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Sunday, April 16, 2017

भरतपुर लुट गयो रात मोरी अम्‍मा!

आज पढ़िए "कथादेश" के अप्रैल,2017 के अंक में छपी एक कहानी। अपनी राय और टिप्पणियां पोस्ट करना न भूलें।

माई के पास भर मुट्ठी पैसा लेकर आया तो झुनिया ने उसकी बंधी हुई दोनों मुट्ठी को भरपूर हथेली से चटाक से मारकर ऐसे झटकारा कि उसकी दोनों मुट्ठियों में फंसे पैसे छिटक कर पूरे घर में बिखर गए। झुनिया ने फिर झटकारकर उसकी एक कलाई पकड़कर उसे अपनी ओर खींचा और तड़-तड़ कई लप्‍पड़ जमा दिए –‘रे कोढि़या! कौन बोला तुमको पइसा लूटने को? हमरे कटिहारी मे भी अईसे ही लूटेगा?”
‘नहीं! तखनी तो हम तुमको कन्‍हा दिए रहेंगे न!’ लेरहा की मासूम बात से झुनिया को हंसी छूट गई। उसने लेरहा को धर के गोद में दबोच लिया और उसे पकड़-पकड़ कर झुलाने और गाने लगी -
राम-लछुमन सुगा उडि़ गेल अंगनमा से
जिनगी के सांस आएल मोरा भरतवा से!
लेरहा माई के पंजरा में मुंह छुपा के सांस लेता रहा। उसे माई का ई लाड़ बहुत अच्‍छा लगता है। माई के पेट की हल्‍की गर्मी से उसको नींद आने लगती है। नींद के झोंके में वह सपने में विचरने लगता है। उस सपने में वह अपने चारों ओर पैसे ही पैसे देखता है। मेघ से पानी के बदले पैसे की बरसात- सफ़ेद ओले की तरह सफ़ेद- सफ़ेद सिक्के! अब तो चवन्नी-अठन्नी का चलन ही खतम हो गया है। एक रुपए-दो रुपए के सिक्के!
झुनिया ने गुस्‍से भरा हाथ लेरहा की जिन हथेलियों पर मारी थी, उन्हें अब प्‍यार से सहला रही थी। हथेली सहलाते- सहलाते उसकी नजर अगल-बगल छिटके पैसों पर पड़ी। लेरहा माई के पेट में मुंह घुसाए सो गया था। उसकी छूटती सांस की गर्मी झुनिया को भी लग रही थी। लेकिन उस गर्मी से ज़्यादा उसको इधर-उधर बिखरे पैसे नज़र आ रहे थे। उसने धीरे से सोए हुए लेरहा को जमीन पर लिटाया और पैसे समेटने लगी – साढ़े बारह रुपए। “मुंह-मरौना के! ई अठन्नी काहे लागी सब लुटाता है! है कोनो मोल आजकल इसका जो बाज़ार में कोनो लेगा?”
झूलन साहू की एक सौ दो बरस की माई मरी है। अंग्रेजी बैंड के साथ उसका जनाजा उठा है। भर गांव और शहर मय्यत में शामिल हुआ है। बनिया है झूलन साहू। खूब पैसेवाला। खूब लुटा रहा है पैसा। लेरहा और उसके जैसे बच्‍चे खूब लूट रहे हैं – पैसा! खाली पैसा!! बताशा, मखाना, फूल और मूढ़ी चुनने-बीछने वाली चीजतो है नहीं। कई बार एक ही पैसे पर दो-दो, तीन-तीन लूटनेवाले हा‍थ पड़ते। सब आपस में छीना-झपटी करते। मार-पीट हो जाती- गाली-गलौज तो साधारण बात थी। मुंह-कान फूट जाते। पैसा जिसे मिलता, वह विजयी भाव से सभी को देखता। जिसे नहीं मिलता, वह खिसियाहट मिटाने के लिए आगे बढ़ जाता।
लेरहा कभी छीना-झपटी में नहीं पड़ता। वह मराछ है और देह से तनिक कमजोर। उसके ऊपर के दो-दो भाई चले गए। झुनिया ने बड़े शौक से उनके नाम रखे थे- रामचन्‍नर और लछुमन। साल बीतते-बीतते दोनों भाई एक-एक करके बंसवाड़ी में दफन हो गए। लेरहा के जन्‍म पर सभी ने कहा- ‘गे! इसको बेच दे किसी के हाथ। और बढि़या नाम मत रख।‘
झुनिया का मन था, इसका नाम भरत रखे। जिनगी और मरण अपने हाथ में है का? भगवान के यहां से इतनी ही जिनगी लिखाकर लाए थे दोनों पूत!
बगलवाली गोबरा माय के हाथ एक पसेरी चावल में बेच दिया अपने भरत को। बहुत लार चूआता था छुटपन में। सभी ने कहा –‘गे, बहुत लेरचुअना है ई तो। रख दे नाम लेरहा!’
झुनिया ऊपर से लेरहा और मन में पुकारती – भरत! झुनिया को रामायण बहुत पसंद है। राम समेत चारो भाई। सिया-सु‍कुमारी। सीधी-सच्‍ची कोसिल्‍ला माई आ हड़ाशंखिनी कैकेयी। सबसे तो नट्टिन निकली मंथरा। भरत जैसा भाई कहां आजकल मिलेगा जो राजपाट छोड़ के भाई का खड़ाऊं पूजे! उसने जमीन पर सोए लेरहा का मुंह प्‍यार से चूम लिया –‘हमर भरत!’
भरत दो महीना पहले ही गीत सुनके आया है – ‘भरतपुर लुट गयो रात मोरी अम्‍मा!’ जब-तब गुनगुनाता है। झुनिया के पूछने पर बताता है –‘दशहरा के नाटक में बाई जी आई थी नाचने। ओही गा रही थी। मेरा नाम आया तो हम रट लिए ई लाइन। लोग सब ई लाइन पर खूब पिहकारी मारे। सबको हमरा नाम एतना पसीन है माई!’
झुनिया ने बरज दिया- ‘बाई जी लोग का गाया गीत नहीं गाते। खराब होता है।‘ गीत की लाइन पर तनिक मुसकाई थी। कैसे बताए इस नन्‍ही जान को इस लाइन का मतलब! बड़ा होकर खुदे बूझ जाएगा।‘
लेरहा की ज़बान पर जैसे ई गीत चढ़ गया। उसकी बचकानी आवाज में वह गीत अच्छा भी लगता। एक हल्‍की मुस्‍कान झुनिया के मुंह पर आ जाती। धीरे-धीरे उसकी जबान पर भी चढ़ गया- ‘भरतपुर लुट गयो रात मोरी अम्‍मा!’ ललाइन के घर काम करते हुए वह भी यही लाइन गुनगुना रही थी। खूब किताब सब पढ़ानेवाली ललाइन बोली थी कि यह तो गुलाबबाई का गाया गीत है। भरी महफिल में वह गाती थी। ललाइन एक किताब उठा लाई थी- ‘देखो, गुलाबबाई की जीवनी। ये उसकी तस्वीर! ...ये देखो, राष्ट्रपति से पुरस्कार लेती गुलाबबाई! झुनिया को सब अच्छा लगा, लेकिन यह सोचकर उसके कान लाल हो गए- ‘अगे मैया! कैसे गाती होगी सारे मरदों के बीच में? सरम नहीं लगता था!’
शर्म झुनिया को भी नहीं आती है। लेरहा के लूटे पैसों से अनाज खरीदते। कहने को हर बार लेरहा के लूटे पैसे पर बिगड़ती है। लेरहा को झड़पती- मारती है। मगर फिर उसी पैसे से ज़रूरत का सामान भी लाती है। जैसे अभी इन्हीं पैसों को लेकर वह बाजार जाएगी। लेरहा फर्माईश कर चुका है, दो दिन पहले- ‘माई! बगिया खाएंगे। झुनिया ने उसे छेड़ा था- ‘पूरा बगइचा खा जाएगा? रामजी की बगिया? सीता जी की बगिया!’
लेरहा बोला –‘ऊँ...! पिट्ठा!’ झुनिया फिर मुस्‍काई। लेरहा तुनुककर बाहर भागा और गोबरा और अन्य बच्चों के साथ खेलने में मगन हो गया। गोबरा और बाकी साथियों की आज रात की प्लानिंग थी। लेरहा सुनने लगा। सुन-सुन कर सनसनाता रहा। सोचता रहा, इस प्लान में शामिल हो कि नहीं! शामिल होने पर माई को बताना पड़ेगा।
अगहन चढ़ गया था। धनकटनी हो रही थी। झुनिया धान काट रही थी। मजूरी में धान मिल रहा था। एक पसेरी धान सुखाकर चावल कुटा लाई थी। खुद्दी (टूट चावल) से आटा पिसवा लिया था। जितना धान-चावल इकट्ठा कर ले, उतना बढ़िया। छह महीना तो चल जाए कम से कम। लेकिन खाली भात ही तो नहीं चाहिए न! बाद में तो उसी चावल को अधिया पर बिछाकर दाल-तेल सब खरीदना पड़ता है। तब भात की अवधि छह महीने से घटकर तीन-चार महीने में सिमट जाती है।
लेरहा के लूटे पैसे बीच-बीच में राहत का काम कर जाते। तेल-मसाला, तरकारी और कभी-कभी मछली। लेरहा को सरसो के मसाले में पकाई गई रोहू मछली और उसना चावल का भात बहुत पसंद है। उस दिन उसका जैसे पेट ही नही भरता। उस दिन झुनिया ज़्यादा चावल पकाती। कभी कभी लेरहा ढेबरा में से एकाध मछली पकड़ लाता। वह उसको आग में पकाकर उसका चोखा बना देती।
बाजार से वह चना दाल ले आई और भिगो दिया। सोए लेरहा को उठा कर मांड़ भात खिलाते हुए सूचना दी –‘सांझ में खाना बगिया।‘ लेरहा मुस्‍काया और मुंह धोए बगैर बाहर भाग गया।
शाम चार बजे ही झुनिया ने चने की दाल के साथ लहसुन-मिर्च सिल पर पीस लिया। फिर उसमें नमक और हल्‍दी मिलाया। कड़ाही चढ़ाकर तीन कटोरी पानी उबलने के लिए डाला। पानी उबला तो उसी कटोरी से तीन कटोरी चावल का आटा उबलते पानी में डाल उसे चांड़ने यानी पकाने लगी। पल भर में आटा सारा पानी सोख गया। आटा फैलकर भर कड़ाही हो गया। झुनिया ने उसे कठौती में खाली किया और ठंडे पानी का छींटा दे-देकर गूंथने लगी। हाथ तो जलते हैं, लेकिन यह ज़रूरी है। ठंढा करके गूंथने से आटे में गांठ पड़ जाती है।
इस बीच उसने तसले में पानी उबलने के लिए चढ़ा दिया। आटा गूंधने के बाद उसने उसकी छोटी-छोटी लोई काटी। लोई की छोटी-छोटी पूरी हाथ से ही थपक ली। पूरी पर पिसी हुई दाल फैलाई और बीच से मोड़ कर मुंह बंद कर दिया- सफेद-सफेद आधे चांद सा पिरकिया! तसले में उबलते पानी में बगिया बना-बनाकर डालती गई। भाप से पका बगिया ज़्यादा अच्‍छा होता है, मगर आज उसने उसे पानी में उबाल दिया। लहसुन-मिर्च की चटनी पीसी और लाल मिर्च का अचार! उसके अपने ही मुंह में पानी आ गया। लेकिन कैसे पहले खुद ही खा ले। जिसके लिए बनाया है, पहले वो तो मुंह जुठिया ले। लेकिन उसके भी पहले, चार बगिया गोबरा माय को दे आई। आखिर उसी ने उसके लेरहा को खरीदा है न! एक टुकड़ा चखने को हुई, मगर छोड़ दिया –‘पहले मेरा भरत खा ले।‘
झुनिया का भरत शाम में अपने हम उमर छोकरों के साथ खेल रहा था। गोबरा बोला –‘आज तो बड़का भारी बरियाती है। पता है, फिलिम का हीरो है।‘
‘तुमको कइसे पता कि ऊ फिलिम का हीरो है।‘
‘सुंदर लोग हीरो ही होते हैं। हीरो का बरियाती है। सुने हैं, खूब बढि़या-बढि़या खाना बना है।’
‘बढि़या खाना है तो क्या तुमको बुलाकर प्‍लेट पकड़ाएगा?’
‘अरे, बरियतिया सब जितना छोड़ेगा, दंतकट्टा नहीं, सा‍बुत, उतने में अपना लोग चार दिन खाएंगे।’
‘छि:! जुट्ठा! ...हम अपना घरे खाएंगे। माई बगिया बनाई है।’
‘रे! माई तो फिरो बना देगी। हीरो का बियाह फिर थोड़े यहां होगा! सुने हैं कि औरत और लड़की सब भी आई है। बरियाती में ऊ लोग भी नाचेगी। आज तो बरियाती भी खूब सान से निकलेगा। खूब पइसा लुटाएगा। चल!’
गोबरा और उसकी हमउम्र के बच्चे अपनी प्लानिंग के मुताबिक जनवासा पहुंच गए थे।  घराती इन्‍हें डांट-भगा रहे थे। पर, ये सब दूल्‍हे को देखने के लिए हुलुक रहे थे- किसके जैसा होगा? सलमान खान? शाहरुख खान? शाहिद कपूर?
दूल्‍हा तो नहीं, दूल्‍हे की शेरवानी की एक झलक दिखी। वे लोग और ज्यादा हुलकने लगे- कपड़ा एतना बढ़िया है, तो दुलहा तो सहिए में हीरो होगा!
लेरहा कई बार पूछ चुका था झुनिया से- ‘माई गे! हम भी बरियाती में बत्‍तीवाला हंडा उठाएं? गोबरा, मुंगरा सब उठाता है। बीस-बीस रुपइया मिलता है।’
‘न...ई...!’ झुनिया चिल्‍ला पड़ी। उसको बत्‍ती से बहुत डर लगता है- बरियाती में आगे-आगे जानेवाला बत्‍तीवाला हंडा जेनेरेटर से चलता है- यह मालूम होने के बाद भी। लेरहा के बाप ने ही बताया था। वह बरियाती में हंडा उठाता था। बिजली-बत्ती का कारोबार भी थोड़ा-बहुत जानता था। ऐसे ही किसी के बियाह में लेरहा का बाप फ्यूज ठीक कर रहा था कि कुछ और। मेघ-बुन्नी का दिन था। लेरहा के बाप की देह से बिजली का कोई एक तार सट गया और खून सोखकर ही उसकी देह को छोड़ा। लोग लाख लकड़ी से मारते रहे, बाकिर...! तब से झुनिया को बत्‍ती से बहुत डर लगता है।
लेरहा मन मसोस के रह जाता। एकाध बार सोचा, उठा लेते हैं। माई बरियात देखने थोड़े ना आएगी। लेकिन डर लगा- ‘छौंड़ा सब ही चुगली लगा आएगा। शादी में उसकी आमदनी का एक ही जरिया है- बारातियों द्वारा लुटाए गए पैसे लूटना।
हीरो की बारात निकली- धूमधाम से। उनलोगों की चक-मक देखकर लेरहा और उसके झुंड के सभी बच्चों को लगा कि सही में, पैसेवालों की धज ही अलग होती है। नए-नए फैशन के कपड़े, गहने हेयर स्‍टाइल। बारात के संग आई औरतें- लड़कियां बैंड की धुन पर जी खोल नाच रही थी। वे सभी हीरोइने लग रही थी। दूल्हे के साथी भी हीरो से कम नहीं लग रहे थे।
बैंड बजना शुरू हुआ। बारात निकल पड़ी। लेरहा और उसके साथी बारात से एक दूरी बनाकर चल रहे थे। उनकी आँखें नोट की गड्डीवाले हाथों को खोज रही थी। मय्यत में न रेजगारी! बियाह में तो नोट! इनलोगों को अंदाजा हो गया था, दूल्‍हे को औंछकर नोट उड़ाएगा तो नोट कहां तक जाकर उड़ेगा, रूकेगा।
एक सजे-धजे, मस्‍त, सुन्‍दर, भरी सी डील-डौलवाले एक सज्‍जन ने अपने सूट से करारे नोटों की गड्डी निकाली! गुलाबी रंग! लंबे नोट! अरे बाप रे! ई तो बीस टकिया है रे! एको गो मिल गया तो बूझो... मारे खुशी के लेरहा और उसके साथी आगे की सोच ही नहीं सके। सभी की सांसें अटक गई- बीस रुपए के गुलाबी नोट! किसी ने उन सज्जन को पुकारा- ‘मामा जी!’ लेरहा और साथी रिश्‍ता समझ गए। मामा हैं न, इसलिए जी खोल कर पैसा लुटाएगा।
मामाजी ने गड्डी में से लगभग एक चौथाई नोट निकाला, दूल्‍हे पर औंछा और एक साथ हवा में उछाल दिया। नए, करारे नोट अपनी चिकनाई में ताश के नए पत्‍तों की तरह एक-एक कर अलग-अलग होकर उड़े और फिर जमीन पर गिरने लगे। बैंड बज रहा था। बैंड मास्‍टर भौंड़ी आवाज में गा रहा था –
‘तूने मारी एंट्री यार, दिल में बजी घंटी यार,
टुन, टुन.... टूनानन, टुन-टुन!
अनेकानेक घंटियां लेरहा और उसके साथियों के दिलों में भी बजी। नोट नीचे गिरे, इसके पहले ही सब उसे लपकने को उछले।
बारात देखने के लिए पूरा कस्‍बा उमड़ा पड़ा था। शोहदे बारात की लड़कियों को छूना चाह रहे थे। इसलिए बरात के साथ घराती और कुछ बाराती उनके लिए सुरक्षा घेरा बनाकर चल रहे थे। हर दालान से बूढ़े और बाकी मर्द सड़क पर आ गए थे। बहुएं दालान या दरवाजे के पीछे से झांक रही थीं। बेटियां सामने थी। बूढि़या बैठी थीं। बैंड का संगीत, गीत, रोशनी और बारात के चारो ओर लगी स्थानीयों की भीड़ अजीब अफरातफरी पैदा कर रही थी।
नोट इसी के बीच उड़े। लेरहा ने दोनों हाथों में नोटों को पकड़ा। चार-पांच नोट उसके हाथ में आ गए। आज तो! उसका दिल बल्लियों उछलने लगा। माई भी खुश हो जाएगी। इस बार उसकी शर्ट-पैंट पक्की। माई से बोलकर अबकी वह जींस लेगा और एक कैप भी। वह नोटों को संभाल ही रहा था कि एक मुट्ठी नोट फिर से हवा में लहराया। लेरहा ने बमुश्किल हाथ के नोट को पैंट की जेब में डाला और जोर से हवा में उछलते नोट को पकड़ने के लिए पूरे दम से उछला- पैसा आ रहा है ना। एक जोड़ी जुत्ता भी।
उछाले गए नोट हवा में इधर-उधर बिखर गए। लेरहा अपनी ही उछाल को संभाल न सका और बगल के बिजली के खंभे से जा टकराया। खंभे ने उसे गेंद की तरह बाउंस किया और वह वापस धरती पर आ गिरा। जमीन पर वह जहां गिरा, वहां चट्टाननुमा एक पत्‍थर पड़ा था । उसका माथा उस पत्थर पर पड़ा। ज़ोरदार चीख और धमाके की आवाज साथ-साथ आई। हाथ में आए नोट इधर-उधर बिखर गए।
लेरहा की चींख बैंड की धुन से भारी निकली और खून के छींटे सुरक्षा घेरा तोड़ कर लड़कियों तक जा पहुंचे। लड़कियों की भयंकर चीख भी इसमें शामिल हो गई। लड़कियों को संभालते और बाकी बच्चों को थपियाते, गरियाते घराती सभी बारातियों और दूल्हे को लिए-दिए आगे निकल गए। बारात के एकदम आगे बैड बज रहा था। बैंड मास्टर गा रहा था-
‘बलम पिचकारी, जो तूने मुझे मारी
तो सीधी-साधी छोरी शराबी हो गई।‘
मामा जी ने गड्डी से बचे हुए नोट निकाल लिए थे और हवा में लहराने के लिए हाथ भांज रहे थे। बाकी बच्चे उसे लूटने के लिए मामा जी के हाथ का निशाना साध रहे थे।
लेरहा खून के तालाब में डूबा हुआ था। गोबरा भागकर झुनिया को खबरकर फिर से बाराती के पीछे भाग गया- आज तो बिसटकिया है! छोड़ा नहीं जा सकता।
आज झुनिया को लेरहा की पिलानिंग की कोई खबर नहीं थी। वह खुश थी कि आज उसने बिना परेशानी के जल्दी ही लेरहा की बगिया खाने की साध पूरी कर दी थी, वरना उसकी एक छोटी सी फरमाईश पूरी करने में भी उसे दिनों लग जाते। ललाइन से बार-बार पैसे मांगते उसे शरम आती। बीच बीच मे मांगने से पगार के एकमुश्त पैसे भी निकल जाते। लेरहा को न आते देख वह गुस्से से लाल हो रही थी। उसे खुद भी बगिया बहुत पसंद था। कई बार उसका हाथ उसकी ओर बढ़ा था- एक खा ही ले। लेकिन, वह चाहती थी कि पहले लेरहा खाए। उसे देर होते देख बगिए को बार-बार देखती झुनिया ने तय किया कि आज वह उसको खाना भी नहीं देगी और सटकी से मारेगी भी। मन ही मन वह उसको गरियाए भी जा रही थी कि गोबरा की खबर से चिहुँक पड़ी और भागी बरियाती की ओर।  
गांव-कस्‍बे की बारात देर से लगती है, देर से शादी होती है। रोशनी के हंडे बारात के आगे चलते चले जाते हैं। अंधि‍यारा बारात के पीछे रह जाता है। फिर भी इतनी रोशनी तो थी ही कि नोट की शकल दिख जाए।
लेरहा की पैंट से लूटे हुए नोट झांक रहे थे। किसी ने लेरहा की पैंट से नोट निकाला और नोट को देखते ही पिच्च से थूका और गंदी गालियों से बारात को भिगोने लगा- ‘साला, मादर...! कौन बोला था नोट लुटाने को रे हरामी का जना! देखो हो भाई लोग ई बड़का-बड़का लोग के बरियाती का करिस्‍तानी। बहुत देखा रहे थे कि बीसटकिया लुटा रहे हैं।’
 लूटे गए सभी नए नोट पर महात्‍मा गांधी की तस्‍वीर की जगह ‘बाल-वीर’ सीरियलवाले हनुमान की तस्‍वीर चिपकी हुई थी। सभी का गुस्‍सा बारात के छोड़े गए रॉकेट से भी ऊपर पहुंचा- ‘नकली नोट लुटा रहे थे, साले, हरामखोर!
 झुनिया ने नोटों को नहीं देखा। वह खून में डूबे लेरहा का मुंह भर देख रही थी। उसकी आँखों के सामने दिन में लूटे गए झुम्मन साहू की माई की मय्यत से लूटे गए पैसे याद आए और उन पैसों से बनी बगिया। बगिया ठंढी हो गई थी। लेरहा को मारने के लिए राखी हुई सटकी किसी कोने में बिसूर रही थी। झुनिया ने दिन की तरह ही लेरहा का माथा अपनी गोद में भरा और बैंड-पटाखे से भी ऊंची आवाज में डकरी- ‘भरतपुर लुट गयो रात मोरी अम्‍मा!’
रात धीरे-धीरे भीग रही थी। गुलाबबाई सभी की जबान पर बस गई थी। नोट के ‘बाल-वीर’ हनुमान कह रहे थे- ‘भूत-पिसाच निकट नहीं आवै, महावीर जब नाम सुनावै।‘ महावीर अदृश्य भूत-पिशाच को निकट नहीं आने दे सकते हैं, मगर हनुमान जी भी नहीं समझ पा रहे थे कि धरती पर के इन जीवित पिशाचों से कैसे और किसको बचाएं!’ #####