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छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

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Thursday, August 27, 2009

छम्मक्छल्लो के ब्लॉग पर रविश कुमार जी ने दैनिक हिन्दुस्तान (२६ अगस्त, २००९) में लिखा है। उन्हें बहुत-बहुत धन्यवाद। लिंक यहाँ है।

http://mail.google.com/mail/?ui=1&view=att&th=12355391c8a4825b&attid=0.1&disp=inline&realattid=f_fytmxdl00&जव

Saturday, August 22, 2009

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे

तो अब बारी है प्रभाष जोशी की. लोग कह रहे हैं कि वे ब्राहमण्वाद पर पिल गये हैं. क्यों भई, आपलोगों को नहीं पता कि इस हिन्दुस्तान से ज़ातिवाद नहीं जानेवाला. और इसके पहरुए वे ही होते हैं जो ऊपर से धर्म- निरपेक्षता के बडे-बडे दावे करते हैं मगर बेटी की शादी की बात आने पर कट्टर हिन्दू बन जाते हैं.
छ्ammakछ्allo ko समझ नहीं आता कि ऐसे लोगों पर बहस चला कर हम क्यों अपना और दूसरों का समय ज़ाया करते हैं?
सुना है कि इश्क़ में लोगों की चर्चाएं बडी होती हैं. यह भी कहा जाता है कि इश्क़िया माहौल बडा सूफियाना होता है और इश्क़ की लौ जब ख़ुदा से लग जाए तब इश्क़ आध्यात्मिक हो जाता है.
हमारे समाज में सेलेब्रेटी के नाम से जो एक कौम उभरी है, वे इसी इश्क़ की गिरफ्त में हैं. समाज का यह सेलेब्रेटी पहले फिल्म उद्योग से निकल कर आता था. मगर अब समाज का दायरा बढा है तो हर क्षेत्र का भी दायरा बढा है. लोग अब प्रसिद्धि को सेलेब्रेशन की संग्या देते हैं और प्रसिद्ध को सेलेब्रेटी कहते हैं.
तो अब समाज सेलेब्रेटी का है, जो जितना ज़्यादा मशहूर, वह उतना ही बडा सेलेब्रेटी. लेखक, पत्रकार सभी सेलेब्रेटी हैं. सेलेब्रेटी की सबसे बडी ख़ासियत यह होती है कि वह हमेशा ख़बरों में बने रहना चाहता है और ख़बरों में बने रहने के लिए वह कोई भी चाल चलता रहता है. हम जैसे पागल और सनकी लोग उन्हें अपनी ख़बरों में लेने को आतुर बने रहते हैं. शायद अपने सेलेब्रेटी न बन पाने की खाज इसी बहाने खुजला लेना चाहते हैं.
प्रभाष जोशी आज सती प्रथा के पक्ष में बोल रहे हैं तो कोई गलत बोल रहे हैं क्या? लोग तो मूड और मिजाज की तरह पल-पल अपने वक्तव्य बदलते रहते हैं. मगर आपको दाद देनी चाहिये कि उम्र, अनुभव, प्रसिद्धि के इस पडाव पर भी वे अपनी बात भूले नही हैं और न ही अपने वक्तव्य बदले ही हैं. आप सबको याद होगा ही कि रूप कुंअर के सती होने पर इन्हीं प्रभाष जोशी ने इसका समर्थन किया था. तब ये शायद जनसत्ता के सम्पादक थे. बडी मात्रा में लोगों ने उनकी इस बात का विरोध किया था. एक्सप्रेस कार्यालय के सामने उनके ख़िलाफ नारे लगाए थे, नुक्कड नाटक खेले थे. अब इतने बरसों बाद भी अगर वे सती प्रथा के समर्थन में बोलते हैं तो आपको तो खुश होना चाहिये कि वे अपनी बात भूले नहीं हैं. उम्र के इस मोड पर भी, जब लोग इस उम्रवाले को बुड्ढा, कूढ मगज और जाने क्या-क्या कहने लगते हैं. क्या आपको नहीं लगता कि प्रभाष जोशी अब उम्र के इसी मुकाम पर पहुंच गये हैं जहां तिष्यरक्षिता के बूढे सम्राट अशोक की नाईं उनके प्रति सहानुभूति ही जताई जा सकती है.
सरकार भी साठ साल की उम्र के बाद लोगों को सेवा से निवृत्त कर देती है. मगर हम हैं कि प्रभाष जोशी जैसे लोगों की उम्र पर रहम ही नहीं करना चाहते हैं. क्या हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता में नये लोग आज के आइकन बनने की कूवत नहीं रखते या हमारे भीतर ही इतनी भी अक्ल नहीं है कि ऐसे लोगों की बातों को एक बूढे का प्रलाप मान कर उसे या तो उपेक्षित कर दें या उसे भूल जायें. याद रखें कि ये सब सेलेब्रेटी हैं और इन्हें अपने को ख़बर में बनाए रखना आता है और इसके लिए ये हर चाल चलेंगे ही चलेंगे. हम क्यों ऐसे शिकारियों के जाल में फंसते हैं यह रटते हुए कि "शिकारी आयेगा, जाल बिछयेगा, दाना डालेगा, लोभ से उसमें फंसना नहीं."
प्रभाष जोशी जी सीता को सती बना गये. अपने देश की हर महान नारी सती ही होती है, भले ही वह पति द्वारा लगाई गई आग में जले या ना जले. सती तो कुंती भी रही जिसने पति की आग्या से अन्य पुरुषों के साथ संसर्ग करके अपने पति को अपने बच्चों का पिता बनाया. सती तो द्रौपदी भी हुई, जिसे एक को चाहने के एवज में पांच-पांच पतियों की पत्नी बनना पडा. आज का समय होता तो शायद कह दिया जाता कि "अरे वाह! एक पर चार फ्री?" सती तो भारती मिश्र भी हुई, जिसने पराजित होते अपने पति मँडन मिश्र के बदले शंकराचार्य से शास्त्रार्थ कर के पति को जिता दिया था और सती तो भंवरी देवी भी है, जो समाज के कल्याण की खातिर जाने कितनों की वासना के दंश झेल आई. मगर हमारा समाज सती इसे नहीं मानता. वह सती उसे मानता है, जो अपने मृत पति की चिता में रूप कुंअर की तरह जीवित जल जाती या जला दी जाती है. तो प्रभाष जोशी जी से पहले पूछें कि जब से वे वयस्क हुए हैं, तब से उनके घर में कोई तो विधवा हुई होगी? तो सती प्रथा के समर्थक के रूप में क्या उसे उन्होंने समाज की मान्यता के अनुसार सती बनाया, क्योंकि कहा भी गया है- "चैरिटी बिगिंस एट होम." ऊपरवाला प्रभाष जोशी जी को लम्बी उम्र दें, मगर फिर भी एक बार यह सोचने में आ जाता है कि उनके न रहने पर (धृष्टता के लिए माफी) वे यह वसीयत करके जायेंगे कि उनकी पत्नी उनके साथ सती हो जायें? या क्या वे यह गारंटी दे सकते हैं कि उनकी धर्म पत्नी उनकी इस वसीयत को पूरा-पूरा सम्मान देते हुए सती हो ही जायेंगी या उनके घरवाले उन्हें ऐसा कर ही लेने देंगे? प्रभाष जोशी जी की मति भ्रष्ट हो जाने से क्या उनके पूरे परिवार का माथा फिर जाएगा? नहीं ना. तो फिर उनकी भ्रष्ट मति पर आप क्यों माथा पीट रहे हैं?

Wednesday, August 19, 2009

महिलाओं के अंतर्वस्त्र? राम-राम, तोबा-तोबा!

छम्मक्छल्लो के देश में महिलाओं की बात? राम-राम, तोबा-तोबा!.छम्मक्छल्लो ने देख है कि महिलाओं की बात आते ही लोगों के स्वर अपने -आप धीमे हो जाते हैं. सुर धीमा हो तो वह फुसफुसाहट में बदल जाती है. ऐसा लगाने लगता है, जैसे महिला पर नहीं, किसी गलत, अवैध या गंदी चीज़ पर बात की जा रही हो.
बात करते समय यह अक्सर कह दिया जाता है कि "लेडीज़" हैं, बेचारी. यानी लेडीज़ या स्त्री होना एक पूरी की पूरी बेचारगी का बायस है. फलाने जो हैं, अमुक के पिता हैं, या भाई हैं या पुत्र हैं या पति हैं, मगर इसके उलटा जाते ही आवाज़ के तार धीमे पड़ जाते हैं. अंतिम रिश्ते में तो लोग और भी इतने असहज हो जाते हैं, जैसे कोई बड़ी ही गलत बात कहने जा रहे हों.
ऐसे में महिलाओं के अंतर्वस्त्र पर तो बात भी नहीं की जा सकती. जब महिलायें ही इतने धीमे से बात करने लायक बना दी जाती हैं, तब उनके वस्त्रों और अंतर्वस्त्रों पर बात कैसे की जा सकती है? छम्मक्छल्लो बचपन से देखती आई है कि महिलायें बड़ी सकुचाती सी दूकान में घुसती हैं, खरीदारी करती हैं और नज़रें झुकाये वापस हो लेती हैं. उनकी पूरी कोशिश रहती है कि इन सबकी खरीदारी करते समय कोई उन्हें देख ना ले. लोग क्या कहेंगे? आम तौर पर घरों में नहाने के बाद उनके वस्त्र सूखते हैं तो ऊपर से दूसरे वस्त्रों के भीतर. अगर वे वस्त्र उघर गए तब उन्हें झिड़कियां मिलाती हैं- "ये क्या? ऐसे कैसे खुले में कपडे सुखा रही हो? कुछ शर्म-हया है कि नहीं?" आज तक यह परम्परा जारी है.
मुम्बई में आँगन नहीं होते. कमरे की खिड़कियों पर कपडे सुखाये जाते हैं. अब एक भी कपडा उघडा हुआ सूख जाये तो घर के मरद माणूस कहते नज़र आते हैं कि कैसे सुखाती हो कपडे? नीचे से नज़र जाती है इन पर. इतना खराब लगता है."
पुरुषों के अंतर्वस्त्र सूख रहे हों खुले में तो कोई बात नहीं. वे तो कच्छे-बनियान मैं घूमते भी नज़र आ जाते हैं. छम्मक्छल्लो की बिल्डिंग के सामने एक मोटा सा आदमी रहता है. वह केवल हाफ निकर में रहता है. उसे इस रूप में देखने की इतनी आदत हो गई है कि अब जब कभी वह पूरे कपडे पहन लेता है तो पहचान में ही नही आता. बनियान-लुंगी में रहना तो जैसे जन्मजात अधिकार है. घर में घुसते ही मरद मानूस kurta yaa kamiiz बनियान उतार कर घर में बिंदास घूमते रहते हैं. यह बुरा नहीं लगता. मगर स्त्री? हाय राम!
ये ऊपरवाले ने औरत जात बनाई ही क्यों? मगर छम्मक्छल्लो ऊपरवाले को क्यों दोष दे? ऊपरवाले ने स्त्री को बना कर यह तो नही कह दिया था कि वह इस तरह से सात परेड के भीतर रहेगी, या उसे अपने तन, मन तो छोडिये, अपने वस्त्र और अंतर्वस्त्र पर भी सोचने-बोलाने का अधिकार नहीं रहेगा, उस पर सारी की सारी बंदिशें लगाई जाएंगी, सारे घर की मान-मर्यादा का जिम्मा उसके सर डाल दिया जाएगा. ऊपरवाले ने तो सृष्टि और प्रकृति को नारी के रूप में एक अनुपम रचना दी थी. अब हम बैठ कर उस रचना की गर्दन रटते रहें तो ऊपरवाला क्या कर लेगा? छम्मक्छल्लो यही सोच-सोच कर परेशान हो रही है कि यह स्त्री और उसकी चीजें इतनी शर्मसार करनेवाली क्यों बना दी गई है? आपको कुछ सूझे तो छम्मक्छल्लो को बताएं, वरना आप भी इस राम-राम, तोबा-तोबा के दलदल में एक धेला मार आयें. हम स्त्रियों का क्या है? मुर्दे पर आठ मन लकडी कि बारह मन, इससे उसका क्या लेना-देना!

Tuesday, August 18, 2009

आप पति-पत्नी हैं? न, न, ऐसा मत पूछें.

बात लगभग २० साल पुरानी है. विभा रानी मुंबई आई ही आई थी. १९८९ का साल. १९९० में अजय ब्रह्मात्मज भी आ गए. विभा रानी साहित्य लिखती हैं, अजय ब्रह्मात्मज तब साहित्यानुरागी भी थे. मुंबई के वे संघर्ष के दिन थे. विभा रानी दफ्तर के अलावा लेखन में संघर्ष कर रही थी, अजय ब्रह्मात्मज पत्रकारिता में. तब साहित्य से इतना वैर न हुआ था. साहित्यिक कार्यक्रमों की वे शोभा में वे चार चाँद लगा दिया करते थे. 
पहल पत्रिकाऔर  उसके सम्पादक ज्ञानरंजन जी. विभा रानी उन दोनों को बहुत सम्मान देती रही है, अजय ब्रह्मात्मज भी. विभा रानी ज्ञानरंजन जी को पात्र लिखा करती थी, अजय ब्रह्मात्मज भी . ज्ञानरंजन जी विभा रानी के पत्रों के उत्तर भी देते थे और अजय ब्रह्मात्मज के भी. विभा रानी तो उनके पात्र पा कर गदगद हो जाया करती थी,  अजय ब्रह्मात्मज दुनिया के उन चाँद शख्सियतों में से हैं, जिन्हें लोग पात्र लिखा करते हैं. लोग उनसे संपर्क साधते हैं. यह पता तब चला जब एक पात्र में विभा रानी को ज्ञ्नारंजन जी ने लिखा-" आपके पड़ोस में अजय ब्रह्मात्मज जी रहते हैं. मैंने उन्हें कई पात्र लिखे हैं, मगर वे मेरे पत्रों के जवाब नहीं दे रहे. आप उनसे कहें कि वे मेरे पत्रों के जवाब दें." विभा रानी ने लिखा- "अजय ब्रह्मात्मज जी मेरे पड़ोस में नहीं, मेरे घर में रहते हैं और मेरे पति कहलाते हैं." द्न्यन्रंजन जी का छूटते ही दूसरा पात्र आया- "मैं अपनी मूर्खता पर बड़ी देर तक हंसता रहा. दरअसल, मैंने केवल लोखंडवाला याद रखा, घर का नंबर नहीं. पर चलिए, इसी बहाने आप दोनों के रिश्ते का पता तो चल गया."
विभा रानी व् अजय ब्रह्मात्मज - मुम्बई में भी बहुत दिनों तक लोग अँधेरे में रहे. कई बार किसी समारोह में साथ-साथ देख कर लोग थोडा सोचते, फिर किसी से फुस्फुसाक आर पूछते और फिर तस्दीक हो जाने पर विभा रानी या अजय ब्रह्मात्मज  से कहते-"अरे, आपने यह बताया ही नहीं कि आप दोनों क्या हैं?" 
तब से प्रश्न का यह ब्रह्म राक्षस विभा रानी और अजय ब्रह्मात्मज के पीछे पडा है.  अजय ब्रह्मात्मज के कितने पीछे है, यह तो पता नहीं, मगर विभा रानी के पीछे तो अभी तक यह पडा है. इस ब्रह्म राक्षस की यह खासियत है कि वह आमने-सामने कोई सवाल नहीं करता. सीधे-सीधे नहीं पूछता, बल्कि लक्षणा -व्यंजना के माध्यम से सवाल आते रहते हैं. किसी को अजय ब्रह्मात्मज से कोई काम है और वह विभा रानी को जानता है तो वह सबसे पहले यह पूछेगा कि "क्या आप अजय ब्रह्मात्मज को जानती हैं?" विभा रानी पहले सहज मासूमियत में, कि शायद उन्हें उनके बारे में पता ना हो, झट से सचसच बता देती थी. मगर एक दिन अचानक विभा रानी के ज्ञ्नान चक्षु खुले, जब एक दिन उसकी एक मित्र ने पहले विभा रानी से अजय ब्रह्मात्मज के बारे में पूछ कर फिर बाद में कहा कि उसे पता था कि तुम दोनों क्या हो?" उसके कहने से ऐसा लग रहा था जैसे उसे पता हो कि वे दोनों चोर-उचक्के, भगोडे, गुंडे-बदमाश हों. इतना होने के बाद विभा रानी कीमित्र ने अपनी बात-चीत काम उद्देश्य बताया. 
अभी हाल में ही एक और मित्र ने यही सवाल किया. विभा रानी ने पूछा कि आप सीधे-सीधे सवाल करें कि आप क्या जानना चाहते हैं? मित्र ने बताया कि कैसे मैं एक महिला से किसी पुरुष के बारे में यह पूछ लूं कि वह कहीं उसका पति तो नहीं?" विभा रानी ने कहा कि "इसमें असमंजस क्या है? अगर रिश्ता नहीं हुआ तो महिला नकार देगी, हुआ तो स्वीकार कर लेगी." पति-पत्नी का रिश्ता कोई नाजायज तो नहीं कि किसी को कहने में कोई दुविधा हो. मगर पूछानेवालों को होती है. माँ-बाप के, भाई-बहनों के, बेटे-बेटी के रिश्ते पूछने में किसी को कोई दिक्कत नहीं होती, मगर पति-पत्नी के रिश्ते पूछने में लोगों की जान पता नहीं क्यों कहीं खिसकाने लगाती हैं. आखिर ऐसा क्या है इस रिशेते में? सिर्फ एकाधिकार की ही बात ना? कि सारी दुनिया सारी दुनिया को माँ-बाप, भाई-बहन, बेटी-बेटा कहती रहे तो कुछ नहीं, बल्कि सब स्वीकार्य, मगर कोई किसी को किसी की पत्नी बोल दे, गलत या सही, तो भूचाल? धन्य है प्रभु! प्रभु तेरी लीला अपरमपार.
वैसे अब बता दें, पूरे होशो-हवास में कि विभा रानी व्  अजय ब्रह्मात्मज पिछले २६ साल से पति-पत्नी हैं और अभी तक हैं. आगे का भगवान मालिक या वे दोनों खुद ही. अब आप सबसे मेहरबानी है कि यह सवाल पूछ-पुछा कर विभा रानी व अजय ब्रह्मात्मज को बोर ना करें. वैसे भी २६ साल से एक ही रिश्ता बताते- बताते मन बोर हो चला है. अब बार-बार वही सवाल कुछ नया नहीं पैदा करता है. इस ब्लॉग पर यह एक पूरा लेख इसी बोरियत को मिटाने के लिए लिखा गया है कि बस, और नहीं, बस और नहीं, गम के प्याले और नहीं, दिल में जगह नहीं बाक़ी, रोक नज़र अपनी साकी." फिर भी नही मानेंगे तो विभा रानी -अजय ब्रह्मात्मज लिख-लिख कर यह कहते रहेंगे. अब आप अगर बोर नहीं होना चाहते तो बस, आप अब मत पूछियेगा.  पूरे होशो-हवास में और गीता, कुरान, बाइबिल, गुरु ग्रन्थ साहब और अन्य जितने भी धार्मिक ग्रत्न होते हों, जिन्हें छू कर कसम खाई जाती है, उसी को छू कर यह कसम खाई जा रही है कि विभा रानी अजय ब्रह्मात्मज वाकई पति-पत्नी हैं. और हाँ, आप सबसे यह गुजारिश कि यह सवाल सीधे-सीधे पूछ लिया करें.  उन दोनों से ही नहीं, किसी से भी. यकीन रखें, कोई भी भड़केगा नहीं, अगर उसे आपके सवाल में ईमादारी दिखती है. यह लेख इसी के लिए . बोर करने के लिए माफ़ी. मगर पढाई और परीक्षा अच्छी थोड़े ना लगती है. 

Monday, August 17, 2009

जनाब, मां- बहनें गालियों के लिए होती हैं.

छम्मकछल्लो को अपने देश के मर्दों पर बहुत भरोसा है. उसे पता है कि हमारे देश के मर्द बहुत सी बातों में अनेक देशों के लोगों से बहुत-बहुत आगे रहते हैं. आखिरकार यह देश ऋषि-मुनियों का है. भले ही वे कह गये हों कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवा:”, मगर हमारे देश के सभी मर्द ऐसा नहीं मानते. आख़िर को उनका समाज है, उनकी व्यवस्था है, उनकी परम्परा है.
मर्दों की बातें ही अपने देश में निराली हैं. जो जितना जवां मर्द वह उतना ही निराला. इसी निरालेपन की शान है, कि वे जब-तब अपने मुखारबिन्द से गालियां इतने चमत्कृत रूप से निकालते रहते हैं कि मन बाग-बाग हो उठता है.
गालियां देने में पढे-लिखे या अनपढ की कोई लक्ष्मण रेखा नहीं होती. हर कोई गाली निकाल सकता है. जो जितनी महान गालियां निकालता है, समाज में उसका दबदबा उतना ही अधिक बढ जाता है. आखिर, नंगे से भगवान भी डरते हैं. महान गालियों के लिए हम महान मां-बहनें बनी हुई हैं, जिनका इस्तेमाल महान लोग बडी आसानी से कर लेते हैं, वैसे ही, जैसे कोई पान की पीक सडक पर से गुजरते हुए यूं ही थूक कर चला जाता है. न सडक को बुरा लगता है ना पीक फेकनेवाले को. मगर छम्मकछल्लो क्या करे कि वह् सडक नहीं हैं ना, सो उसे बुरा लग जाता है.
छम्मकछल्लो के घर के नीचे उसकी बिल्डिंग के एक सज्जन अपने धोबी को डांट रहे थे. मेहनतकश व मज़दूर वर्ग के लोगों को सम्मान देना हम अपना धर्म समझते हैं और यह सम्मान अक्सर उस मज़दूर, मेहनतकश की मां-बहनों के साथ अपने ज़िस्मानी रिश्ते क़ायम करते हुए निकाले जाते हैं. सो उस दिन छम्मकछल्लो की बिल्डिग के वे निवासी धोबी की मां-बहन को अपनी महान भाषा से अलंकृत कर रहे थे. छम्मकछल्लो जिस बिल्डिंग में रहती है, वह पढे-लिखे, सभ्य, अमीर लोगों की बिल्डिंग है. ऐसा दावा ये बिल्डिंगवाले ही करते हैं. कुछ भी बात होने पर वे हमेशा कहते हैं कि भई, यह पढे-लिखे शरीफ लोगों की बिल्डिंग है. हमारी मां-बहनें, बेटियां यहां रहती हैं. उनकी मां-बहनें, बेटियां तो मां-बहनें, बेटियां हैं. वे सब इज़्ज़त, सम्मान पाने के लिए हैं. बाकियों की मां-बहनें, बेटियां गालियों के लिए हैं. मेहनतकश लोग तो वैसे भी इन सभी की मार-गाली आदि के लिए ही जैसे बने होते हैं. सडक पर तो ऐसे दृश्य बग़ैर कोई टैक्स अदा किए ही देखने-सुनने को मिल जाते हैं. एक सज़्ज़न तो ऐसे हैं कि उन्हें जब-तब अपनी पत्नी पर शक हो जाता है. ज़ाहिर है, ऐसे में वे उसकी बात पर यक़ीन न करते हुए अपना बुनियादी अधिकार जो गुस्से का होता है, उसे निकालते हैं और तब अपनी पत्नी का नाम उस व्यक्ति के साथ जोडते हुए कहते हैं कि मैं उसकी मां को गालियां दूंगा, उसकी बहन को गालियां दूंगा. आखिर को वह मर्द है तो मर्दवाला आचरण ही करेगा ना.
गालियां देने में हम महिलाएं भी कम उस्ताद नहीं हैं. इसे छम्मकछल्लो प्रत्यक्ष देखती है. वह जिस ट्रेन से जाती है, उसमें दफ्तर जानेवाली महिलायें ज़्यादा होती हैं. उन्हें रोज दिन की भीड का सामना करना आता है. मगर कभी-कभी उसमें वे भी चढती हैं, जिन्हें ट्रेन में चढने की आदत नहीं रहती है. ऐसे में चढने व उतरने के लिए वे सब भी ऐसी ही गालियों का इस्तेमाल करती हैं. बाकी महिलायें डर कर उनका रास्ता छोड देती हैं. वे उतरती हैं और बडे विजयी भाव से बाकियों को देखते हुए आराम से अपने रास्ते चली जाती हैं.
ये महिलायें भी कोई अलग से गाली की ईज़ाद कर के नहीं आती हैं, बल्कि ये भी शुद्ध मां-बहन की ही गालियां देती हैं. गालियां देते समय उनके चेहरे पर भी उतना ही तप-तेज़ होता है. उन्हें लगता ही नहीं कि आखिरकार ये गालियां उन्हीं पर तो पड रही हैं, वैसे ही, जैसे किसी पुरुष को उनके नाकारेपन का बोध कराने के लिए कुछ महिलायें उन्हें चूडियां भेंट कर आती हैं. तो क्या चूडियां धारण करनेवाली महिलायें कमज़ोर होती हैं? छम्मकछल्लो को लगने लगता है कि क्या ये झांसी की रानी, रज़िया सुल्तान, उषा मेहता, किरण बेदी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, भंवरी देवी जैसों के देश की ही महिलायें हैं? और ये मर्द राम, कृष्ण, भीष्म, वेदव्यास, बुद्ध, गान्धी, विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस, शिवाजी, भगत सिंह, अण्णा हज़ारे, बिनोवा भावे, सुन्दरलाल बहुगुणा के ही देश के हैं ना? अपने यहां हर बात में बडे आराम से कह दिया जाता है कि हमारी संस्कृति में ऐसा नहीं है, वैसा नहीं है. तो क्या यह हमारी संस्कृति में है कि हम मां-बहनों की गालियां निकालें? या क्या हमारे ये महान पुरुष मां-बहन की गालियां निकालते हुए ही महान हुए हैं?
अगर इस सवाल का जवाब आपके पास है तो मेहरबानी से उनलोगों तक पहुंचा दें जो लौंग-इलायची की तरह मां-बहन की गालियां दे कर मुंह का स्वाद बदल लेते हैं. और यदि नहीं तो तो जनाब आइये. छम्मकछल्लो की आपसे गुज़ारिश है कि आप अपनी ज़बान कभी बन्द ना रखें. उसे गालियों का खुला खेल फर्रुख़ाबादी खेलने दें. हम मां, बहनें, बेटियां आपकी गालियों के लिए होनेवाले अपने इस्तेमाल के लिए तैयार हैं. आख़िर, कितना, कितना, कहां-कहां तक हम आपसे लडें? आप कोई बेवकूफ या कम अक़्लवाले तो हैं नहीं. लेकिन क्या करें! छम्मकछल्लो तो है कूढ मगज की. सो उसके भेजे में यह ही नहीं घुसता कि गालियां आखिर मां-बहन-बेटी पर ही क्यों हैं, बाप, भाई, बेटे पर क्यों नहीं? आपके पास जवाब हो तो बताइयेगा, प्लीज़!

Tuesday, August 11, 2009

बुद्ध “कहते” हैं, प्लेटो “कहता” है!

छम्मकछल्लो यह देख कर बहुत खुश है कि हम अपनी संस्कृति, अपने महापुरुषों के प्रति बहुत श्रद्धावान और आस्थावान हैं. हमारे महापुरुष हमेशा से बडे हैं, बडे रहे हैं, बल्कि वे पैदा ही बडे रूप में होते हैं. तभी तो राम के जन्म के समय कौशल्या को कहना पडा-
“माता पुनि बोली, सो मति डोली, तजहु तात यह रूपा,
कीजे सिसु लीला, अति प्रियसीला, यह सुख परम अनूपा.”
ये सब बडे लोग हैं और अपनी संस्कृति के बडे लोग हैं, इसलिये हमारे सम्बोधन भी बडे हो जाते हैं, जैसे, कभी भी आप देखेंगे तो पाएंगे कि हमारे महापुरुष हमेशा “कहते” हैं. राम “कहते” हैं, कृष्ण “कहते” हैं, बुद्ध “कहते” हैं, महावीर “कहते” हैं, नेता जी “कहते” हैं, गांधी जी “कहते” हैं, टैगोर “कहते” हैं, बंकिम “कहते” हैं, शरत “कहते” हैं, प्रेमचन्द “कहते” हैं, देवराहा बाबा “कहते” हैं, रामदेव बाबा “कहते” हैं, रजनीश “कहते” हैं, यूसुफ साब और देव साब “कहते” हैं, अमर्त्य सेन “कहते” हैं, सत्यजित राय “कहते” हैं, आज के विक्रम सेठ और सलमान रुश्दी “कहते” हैं, अमितावा कुमार “कहते” हैं, शाहरुख़ से लेकर रणबीर कपूर तक सभी “कहते” हैं, और तो और हमारे आज के छुटभैये नेता तक भी “कहते” हैं. कभी भी कोई “कहता” नहीं है. अगर वह “कहता” है तो यह हमारा, हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारे महापुरुषों का अपमान है. और चाहे हमारी जान क्यों ना चली जाए, हम कभी भी अपने महापुरुषों का अपमान क़तई नहीं सह सकते. यह हमारी चेतना का प्रश्न है.
हमारी चेतना में यह प्रश्न कभी नहीं आता कि सिर्फ हमारे ही महापुरुष क्यों कहते हैं? दूसरे देशों में भी तो एक से एक महापुरुष हो गए हैं. लेकिन उनमें से कोई भी कभी भी कुछ “कहते” नहीं हैं. वे सभी केवल “कहता” है. बचपन से हम नाना किताबें पढते आये हैं और इन सब किताबों में इन महापुरुषों के बारे में पढते आये हैं. मगर हर जगह यही देखा कि ये सब “कहता” की श्रेणी में आते हैं. अब यक़ीन ना हो देख लीजिए कि प्लेटो “कहता” है, अरस्तू “कहता” है, कंफ्यूसियस “कहता” है, मार्क्स “कहता” है, नीत्शे “कहता” है, सार्त्र “कहता” है, लू शुन “कहता” है, शेक्सपियर “कहता” है, मिल्टन “कहता” है, शेली “कहता” है, कीट्स “कहता” है, ओबामा “कहता” है.
यह हिन्दीवालों की मति के क्या कहने और हम भी हिन्दी ही पढ कर बडे हुए हैं तो और कोई दूसरी भाषा समझ में ही नहीं आती. यह हिन्दीवालों का व्याकरण इतना कठिन करने की ज़रूरत ही क्या थी? सीधे-सीधे अंग्रेजी के व्याकरण की तरह रख देते- “only He, only You. न He के लिए ‘वह’ और ‘वे’ के झंझट और ना ‘You’ के लिए आप या तुम का झगडा. बस जी, He, You कहो और निकल लो. मगर ये हिन्दीवाले जो ना करें.
मगर क्यों कोस रहे हैं हम हिन्दीवालों को. यह तो हमारी सांस्कृतिक पहचान है, जो हमें विरासत में मिली है. हमारा काम है कि हम इस विरासत को पूरी ज़िम्मेदारी से आगे और आगे ले कर चलें और अपने वारिसों को यह विरासत सौंपें, ताकि वे भी हमारे अनुकरण में अपने महापुरुषों को पूरा-पूरा मान-समान देते रहें और “कहते” व “कहता” की परंपरा निरंतर ज़ारी रहे. दूसरों के महापुरुष तो दूसरों के हैं. उन्हें उतना आदर या तवज़्ज़ो देने की ज़रूरत?

Saturday, August 8, 2009

ये बिचारे लडके !

यह हमारे समाज ने क्या कर दिया? ख़ुद ताकतवर बनने के लोभ में ख़ुद को ही ज़ंज़ीरों से जकड लिया? देखिये न, एक समय था, शायद प्रॅगैतिहासिक. ऐसा ही कुछ बोलते हैं ना? कहते हैं कि तब सत्ता स्त्रियों के हाथ में थी. स्त्रियां ही घर और बाहर दोनों का संचालन करती थीं. इस व्यवस्था को मातृसत्तात्मक समाज कहते थे. कहा जाता है कि तब लोग समूह में रहते थे, एक जगह से दूसरी जगह दर-ब-दर होते रहते थे, और तब जो उनका काफिला चलता था, उसका नेतृत्व महिलाएं ही करती थीं.
अब जी, समय बदला. कृषि युग आया. लोग खेती करने लगे. परिवार का विकास हुआ. लोग घर बना कर रहने लगे. विवाह संस्था भी बन गई. इससे अब बीबी-बच्चे भी हो गये. बीबी-बच्चे होने से उनके भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी भी आ गई और यह ज़िम्मेदारी आदमी की होने लगी. बच्चे पैदा करने, उनकी देख-भाल करने, घर- गृहस्थी सम्भालने आदि की ज़िम्मेदारियों के साथ स्त्रियां घर में बिठाई जाने लगीं. खेती व अन्य काम के कारण पुरुष घर के बाहर जाने लगे. धीरे-धीरे यह व्यवस्था मज़बूत होती चली गई. आदमी घर से बाहर जाने लगे, तो उन्हें दीन-दुनिया के बारे में मालूमात होने लगे. औरतें घर के अन्दर रहने लगीं तो वे अपने को तनिक और नाज़ुक, खूबसूरत और कोमल समझने लगीं. उनकी कोमलता और नाजुक दिल का फायदा पुरुष उठाने लगे.
धीरे-धीरे यह व्यवस्था बन गई कि पुरुष घर के नियामक हो गये और स्त्रियां उनकी ताबेदार. इस व्यवस्था का एक और मज़बूत आधार था, घर का आर्थिक पक्ष का पुरुषों के पास चले जाना. अब जिसके हाथ में पैसा, वह सत्ता का नियामक, वह ज़्यादा ताकतवर, वह सबका मालिक. कहावत भी है कि "जिसकी लाठी, उसकी भैंस."
हाय रे, यह मालिकाना हक़, लोगों से जो ना करवाए. अब यह मालिकाना हक़ रखते-रखते लोगों की यह हालत हो गई है कि अब अगर वे अपना यह हक़ चाह कर भी नहीं छोड सकते. देखिये ना, घर मर्दों का, इच्छाएं मर्दों की. सत्ता मर्दों की. तो औरतें हो गईं इनकी कनीज़, ज़रखरीद गुलाम. भले समय ने अब करवट ली है, लडकियां पढने -लिखने लगी हैं, मगर यह थोडे हो सकता है कि शादी-ब्याह के समय यह केवल देख लिया जाये कि दोनों में से एक भी व्यक्ति अगर कमाता है तो ठीक है. नहीं जी, यह तो पुरुष अस्तित्व पर भयंकर कुठाराघात है. अगर लडकियां काम नहीं करती हैं तो लडके या उसके घरवाले इसे स्वीकरते हैं और यह एक सामान्य घटना होती है. बल्कि अभी भी हमारे समाज में लडकों के घरवाले तो घरवाले, लडके भी यह कहते हैं कि उन्हें कमानेवाली लडकियां नहीं चाहिये. क्यों? तो इसके बहुत से कारण हैं. मसलन, वे नहीं चाहते कि शाम में जब वे थके -हारे घर लौटें तो बीबी घर पर ना हों या हों तो निचुडे नींबू की तरह हों या जो उन्हें एक प्याला चाय देने के बदले उन्हीं से चाय की उम्मीद करे, कि घर और बच्चे यतीम हो जायेंगे कि घर संभालनेवाला (वाली) कोई तो चहिये. घर ठीक से सजा-धजा भी रहना चहिये, रोज अलग-अलग तरह का खाना-पीना भी मिलते रहना चाहिये, सास-ससुर की सेवा करनेवाली भी घर में कोई होनी चाहिये. और भी बहुत कुछ.
लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि समाज में कामकाजी लडकियां हैं ही नहीं. हैं ना, खूब हैं, मगर इनकी कमाई? ना बाबा ना, बीबी की कमाई खाने के लिये उससे नौकरी थोडे ना करा रहे हैं. वह तो उसका अपना टाइम पास है और चलो, एक से भले दो कमानेवाले हों तो थोडा अच्छा हो जाता है. घर की गाडी ज़रा ठीक-ठाक चलने लगती है. छम्मक्छल्लो के एक अधिकारी हैं. उनकी पत्नी भी कामकाजी हैं. मगर हमेशा कहते रहते हैं कि "वाइफ के पैसे खर्च करने के लिये नहीं होते हैं." लब्बोलुआब यह कि लानत है उस पर जो बीबी की कमाई खाता है. मियां की कमाई बीबी खा सकती है, यह गौरव की बात है, मगर बीबी की कमाई खाना? तोबा जी तोबा!
ऐसे में बिचारे आजकल के लडकों की जान बडी सांसत में रहती है. रीसेशन का ज़माना है. ढंग का कहीं काम नही है. काम हैं तो पैसे नहीं हैं. मगर घरवाले हैं कि ऐसे में भी चौतरफा दवाब डाले रहते हैं कि जी शादी कर लो. दादी का क्य ठिकाना? नाना का क्या भरोसा? ख़ुद समय का क्या भरोसा? कब कौन कहां रहे, किधर निकल जाये? लडका बिचारा इस ऊहापोह में कि जब कमाई ही ढंग की नहीं तो शादी कैसे कर ले? अभी तो खुद कहीं भी जैसे-तैसे दोस्तों के साथ शेयर कर के रह लेते हैं. शादी हुई तो अलग से घर लेना पडेगा. गृहस्थी के सारे इंतज़ाम करने होंगे. पूरे घर का ख़र्चा चलाना होगा. यह सब महज इसलिये कि मालिकाना हक़ तो लड्के का ही है. पहले तो उसे ही कमाना होगा और इतना कमाना होगा कि वह अपना, अपनी बीबी और बाद में अपने बच्चों का पेट पाल सके. भई, ये सब तो उनके पालतू हैं ना.
तो, लडकियों, सुखी हो जाओ. तुम्हें ऐसे-वैसे झंझट नहीं पालने हैं. तुम्हें तो बस, मां-बाप की छांह में सुख से रहना है, पढना-लिखना है. कैरियर बनाने का मन हो तो बनाओ, वरना हाथ-पर हाथ धर कर बैठ जाओ. मां-बाप से कह दो कि अब उसे नहीं पढना. पढ-लिख कर कौन सी उसे प्रतिभा ताई पाटिल बन जाना है कि इंदिरा गांधी कि किरण बेदी कि सुनीता विलियम्स. उसे तो घर बसाना है. मां-बाप के लिये भी तनिक आश्वस्ति सी स्थिति रहती है कि चलो, बेटी है, नहीं पढेगी तो ना सही, कोई अच्छा सा लडका खोज कर उसका ब्याह कर दो. बस जी, मुसीबतें तो लडकों की है और संग-संग उनके मां-बाप की.
बिचारे लडके. यह उनके बडे-बुज़ुर्गों ने क्या कर दिया? थोडा तो बदलो ऐ हमारे सुखनवर. मान लो जी कि लडका नहीं कमाता तो क्या हुआ? लडकी तो कमाती है. घर में कोई एक तो कमाता है. तो उसके साथ हाथ पीले कर दो. मगर जी, कौन सुनेगा इस नक्कारखाने में तूती की आवाज़? बिचारे लडको, जाओ और अपने पुरखों द्वारा तय की गई नियति को झेलो. इस बीच समझा सको, मां-बाप को तो समझा लो. लडकी के मां-बाप को भी और लडकी को भी. तुम्हारे समाज ने तुम्हारे लिये सब ऊंचा-ऊंचा कर के रखा हुआ है. तुम लडकी से कम पढे-लिखे नहीं हो सकते, तुम लडकी से कम क़द में नहीं हो सकते, तुम लडकी के मुकाबले कम नहीं कमा सकते. यहां तक कि तुम अगर ज़्यादा सुन्दर हो तो तुम अपने से कम सुन्दर लडकी से शादी भी नहीं कर सकते. क्यों? क्योंकि तब तुम्हारा ईगो तुम्हें हर्ट करेगा. ज़्यादा हर्ट करेगा तो हार्ट तक पहुंच जायेगा और ज़्यादा हार्ट तक पहंचेगा तो सबकी लाइफ मीज़रेबल कर देगा. (अंत के अंग्रेजी के कुछ शब्दों के लिये माफ करना)

Thursday, August 6, 2009

सब व्यवस्था ही करेगी, हम कुछ नहीं

छम्मक्छल्लो राम-राज्य की कल्पना में डूबी हुई है. वही नहीं, इस देश की सभी जनता. जनता समझती है कि हमने एक बार अपने प्रतिनिधि को चुन लिया, चुन कर उन्हें सरकार बनाने को भेज् दिया, बस जी, हमारी जिम्मेदारी हो गई ख़त्म. अब सारा का सारा काम जो है, वो सरकार को करना है, सरकार द्वारा बनाई गई व्यवस्था को करना है. और अगर व्यव्स्था को दुरुस्त करने में सरकार कानून बनाए, आपसे सहयोग मांगे तो लो जी कर लो बात.
अब देखिए न, इस देश में हम सभी पढे -लिखे हैं, मगर नागरिक सभ्यता के नाम पर हम किसी भी अनपढ- जाहिल से कम नही हैं. सडक पर थूकना हो या कचरा फेकना हो, हम बेहिचक उसे फेक देते हैं, चाहे हम मंहगी से मंहगी कार के मालिक क्यों ना हों. अब सफाई करने का काम तो मुंसीपाल्टी का है ना भैया. आखिर को हम उन्हें पगार किस बात की देते हैं. यह हमारे कर्तव्य में थोडे न आता है कि हम अपने स्थान को साफ कर के रखें. वैसे, कुत्ता भी अपने बैठने की जगह को अपनी पूंछ से साफ कर के तब बैठता है.
आजकल मुंबई में स्वच्छ मुंबई, हरित मुंबई का नारा बडे जोरो पर है. एनजीओ, प्रशासन सभी शहर को साफ रखने, कचरा जहां-तहां ना फेंकने के लिए अपील पर अपील, विग्यापन पर विग्यापन दे रहे हैं. मगर हम अपनी धुन के पक्के लोग. हमारा बडप्पन ही क्या जो हम उनकी अपील मान लें. अब जी, वे सब् बेचारे जुर्माने की व्यवथा पर उतर आये हैं.
दोपहिया वाहन् चलाते समय हेल्मेट लगाना या कार चलाते समय सीट बेल्ट बांधना हमारी सुरक्षा के लिए है. पर ना जी, हम इन सब चोंचलों में क्यों पडें. जब व्यवस्था सख्रती करेगी, तब देखी जायेगी. और जब फिर से जुर्माने की बात आई, तब लोग इसका पालन करने लगे. तुलसी बाबा ऐसे ही थोडे ना कह गये हैं कि "बिनु भय होहि न प्रीति". पर अभी भी होता यह है कि शहर की सीमा, जहां पुलिस का ख़तरा रहता है, हम सीट बेल्ट बान्धे राखते हैं, जैसे ही उस सीमा से दूर गये, सीट बेल्ट यूं उतार फेंकते हैं, जैसे किसी ने सांप गले में लटका दिया हो. बहुत पहले एक धर्म ने तो मोर्चा ही निकाल दिया कि हेल्मेट पहनना हमारे धर्म के खिलाफ है. कोई धर्म के इन नुमाइन्दों से पूछे कि भाई साहब, दुर्घटना क्या आपके धर्म के हिसाब से होगी? वह कहेगी कि नहीं जी, यह अमुक धर्मवाले हैं, जिनके यहां हेल्मेट पहनना धर्मानुकूल नही है, इसलिये यहां मत आओ. जाओ, कहीं और जा कर बसो.
सार्वजनिक स्थल पर बात करनी हो, तो हमारे भाई-बहन इतनी जोर-जोर से बातें करेंगे, जैसे सभी के सभी बहरे हों. बस-ट्रेन में चलना-बैठना हो, तो सीट का अधिक से अधिक हिस्सा अपने लिये कब्जा कर लेना हमारी फितरत में होता है.
और, हम लडकियों पर तो हमारे भाई लोग इतने मेहरबान होते हैं कि उन्हें अपनी जागीर ही समझने लगते हैं. वे आपसे प्रेम करने का दम्भ भरें और आप् ना करें तो तुरंत रिंकू पाटील हत्याकांड होते देर नहीं लगती है. कोई बस मेँ अपनी राह चली जा रही हो और कंडक्टर उसे छेडे तो मनीषा जैसी लडकी उसका मुकाबला ना करे. ट्रेन में कोई गर्दुल्ला किसी की पर्स छीने तो वह जयबाला अशर की तरह उसका मुकाबला ना करे. बस जी, ट्रेन में मतिमन्द लडकी की तरह सभी के सामने अपने को बलात्कृत होती रहे.
इन सबसे बचने के लिए और अपनी आत्म रक्षा के लिए लडकियों के जूडो-कराटे आदि की बात सीखने-सिखाने की ज़रूरत पर बल दिया जाता रहा है. यहां तक तो ठीक है, मगर एक डीजीपी ने कह दिया कि लडकियों को अपने साथ ब्लेड आदि जैसी चीज़ें रखनी चाहिये कि बस जी, हंगामा बरपा हो गया. तुरंत दूसरी पार्टी के लोग उसके विरोध में उठ खडे हुए और जा कर चूडियां भेंट कर आये. चूडियां भेंट करनेवालों में हमारी वीर महिलायें भी थीं, जिन्हें यह लगता है कि चूडियां पहनना जनाना काम है और जनाना काम जो भी हैं, वे इतने खराब होते हैं कि उन्हें गाली की संग्या ही दी जा सकती है. और वीरता के सारे काम सिर्फ आदमियों के हिस्से में हैं. हे भगवान्, आप झांसी की रानी, रज़िया सुल्तान आदि समेत मेवाड की सभी वीरांगनाओं की आत्मा को शांति पहुंचाना. आज की किरण बेदी, जयबाला अशर, मनीषा आदि को धीरज धरने के लिए कहना और यह भी कहना कि अपनी वीरता की छाप और उसके आख्यान के लिए वह अगले जनम में पुरुष् के रूप में जन्म लेने का इंतज़ार करे. और इस सबके पीछे आप यह अपेक्षा रखें कि आपकी व्यवस्था हर पल आपके पीछे घूमती रहे. आप कचरा फेंकें, वह उठाये, आप सर्वजनिक स्थल पर धूम्रपान करें, वह आपसे ऐसा न करने के लिए निवेदन करे, अप राह चलती लडकियों से बदतमीज़ी करें, वह आपसे ऐसा न करने के लिए आपसे इसरार करे, और भी बहुत कुछ. एक सभ्य, सुशील, संसकारित नागरिक होने के नाते हम कुछ ना करें, हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं.

Wednesday, August 5, 2009

मेरे भैया - राखी के इस पावन अवसर पर

मेरे भैया,
आज रक्षा बन्धन है. इस जगत की सभी बहनों का बडा प्यार भरा दुलार तुम तक पहुंचे. हम सब कितनी खुशकिस्मत हैं कि हमारे जीवन में भाई का प्रेम विद्यमान है. यह प्रेम जीवन भर बना रहे और इस प्रेम की फुहार से हमारी जीवन –बगिया सदा हरी-भरी बनी रहे, यही कामना है.
मेरे भैया, राखी बान्धने के एवज में तुम सब हम बहनों को नेग देते हो. इस बार भी दोगे, यह मेरा पक्का विश्वास है. बताऊं भैया, इस बार नेग में हमें रुपए- पैसे, साडी, गहने नहीं चाहिए. तुम्हारे आशीर्वाद से यह हम सबको मिल ही जायेगा, थोडा या ज़्यादा. आज के इस पावन अवसर पर यदि दे सको तो बस इसकी इज़ाज़त दे देना-
1 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जो कुछ और जहां पढना चाहें, पढने देना.
2 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जो कुछ बनना चाहें, बनने देना.
3 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जो पहनना चाहें, पहनने देना.
4 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जिसके साथ बात करना चाहें, करने देना.
5 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जिस कैरियर को और जिस जगह पर जा कर बनाना चाहें, बनाने देना.
6 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जब और जिससे शादी करना चाहें, करने देना.
7 कि हम सबको अपनी इच्छा और आज़ादी से जब और जिससे प्रेम करना चाहें, करने देना.
मेरे भैया,
और भी कि इस रक्षा बन्धन पर हमेँ यह वचन दो कि-
1 सभी लडकियों को मेरी ही तरह बहन समझोगे और उनकी इज़्ज़त का भी उतना ही ख्याल रखोगे, जितना मेरे मान- सम्मान का ख्याल तुम्हें रहता है.
2 जब कभी किसी लडकी को निर्वस्त्र करो, तो बस, एक बार मेरा चेहरा अपने तसव्वर में ले आना. अगर यह नही कर सको तो अपने ही जैसे किसी दूसरे भाई को मुझे निर्वस्त्र करने की इज़ाज़त दे देना. (ऐसी स्थिति में तुम भी मुझे निर्वस्त्र करोगे तो मुझे दुख नहीं होगा.)
3 कभी किसी लडकी के साथ बलात्कार करते समय भी मेरा ख्याल कर लेना. और अगर यह नही कर सको तो अपने ही जैसे किसी दूसरे भाई को मेरे साथ बलात्कार की सहमति दे देना. (यक़ीन मानो, ऐसी स्थिति में तुम भी मेरा शील हरण करोगे तो मुझे एकदम तकलीफ नहीं होगी.)
4 अपनी शादी के लिए बहुत सुन्दर लडकी की खोज मत करना. अगर करते हो तो ज़रा अपनी इस बदसूरत बहन का भी ख्याल कर लेना कि अगर हर कोई ऐसी ही हूर की परी चाहेगा तो तुम्हारी इन कुरूप और कम सुन्दर बहनों का क्या होगा?
5 भारतीय कानून के अनुसार अपनी पैतृक सम्पत्ति में से मुझे भी मेरा हक़ देना. अबतक तो हम सब तुमसे एक गठरी की आस में, तुमसे एक प्यार भरी नज़र पाने की उम्मीद में इस पर विचार नहीं करती आई हैं. पर इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम अपने कर्तव्य का पालन ही भूल जाओ और हमें हमारे अधिकार से महरूम रखो.
6 हम लडकियों पर ही घर की सारी मर्यादा, सारी इज़्ज़त का भार मत डाल दो. मेरे किसी से प्रेम कर लेने से, मुझे किसी के द्वारा बेइज़्ज़त कर देने से तुम्हारे घर की सारी मर्यादा धूल में मिल जाती है, भैया मेरे, इस ज़िम्मेदारी से हमें मुक्त कर दो.
7 हमें अपने से कमतर ना समझो. हम भी तुम्हारी ही तरह इंसान हैं और तुम्हारी ही तरह हर तरह के गुण-दोष से लबरेज़.
8 और सबसे ऊपर, हमें लडकी और नारी के बन्धन में बांधने के बजाय हमें मनुष्य समझो और मुझ जैसी सभी से एक मनुष्य की तरह व्यवहार करो.
बस, यही मेरे भैया, बस. यही और इतना ही. बाकी तो कम लिखा, ज़्यादा समझना. हमें सचमुच इस बार पैसे, कपडे, गहने नहीं चाहिये. चाहो तो अपनी किसी भी बहन से पूछ लो. -तुम्हारी ही बहन.