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Tuesday, July 29, 2008

आबाहु सब मिली कर रोबहू बिहारी भाई!

दो माह पहले मैं मुंबई से दिल्ली जा रही थी राजधानी से। यह वह समय था जब राजस्थान गुर्जर आन्दोलन से जल रहा था । उस लाइन की सभी ट्रेनें या तो रद्द थीं, या रूट बदलकर जा रही थीं। एक बुजुर्ग मराठी सज्जन भी दिल्ली जा रहे थे। कुछ विशुद्ध बिहारी, जो इस व्यवस्था में भी लालू की कमी निकाल रहे थे, उन्हें कोस रहे थे, जैसे गुर्जर आन्दोलन का सारा श्रेय उन्हें ही जाता हो। उनका टिकट वेटिंग पर था। राजधानी में वेटिंग पर कोई यात्रा नहीं कर सकता, मगर समय की नजाकत को देखते हुए इसकी इजाज़त दी गई थी। पहले तो वे सज्जन टीटी से बर्थ को लेकर खूब लड़े, फ़िर उन्हें दिल्ली में पहुंचकर उसे देख लेने की धमकी दी गई। बाद में बर्थ मिल जाने पर उन्हें अपने जीवन का ज्यों नया "बर्थ" मिल गया। अब वे पैर फैलाकर आराम से पसरकर लगे बिहार और बिहारियोम को कोसने। उन मराठी सज्जन ने कहा कि "मैंने तो बिहार की काफी तारीफ़ सुनी है।" बिहारी सज्जन ने तुनकते हुए कहा, "आपसे किस (बेवकूफ) ने कह दिया।" फ़िर वे बोले, "मैं लालू के इलाके का हूँ। और मैं जानता हूँ कि लालू ने किस कदर बिहार को मटियामेट कर दिया। " बुजुर्ग ने कहा कि उनके कारण तो रेल के किराए में भी कटौती आई है, गरीब रथ जैसी ट्रेने खुली हैं, रेलवे प्रौफिट में हैं। "बिहारी सज्जन गीता का ज्ञान दे रहे कृष्ण की तरह मुस्काए और उसके बाद लालू क्या हैं, कैसे हैं, यह सब लेकर उनका ज्ञान वर्धन कराने लगे। इन सबका लब्बो- लुबाब यह कि आपने अगर बिहार के बारे मैं कुछ अच्छा सुन भी लिया है तो आप या बिहार इस काबिल नहीं। बुजुर्ग ने बताया कि मेरा बेटा जिस इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ता है, वहाँ बिहारी बच्ची भी हैं। मेरा बेटा उनसे सुअकर मुझे बता रहा था। सुनकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था, पर अब आप कह रहे हैं की ऐसा कुछ भी नहीं है।

बिचारे वे बिहारी छात्र , जो बिहार की छवि अपने तरीके से सही रूप में दिखाना चाहते थे, उनकी कम अकली पर आप भी रोइए। क्यों वे बिहार को बाद से साद मुं पहुंचाना चाह रहे हैं? एक गाना हैं ना की 'कोई दुश्मन घाव लगाए तो मीत जिया बहलाए, मनमीत जो घाव लगाए, उसे कौन बचाए।'

बिहारी ग्रुप के पुष्पक पुष्प का आक्रोश, दुःख मीडिया के प्रति है। भाई मेरे, हम सभी मीडिया हैं, अपने अपने स्टार पर। किसी की भी छवि को संवारने या बिगाड़ने का काम और दायित्व हमारा भी होता है। जबतक सभी बिहारी इस बात को नहीं समझेंगे, अपने बिहारी और भारतीय होने का गौरव अपने भीतर नहीं भरेंगे, तबतक सभी बिहारी इस तरह के भेद-भाव का शिकार होते ही रहेंगे। पहले तो अपने लोगों को यह कहना - समझना सिखाएं कि बिहार का मतलब केवल लालू नहीं है

Saturday, July 26, 2008

अजय टीजी के लिए

अजय टीजी फ़िल्म मेकर हैं, और अपने स्वतन्त्र देश में अपनी अभिव्यक्ति की सज़ा पा रहे हैं। ५ मई, २००८ से वे छत्तीसगढ़ की जेल में बंद हैं। उन्हें छुडाने के लिए अदूर गोपल कृष्णन, श्याम बेनेगल, मृणाल राय जैसे फ़िल्म मेकर अपनी अपील दे चुके हैं। अजय टीजी को आप जाने, अपने को व्यक्ति समझने के लिए यह ज़रूरी है। उनके लिए एक कविता -
"यह कोई नहीं है समर्थन
यह है अपनी मज़बूरी की लिजलिजाती, बू से भरी अपनी देह का एहसास
कि इसमें रहता है एक मन भी
और उस मन का मन होता है कि वह बोले, देखे, दिखाए वह सब
जिसे देखने से हमारा मन हो सकता है ख़राब
जिसे चख कर हमारी जीभ में भर सकता है करेले का कड़वापन
जिसे सूघ कर हमारे दिमाग की नस-नस में भर जाती है वह असहनीय दुर्गन्ध।
मेरे भाई अजय,
तुम बेवकूफ तो नहीं थे या पागल, कि चल पड़े थे एक ख्वाब की कालीन बुनने
जिसमें हर कोई है भरे पेटवाला,
हर बच्चे की पीठ पर है बस्ता
हर माँ के चहरे पर है मुस्कान
हर व्यक्ति के पास है कमाने-खाने के साधन
किस दुनिया में हो मेरे भाई।
क्या तुम्हे नहीं पता कि अभी-अभी तो जान बची है उनकी
यह भी तो एक सत्य है ही ना
कि किसी के जीने के लिए किसी को मरना ही पङता है
अब ऐसे में देश मर भी गया तो क्या?
यह तो खुशी मनाने की बात है, जैसे सभी ने खुशिया मनाई थीं
जब लटकाया गया था सद्दाम हुसैन
जब कहा गया कि उसके फांसी पर लटकने के वक़्त
सोया हुआ था आका
अवाम जग रही थी
और चिपकी हुई थी टीवी
लोगों ने गिलगिला कर हर्ष से तालियाँ बजाई थीं
और चैन की साँस ली थी कि
आजाद हुए शैतान से।
आका तेल के कुँए पर बैठ मुस्कुरा रहा था
अब ठहाके लगा रहा है
अब भी लोग ले रहे हैं चैन की साँस
बच गए हम
अब आयेगा देश में सुख-सुविधाओं का रेला
अब अजय भाई, तुम भी तो नाहक झगड़ बैठते हो
मत्था टेक लो
आका खुश तो बच जाओगे तुम
पर ऐसा हो सकता है क्या अजय भाई।
मेरा मन कहता है
अभी तुम नहीं हुए हो इतने स्वार्थी कि
हम सबको मार दो देश की तरह
तुम्हारी लड़ाई ही तो ताक़त है उन सबकी
जो झेल रहे हैं अपने ही घर में आग, पानी, हवा का प्रकोप।
उनके लिए तो तुम्हारी-हमारी बात ही रखेगी जले पर फाहा
तुम अपने एहसास एक साथ रहो भाई,
हमें खुशी है कि धरती भारी नहीं है पूरी शैतानों से।
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Monday, July 21, 2008

जाना भाई राजेन्द्र पांडे का

कल बहुत दिन बाद चौपाल में जाना हुआ। चौपाल मुम्बई के रचनाधर्मियों के लिए है और इसकी सबसे बड़ी खासियत है कि इसका कोई फंड नहीं होता और उससे भी बड़ी बात है कि इसमें किसी के बाल की खाल नहीं उधेडी जाती। खैर, घुसते ही भाई अतुल तिवारी मिले और कहा "आपको पता है कि नहीं कि भाई राजेन्द्र पांडे नहीं रहे? आज ही सुबह वे हमसे बिछुड़ गए।"
भाई राजेन्द्र पांडे बिछुड़ गए और मेरे मन में अनेक हलचल छोड़ गए। पिछले दो-तीन दिनों से उन्हें फोन कराने की सोच रही थी, मगर किसी न किसी कारन से बस टालता ही रहा। अब लगता है कि बात कर ली होती तो आज दिल में यह कचोट नहीं रह जाती। एक शख्श, जो बिना किसी स्वार्थ के किसी की मदद करता हो, तमाम जानकारियां देता हो, गाइड, फ्रेंड, फिलौस्फर, यह सब भाई राजेन्द्र पांडे ही हो सकते थे। मेरे नाट्य लेखक को उभारने में उनका बहुत बड़ा योगदान है।
आज से लगभग १० साल पहले, जब मैंने अपना पहला नाटक लिखा, "मदद करो संतोषी माता' , उस पर रंग-पाठ आयोजित हुआ। एक बेहद मशहूर रंगकर्मी आए। उन्होंने न केवल इसे खारिज कर दिया, यह कह कर कि बहुत कमजोर नाटक है, बल्कि यह भी परोक्ष रूप से कह दिया कि क्यों लिखना, जब लिखना नहीं आता। यह भी कि हमारे पास बाक़ी कामों से वक़्त नहीं मिलता किहम स्क्रिप्ट काम करें। मैं आज भी मानती हूँ किफ़िल्म, सीरियल, नाटक का सबसे मजबूत पक्ष स्क्रिप्ट ही है। वह ठीक है तो उसे पढ़ भी दिया जाए तो रचना का आनंद आता है। लेकिन, दुर्भाग्य कि स्क्रिप्ट पर काम करना कोई पसंद नहीं करता। भाई राजेन्द्र पांडे ने भी नाटक में कमियाँ बताईं, मगर कहा कि इस पर काम किया जा सकता है। इस पर काम हुआ और बाद में इसे हिन्दी व् मैथिली दोनों में लिखा गया।
काम न केवल इस पर हुआ, बल्कि मेरे हर नाटक पर उनकी प्रतिक्रया मिलाती रही। "अए प्रिये तेरे लिए " के मंचन को देखने के बाद वे बोले कि अब आपसे नाटक और अधिक मांगने की मेरी अपेक्षा बढ़ गई है।'
२००५ में मोहन राकेश सम्मान की प्रविष्टि भेजने के लिए जिस तरह से वे मेरे पीछे पड़े, वह आज तक मुझे नहीं भूलता। हर दूसरे दिन एक संदेश मिल जाता- "भेजा?"। मैंने कहा कि मेरे पास अभी फार्म नही आया है, इसलिए नहीं भेज पा रही हूँ, उनहोंने अपना फार्म मुझे भेज दिया यह कहकर कि आप इसमें अपनी प्रविष्टि भेज देन, मैं नहीं भेज रहा हूँ।" मैंने भेज दी। दुबारा मेरा फार्म आने पर बोले, एक और भेज दों। मैंने एक और भेज दी। संयोग कि दोनों ही नाटक 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' और 'आओ तनिक प्रेम करें' को मोहन राकेश सम्मान से नवाजा गया।
मि. जिन्ना नाटक में मेरे अभिनय को देख कर बोले, ' अब मेरी अपेक्षा आपसे और भी बढ़ गई । मेरे दूसरे नाटक 'लाइफ इस नत अ ड्रीम के किसी भी शो में सेहत ख़राब होने के कारण नहीं आ सके।
अवितोको की हर गतिविधि की जानकारी लेने में वे सबसे आगे रहते। अवितोको के वार्षिकांक के लिए उनहोंने एक लेख भी लिख कर दिया था। नटरंग में उनहोंने अपने लेख में अवितोको की गतिविधि का ज़िक्र किया था और मुझे सूचना दी कि लेख में अवितोको है। और यह सब बिना किसी निजी सरोकार के। जेल की हमारी गतिविधियों पर वे कहते रहे कि मुझे आपके साथ एक बार जेल जाना है। अब तो वे ख़ुद इस दुनिया की जेल से ही छूटकर आजाद हो गए। उनका जाना एक उस महान विचार का जाना है, जो बगैर किसी स्वार्थ या अतिरिक्त प्रसिद्धि पाने की लालसा से उपजता है। भाई राजेन्द्र पांडे की अनगिनत किताबें और उनकी रचनाएं हम तक हैं। वे विविधता में लिखते रहे- नाटक, व्यंग्य, आलोचना, कवितायें। खूब लिखा और उतने ही नम्र बने रहे। कभी चहरे पर शिकन तक नहीं। हिन्दी के इतने बड़े पैरोकार कि अन्ग्रेज़ी जानते हुए भी, कभी भी उसका प्रयोग नहीं किया। राजेन्द्र पांडे भी, हम अपनी श्रद्धांजलि ही आप तक पहुंचा सकते हैं। अफसोस जीवन भर लगा रहेगा कि क्यों मैंने फोन नहीं किया, क्यों आपसे बात नहीं की?

Monday, July 14, 2008

हर बार की शूली- टुकडा आसमान भी उनके लिए नहींं?

बचना चाहती रही हूँ, अब इस तरह के विषय पर लिखने से, मगर हर बार कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है की लिखना पड़ जाता है। समाज में समानता की बात गोहरानेवालों को भी यह शायद नागवार गुजरे, मगर सोच के स्तर पर जबतक बात नहीं आयेगी, कुछ भी समाधान नहीं निकलेगा। हम केवल लकीर पीटते रहेंगे और एक दूसरे पर इल्जाम लगारे रहेंगे।
हाल ही में एक अखबार ने यह सर्वे किया की हिंद्स्तान में तलाक की डर क्यों बढ़ रही है? इसके सामान्य उत्तर के रूप में कह दिया गया की महिलाएं ही इसके मूल में हैं। उनकी शिक्षा, उनकी आर्थिक आत्म निर्भरता उन्हें तलाक की ओर प्रेरित कर रही है।
सुनने में यह बहुत सरल, सहज और सच सा जान पङता है। मगर इसके मूल में बातें कुछ और भी हैं। महिलायें अगर आज पढ़ लिख रही हैं, आर्थिक रूप से सक्षम हो रही हैं तो इसलिए नहीं, कि वे घर, परिवार या रिश्ते, सम्बन्ध को नहीं मानना चाहतीं। ऐसा होता तो वे शादी करना ही नहीं चाहतीं। करतीं भी नहीं, परिवार, बच्चे कुछ भी नहीं चाहतीं। बीएस आजाद पंछी की तरह घर और दफ्तर और उसके बाद यहाँ- वहाँ डोलती रहतीं। मगर ऐसा नहीं होता। लड़कियां शुरू से ही घर में रहना पसंद करती रही हैं, आज भी करती हैं। हाँ, अपनी चाहत के नाना रूपों को वह निखारना चाहती हैं, अपनी प्रतिभा को नए -नए आयाम देना चाहती हैं और इस देश का नागरिक होने के नाते यह उनका मौलिक अधिकार है। अपने को एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में देखने के बाद अगर उन पर तोअहामत लगाए जाएँ तो यह मेरा भी कहना होगा कि ऐसे में उनका अपना वह तथाकथित घर छोड़ देना उनके लिए ज़्यादा मायने वाला होगा। महिला या लड़की से पहले एक इंसान हैं, और उन्हें इसी रूप में देखे जाने की ज़रूरत है। ऐसा न होने पर वे घर छोड़ती हैं या रिश्तों को तिलांजलि देती हैं तो यह सोचने वाली बात है कि इतने के बावजूद हम और हमारा समाज अपनी सोच में बदलाव क्यों नहींं लाता? क्यों उसे घर की लाज, घर की सबसे जिम्मेदार सदस्य, घर चलानेवाली और ये-वो से अभिहित किया जाने लगता है? वह सब करने को वह तैयार है, पर उसके लिए भी तो सोचें कि उसे एक व्यक्ति के रूप में अभी भी हम क्या दे रहे है? आज सवाल स्त्री-पुरूष के बीच भेद बढ़ाने का नहीं, दोनों के बीच एक सामंजस्य स्थापित करने का है और इसके लिए हर पक्ष को बराबर- बराबर की साझेदारी निभानी ही होगी। महिलाओं पर हर बार की तरह दोषारोपण कराने की आदत से अब बाज़ आने की ज़रूरत है।

Sunday, July 13, 2008

कलाकारी- इरेजर की या कलाकार की?

आज एक छोटी सी फ़िल्म देखी- 'कलाकार'। मुख्य भूमिका रजित कपूर की। फ़िल्म अवाक। कहीं- कहीं गति में चार्ली चैपलिन की तरह लगती। संवाद समझाने के लिए लिखे हुए संवाद आते, जो कभी-कभी अनावश्यक लगते, जेसे किसी के दरवाजा खटखटाने पर -"नोंक-नोंक" कहना। हा, सारे कैप्शन अन्ग्रेज़ी में थे।
फ़िल्म की कहानी के लिए कुछ मौर्यकालीन समय जेसा पीरियड चुना गया था। कलाकार को आदेश हुआ है, प्रधान मंत्री की बेटी की तस्वीर में सुधार करने के लिए। कलाकार जब भी उस पर काम करता है, कभी छींक आने से तो कभी मच्छर के काटने से तासीर बिगड़ जाती है। वह काफ़ी परेशान व् चिंतित है। उसका दोस्त अंत में उसकी सहायता करता है। अचानक वह इरेजर ईजाद करता है और इसके बल पर कलाकार तस्वीर सही-सही बना देता है।
फ़िल्म के अंत में फ़िल्मकार के साथ बातचीत थी। भावना सोमाया इसे प्रस्तुत कर रही थीं। उनहोंने इसे बहुत ब्रिलियंट फ़िल्म बताई। पता नहीं, यह मौके की नजाकत थी, एक प्रस्तुतकर्ता की भुमिका में होने के नाते या सचमुच फ़िल्म उन्हें अच्छी लगी।
छाम्माक्छाल्लो समझ ना सकी कि यह फ़िल्म है क्या? यदि यह इरेसर की उत्पत्ति के लिए फ़िल्म थी, तब तो कोई बात नहीं। मगर एक कलाकार के माध्यम से इसे व्यक्त करने की कोशिश में यह एक हास्य ही उत्पन्न कर सका। कोई भी कलाकार इरेजर के इस्तेमाल से बड़ा नहीं हो सकता। हमारे गुरु हैं- पोलाजी सर, वे कहते हैं, "अगर तुमने ग़लत स्ट्रोक लगा भी दिए तो कोशिश करो कि उस ग़लत स्ट्रोक को अपने ब्रश या पेन्सिल से कैसे ठीक कर सकते हो? उसे ठीक करने के लिए इरेज़र का इस्तेमाल तुम्हारी कल्पना को छोटा करता है।" यह बात नई कलाकार विधा सौम्य भी मानती है। हम भी जब कभी आर्ट वर्कशौप करते हैं, बच्चों को इरेसर नही देते। वे शुरू में मायूस होते हैं, मगर बाद में अपनी ही कल्पना के अलग-अलग परिणाम देख खुश होते हैं। आज कल स्कूलों में भी बच्चों को इरेज़र के लिए हतोत्साहित किया जाता है, ताकि वे ग़लत ना लिखें, वरना इरेज़र तो है, मिटा देंगे, यह प्रवृत्ति बच्चे के मन में बढ़ने लगती है। दूसरे,इरेज़र के इस्तेमाल से कागज़ पर सफाई नहीं आती है।
छाम्माक्छाल्लो इस बात से मुतास्सिर है कि इरेज़र का इस्तेमाल होना चाहिए, मगर वहाँ, जहाँ इसके बिना काम ना बने। रचनात्मक कामों में इसका इस्तेमाल रचनात्मकता को कम करता है। फ़िल्म का यह संदेश फ़िल्म को कथ्य के स्तर पर कमजोर करता है और संदेश देता है कि आख़िर यह कलाकारी कलाकार की हुई या इरेज़र की?