। क्या पिएगी? पेप्सी, कोला...‘
‘ऊँ हूँ! ममा बता रही थी कि इसमें कीड़े मारनेवाले दवा मिली होती है, जिससे लोग बीमार पड़ जाते हैं। मामा, एक आइडिया! ऐसा करते हैं कि चॉकलेट खाकर कोल्डड्रिक पीने से कीड़े मारने वाली दवा पेट में जाएगी, जो चॉकलेट के कीड़ों को मार डालेगी।‘
चींची चीख उठती है - ‘मामू छोड़ो न, कित्ती जोर से दबा रहे हो।‘
‘तो क्या करूँ! तू कुछ खाती-पीती ही नहीं है।‘
‘खाती हूं न! तभी तो इत्ती मोटी हूँ। मेरे दाँत भी मजबूत हैं, ये देखो... ई...।‘
‘मेरे तुमसे ज्यादा मजबूत हैं। देखोगी?‘ दाँत बढ़ते-बढ़ते धारदार चाकू में तब्दील हो जाते हैं। गेंदे, गुलाब झड़ जाते हैं। पत्ते सूख जाते हैं। रह जाते हैं केवल गुलाब के काँटे - चींची के पूरे बदन बिछे हुए - चींची बेहोश, चींची लहुलुहान!
चींची ने राक्षस वाली कहानी सुनी थी। राक्षस काला होता है, उसके सर पर सींग होते हैं। उसके दाँत बड़े-बड़े और सामने को निकले होते हैं। वह काली गुफा में रहता है और राजकुमारियों को ले जाकर उस गुफा में बंद कर देता है। चींची भी काली गुफा में पहुँची थी। जिन सीढियों से नीचे उतरती वह बगीचे में पहुँची थी, वही सीढियाँ गुफा बन गईं। पत्थर चट्टान, काँटे, चीख।
चींची फिर से चीख उठी। शानो भी। उसने चींची को गोद में समेंट लिया -‘ना मेरी सोना, ना! मैं हूँ ना! मेरी चुनमुन बेटा, मेरी झुनमुन बेटा।‘
शानो एकदम से चिड़िया की तरह ममा की गोद में समा गई-‘ममा, तुम उस समय क्यों नहीं थी?‘
दोनों जैसे एकमेक होने लगी। वह पूरी तरह से ममा की गिरफ्त में थी, उसके मुंह, नाक ममा के पेट में छुप गए थे। साँस नहीं ले पा रही थी, फिर भी उसे बड़ा अच्छा और सुरक्षित लग रहा था। उसदिन भी उसकी साँसें बंद हो रही थी। मामू की गिरफ्त से छूटने की कोशिश में।
काँटे, पत्थर, चट्टान की चोट के आगे सुन्न पड़ी चींची को शानों का यह स्पर्श, बाँहों का घेरा, घेरे का दवाब समझ में नहीं आया, समझ में आने से पहले उसने शानो के पेट में जोर से अपने दाँत गड़ा दिए। तिलमिलाकर शानो न उसे छोड दिया। इस झटके में सलाइन हाथ से निकल गया और खून की घार फूट पड़ी। चींची का बदन बुरी तरह से हिल रहा था। शानो बाहर भागी - नर्स, सिस्टर प्लीज! चींची का काटना वह भूल गई।
नर्स ने फिर से सलाइन लगा दिया। सलाइन में ही नींद का इंजेक्शन भी दे दिया। नींद में डूबते-डूबते, चींची ने देखा कि उसने इससे भी ज्यादा जोर से दाँत काटा था, इत्ता कि मामू के हाथ से खून निकल आया था। दर्द से तडफडाकर मामू ने झटके से हाथ छुडाया और हथेली चींची के मुंह पर रख दी। फिर उसके गुलाब की पंखुडी खाए होठों को ऊंगलियों से कसकर मसल दिया। मामू की आँखें लाल हो गई थी और चेहरा डरावना। चींची को कहानी वाला राक्षस याद आ गया। मामू ने उसे बिस्तर पर पटक दिया। चींची समझ नहीं पाई कि गुफा में उसका अपना बिस्तर कहाँ से आ गया - टॉम एंड जेरी प्रिटवाली चादर, बेडरूम सेट व्राली बार्बी डॉल। किचन सेट और हैरी पॉटर। अरे, यह तो उसका अपना कमरा है। मामा भी तो उसके अपने ही हैं। कित्ता प्यार करते हैं उसे। जब भी आते, ढेर सारे खिलौने, कपड़े लाते। जूते भी, मोजे भी। मामा के आने पर वह सीधा उनकी गर्दन पर झूल जाती। मगर आज मामा को हुआ क्या है? क्यों उसे यूँ दबा रहे हैं... क्यों दाँत काट रहे हैं? क्यों... आगे वह सोच ही नहीं पाई। डर और दर्द ने उसे बेहोशी की गहरी खाई में फेंक दिया।
डॉक्टर चींची की बेहोशी तोडने की कोशिश में हैं। वे शानो को हिदायतें दे रहे हैं - ‘बीहेव योरसेल्फ मैम! उसे आफ प्यार, आफ सपोर्ट की बहुत जरूरत है। चार साल की है तो क्या हुआ? चार महीने के बच्चे भी स्पर्श, आवाज और मूड समझते हैं। उसे लगना नहीं चाहिए कि आप उसपर कोई दया कर रही हैं। आपका इमोशनल टच ही उसे नॉर्मल कर पाएगा। शी हैज गॉट एन अनरिपेयरेबल डैमेज। आप उसे यूँ ही नहीं छोड़ सकती। उसे सहारा दीजिए। कॉल हर फादर ऑल्सो।‘
कहाँ से और किधर से बुलाए उसके पापा को? खुद से ही खुद के सवाल पर वह लरजने लगी। आठ दिन हो गए चींची को अस्पताल में आए हुए। न तो शानो की तरफ देखते हैं, न चींची की ओर। कमरे में घुसते हैं और चींची की ओर पीठ करके खडे हो जाते हैं। उनकी हिलती पीठ, तनी मुट्ठियाँ, भिचे होठ उनकी वेदना, क्रोध और बेबसी बताते हैं । चींची के हालात का जायजा नर्स, डॉक्टर से लेते हैं। दवाइयाँ व अन्य जरूरी चीजें उपलब्ध करा देते हैं और चले जाते हैं।
शानो बोलना चाहती है, बात करना चाहती है। मगर हिम्मत ही नहीं पड़ती। वह भी तो अपने दुख उनसे बाँटना चाहती है। उनके कंधे पर सर रखकर फूट-फूटकर रोना चाहती है। चाहती है कि वह रोती रहे और उनके हाथ उसकी पीठ को सहलाकर उसे अपने साथ होने का भरोसा दिलाते रहें। वह फोन करती हैं, हैलो बोलती है, जो बातें जरूरी होती हैं, अटकती-अटकती कहती है, उधर से हाँ, ना कोई भी जवाब नहीं आता। एकालाप जैसा लगता है उसका अपना ही फोन । चींची कुछ बोल भी तो नहीं रही है। वरना उसी को फोन थमा देती -‘तू ही बुला बेटे अपने पापा को।‘
शानो को पूरा यकीन है कि चींची की आवाज सुनकर आकाश अपनी ऊँचाई पर खडा नहीं रह पाएगा। लपककर अपनी चींची को चूमने धरती पर उतर आएगा। लेकिन पहले चींची बोले तब तो। डॉक्टर कहते हैं -‘शॉक बहुत गहरा है। काफी डर बैठ गया है इसके भीतर। उसकी बोलने की ताकत खो गई है। बट डोंट वरी, थोडा नार्मल होते ही बोलने लग जाएगी। तबतक बिहेव पेशेंसली।‘
शानो मानती हैं कि वह दिन जल्द से जल्द आए। तब वह फोन चींची को ही थमा देगी। उसे पूरा यकीन है कि चींची की आवाज सुनकर उसके पापा बर्फ की सिल नहीं बने रहेंगे। दूध की मलाई हो जाएंगे। काश वह दिन अभी आ जाए। जब वे तीनों अपने घरौदे में रहें, खेलें, कूदें, नाचें, गाएं, खुशियाँ बनाएँ।
फिलहाल तो यहाँ एक त्रिकोण है, जिसके एक कोने पर वह खुद है, दूसरे पर चींची और तीसरे पर उसके पापा। अपने-अपने कोण को छोड़कर उसके बीच में जाने की जद्दोजहद ही तो बची हुई है। कब मिटेगी यह जद्दोजहद। कब दूर होगा चींची की आँखों का खौफ! कब सूखेगा उसकी आँखों का पानी! कब इन कोणों की रेखाएं गायब होंगी और वे खुले में रहेंगे - स्वतंत्र, निडर, आश्वस्त!
‘नहीं!‘ शानो ने जोर से सर को झटका। हर्गिज, हर्गिज नहीं। भाई बहन का रखवाला होता है। बचपन से उसे राखी बांधती, तिलक लगाती, बजरी खिलाती, दामन भरती आई है कि बज्र बनकर भाई सारी मुसीबतों से उसकी रक्षा करेगा और अपने भरे दामन की खुशहाली उसे भी बाँटेगा। उसी से इत्ता बड़ा धोखा! अमानत में खयानत। उसकी अपनी बेटी भी तो चींची जित्ती ही बड़ी है। क्या उसके साथ भी...।
‘ऊपर वाला कभी न करे ऐसा!‘ वह झुरझुरा गई। अपने शाप उसे कैसे दे! बच्ची तो बच्ची है! ऐसे कैसे कह दे कि जैसा चींची के साथ हुआ, उसकी अपनी बेटी के साथ भी हो तब पता चलेगा इसका दर्द! उसे अहसास दिलाने के लिए बच्ची की कुर्बानी क्यों? कित्ते मासूम और नाजुक होते हैं बच्चे - रूई के फाहे जैसे नरम, सुकुमार! उस फाहे को कोई कीचड में लथेड दे? कोई उस पर पचास किलो का बाट गिरा दे!
शानो हिम्मत जुटाती है। वह अड गई है - ना, भाई को तो वह हर्गिज-हर्गिज नहीं बुलाएगी। ब्याह-शादी में केवल दूल्हा-दुल्हन जरूरी होते हैं। बाकी और किसी के बिना भी शादी हो सकती है। शादी के समय भाई द्वारा की जानेवाली रस्में न करेगी, न करवाएगी। इत्ते आँसू बहे हैं, थोडे और बहा लेगी। आखिर को औरत ही तो है वह!
शानो और भी हिम्मत जुटाती है- लंबी, छरहरी, सुंदर, जहीन बड़ी ऑफिसर चींची। रोज-रोज उसे बढ़ता देख शानो खुश होती रही है। अब तो उसकी खुशी का कोई पारावार ही नहीं है। उसकी चींची दुल्हन बनेगी। अपने सपनों की नगरिया में जाएगी, जहाँ पर उसका अपना राजकुमार है, अपनी पसंद का। जुगल जोडी देखकर शानो रोक नहीं सकी। उसे पकडकर फफक पड़ी।
‘आंटी, सम्हालिए खुद को प्लीज! चींची आपकी बेटी है, रहेगी। उसपर आपका पूरा-पूरा अधिकार रहेगा; पहले की तरह ही।‘
‘बेटे, क्या तुम्हें... चींची ने कुछ बताया है?‘
‘क्या आंटी?‘
‘अपने बारे में! बचपन से लेकर अबतक की अपनी जिंदगी।‘
‘नहीं तो?‘
‘नहीं? तुम दोनों कई सालों से एक-दूसरे को जानते हो। फिर भी उसने तुम्हें कछ भी...‘
शानो का मन उसे डरा गया है - ‘पगली! क्या कर रही है तू? खुद ही बेटी की दुश्मन बन रही है! अरे, जब चींची ने नहीं बताया तो कुछ सोचकर ही नहीं बताया होगा। तू भी भली मान, चुप कर बैठ जा!‘
‘नहीं!‘ शानो चीख पड़ती है -‘नहीं, मैं चींची की दुश्मन नहीं। जिदगी भर मेरी बच्ची मुस्काई नहीं है। बचपन से लेकर अब तक ऐसे ही बीत गया समय - पतझड़ के मौसम सा। और जब उसके जीवन में बहार आनेवाली है, नई कोंपलें फूटनेवाली है, नए-नए पत्ते निकलनेवाले हैं, कलियाँ चिटककर फूल बननेवाली हैं, ऐसे में मैं चींची की दुश्मन! ना, ना, ना।‘
शानो रोती जा रही है, रोती जा रही है। डर से उसका बदन काँप रहा है। जो शादी के बाद इसे पता चला तो? जो इसने उसे छोड दिया तो? तो मेरी चींची तो जिन्दा ही मर जाएगी। इत्ती मुश्किल से मुस्काने के दिन आए हैं। एक झटके को तो झेल गई, दुबारे नहीं झेल पाएगी। मर जाएगी मेरी बच्ची। मैं उसे मरते नहीं देख सकती।‘
‘आँटी, आँटी प्लीज बताइए। बात क्या है? क्या हो गया चींची को। अच्छी भली तो है।‘
बिलख-बिलखकर पूछा शानो ने -मेरी गलती? मेरा कुसूर? आकाश की एक ही बात -‘तुम्हें छूता हूँ तो तेरा भाई सामने आ जाता है। मुझे उबकाई आने लगती है। मालूम है मुझे कि इसमें तेरी कोई खता नहीं है। मगर मैं क्या करूँ! बख्श दे मुझे शानो। सोच ले, हमारा-तुम्हारा साथ इत्ते ही दिनों का ही था... ना, ना, ना, ये मत सोचो कि मैं तुम्हें या चींची को छोड़ रहा हूँ। तुम दोनों तो मेरे जान-प्राण हो। जी नहीं सकता तुम दोनों के बगैर! पर तेरे साथ रह भी नहीं सकता। मेरा साथ दोगी तो मुझे अच्छा लगेगा। अकेला नहीं समझूंगा खुद को।‘
फफक-फफक पड़े आकाश। एक नहीं, कई-कई बार। जब-जब शानो बेचैन हुई, तब-तब! जब-जब चींची के चेहरे पर गहरी घनी घटा देखी, तब-तब। आजतक उन्होंने चींची को भर नजर नहीं देखा। बातें खूब-खूब, घंटों बाजार, घर, स्कूल, सिनेमा, रिजल्ट जन्मदिन - सब में चींची के साथ-साथ।
घर में जितनी देर है, उतन देर चींची-चींची की रट। सही म लगने लगता कि घर में चिड़िया की चींची भर गई है। लेकिन सीधी नजरों से चींची को न देखनेवाले को शानो ने देखा है - छुप-छुपकर चींची को देखते हुए, देखकर गहरी गहरी साँसें लेते हुए, फिर फूट-फूटकर रोते हुए।
जो घाव इन तीनों के मन में लगा हुआ है, शानो उसके दाग इस लड़के को कैसे न दिखाए! और जो बाद में उसने देखा और घाव की सूख जाती पपड़ी को नोंच दिया, घाव फिर से हरा हो गया; खून की धार फूट-फूट पड़ी, तब? अबतक जितनी मुश्किल से संभालकर उसे रखा था; वह सारा सरंजाम पल भर में ही बिखर कर चूर-चूर हो जाएगा।
शानो फैसला करती है - अभी, इसी वक्त! बात आर या पार। जीवन या मरण। शादी के पहले के दर्द बाद के दर्द से हर हालत में हल्के ही होंगे, कम ही होंगे।
‘बेटे, जब चींची बहुत छोटी थी, तीनेक साल की... तब... तब उसके साथ... एक हादसा हुआ था... बहुत बड़ा हादसा... आज तक हम तीनों उससे उबर नहीं पाए हैं। .... चींची के पापा तो आज भी रोते हैं। मैं तो, जीवित मुर्दा हूं। मैं नहीं चाहती कि तुम्हें बाद में पता चले और पहले से टूटी, बिखरी चींची और जर्रा-जर्रा बिखर जाए।‘
‘ओह नो आँटी, ऐसा कुछ भी नहीं है। चींची ने ही सबसे पहले मुझे बताया। फिर अंकल ने भी... कम ऑन आंटी! इसमें उसकी क्या गलती! खेलते-खेलते वह गिर जाए और उसका सर फट जाए तो इसके लिए वह कैसे जिम्मेदार हो सकती है। और कल किसी एक्सीडेंट में मेरी टाँग कट जाए या आँख फूट जाए तो इसका जिम्मा मेरा होगा क्या? मैं उस कट गई टाँग या फूट गई आँख के लिए रोता रहूंगा या मेरे पास जो बच गया है, उसे सहेजने में लग जाऊँगा? चींची तो बेहद अच्छी लड़की है, सुलझी, समझदार, जहीन! वह मेरा जीवन है आंटी।‘
शानो उसके पैरों पर गिर जाती है... सच कही ऊपरवाले तूने -‘स्वर्ग और नर्क, राक्षस और देव सब इसी धरती पर हैं।‘ उसकी आँखें धार-धार बही जा रही है। लड़के ने कसकर उसे पकड लिया -‘आंटी नहीं, प्लीज! ऐसा मत कीजिए!‘
कितनी तेज और सख्त पकड है - शानो चौंकती है - चींची की पकड़ इतनी मजबूत! आज पहली बार चींची ने अपना हाथ खुद से उठाया है। शानो की आंखों का पानी चींची के बदन पर गिर रहा है। तो क्या चींची भी उसकी पीर को समझ रही है? अपनी तकलीफ के बावजूद उसे दिलासा दे रही है? सचमुच, बच्चे बड़े मजबूत होते हैं।
अस्पताल के सामनेवाला पेड़ स्थिर खड़ा है, मगर उसकी डालियाँ और पत्ते रह-रह कर हिल रहे हैं। डालियों पर बैठी गौरैया चींची-चींची कर रही है। चींची ने अपनी नन्हीं तर्जनी उस ओर बढा दी। उसके होठों के कोनों पर नन्हीं सी मुस्कान की बिजली चमकी। शानो के पूरे बदन में वह तरंग बनकर घुसी। शानो ने लपककर चींची को बाँहों में भर लिया और उसे बेहिसाब चूमने लगी। आँखें बरसती हैं तो बरसें, होठो की बिजली चमकती रहे, बस!
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Monday, May 4, 2009

जाना निरुपमा सेवती का

जिन लोगों की कहानियां पड़ती छाम्माक्छाल्लो बड़ी हुई है, उनमें से एक नाम निरुपमा सेवती का भी है। तब नीहारिका नाम की कहानियों की पत्रिका निकला करती थी। बड़ी अच्छी होती थी वह पत्रिका। उसमें उनकी कहानियां छपती थीं। छाम्माक्छाल्लो बड़े चाव से उनकी kahaaniyan पड़ती। पाता नहीं, कैसे, यह नाम उसके जेहन में बस गया। बाद में मुम्बई आने पर पाता चला की वे यहीं रहती हैं। बाद में यह भी पाता चला की वे सुप्रसिद्ध कवि, नाटककार, आलोचक डाक्टर विनय की पत्नी हैं। मगर कभी उनसे मुलाक़ात नहीं हो पाई। sooaraj prakaash द्वारा संपादित "बंबई-१" में उनकी कहानी के साथ फोटो भी थी। उनकी सुन्दरता से छाम्माक्छाल्लो बहुत प्रभावित हुई। मगर सबकुछ बस यहीं तक।

आज निरुपमा सेवती नहीं रहीं। १ मई को, जब सारा बिश्व मजदूर दिवस मना रहा था, कलम की इस मजदूर ने अपनी अन्तिम साँसें लीं। वे asthamaa से पीडित थीं, और जीवन के अन्तिम ८-१० दिन काफी बीमार-सी रहीं। उन्हें विस्मृति दंश भी हो गया था, khaanaa-पीना छूट गया था, जिस कारण काफी कमजोर भी हो गई थीं।

३० अक्टूबर, १९४९ को जन्मी निरुपमा सेवती की उम्र इतनी भी नहीं थी की कह diyaa जाए की चलो, उम्र हो गई। मगर हाँ, काम काफ़ी किया उनहोंने। पढाई-लिखाई देहरादून में हुई। फ़िर पिटा के बंबई आने पर वे भी जाहिर है की मुम्बई आ गईं। १९६८ में इनकी पहली कहानी छपी और छपते ही काफी चर्चा में आ गई। इनके कुल ७ कहानी संग्रह है-"खामोशी को पीते हुए", आतंक बीज", कच्चे makaan", "काले खरगोश", भीड़ में ", "दूसरा ज़हर","नई लड़की-पुरानी लड़की"। ५ उपन्यास हैं-"पतझड़ की आवाजें', बांटता हुआ आदमी", मेरा नरक अपना है", दहकन के पार", "प्रत्याघात"। इनके अलावा जें दर्शन पर इनका बहुत महत्वपूर्ण काम रहा। उनका पूरा काम २ वाल्यूम में आ चुका है।

निरुपमा सेवती कत्थक की बहुत कुशल न्रित्यानागाना थीं। पंडित गोपी कृष्ण से इन्होंने कत्थक सीखा और राधा-कृष्ण नृत्य मालिका में गोपीचंद के साथ raadhaa की भुमिका की। उनके सिखाए शिष्यों में से दो नाम बेहद चर्चित हैं- डिम्पल कपाडिया औअर संगीता बिजलानी।

वर्तमान में निरुपमा जी लेखन की और उन्मुख हो चुकी थीं। हाशूद दर्शन पर बालाशेम के ऊपर पहली किताब hindii में लिखी। ज्ञान पाल सार्त्र के ऊपर इनकी किताब है। प्लेटो की चिंतानामाला का संकलन इनके पास था। "भारतीय भाषाओं की स्त्री-शक्ति की कहानिया" का सम्पादन कर रही थी।

इन सबके अलावा निरुपमा जी होमियोपैथी की प्रैक्टिस किया करती थीं। होमियोपैथी चिकित्सा में भी एस्ट्रो होमियोपैथी में विशेष रूचि थी। दूरदर्शन के "तालियाँ" कार्यक्रम के तहत इनकी कई कहानियों पर तेली फिल्मों का निर्माण हुआ।

उनके जाने से साहित्य को नुकसान तो हुआ ही है, मगर साहित्यिक उदासीनता भी खाली। मुम्बई के सबसे बड़े हिन्दी दैनिक ने उनके निधन की ख़बर तक छपने की ज़हमत नहीं उठाई। तब लगता है, हिन्दी का लेखक होना कितनी बड़ी trasadiyon से गुजरने के समान है।