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Thursday, November 17, 2011

अभिनेत्रियां

'हंस' के नवम्बर, 2011 के अंक में छम्मकछल्लो की कहानी छपी है- 'अभिनेत्रियां'. तमिलनाडु की तत्कालीन चुनावी स्थिति को केंद्र में रखकर लिखी गई यह कहानी शायद आपको पसंद आए. चेन्नै के लोगों को यह बहुत पसंद आ रही है. शायद एक कारण हो कि लोग इसे अपने से रिलेट कर रहे हों. आप भी देखें और अपनी राय दें, जिन्हें छम्मकछल्लो सर-आंखों से लगा सके.
अभिनेत्रियां
देर हो चुकी थी। नागम्‍मा जल्‍दी-जल्‍दी कपड़ा मार रही थी कि पीतल के नटराज नीचे गिरे घन्न्न्न्न्.... टन्‍न की जोरदार आवाज हुई। जयलक्ष्‍मी घबड़ाकर बाहर निकली
क्‍या तोड़ दिया?
कुछ नहीं... नटराज गिर पड़े।
संभालकर बाबा! कितनी बार समझाऊं?
हाथ ही तो है न मा! हो जाता है। जयलक्ष्‍मी के भाषण से नागम्‍मा चिढ़ती है।
नागम्मा की दलील से जयलक्ष्‍मी चिढ़ गई -एक तो गलती, ऊपर से गलथेथड़ी। सॉरी तो इन लोगों की जीभ पर है ही नहीं।
नागम्‍मा के हाथ फिर से मशीन की तरह चलने लगे। आठ बजे उसे दफ्तर पहुंचना होता है-‍ पैसेज की सफाई, क्यूबिकल्स की सफाई, केबिन की सफाई, बाथरूम की सफाई, केबिन के अफसरों के लिए पानी। कॉंट्रैक्‍ट पर है वह। सब कुछ करते-धरते दस बज जाते हैं। दफ्तर के कैंटीन में ही वह नाश्‍ता करती है। कॉंट्रैक्‍टर से उसे यूनीफॉर्म मिली हुई है साड़ी! एकदम मटमैले रंग की। हमेशा गन्‍दी दिखती। गहरे रंग की नागम्‍मा पर वह साड़ी उसे और गहरा बना देती। साड़ी के संग संग वह भी और गन्‍दी व अशोभनीय दिखती।
जयलक्ष्‍मी भी जल्‍दी-जल्‍दी हाथ मार रही थी। सुबह पांच बजे वह उठती है दोनों बच्‍चों के लिए नाश्‍ता, दूध, टिफिन बनाती है। यूनीफॉर्म, जूते, मोजे तैयार करती है। फिर बड़ी बेटी को स्‍कूल बस तक छोड़ने जाती है। नीचे उतरने से पहले वह चूल्‍हे पर सांभर चढ़ाकर गैस सिम करती है। स्‍कूल बस की दो मिनट की देर भी उसकी रूटीन को गड़बड़ा देती है। बेटी को स्‍कूल छोड़ने से पहले बेटे को उठाकर आती है। मगर उसे मालूम है कि उसके जाने तक वह सोया रहेगा। उसे ममता हो आती है नन्‍हा सा बच्‍चा बिचारा! सुबह की नींद किसे प्‍यारी नहीं होती? उसी का मन क्‍या करता है सुबह-सुबह उठने का? घड़ी के अलार्म पर घड़ी की तरह काम करती जयलक्ष्‍मी घर पहुंचकर फिर से बेटे को उठाती है। नीचे जाने से पहले प्‍यार से बेटे को उठाती है। नीचे से ऊपर आने पर झकझोर कर। उसे तैयार कर फिर उसे नीचे छोड़ने जाना होता है. इस बीच वह सांभर तैयार कर लेती है। सब्‍जी छौंक देती है। कॉफी फिल्‍टर में डाल देती है। अपना मग कॉफी का तैयार करती है, मगर कभी भी पूरी कॉफी पी नहीं पाती। कॉफी ठंढी हो जाती है, फिर भी वह अपने लिए रोज कॉफी बनाती है।
विजयशेखर नॉर्थ में रह आया है। चपाती खाने की आदत लग गई है उसे। जयलक्ष्‍मी को चपाती बनानी आती नहीं। फिर भी, वह बनाती है। विजयशेखर इस बात के लिए उसे जब-तब सुनाता रहता है। तंग आकर जयलक्ष्‍मी कह देती है -इतना ही चपाती खाने का शौक था तो मुझे भी साथ ले गए होते. सीख लिया होता... या वहां से किसी बढि़या चपाती बनानेवाली को ले आते!
छह चपाती बनाने में उसे पन्‍द्रह से बीस मिनट लग जाते। इतनी देर में तो वह जाने कितनी इडली, कितने डोसे, कितने उत्तपा बना लेती।
नागम्‍मा सात बजे आ जाती है। उसके आने के पहले जयलक्ष्‍मी को किचन खाली कर देना होता है. नागम्‍मा को किचन सौंपकर वह तैयार होने चली जाती है। जबतक नागम्‍मा बर्तन धोती है, जयलक्ष्‍मी तैयार हो जाती है। नागम्‍मा झाडू-पोछा, डस्टिंग करती है, जयलक्ष्‍मी टेबल पर नाश्‍ता लगाती है, अपना और विजयशेखर के टिफिन भरती है।
विजयशेखर उठते हैं, दरवाजा खोलकर अखबार लेते हैं, अखबार लेकर बाथरूम चले जाते हैं। फारिग होने में बीस से पचीस मिनट लगते हैं कि पेपर निपटाने में, उसे पता नहीं। कॉफी पीते हुए विजयशेखर अखबार की हेडलाइन्स की चर्चा करते हैं।
इलेक्‍शन पास आ रहा है। विजयशेखर कट्टर समर्थक हैं अम्‍मा के। घर में भी तस्‍वीर लगा रखी है अम्‍मा की, उनकी युवावस्‍था से लेकर अभी तक की फोटो। जयलक्ष्‍मी चिढ़ती है। उसे अम्‍मा नहीं पसंद। नारी न मोहे नारी के रूपा वाली बात नहीं। उसके शासन काल में वह भोग चुकी है। उसके दफ्तर का रास्ता अम्‍मा के घर की ओर से होकर निकलता है. अम्मा के निकलने के काफी समय पहले से ट्रैफिक रोक दिया जाता। ट्रैफिक जाम! लोग इधर-उधर से निकलने की कोशिश करते. जल्‍दी घर से निकलकर भी देर से दफ्तर पहुंचने की गलानि और खीझ से भरे रहते। ये जनता की प्रतिनिधि हैं या महारानी? उनके वार्डरोब के बाबत वह सुन चुकी थी। पूरी नल्‍ली, कुमरन, पोथी उनके पास है शायद।
दफ्तर की मजबूरी में विजयशेखर शर्ट-पैंट पहनते हैं। घर लौटते ही धोती। खास रंग की खास किनारीवाली धोती पार्टी की खास द्योतक। धोती के सहारे पार्टी का प्रचार, अपना अनकहा समर्थन।
विजयशेखर का दबाव बना रहता, जयलक्ष्‍मी पर। वोट अम्‍मा को ही मिलना चाहिए। जयलक्ष्‍मी बहस करती, फिर हथियार डाल देती। राजनीतिज्ञों के लिए घर की शांति कौन भंग करे? कोई भी सत्‍ता में आए, उसके जीवन की सत्‍ता में कुछ बदलाव नहीं आनेवाला- वही सुबह पांच बजे से रात दस बजे तक का चरखा, घरर, घरर, घर्र्।
पिछले दोनों चुनावों में अम्‍मा सत्‍ता में नहीं आ पाई। विजयलक्ष्‍मी को अपना वोट निरर्थक हो जाने का दुख हुआ। लोग कहते हैं, वोट आजादी का प्रतीक है। किधर है उसे अपनी पसंद से वोट देने की आजादी?
नागम्‍मा का आदमी अण्‍णा के प्रेस में काम करता है। पूरा भक्‍त है उनका। एक लफ्ज उनके खिलाफ नहीं सुन सकता। अण्‍णा प्रेस आते हैं, तब वही उनके लिए पानी और कॉफी लाता है। कई बार उनके कप की बची काफी चुपके से चख जाता है। कॉफी संजीवनी की तरह काम करती है। वह अपने को ताकतवर महसूस करने लगता है। इसी अहसास ने नागम्‍मा की गोद चार बार आबाद कर दी। अब वह उसकी ताकत से बुरी तरह चिढ़ती है। परे धकेलना चाहती है, मगर ताकत के सामने कमजोर पड़ जाती है। उस दिन नागम्‍मा का मूड बहुत बिगड़ा रहता है। विजयलक्ष्‍मी को वह यह बता चुकी है। विजयलक्ष्‍मी उस दिन उसके सर पर हाथ फेरती है। नागम्‍मा कभी रो पड़ती है, कभी बिफर जाती है। विजयलक्ष्‍मी के पास उसकी बड़बड़ाहट सुनने का समय नहीं होता। विजयशेखर चिढ़ते हैं सुबह-सुबह बड़बड़ करती है? कहो उसे चुप रहे?
नागम्‍मा का आदमी अभिभूत है अण्‍णा से। कितना अच्‍छा कर दिया है न राज्‍य को। अब तो दिल्‍ली तक भी। नागम्‍मा और उसके आदमी ने दिल्‍ली नहीं देखी है। देखने की इच्‍छा भी नहीं है। अपनी माटी बहुत है। बाकी जगह क्‍या हो रहा, इसकी भी पर्वाह न इन दोनों को है, न बाकियों को।
जयलक्ष्‍मी बड़बड़ाती है -सेल्‍फ सेंटर्ड लोग. जयलक्ष्‍मी का जनम-करम मुंबई में हुआ है। चेन्नै उसे रास नहीं आती। शादी जो न कराए।
विजय शेखर की हर आदत वह बर्दाश्‍त कर लेती है, मगर विचारों का थोपा जाना उससे सहा नहीं जाता। बहस होती और अन्‍त नाराजगी और तनाव में. घर की मनहूसियत उन पर भारी पड़ने लगती। बच्‍चे सहमे रहते, वह रोने लगती गाहे-बगाहे। अब उसने समझौता कर लिया है। विजय शेखर का तन-मन से अपने ऊपर लदना कुबूल कर लिया है। कभी कभी विजयशेखर चिढ़ते हैं -नागम्‍मा की तरह तुम भी बड़बड़ाने लगी हो।
जयलक्ष्‍मी के घर का काम निपटाकर नागम्‍मा कंपनी भागती है। यहां उसे सुकून मिलता है। ढेर सारी औरतें वहां काम करती हैं. कम्प्यूटर पर काम करते, केबिन में बैठते, मर्दों की तरह फाइल उठा कर मीटिंग के लिए भागते देख उसके मन में सपना पलता है अपनी रेवती को भी वह अफसर बनाएगी।
नागम्‍मा के बाल बहुत बड़े थे, जिसे पकड़कर घसीटना अपना अधिकार समझता था उसका आदमी। तंग आकर उसने तिरुपति बालाजी को सारे बाल समर्पित कर दिए। आदमी से बोली -मैं सारे बाल दे दिया करूंगी। जैसे ही बाल थोड़े बड़े होते हैं, वह तिरूपति जाकर उतरवा देती है। अब तो वह जाती भी नहीं। कहीं, किसी भी बाहर-गांव में जाकर एक दिन गुजार आती है, किसी भी नाई से बाल उतरवा लेती है। आदमी तिरुपति का प्रसाद मांगता है. नागम्मा कह देती है कि खरीदा नहीं. हर बार जाना होता है तो हर बार खरीदना ज़रूरी थोडे ना है. नागम्‍मा इस झूठ से खुश है.
चुनाव की सरगर्मी बढ़ रही है। नागम्‍मा को अण्‍णा-अम्‍मा कोई भी पसंद नहीं। गरीब की कौन सुनता है? वोट मांगने आते हैं तो हाथ जोड़े रहते हैं, जीतकर जाने के बाद उन्‍हीं हाथों से जोर का मुक्‍का लगाते हैं, गरीब के पेट पर। इतनी मंहगाई? ठेकेदार पगार बढ़ाता नहीं, बोनस भी नहीं देता। उसी दिन तो सभी कामगारों ने एक दिन की हड़ताल कर दी। कंपनी में हड़कम्‍प मच गया। केबिन गंदा, डस्‍टबिन गंदा, टेबल गंदा, पानी नहीं... कंपनी की मध्‍यस्‍थता से आधा बोनस मिला उन लोगों को। अण्‍णा-अम्‍मा कोई भी तो नहीं रोकते इन ठेकेदारों को।
नागम्‍मा का आदमी हर बार उसे पोलिंग बूथ ले जाता है। एकदम रटी रटाई जबान में समझाता है –‘हम बड़े हैं। वोट देना हमारा अधिकार है। हमी से सरकार है।
सरकार! माई फुट! विजयलक्ष्‍मी चिढ़ती है। अपने अधिकार समझती है, मगर निर्विवाद अधिकार का अधिकार कहां है उसके पास? घर की शांति बनाए रखने के लिए उसे विजयशेखर की अम्‍मा का अनुसरण करना होता है।
ओह! क्‍या है यह राज्‍य भी! इन दोनों के अलावे तीसरा नहीं? हो भी तो क्‍या फर्क पड़ता है! जयलक्ष्‍मी या नागम्‍मा को तो वहीं वोट देना है, जहां के लिए उसे तय कर दिया गया है।
नागम्‍मा पूछती है- वो एक बाई- सुन्‍दर, मांग में इतना सिन्‍दूर! कौन सी पार्टी? जयलक्ष्‍मी के चेहरे पर सुष्मित मुस्‍कान उभर आती है। वह नागम्‍मा को बताती है। एक दिन शाम में टीवी पर उसे बोलता दिखाया था. नागम्‍मा को हिंदी नहीं आती, मगर उसका ठसक आत्‍मविश्‍वास उसे बहुत भाया। तबसे वह जब तब कहती- आज उसकी फोटो देखी। मा! अपूर्व सुन्‍दर!
जयलक्ष्‍मी हिंदी, मराठी सब समझती है। शनि, रवि उसकी छुट्टी रहती है। नागम्‍मा की भी कंपनी की छुट्टी रहती है। उस दिन दोनों देर से उठती है, देर से काम करती है, थोड़ी देर तक बतियाती हैं नागम्‍मा अपना दुख ज्‍यादा, जयलक्ष्‍मी अपनी परेशानी ज्‍यादा। नागम्‍मा अपने दुख जयलक्ष्‍मी के आगे उघार देती है, जयलक्ष्‍मी अपने सारे दुख आंचल के नीचे छुपा लेती है।
नागम्‍मा और जयलक्ष्‍मी दोनों मनाती हैं - चुनाववाले दिन छुट्टी हो। दोनों को कंपनी और दफ्तर नहीं भागना पड़ेगा। दोनों अपनी उंगली पर लगे निशान एक-दूसरे को दिखाएंगी. उन्‍हें आजाद देश का नागरिक होने का गर्व होता है। दोनों में से कोई किसी से कुछ नहीं पूछती कि किसे वोट दिया है। वे गर्व की स्थिति से तुरंत उतरकर केवल बीबियां बन जाती हैं - घर की शांति बनाए रखने की पुरजोर कोशिश करती है।
नागम्‍मा गहरे रंग की है। यह इस प्रदेश की खासियत है। उसे गोरे लोग अच्‍छे लगते हैं। ऊंची जातवाले यहां भी गोरे हैं, जैसे जयलक्ष्‍मी, उसके साहब, उनके बच्‍चे। उसकी कंपनी की और कई महिलाएं, जैसे इन्‍दु, जैसे माया, जैसे लता, जैसे प्रसाद। मगर बाकी सब उसके या उसके आदमी जैसे! नागम्‍मा की इच्‍छा है, रेवती को खूब पढाने की. किसी गोरे रंग के लडके से उसका ब्याह कराने की. रेवती है भी साफ रंग की।
नागम्‍मा फिर कहती है जयलक्ष्‍मी से –‘वो गोरा-गोरा छोरा। बहुत सुंदर लगता है. उसके गाल के गड्ढे. वह पीएम बनेगा? आदमी के पुन्‍न प्रताप से नागम्‍मा सीएम, पीएम, एमपी, एमएलए, पार्टी, प्रेसिडेंट, वर्कर, वोलंटियर्स जैसे शब्‍द और उनके मायने जानने लगी है। अपनी जमात के लोगों से तनिक ज्‍यादे. इसका उसे अभिमान है। जयलक्ष्‍मी के सामने भी वह अपने इस ज्ञान का प्रदर्शन करती रहती है। जयलक्ष्‍मी मुस्‍कुरा पड़ती है -अरे नहीं, अभी वह नहीं बनेगा पीएम।' मगर भरोसा नहीं। परिवारवाद से हम उबरे कहां हैं? एक परिवार से शुरू हुई राजनीति अब मकड़ी के जाले की तरह देश भर में फैल गई है। हर राजनीतिज्ञ अपने बच्‍चों को राजनीति में उतार रहा है, जैसे यह उनका पारिवारिक व्‍यवसाय हो। जयलक्ष्‍मी को किसी फिल्‍म में राजनीतिज्ञ का किरदार निभा रहे कलाकार का संवाद याद आता है -राजनीति से भी बड़ा बिजनेस कोई है तो बोलो! मैं कर लेता हूं।
जयलक्ष्‍मी चिढ़ती है, मगर वह आम जनता की तरह मन मसोसकर रह जाती है। राजनीति तो सांस की तरह, हवा में धूल कण की तरह अणु-अणु में विद्यमान है। उसे राजनीति नहीं आती, पर दफ्तर की राजनीति का शिकार बनती रहती है। विजयशेखर उसे मूर्ख कहते हैं। जयलक्ष्‍मी रोने लगती है। राजनीति में गिरना होता है। जयलक्ष्‍मी को मन की यह गिरावट पसंद नहीं। अपना शिकार होना कबूलती रहती है।
नागम्‍मा और जयलक्ष्‍मी दोनों खुश है। इलेक्‍शनवाला दिन छुट्टी घोषित हो गया है। औरतों के जीवन की यह छोटी सी राजनीति! नागम्‍मा वोट देने जाएगी आदमी के साथ, सुबह-सुबह! वोट देकर फिर आदमी पार्टी प्रचार में लगेगा- बूथ की ओर जाते-जाते मतदान के लिए आनेवाले सभी से कहेगा अण्‍णा, अण्‍णा!
विजयशेखर का अल्‍टीमेटम फिर से है। जयलक्ष्‍मी को वोट देने में कोई उत्‍साह नहीं दीखता। पर वह वोट देने जाएगी जरूर। अपने अधिकार का प्रयोग करेगी अवश्‍य।
नागम्‍मा ने कहा है कि वोट देकर वह काम पर आएगी। जयलक्ष्‍मी ने भी उसे देर से आने को कहा है। जल्‍दी वोट दे देगी तो दिन भर के लिए निश्चिन्‍त। बाकी काम कर सकेगी। कुछ नहीं तो दो घंटे सो लेगी।
नागम्‍मा वोट देकर आ गई। जयलक्ष्‍मी भी. अब ठप्‍पा नहीं। अब कम्‍प्‍यूटराइज्‍ड सिस्‍टम है। सभी नाम छापे हुए हैं सभी नामों के बीच नागम्‍मा को अण्‍णा पूरे पोलिंग हॉल में फैले दिखाई देते हैं। यही हालत जयलक्ष्‍मी की है। पोलिंग अफसर कहता है जल्‍दी! नागम्‍मा चौंकती है, फिर एक बटन दबा देती है। बाहर निकलती है। आदमी पूछता है। नागम्‍मा मुस्‍कुरा देती है। आदमी नोटिस नहीं कर पाता।
नागम्‍मा को जयलक्ष्‍मी इडली खिलाती है। विजयशेखर टीवी देख रहे हैं चारो ओर बस चुनाव और पोलिंग के समाचार हैं। कार्यकर्ता, जनता, रिपोर्टर के चेहरे। जयलक्ष्‍मी के चेहरे पर एक संतुष्टि है। नागम्‍मा और जयलक्ष्‍मी दोनों एक-दूसरे की उंगली देखती है। पोलिंग केबिन में जयलक्ष्‍मी के सामने दो भारी चेहरे नमूदार हुए एक विजयशेखर, दूसरी अम्‍मा। वह तनिक गड़बड़ाई ... तनिक नर्वस हुई। क्षण भर की देर हुई। दूसरे अफसर ने उसे देखा माने जल्‍दी। जयलक्ष्‍मी संभली, बूथ अफसर को आंखों से ही ठहरने का इशारा किया. ऊपर से नीचे तक सारे नाम, निशान और पार्टी के नाम देखे। फिर एक बटन दबा दिया खट और उसका मौलिक अधिकार वोट के रूप में सुरक्षित हो गया। बाहर विजयशेखर खड़े थे, आंखों में प्रश्‍न लिए। जयलक्ष्‍मी आंखों में ही मुस्‍कुराई। विजयशेखर कुछ भी लक्ष्‍य नहीं कर सके।
इडली खाते हुए नागम्‍मा उंगली दिखाती है। इडली परोसते समय जयलक्ष्‍मी अपनी उंगली देखती है। दोनों एक-दूसरे को देखती है। खुद पूछती नहीं, बस ठठा पड़ती है। हंसी की आवाज टीवी की आवाज से ऊपर चढ़कर विजयशेखर तक पहुंचती है। वे चिढ़कर टीवी का वॉल्‍यूम बढ़ा देते हैं। हंसी वॉल्‍यूम से भी ऊपर पहुंचती है। टीवी फुल वॉल्‍यूम पर है। विजयशेखर बेचैनी महसूस करते हैं। शायद नागम्‍मा का आदमी भी महसूस कर रहा होगा। जीवन भर कदम-कदम पर खुद को छलने से बेहतर है एकाध बार दूसरे को भी छला जाए। इतनी राजनीति तो आनी ही चाहिए- उम्र के इस मोड़ पर ही सही।

  

Sunday, October 2, 2011

मैनेजमेंट के कुशल कारीगर- हमारे ईश्वर!


 हे भगवान! छम्मकछल्लो को आप पर बडी दया आ रही है. किस कुघड़ी में आपने हम इंसानों को बनाया. ये निगोडे इंसान! करते सब कुछ हैं खुद और थोप देते हैं भगवान पर.
सोचा था भगवान ने कि बनाकर हम इंसानों को दिमागदार, हो जाएंगे वे निश्चिंत. मनुष्य भी बनकर (?), ऊंहंह! पैदा होकर इंसान- याद करते रह गए भगवान-भगवान! अरे, अब छम्मकछल्लो है परेशान! जिसे देखो, गुहराता रहता है- भगवान-भगवान! कह गए कबीर कि दुख मे सुमिरन सब करए, सुख मे करे न कोए. पर आज देखती है छम्मकछल्लो कि सुख का सारा श्रेय लोग दे देते हैं भगवान को. बच्चा पास, भगवान की कृपा, फेल तो बच्चे का नसीब! मरीज ठीक हो गया, बच गया, भगवान की कृपा, मर गया- डॉक्टर खराब. आपने किसी की मदद की- भगवान का पुन्न प्रताप. नहीं की- आप रौरव नरक से भी भयानक और बदबूदार. अपनी मेहनत से आपने सबकुछ हासिल किया, भगवान की कृपा, खो दिया- नसीब का दोष. क्या भगवान जी आप भी! कभी कुछ दोष-वोष भी तो ले लिया करो अपने सिर. कभी तो कहो कि मरीज ठीक हुआ डॉक्टर के कौशल से, बच्चा पास हुआ अपनी लगन से, तुमने सब हासिल किया- अपनी मेहनत से. मगर नहीं! भगवान ठहरे गहरे गुरु घंटाल! वे क्यों दे दूसरों को अच्छे काम के सिला का माल! यही तो है उनके मैनेजमेंट का कमाल!
लोगों के मैनेजमेंट की कुशल कारीगरी भी यहीं से तो होती है आरम्भ. दफ्तर में काम अच्छा- बॉस का कॉलर ऊंचा, बिगडा तो मातहत की अकुशलता. बच्चा बन-संवर गया, बाप का सीना चौडा- आखिर बेटा किसका है! नहीं बना तो –कैसी मां हो तुम. बच्चे पर ध्यान नहीं दे सकती थी! करती क्या हो दिन भर एक खाना बनाने के सिवाय? मैनेजमेंट की कुशल कारीगरी लोगों ने भगवान से ही सीखी है. वे भी सारा श्रेय खुद लेते हैं, दोष दूसरों के मत्थे छोड देते हैं. आखिर उसी की तो प्यारी-दुलारी संतान हैं ना हम! वरना हमें भी जन्मा दिया होता ईश्वर ने जानवरों-चिडियों की तरह बिन दिमाग के तो हम क्या बिगाड लेते उनका?
लेकिन क्या सचमुच जानवर-चिडिए होते हैं बिन दिमाग के? हां भई हां, जभी तो वे बिना भूख के किसी का शिकार नहीं करते, अपने लिए करोडों की मांद या घोसला नहीं बनाते, अरबों के जंगल नहीं खरीदते, खरबों का बैंक बैलेंस बरगद की डाल से लटका कर उसकी जड अगम पाताल तक नहीं टिका देते. खुद को पाक-साफ और दूसरों को दागदार नहीं बनाते. बेवज़ह दूसरों को मारकर आतंक का भयानक जाल नहीं फैलाते. और तो और, खुद ईश्वर के ही नाम पर देश, दुनिया, दिल, देमाग, देह दरबार का सौदा नहीं करते. मान गई छम्मकछल्लो आपको! ओ भगवान !! कृपानिधान!!!  
   

Thursday, September 22, 2011

ये हुसैन नहीं, हारान हैं, इसलिए कोई बात नहीं!


 दुर्गा पूजा आ रही है. देश और देवी का अपने यहां अन्योन्याश्रित सम्बंध है. देवी पर हमारी आस्था बहुत गहरी है. हमारी आस्था पर आक्रमण करनेवाले गद्दार और नालायकों को उनकी सजा देने में हम माहिर हैं. इतने कि चाहें तो इसके लिए कंसल्टेंसी खोली जा सकती है. प्रशिक्षण दिया जा सकता है. कंसल्टेंसी की एक्सपर्ट राय अथवा प्रशिक्षण देने के लिए छम्मकछल्लो से सम्पर्क करें.
देवी के दिन हैं तो देवी की मूर्ति बनेगी ही, चाहे वह सरस्वती पूजा हो या काली पूजा या दुर्गा पूजा. हर पूजा के पहले प्राण प्रतिष्ठा भी होगी. बिन प्राण प्रतिष्ठा के मूर्ति बस केवल मूर्ति मानी जाती है.
छम्मकछल्लो दो दिन पहले एक अखबार में देख रही थी दुर्गा पूजा के लिए बनाई जा रही प्रतिमाओं की तस्वीर. आप भी देख लीजिए. आखिर, अपनी ही देवी है और बनानेवाले भी अपने ही हैं. कोई एम एफ हुसैन नहीं कि उनकी लक्ष्मी-सरस्वती की पेंटिंग से हमारी हिंदू भावना तार- तार हो जाए और हम उन्हें ऐसे दर-ब-दर कर दें कि मरने के बाद उन्हें अपने वतन में दो गज ज़मीन भी मुहय्या न कराएं. यह कोई फैशन डिजाइनर लीसा ब्ल्यू नहीं, जिसके स्विम सूट पर लगी देवी लक्ष्मी की तस्वीर पर ललकार-ललकार कर लोगों के मन में आग लगा दें. यह तो अपने कोई राखाल दा, हारान दा, मोहन भाई, गिरिराज चाचा, रामसुख भैया हैं. ये देवियों की मूर्तियां नग्न बनाएं या कपडे के साथ, कोई बात नहीं. ये अपने लोग हैं, इसलिए इनकी भावना पर संदेह आपको नास्तिक बना देगा. इन पर न तो कुदीठ डालिये, न ही मन में कोई दुर्भावना लाइए. बिन प्राण प्रतिष्ठा के राखाल दा, हारान दा, मोहन भाई, गिरिराज चाचा, रामसुख भैया की मूर्ति बस केवल मूर्ति है, बिन प्राण प्रतिष्ठा के हुसैन की पेंटिंग या लीसा ब्ल्यू की तस्वीर प्रतिष्ठा- प्रश्न बन जाते हैं. वे सब तो प्रश्न कर सकते हैं, छम्मकछल्लो नहीं. धर्म का मामला है, आस्था का प्रश्न है. देवी की सत्ता स्थापित करने में हम देवताओं की महानता है. आइये, इस महानता पर छम्मकछल्लो के साथ-साथ आप भी वारी-वारी जाएं-
            “या देवी सर्वभूतेषु, नग्नरूपेण संस्थिता
            नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमो नम:.”

         

Friday, September 2, 2011

“बिम्ब-प्रतिबिम्ब”:नाटक में विधवा जीवन का निरूपण - नानावती कॉलेज, मुंबई में


विधवापन स्त्री की मनोवांछित अभिलाषा नहीं, अपितु, नियति का एक मजाक है. इस मजाक की शिकार स्त्रियां आज भी विधवापन के अभिशाप को जीवन भर ढोती रहती हैं. भारतीय मिथक से अलग एक धारणा बना दी गई है कि विधवाओं का पुनर्विवाह नहीं होता. किस धर्म के तहत? यह आज भी अनुत्तरित है. यह विधवाओं का प्रश्न है कि क्या वे विधवा अपने मन से बनीं हैं?
एक ओर भारत विश्वव्यापी देश बन रहा है और दूसरे ओर अपने ही घर में स्त्रियां प्रताडित हो रही हैं. देश में विधवाओं की स्थिति आज भी दयनीय बनी हुई है. विधवाओं की स्थिति को दर्शाता विभा रानी लिखित व अभिनीत एकपात्रीय नाटक “बिम्ब-प्रतिबिम्ब” का मंचन 30 अगस्त, 2011 को मुंबई के नानावती महिला कॉलेज की छात्राओं के लिए किया गया. नाटक एक सत्य पात्र बुच्चीदाई की ज़िंदगी और उसके माध्यम से उसके समय के ताने-बाने और उसमें छटपटाते एक विधवा मन की भावनाओं को दर्शाता है. दुख लोगों को तटस्थ और मजबूत दोनों बनाता है. नाटक की मुख्य किरदार बुच्चीदाई अपने एक खालिस व्यक्तित्व के रूप में नज़र आती है, जो खुद तो जीवन भर विधवा बनी रहने को अभिशप्त रहीं, मगर अन्य किसी को दूसरी बुच्चीदाई नहीं बनने देती है. विभा के मंजे हुए अभिनय ने एक ओर जहां बुच्चीदाई की पीर को पूरी शिद्दत से उभारा, वहीं उसके जीवन के कई मनोरंजक प्रसंगों पर दर्शकों को हंसाया और गुदगुदाया भी. परंतु, हर हंसी के पीछे एक स्थिति थी, जिसे दर्शक समझे बिना नहीं रह सके.
निर्देशक के रूप में सीमा कपूर ने इस नाटक को एक नया स्वरूप दिया. संगीत धनराज का था. बैक स्टेज संभाला राकेश जायसवाल ने.  
आज एक बडा तबका है हर आयु वर्ग का, जो थिएटर से एकदम अंजान है. वह फिल्म और टीवी से परिचित है, मगर नाटक के रूप में स्कूल-कॉलेज के नाटकों से आगे नहीं बढा है. ऐसे में, अपने प्रोसेनियम रूप से अलग हटकर “थिएटर –जन जन तक” और “थिएटर- एक शिक्षण टूल” की अवधारणा के संग विभा और उनका ग्रुप अवितोको आज कॉलेज की छात्राओं के सामने प्रस्तुत हुआ. शो के बाद छात्राओं के सवाल-जवाब भी हुए, जो इस शो का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा.
एक्सपेरिमेंटल थिएटर के साथ विभा यह नाटक कालाघोडा आर्ट फेस्टिवल, 2010 में आरम्भ करने के बाद इसके कई शो अलग-अलग कॉर्पोरेट हाउसेस में हुए. इसका एक शो मुंबई जिला जेल की महिला बंदियों के लिए भी किया गया है.
अवितोको नाटक के माध्यम से कॉर्पोरेट प्रशिक्षण और व्यक्ति-विकास व मन-परिवर्तन पर भी काम करता है. सम्पर्क सूत्र- gonujha.jha@gmail.com/ +919820619161.
- रंग जीवन:संग जीवन    

Saturday, August 27, 2011

दूध में पानी कि पानी में दूध?


छम्मकछल्लो को धारा के विरुद्ध जाकर कुछ बोलना बहुत खतरनाक लगता है. आजकल देश में एक आंधी चल रही है. तारीफ कि इस आंधी से बचाव के लिए सरकार तक गुहार नहीं लगाई जा रही है. राहत कोष भी नहीं खोला गया है, कोई देश-विदेश की सरकारी-गैर सरकारी संस्थाएं भी अपने यहां से राहत की बात नहीं कर रही है.
हमारा देश फैशन और फिल्म परस्त है. वह एक फिल्म में देखता है कि लोग मोमबत्ती लेकर खडे हो गए. नाम, दाम, देश, दिशाएं तो फिल्मवाले ही देते हैं, चाहे संकट का लगान हो या संघर्ष का रंग दे बसंती या खेल का चक दे इंडिया! मैंनेजमेंट गुरु पढाई में बल्ला लेकर कूद पडते हैं, विज्ञापनवाले चक दे भारत लिखने लगते हैं. आमजन अपने संघर्ष की मौन आवाज़ में मोमबत्ती लेकर खडे हो जाते हैं.
आजादी कभी एक कॉमन फैक्टर था लोगों के पास. आज भी वही कॉमन फैक्टर है. हम कॉमन पर बहुत बढिया से रिएक्ट करते हैं, चाहे कॉमन मैन हो या कॉमन विषय या कॉमन वेल्थ गेम. यह कॉमन मैन या विषय जब अपने कॉमनपन से निकलकर हमारे घर या मन में दस्तक देने लगता है, तब हम या तो इसे बाहर निकालते हैं या बापू के तीनों बंदर हो जाते हैं- न देखो, न सुनो, न बोलो- बस, ‘बुरा शब्द साइलेंट कर देते हैं.
छम्मकछल्लो ने घर बुक करते समय 30-40% काला धन, हाउसिंग बोर्ड से पेपर पास कराने, रजिस्ट्रेशन आदि के लिए तयशुदा कीमत दी थी. बच्चों के नामांकन के लिए वैध फीस के रूप में लाखों रुपए भरे हैं. उन रुपयों का क्या होता है, वह पूछती भी नहीं. संस्थान बच्चे को बाहर निकाल फेंकेगा. वह यह भी नहीं पूछती कि सर्दी- जुकाम के लिए एक डॉक्टर 600-700 रुपए की कंसल्टेशन फीस क्यों लेता है? दस दिन के बुखार के इलाज में 30 हजार रुपए कैसे खर्च हो जाते हैं? ऑटो-टैक्सी का मीटर क्यों बढा हुआ है? ऑटॉवाले मनमानी वसूलते हैं, हम देते हैं. सिग्नल तोडकर हमीं ट्रैफिक पुलिस को घूस देते हैं, क्योंकि हमारे पास उनके दफ्तर जाकर जुर्माना भरने का समय नहीं होता. बिजनेस करते हैं तो सबसे पहली कोशिश होती है कि इन्कम टैक्स कैसे कम से कम लगे? कम करने के लिए कितने पापड बेलने पडते हैं, यह तो बिचारे बिजनेसवालों से पूछिए. यह सब ना करें तो जीना मुहाल हो जाए.
छम्मकछल्लो यह सब करके भी भ्रष्ट नहीं कहलाती. हमें लोग भ्रष्ट ना कहें, इसके लिए हम मोमबत्ती भी जलाते हैं, नारे भी लगाते हैं, जुलूस भी निकालते हैं.
छम्मकछल्लो आजकल चेन्नै में है. चेन्नै में आपको मुंबई से भी अधिक पैसे की कीमत का पता चलता है. अपने घर के पिछवाडे भी जाने के लिए यहां के ऑटॉवाले बडे आराम से 60-100 रुपए तक मांगेंगे- दलील के साथ कि आपके घर के पीछे तक जाना है- ओइयोयो, कितना लम्बा...! एक चैनल ने अभी हाल में दिखाया कि चेन्नै के एक ऑटॉवाला भी आज के इस फैशनेबल सत्याग्रह में है. छम्मकछल्लो को ज़रा ये चैनलवाले या ये ऑटो-टैक्सीवाले या साग-भाजीवाले बता दें कि वे जो हम कॉमन मैन से वसूलते हैं, वह जायज है? और अगर जायज है तो इस आंदोलन में भाग लेना भी जायज है?
दो बातों के लिए छम्मकछल्लो की माफी. आज के गडबड भाषाई समाज में अंग्रेजी फैशन है- बात के लिए, समाज के लिए, प्रगति के लिए, कैंडल और कैंडल लाइट के लिए. इसलिए इसका उपयोग उसने किया है. और दूसरे इसके लिए कि कॉमन फैक्टर के फैशन से निकल कर कभी हम निजी तत्व पर भी आएं और अपना आत्मावलोकन करें. हर चीज की शुरुआत घर से और मन से होती है- युधिष्ठिर की तरह, जब द्रोणाचार्य ने उनसे कहा कि पाठ याद करो कि मैं झूठ नहीं बोलूंगा.” युधिष्ठिर को इसे याद करने में 6 माह से अधिक लग गया. गुरु के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे इसे पहले जीवन पर लागू कर रहे थे. आज जाकर उन्हें लगा कि अब वे झूठ नहीं बोलेंगे, इसलिए पाठ याद हुआ समझें.”
चलते-चलते, एक दूधवाला दूध में पानी मिला रहा था. दूसरे ने उसे डांटा. दूधवाले ने कहा, ‘पहले आप यह तो बताइये कि आप घी की मिठाई में वनस्पति, साबुत बासमती में टुकडा बासमती मिलाते हैं कि नहीं? आप दफ्तर के समय में हर 1 घंटे पर बीस मिनट के लिए धुंआखोरी के लिए निकलते हैं कि नहीं? ...और भी बहुत कुछ... अगर आप यह सब नहीं करते तो बताइये, हम दूध में पानी मिलाना क्यों छोड़ें? और अभी तो दूध में पानी मिला रहे हैं. ज्यादे बोलियेगा तो पानी में दूध मिलाना शुरु कर देंगे. पीजियेगा फिर डायरेक्ट चाय- बिन पानी मिलाए. पानी में दूध कि दूध में पानी? हममें भ्रष्टाचार कि भ्रष्टाचार में हम?