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Thursday, December 4, 2008

काश की तुम मेरी सेवा में आ गए होते.

१९ नवबर, २००८ की शाम, एक संदेश मेरे मोबाइल पर ब्लिंक हुआ, २४ को आपकी सेवा में नहीं आ सकूंगा। यह संदेश राजीव सारस्वत का था, जिसे मैंने अपनी २४ से होनेवाली कार्यशाला में सत्र लेने के लिए बुलाया था। उसने कहा था की शायद संसदीय समिति के निरीक्षण कार्य के लिए उसे कह दिया जाए। ऎसी हालत में वह नहीं आ सकेगा। उसे संसदीय समिति के निरीक्षण कार्य के लिए ड्यूटी मिल गई थी, इसलिए उसने माफी माग ली।

२६ नवम्बर से मुंबई में आतंकवाद का जो नंगा नाच खेला गया, उसने राजीव को भी अपनी चपेट में ले लिया। होटल ताज में उसकी ड्यूटी थी। उस दिन उसे भी एक गोली लगी। दूसरे दिन यानी २७ तक उसका अपने घर व् दोस्तों के साथ संपर्क बना रहा। फ़िर वह टूट गया और ऐसा टूटा की बस टूटा ही रह गया। अन्यों की तरह वह भी इस आतंकवाद की भेंट चढ़ गया। प्रिंट व् मीडिया में तरह-तरह की खबरें छपती रहीं, पर अंत में सभी एक बात पर एकमत थे की इन सबके पीछे का सच यह है की राजीव अब हमारे बीच नहीं है।

मेरे जानिब से केवल एक राजीव नहीं गया, बल्कि सय्कारों राजीव चले गए। कोई पूछे उनके घर के लोगों से उनकी वेदना। हमारे पास न तो शब्द हैं, न आंसू। क्या कहें और कितना कहें? क्या बहायें और कितना बहायें? लोग सरकार से इन खूनों का हिसाब मांग रहे हेम? मगर कोई क्या कहे? लोग अपनी संवेदना में मोमबत्ती जलाकर प्रार्थना कर रहे हैं। काश की ईश्वर कहीं हो और वह इन सबकी प्रार्थना सुन लेता। लोगों को तो अपने -अपने परिजनों की लाशें भी इतनी क्षत -विक्षतsथिति में मिलीं की वे कह बैठें की दुश्मनों के साथ भी ऐसा न हो। राजीव का शव भी इस बुरी तरह से जला हुआ मिला की लोग उसके बदले उसके ताबूत के ही दर्शन कर सके। आतंक से बड़ा आतंक तो अब यह है की हमारी जान बचाने के लिए हमारे पास कोई नहीं है। कोई सुरक्षा नहीं, कोई चौकसी नहीं, अब आप अपनी तक़दीर के हवाले से ज़िंदा हैं तो हैं। तक़दीर के ही हवाले से जिसदिन चले जायेंगे, चले जायेंगे, बाक़ी अन्य सभी हादसों की तरह इस हादसे पर भी आंसू बहा कर, दिल को तसल्ली देकर रह जायेंगे। हम आम जन की कौन सुनेगा? राजीव से तो यही कहा जा सकता है की काश, उस दिन २४ को तुम मेरी सेवा में आ ही गए होते तो आज तुम हमारे बीच होते। हम -तुम पहले की ही तरह अपने विषय पर बात करते हुए आपस में हँसी-मज़ाक भी कर रहे होते। लेकिन अब ऐसा कुछ भी नहीं है। यह केवल मेरे साथ नहीं, बल्कि हम जैसे कईयों के साथ है, जो अपने-अपने हित-मित्र-नातों को खो चुके हैं। आज सभी के मन में यही एक सवाल है की कब हम इन सबसे निजात पायेंगे? आपके पास कोई ठोस जवाब हो तो हमें भी बताएं, वरना सभी को माकूल जवाब देने में सक्षम मैं आज यहाँ पर ख़ुद को अक्षम पा रही हूँ।