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Saturday, December 29, 2007

एकालाप 'life is not a dream"


छाम्माक्छाल्लो काफी दिन बाद आपसे मुखातिब हो रही है। इस बीच वह अवितोको द्वारा प्रस्तुत अपने एकपात्रीय नाटक 'life is not a dream" मे लगी रही। फिनलैंड के बाद मुंबई में यह उसका पहला शो था, पिछले हफ्ते। आज फिर से इसका शो है। ५० मिनट के इस एकालाप का मुख्य स्वर एक स्त्री के अस्तित्त्व को एक व्यक्ति के रुप में पहचाने जाने की तलाश है। समष्टि से व्यष्टि और व्यष्टि से समष्टि की ऑर जाने की कथा है यह। नाटक भारतीय समाज मेंरह रही स्त्री की मनोदशा, उसकी दबी, दबा कर रख दी गई कामनाओं के पंख फैलाकर आकाश की अनंत ऊंचाई को छूने की लालसा की कहानी कहता है। यह अपने समाज की हर उस स्त्री की कहानी है, जो सिर्फ मैं, बहन, बीबी, बेटी की भूमिकाओं में कैद करके रख दी जाती है। उसकी अपनी भी इच्छाएँ, महत्वाकांक्षाएं हैं, हो सकती हैं, इस पर कोई नहीं सोचता। वह सबके लिए है, मगर खुद ही खुद के लिए नहीं।
इस नाटक की खासियत यह रही कि इससे सभी ने अपने आपको रिलेट कर लिया। सभी को लगा, जैसे यह उसी की कहानी है। छाम्माकछाल्लो इसे अपनी उपलब्धि मानती है। दिल्ली से सुशांत झा की टिप्पणी महत्वपूर्ण है, जो नीचे दी जा रही है- 'life is not a dream"-Really this topic is not catching the attention of people, they still think about man when age old people are discussed...we dont have any agenda about the women who are age-old and alone also ॥living in the far-off places...abandoned by migrant children।The photograph is quite representative॥and worth its message।
तस्वीर यहाँ भी दी जा रही है। छाम्माकछाल्लो इसे हर जगह प्रस्तुत करना चाह रही है। अपने किसी भी बंधु का सहयोग पाकर इसे अपार ख़ुशी होगी। अवितोको इससे पहले एक और एकपात्रीय नाटक प्रस्तुत कर चुका है, "अए प्रिये तेरे लिए'। अभी वह दो अन्य नाटकों पर काम कर रहा है, जिसके बारे में छाम्माकछाल्लो बाद में जानकारी देगी।

Thursday, December 13, 2007

उधार की कहानी पर नकदी दुकान

हिन्दी में उधारी का धंधा खूब चलता है। नाटक में कुछ ज्यादा ही। हर कोई कहता मिल जाएगा कि हिन्दी में मौलिक नाटक हैं ही नहीं। जो हैं, उनपर काम नहीं किया जा सकता। नतीजा, नाटककार दूसरी भाषाओं के नाटक से अपना काम चलाते हैं। अब इसमें हिन्दी की आत्मा, उसकी सोंध की कल्पना सहारे में फव्वारे की कल्पना है।
जान गे के 'द बेगर्स ऑपेरा, बर्तोल्ट ब्रेख्त के 'द थ्री पेनी ऑपेरा' व वैक्लाव हवेल के बेगर्स ऑपेरा- इन तीन नाटकों से प्रेरित नाटक है- मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी, जिसे पृथ्वी नाट्य महोत्सव में शुरू किया गया। पृथ्वी नाट्य महोत्सव की थीम इसबार संगीतमय नाटक की प्रस्तुति थी। ज़ाहिर है कि यह नाटक भी संगीतमय है। कथा समय १९६४ का है। एक गैंगस्टर का भिखारियों का अड्डा चलानेवाले की लड़की से प्रेम हो जाना और अपने बुढापे की लाठी के छिनने के भय से उसे मार देने की कहानी है यह नाटक। कौशिकभाई कडाकिया की बेटी कोकिला से प्रेम करके फिर उससे शादी कर लेता है, मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी। कोकिला का पिता इसे सह नहीं पाता है। रसुखवाला है, राजनीतिक पार्टियों को चंदे देने का काम करता है। उसकी एक ही ख्वाहिश है कि बेटी उसके पास आ जाये और मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी मारा जाये। इसके लिए वह पुलिस तंत्र का सहारा लेता है और मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी के बाल-सखा और अबके पुलिस कमिशनर की सहायता से उसे मरवा देता है।
नाटक में कलाकारों के अच्छे अभिनय के बावजूद इसमें आत्मा का अभाव दीखता है। न का तेरह हो गया है यह. मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी गुंडा तो है, मगर उसे देख कर लगता है की vah केवल auratbazi karane के लिए hii है। usakii बदमाशी को सिर्फ बोलकर बता दिया जाता है। कडाकिया दीखता है अपने भिखारी के अड्डे को चलाने के लिए काम करते हुए। मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी के जिस प्रेम की बात कही गई है, वह प्रेम नहीं, औरतों से उसकी लाग -लपेट भर ही है। नाटक का सिनाप्सिस यह बताने का प्रयास करता है कि यह नाटक आजादी के बाद लोगों के स्वप्न के टूटने -बिखरने की कथा है, मगर यह टूटन, यह बिखराव कहीं दीखता नहीं, हाँ, नाटक के बिखराव को ज़रूर दिखा जाता है।
संगीतमय नाटक है, इसलिए हर पात्र गाता है, मगर कथा का सूत्र पहले संवाद और फिर गायन में उसी को बताना समय के बोझ को बढाता है। लगभग सभी गाने फिल्मी तर्ज़ पर हें। कहीं -कहीं तो यह पैरोडी अच्छी लगती है, मगर बाद में ऊब होने लगती है। सुर की प्रधानता है, तब मौलिक सुर-ताल आवश्यक है। फिल्मी गीत की प्रधानता तो इस कदर है कि १९६४ के पीरियड में १९६६ की रिलीज़ फिल्म 'मेरा साया' का गीत गाया जाता है।
सेट सादा, मगर आकर्षक है। गेयता में लाइव संगीत है, पार्श्व संगीत रेकर्देड है। यह भी लाइव रहता तो ज़्यादा जानदार बनता। सभी कलाकार अच्छे थे अपने -अपने काम में। लेकिन सबसे अधिक निराश किया किशोर कदम ने। पुलिस कमिश्नर के रुप में इस नाटक में उनके पास कुछ करने को था ही नहीं, इसलिए बिचारे कुछ कर ही नहीं पाए। उनके चहरे पर सदा एक उलझन बनी रही, जो शायद अपने चरित्र को जस्टिफाई न किए जाने के कारण रही हो। किशोर बेहद अच्छे व समझदार कलाकार हैं, फिर भी। मस्ताना रामपुरी उर्फ़ छप्पन छुरी के रुप में नावेद असलम ने अच्छा काम किया है, मगर गाने का अभ्यास उन्हें करना होगा। चेतन दातार और सुनील शान्बाग जैसे समर्थ थिएतार्दान से उम्मीद की जा सकती है की वे दूसरी भाषा के बदले अपनी भाषा के नाटकों के साथ काम करें। फिल्म हो या नाटक, छाम्माक्छाल्लो का मानना है की प्रस्तुति तभी दमदार होती है, जब उसकी स्क्रिप्ट अच्छी होती है। तीन तीन रचनाओं का घालमेल भी उलझन पैदा करने के लिए काफी है। नाटक का अंत आज के परिवेश में लाने का कोई तुक नही। वंचितों को तब भी न्याय नहीं मिलता था। इसीलिए तो लोगों का आजादी से मोह भंग हुआ था। लेकिन लगता है कि जैसे आजकल बिना मोबाइल के जीने की कल्पना नहीं की जा सकती, इसीलिए इसमें आधुनिकता का पुट भरना पर और शेयर, अपना बैंक और उसके माध्यम से लोगों को लूटने की बात कहे बिना शायद नाटक अधूरा लगा। और हां, कोकिला और नए दौर की बातें सांकेतिक रुप से कुछ और भी कह जाती हैं. लेकिन, जैसा कि छाम्मकछाल्लो कहती है , इन सब अनुभव के लिए नाटक देखना ज़रूरी है। हो सकता है, आपका अनुभव कुछ दूसरा हो।

Monday, December 10, 2007

सोच का जलवा

छाम्मक्छाल्लो आजकल जिस थिएटर ग्रुप में है, वहाँ एक लड़का है, जो शादी करना चाहता है। छाम्माक्छाल्लो ने उससे शादी की अपनी शर्तें आदि पूछीं। उसकी नज़र में एक लड़की का तसव्वर आया था, मगर लडके की बात सुनकर वह पीछे हट गई। लडके ने कहा कि उसे हाउस वाइफ चाहिए। यहाँ तक तो फिर भी ठीक था, मगर उसके आगे जो उसने कहा, उससे छाम्माक्छाल्लो दहल गई। उसने कहा कि भले ही उसे भूखी रहना पड़े, एक रोटी खानी पड़े, वह काम नहीं करेगी।
छाम्माक्छाल्लो ने अपने जीवन में बडे संघर्ष देखे हैं . आज वह अपने जीवन में अपनी माँ का योगदान इस रूप में देखती है कि अगर उसकी माँ पढी- लिखी नहीं होती, काम नहीं कर रही होती, तो आज छाम्माक्छाल्लो भी यहाँ नहीं होती। लडके ने कहा कि इस मामले में उसका अनुभव अच्छा नहीं है। हो सकता है। मगर, अच्छे-बुरे लोग हर समय में होते हैं। कंस दुष्ट था, तो क्या दुनिया के सारे मामा दुष्ट हो जाएंगे और अपनी बहनों की संतान की जान के पीछे पड़ जायेंगे?
आज क्या, यह हर समय का तकाजा है कि महिलाएं स्वावलम्बी बनें, आर्थिक रूप से आत्म निर्भर बनें, ताकि किसी भी आपातकाल के समय वह अपने बाल बच्चों का साया बनकर खडी हो सके। स्वावलम्बी बनने से उनमें अपना भी एक आत्म विश्वास बढ़ता है, जिसका असर उनकी आनेवाली पीढी पर पड़ता है।
लड़का थिएटर में है। छाम्मक्छाल्लो थिएटर को जीवन की सबसे बड़ी पाठशाला मानती है। मगर इस सोच के साथ औए ऎसी सोच के साथ कला के क्षेत्र में काम करनेवालों के मन में स्त्रियों के प्रति क्या भाव आते होंगे, यह सोच कर छाम्मक्छाल्लो फिर से सोच में पड़ जाती है। इस पूरे हिन्दुस्तान में एक अच्छी खासी आबादी इस बात पर टिकी होती हैं कि स्त्रियों के बाहर जाकर काम करने से वे बिगड़ जाती हैं, उनका चरित्र गिर जाता है। छाम्मक्छाल्लो सोचती है कि बाहर काम करने जानेवाली महिलायें अनायास ही इस सोच की शिकार हो कर अनजाने में ही चरित्रहीन कहलाने को अभिशप्त हैं।

Sunday, December 9, 2007

आजा बच ले!

हाल में आई माधुरी दीक्षित की फिल्म 'आजा नाच ले' के एक गीत के कारण उत्तर प्रदेश में इसे कोप का शिकार होना पडा। फिल्मकार ने इस पर बहस करने के बदले माफी माँग लेना ज़्यादा ठीक समझा। देश के बुद्धिजीवियों ने भी इस पर कुछ कहना उचित नही समझा।
तस्लीमा नसरीन का मामला भी गर्म ही है। सभी बुद्धिजीवी, महिला संगठन आदि इस पर बहस कर रहे हैं कि उन्हें शरण दी जाए या नहीं। तस्लीमा आधुनिकता का प्रतीक बन गई हैं, बोल्ड लेखन की आइकन मानी जा रही हैं। लेकिन उन्होंने भी अखबारों में छपी खबर के मुताबिक किताब से आपत्तिजनक पृष्ठ निकाल दिए हैं।
कबीर, शुक्र है कि इस काल में पैदा नही हुए। हुए होते तो ककर -पाथर जोडि के' या 'पाहन पूजे हरी मिले'' आदि पर उनके नाम से भी फतवा जारी कर दिया जाता। वे तो अमीर भी नहीं थे और ना ही प्रभुत्वशाली ही। उनकी तो राह चलते ठुकाई हो जाती, या पाश, चन्द्रशेखर की तरह हत्या कर दी जाती।
ज़माना डर का है। डरते रहिये। पत्रकारिता का क्षेत्र हो या लेखन या फिल्म का, खतरा कोई मोल नहीं लेना चाहता। वरना, किसी एक के कहने पर जाती, धर्म इतना आगे हो जाता है कि उसके आगे सदियों से चली आ रही कहावतें, लोकोक्तियाँ, सब बदल दिए जा सकते हैं। छाम्माक्छाल्लो को याद है कि बचपन में अपने स्कूल में वे सब एक गीत गाते थे-
गप्प सुनो भाई गप्प, अरे गप्पी मेरा नाम, गए, चढ़े खजूर पर और खाने लगे अनार। चींटी मरी पहाड़ पर, खींचन लागे चमार।' इस गीत का उपयोग छाम्मक्छाल्लो ने बच्चों के लिए लिखे अपने नाटक में किया है। इसे सुनते ही हमारे एक शुभ चिन्तक ने कह दिया, यह शब्द हटा दीजिए, वरना॥ उनके वरना में छुपे डर को मैं समझ गई हूं। अब कलाल को कलाल न कहे, शूद्र को शूद्र न कहे, लेकिन जब सरकारी आरक्षण व फायदे की बात आती है, तब जाति प्रमाण पत्र पर जाति का नाम देते हुए कोई झिझक नहीं लगती किसी को भी। अब इसे आप क्या कहेंगे?

Saturday, December 8, 2007

नाटक 'chhaliyaa' का छलावा

नाटक छलिया का आमंत्रण बहुत दिनों से था। सो कल छाम्मकछाल्लो कल इसे देखने गई। दा शंकर शेष लिखित इस नाटक का निर्देशन शांतनु छापरिया ने किया है। शांतनु अनुभवी निर्देशक व कलाकार हैं, मगर इस मंच पर बेहद थके थके से लगे। अन्य कलाकार ने भी कोई खास रूचि जैसे नहीं दिखाई थी, सिर्फ नटवर जी के किरदार को छोड़कर। पूरे नाटक में वही एक ऐसे पात्र थे, जिनका आना दर्शकों को राहत देता था।
नाटक की कथा वस्तु से छाम्मकछाल्लो को अपने लिखे नाटक 'अये प्रिये तेरे लिए' याद आयी। पुरुष के छलावे का शिकार स्त्रियाँ होती आई हैं। वह छलिया यदि पति हो तो ऐसे दर्द की पीर बड़ी घनी हो जाती है। यह एक ऐसा दुःख होता है, जिसे स्त्री किसी को बता नहीं सकती, बस मन ही मन घुटती रहती है। 'छलिया' की नायिका विशाखा अंधी है, मगर बड़ी अच्छी उपन्यासकार है। कवि पति को अपने कवित्व पर विश्वास नहीं, इसलिए वह विशाखा का लेखक बन जाता है और उसकी लिखी रचने अपने नाम से छपाता है। बाद में उसके एक मित्र आनंद को इसका पता चलता है। वह विशाखा की आंखों का आपरेशन कराता है और उसकी आँखें ठीक हो जाती हैं। इस बीच पति यानी देव के संबंध अपनी टाइपिस्ट से हो जाते हैं, जिसके लिए वह फ्लैट तक खरीदता है।
नाटक में कई तरह की विषमताएं हैं। टाइपिस्ट उसके सारे काम करती है, उससे प्रेम भी करती है, विशाखा की तथाकथित सेवा करती है, मगर पूरे नाटक में एक बार भी वह टाइप करने नहीं बैठती। संवाद अब की हिन्दी के अनुसार न होने के कारण अब बोझल से लगते हैं। शंकर शेष ने जब इसे लिखा था, तब की भाषा और आज की भाषा में बड़ा फर्क है।
सबसे अजीब ही नाटक का अंत- भारतीय स्त्री का अखंड चरित्र की "भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है'। सारी बातें जानने के बाद और अब अपने अंधत्व से मुक्ति के बाद भी नायिका का इसी भाव से पति को स्वीकार करना आज किसी भी नारी को शायद ही सुहाए।
हिन्दी में आज के लेखक को पचास हजार की अग्रिम रायल्टी मिल जाती है, यह ऐसा सुन्दर स्वप्न है हिन्दी के लेखकों के लिए कि वह अगला कई जन्म 'मुझे चांद चाहिए' जैसे ख्वाब को देखते हुए गुजार सकता है। दूसरे, हिन्दी लेखन में साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार तो होते हैं, राष्ट्रीय पुरस्कार तो छाम्मकछाल्लो के हिसाब से फिल्मों को मिलता है।
सेट इतना भारी भरकम की बस। और प्राप्स का इस्तेमाल नहीं, जैसे टाइप राइटर का, बुक शेल्फ का। नाटक को प्रयोग के स्तर पर करने से दर्शकों की कल्पनाशीलता बढ़ती है। यह हमें नहीं भूलना होगा कि नाटक से केवल दर्शकों का मनोरंजन ही नहीं होता, नाटक और रंगमंच लोगों को शिक्षित करने का सशक्त माध्यम भी है। और सबसे बड़ी बात , इसकी अवधि। विषय और उसके कलेवर को डेढ़ घंटे में आसानी से समेता जा सकता था, मगर इसे मध्यांतर मिलाकर पूरे ढाई घंटे तक खींचना दर्शकों के धीरज की परीक्षा ही लेना था। ऐसा नहीं कि ढाई घंटे का नाटक होना नहीं चाहिए या होता नहीं, मगर उसके लिए कंटेंट चाहिए। खैर, नाटक देखना अपने आप में एक सीख होती है और सीखने के लिहाज़ से भी जब कभी मौका मिले, इसे देखने जरूर जाएँ।

Wednesday, December 5, 2007

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवा:। यानी जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहा देवता निवास करते हैं। मगर देवताओं के घरों, यानी मंदिरों में ही नारियों का कोई सम्मान नहीं। यह अनुभव पिछले कई सालों से खूब हो रहा है। कई साल पहले औरंगाबाद गई। पता चला, वहाँ लेटे हुए हनुमान की बहुत बड़ी मूर्ति स्थापित है। जब वहा गई, तब एक निश्चित सीमा के बाद स्त्रियों का प्रवेश वर्जित। इसके बाद शिरडी गई । वहां भी हनुमान का मंदिर है। वहाँ भी वही निषेध। अभी-अभी मुम्बई के दादर स्थित लक्ष्मी नारायण या स्वामीनारायण मंदिर गई। वहाँ भी यही हाल। ऐसे में यह कहना कहाँ तक सच रह जाता है कि जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहा देवता निवास करते हैं। हनुमान मंदिर में यह दलील दी जाती है कि वे ब्रह्मचारी हैं, इसलिए स्र्तियों का प्रवेश वर्जित है। छाम्मकछाल्लो का कहना है कि क्या स्त्रियाँ हनुमान मंदिर में उनसे इश्क लड़ाने जाती हैं, पूजा के बदले? क्या स्त्रियों के मन में हनुमान या किसी अन्य देवता को देख कर काम की भावना जागती है? आज क्या, सदियों से घर-घर में धर्म-कर्म की व्यावहारिक ठेकेदार स्त्रियाँ ही हैं। पूजा-पाठ से लेकर व्रत उपवास तक सभी जगह औरतें यह जिम्मेदारी बड़ी ख़ुशी से निभाती हैं। वह भी किसके लिए? अपने पति, बच्चों, घर के लिए। कभी किसी स्त्री ने कहा है कि वह अपने लिए पूजा करती है कि केवल वह सुखी रहे, घर के अन्य लोग भाड़ में जाएँ। अगर ऐसा नहीं है तो मंदिरों में स्त्रियों को उस हद तक जाने की इजाज़त क्यों नहीं है, जिस सीमा तक पुरुष पूजा करने जाते हैं। छाम्माक्छाल्लो आजतक इस चाल को समझ नहीं पाई हैं। पुरुषों की रासलोलुपता का इलजाम स्त्रियों पर क्यों? आपके जवाब से छाम्माक्छाल्लो को शायद कुछ रास्ता मिले।

Wednesday, November 7, 2007

दीवाली और दिलवाली

दिवाली औए दिवाला की बात तो हमेशा हर कोई कहता सुनता रहता है। कभी दिवाली और दिलवाली की भी बात सोचिए। दिवाली है कितनी दिलवाली की बस! रोशनी का अम्बार, फुल्झादियों की बौछार, अनार के फूटते दाने, चाकरी की रोशनदार छम-छम! आह! इन सबको महसूस करने और इन सबको जीने के लिए दिल तो चाहिए ही न ! की नहीं?
छ्म्माक्छाल्लो कहिस की दीवाली पर इतनी तरह की मिठाई बनाती है, घर की साफ-सफाई होती है, नए बर्तन खरीदे जाते हैं धनतेरस के दिन, आज धनतेरस है। कल नरक निवारण चतुर्दशी है। कहा जाता है की इस दिन घर के सारे कूदे करकट बाहर फेंक दिए जाने चाहिए। इसी रात को जम दियारी भी कहते हैं। यानी, दीवाली के दिन दिए जलने से पहले पहला दिया यमराज को अर्पित किया जाता है, ताकि वे प्रसन्न रहें और इधर का रुख न करें। लक्ष्मी के साथ-साथ गणेश की भी पूजा की जाती है ताकि रिद्धि-सिद्धि तो रहे ही, उनका विवेक, उनकी बुद्धि भी साथ रहे और लोग धन के मद में अनर्गल काम न करें।
छाम्माक्छाल्लो कहिस की काश ऐसा होता। घर का कूड़ा करकट तो हम वैसे भी बाहर फेंकने मी माहिर हैं। क्या कभी हम यह सोचते हैं की हमारी रात को रोशानादार बनाने के लिए छोटे छोटे बच्चे अपनी जान जोखम में डालकर पटाखे के कारखाने में काम करते हैं। यमराज की पूजा तो हम करते हैं, मगर घर या घर के प्यारे क्या हमारे अपने ही भाई बंधू हैं? दूसरे के घर के लोग भी तो उनके लिए उतने ही प्यारे और महत्वपूर्ण होते हैं। दिवाली की रोशन भारी शाम में हम क्या यह सोचेंगे की कम से कम हमसे ऎसी कोई भूल ना हो की उसका खामियाजा दूसरों को भुगतना पड़े। छाम्माक्छाल्लो के दिमाग में एक बात हमेशा बजती रहती है की अगर आप किसी का भला नहीं कर सकते तो किसी का बुरा भी मत करो। उसके प्रति आपकी यही सबसे बड़ी भलाई हो जाएगी।
छाम्मकछाल्लो अपनी इस बात पर अमल करने की कोशिश में लगी रहती है। दीवाली है, वह महिलाओं के एक वृद्धाश्रम में जाएगी, घरों से अपने ही प्रियजनों द्वारा दूर कर दिए गए, अपने ही घर से बेदखल कर दिए गए लोगों से मिलेगी, उनके साथ कुछ समय बिताएगी, ताकि उनके भी जीवन में मुस्कान के कुछ पल आएं। वैसे भी वे सभी छाम्माक्छाल्लो को देखकर बहुत खुश होती हैं। तो दीवाली इन्हीं दिलावालियों के साथ क्यों न मनाई जाए। अगर आप भी ऐसी दिलवाली दीवाली मना रहे हों तो छाम्माक्छाल्लो को ज़रूर बताएं। आपको एक और दिलवाली मिल जाएगी।
चलते - चलते आप सबको छाम्मकछाल्लो की और से दीवाली की हार्दिक शुभकामनाएं।

Tuesday, October 30, 2007

करवा चौथ या मीडिया का खिलवाड़


छुटपन में एक कहानी पढी थी- करवाचौथ शायद यशपाल की। हमे हरतालिका यानी तीज का तो पता है, क्योंकि बचपन से वही देखते आए थे माँ, बहन, भाभी आदि को करते। करवाचौथ पहली बार जाना और उसके बाद फिल्मों के माध्यम से। हिन्दी फिल्मो पर पंजाबियों का कब्ज़ा रहा है, इसलिए हिन्दी फिल्मो में भी गाँव की गोरी घाघरे में रहती है। पहले एकाध फिल्मों में करवाचौथ आता था। अब हर पारिवारिक फिल्म और सीरियल में यह आने लगा है, जैसे इसके बिना स्त्री का पतिवार्त्य धर्म छोटा हो जाएगा।
मीडिया इसको भुनाने मी भला पीछे क्यों रहे? कल यह व्रत था और जिस तरह से एक चैनल इसका आंखो देखा हाल बता रहा था, लग रहा था, जैसे सूर्य या चन्द्र ग्रहण की कोई गंभीर खगोलीय परिवर्तन की बात हो रही है। महिलाओं से बातचीत, पति के लिए पूछे जा रहे बेमतलब के सवाल। कोई पूछे उनसे की इस मौक़े पर क्या कोई पत्नी अपने पति के लिए ऎसी- वैसी बात बोलेगी? भारतीय स्त्रियाँ तो वैसे भी "भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है" में विश्वास रखती हैं। एक चैनल ने तो करवाचौथ पर एक शो ही रख डाला -गेम शो की तरह का और एंकर महोदय जनाधार करवा रहे हैं की पति द्वारा लाया गया उपहार यदि पत्नी को पसंद नहीं तो क्या उसे यह बात पति से कह देनी चाहिए या उसे उपहार स्वीकार कर लेना चाहिए? आपको क्या लगता है की जनाधार क्या रहेगा? अरे वही, जो आपके मन में है। अब छ्म्माक्छाल्लो बडे चक्कर में है। पतियों की हालत वैसे ही खराब है, जब से हीरेवालों ने हीरे की वकालत प्रेम के सबसे अनमोल उपहार के रुप में की है। बीबियाँ अब सोने के जेवर नहीं, हीरा मांगती हैं।
छ्म्म्क्छ्ल्लो यह भी कहती है की करवाचौथ एक भारतीय मानस के प्रेम, समर्पण का व्रत है, इसे हांक-हांक कर मीडिया उडाए लिए चला जा रहा है। लोगों को लग सकता है की इससे हमारी संस्कृति फल-फूल रही है।
एक चैनल ऐश्वर्या राय के पीछे पडा हुआ था की उनका यह पहला करवाचौथ है। अब उनकी शादी की ही तरह इस करवाचौथ के भी फुटेज तो मिले नहीं, तो लिहाजा उनके विदेश से देश आगमन, पति व ससुर द्वारा उनके स्वागत से लेकर उनकी फिल्मों के फुटेज ही दिखाते रहे।
छाम्माक्छ्ल्लो कहिस की देश में बहुत सी चीजों का बाजारीकरण होता रहा है। यह बाज़ार है और बाज़ार में हर चीज़ बिकती है। अब आप ही बताएं की आपकी भावनाओं का बाजारीकरण हो, आपको बाज़ार में बिकने के लिए खडा कर दिया जाए तो आपको कैसा लगेगा? करवाचौथ या इस तरह की भावनाएं बिकाऊ नहीं हो सकतीं। ताकतवर से आप लड़ नहीं सकते तो उसकी बातों से परहेज़ तो कीजिए। ज़रूरी नहीं की मीडिया के हर परोसे गए व्यंजन को हम चखें ही।

Friday, October 5, 2007

अवितोको की कला प्रदर्शनी फिनलैंड में




AVITOKO’a Art Exhibition in Finland

AVITOKO had exhibited the work of art prepared by ‘special’ group of people during the festival of COLOR OF INDIA, 2007. The work of art were made by people in various art workshops, conducted by AVITOKO time to time. The medium used in the work of art were poster colors, crayons and mix media, where bits of papers, bits of cloths were also utilized to form the art and design.

Appearance of these paintings in bright colors were diplayed in 4 sections of various people belong to ‘special’ group. The exhibitions became the centre of attraction of the festival.

Through its philosophy of RANG JEEVAN (Art & Theatre for Life), AVITOKO has successfully created a belief that talent is not the sole property of any individual. Right time with right opportunity and right perspective creates an enthusiasm among the people towards art, theatre, literature etc and provide an opportunity for expressing one’s creative spirirt and self. It also provide an opportunity to wipe out inhibitions of people too. Along with work of art, AVITOKO had displayed the greetings cards etc also prepared by ‘special’ group of people.’

Thursday, October 4, 2007

फिनलैंड में विभा रानी की एकल नाट्य प्रस्तुती





Monologue by Vibha Rani in ‘COLOR of इंडिया', Finland.

AVITOKO had participated in COLOR OF INDIA, 2007, a festival organized by ‘Aarambh’, a Finland based organization, through a monologue play "Life is not a Dream" by Mrs. Vibha Rani. Vibha Rani is - A writer & playwright of Maithili & Hindi, social activist, theater actor, believing in self & others and wishing a better world tomorrow. She is also the Founding Secreatry of AVITOKO and established Hindi & Maithili writer. Theatrical Presentation by children of Steiner School and exhibition of work of art by ‘special’ group of people were also presented during the festival and gained a great applaud from the audience.
theme of the monologue "Life is not a Dream" is an age old dilemma of an Indian woman, who has been considered as a home maker, service provider, care taker of the family, children and reliever from all the pains and grief of the family, but she has not been given a preference and freedom to lead her life in her own way and wishes। Failed to get her own identity in her own home, she finally leaves it।

Written and acted by Vibha Rani, the monologue "Life is not a Dream" has been directed by Mr। Harsha Prasad, a well known theatre actor and director.

Before this, Vibha Rani has acted in several plays, such as ‘Dularibai’, ‘Savdhaan Pururva’. ‘Poster’ ‘Boodhe Putron kii javaan maan’ ‘kasaibadaa’ etc. Her recent historical play is ‘Mr. jinnah’, Founder and the first Governer General of Pakistan), where she had performed the role of Fatima, sister of Mr Jinnah, who had lead a major role to form Pakistan.

AVITOKO is an Organisation, passionate towards a Better World Tomorrow, works with a varied class of society striving to turn their dreams into reality through Theatre, Art, Culture, Education, Training, Women & children welfare, publication.
With ‘Pehchaan’, AVITOKO strives to introduce 'special' children and prison inmates to their own inner strengths hidden within their dark existence.

Wednesday, October 3, 2007

नाट्य कार्यशाला के रंग- फिनलैंड के बच्चों के संग


And kids opened their wings like birds…

AVITOKO has conducted a 5 day theatre workshop for the kids of Stiener School, Espoo, Finland. This school itself works in a very innovative manner and believes teaching to kids in a non- conventional method, where children are allowed to learn any thing as per their choice.

In day 1, kids were given a lesson of forming the group by the games of clapping and making circle followed by other physical activities. These activities erased inhibitions and hesitations among kids and they became open. By nature, Finnish people are a little shy and so the kids too. Opening up excercises had removed their hesitation and they stated behavibg in more open manner. The last step was meditation. It affected their minds and soul so beautifully, that every day they kept asking, when we will go for meditation. Some other kids joined the group after lisning from their frinds that the activities of workshop are very interesting.

In day 3, inputes based on an Indian folk tale on ‘Self Help:Best Help’ was given along with the action related with the story, which kids picked up very fast. In spite of language barriers, they learnt every thing in a very professional way. It made AVITOKO’s belief stronger that theatre has its own language and spoken language becomes meaningless, while interacting in theatre language.

On day 4 & 5, they exercised on this quite well and polished it alon with other exercises based on voice, group, self, theatre techniques etc.

During all 5 days, Kids enjoyed this workshop in a manner that they were waiting eaerly to start this workshop and never wanted to leave the place.

फिनलैंड के बच्चों की नाट्य प्रस्तुती


Theatrical presentation by kids of finland

No language, only action, only emotions, only drama, only dramatic graphs! If there were a few words, such as ‘Aaitii’ (mother), ‘Rotta’ (rat) and that also in Finnish. And result was in the form of a good, effective and communicative presentation by the school children of Finland. They were between the age group of 4-12 years. The presentation was made on September 30, 2007, during the festival of ‘COLOR OF INDIA’ an annual celebration by Aarambh, a Finland based non-profit organization. Before that, the same was presented on September 29, 2007 before a good gathering of enthusiastic parents as well as the teachers of the school.

Since the children don’t know English, it was quite challenging to get into them into any theatrical presentation. But accepting new challenges are always a big challenge for AVITOKO, wchich was handled successfully.

Based on the story of an Indian folk tale, the kids were given physical actions, body language, mind space to think, organize, reorganize the content through the physical excercises and meditation. It was not in a syllabus form, but in the form of learning with fun. With the movements of their body and expressions, they expressed the theme in a quite well manner.
‘It is necessary to put their mind, heart and soul with the rythm of their body, but should not be a task for children, otherwise they will loose their interest.’ Says, Vibha Rani, Honorary and Founder Secretary of AVITOKO, under whose guidance, the kids presented their shows.

Tuesday, October 2, 2007

AVITOKO’s theatrical initiation in Finland AVITOKO’s theatrical initiation in Finland



THEATRE workshop with the kids of Finland।

After conducting several numbes of theatre and art workshos for varied class of kids in various parts of India, AVITOKO is reaching now to Finland, an Scandenavian country to conduct a theatre workshop for its children from September 24-28, 2007.
Through its philosophy of RANG JEEVAN (Art & Theatre for Life), AVITOKO believes that theatre, art, literature, culture are strong opportunities for expressing one’s creative spirirt and self expression and at the same time, vanishes inhibitions of people too. At the same time, AVITOKO needs to emphasises its concept of ‘Learning through Fun’
In its 5 days, theatre workshop, the kids will be given an opportunity to learn voice modulation, behavioralpatterns for group and self, different theatrical lessions, physical activities, different games, yoga as well as meditation। The workshop will be conducted by Vibha Rani, Honorary Secretary of AVITOKO.
And kids opened their wings like birds… अवितोको' की 5 day theatre workshop for the kids of Stiener School, Espoo, Finland. This school itself works in a very innovative manner and believes teaching to kids in a non- conventional method, where children are allowed to learn any thing as per their choice.
In day 1, kids were given a lesson of forming the group by the games of clapping and making circle followed by other physical activities. These activities erased inhibitions and hesitations among kids and they became open. By nature, Finnish people are a little shy and so the kids too. Opening up excercises had removed their hesitation and they stated behavibg in more open manner. The last step was meditation. It affected their minds and soul so beautifully, that every day they kept asking, when we will go for meditation. Some other kids joined the group after lisning from their frinds that the activities of workshop are very interesting.
In day 3, inputes based on an Indian folk tale on ‘Self Help:Best Help’ was given along with the action related with the story, which kids picked up very fast. In spite of language barriers, they learnt every thing in a very professional way. It made AVITOKO’s belief stronger that theatre has its own language and spoken language becomes meaningless, while interacting in theatre language.
On day 4 & 5, they exercised on this quite well and polished it alon with other exercises based on voice, group, self, theatre techniques etc.
During all 5 days, Kids enjoyed this workshop in a manner that they were waiting eaerly to start this workshop and never wanted to leave the place.

अवितोको की पेंटिंग कार्यशाला फिनलैंड मे


Painting with foot in Art Workshop for kids of Steiner School, Espoo, Finland.


With the philosophy of ‘RANG JEEVAN’ (Art & Thatre for Life), AVITOKO had conducted a 1 day art workshop for the kids of Stiener School, Espoo, Finland. Two methods were applied and found extremly innovative and exploring.

In method 1, no hands were used while painting. Kids were given a total enjoying, colorful HOLI (a festival of India, where people play with colors) mood to enjoy this workshop with the concept of AVITOKO’s ‘Learning with Fun.’

In this method, shoes, socks of kids were taken out. Drawing sheets were spread over on the floor. Different water colors were dissolved in different trays and kids were asked to pour their feet in these colors and jump on the sheets. While jumping and dancing, different shapes were printed out on the sheets. With the result, multi colored, multi shape impressions were appeared on the sheets, leaving very innovative, very enjoying impressions.
In method 2, kids were given some woolen thread to dip in different colors and throw them in a way of ‘as it is, where it is.’ Different colors’ threads with the sprinkle of colors again gave a multi colors reflection of their work. Needless to say, how much they enjoyed in the workshop.

Wednesday, September 26, 2007

फिन्लंद यात्रा

छाम्मक्छाल्लो आजकल फिन्लंद मे है। यह उसका सपना था कि वह बाहर घूमे, फायर, लोगो से मिले जुले। एक संयोग बना। ने कहा कि यहं छः महीने दिन और छः महीने रात होती है। मेरे मेजबान राजीव आचार्य ने बताया कि सर्दियों मे यहं २२ घंटे अँधेरा होता है। अँधेरा मतलब रात। सीधी सदी ज़बान में। भारत से समय में ढाई घंटे का फर्क है। मुंबई से लगभग ह घंटे मे हम यहाँ पहुंचे। आते ही तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार हम एक स्कूल पहुंचे। यहाँ मायम बच्चों के लिए थिएटर वर्कशाप के साथ साथ अवितोको द्वारा समय समय पर जेल बंदियों के लिए आयोजित आर्ट वर्कशाप में उनके द्वारा बनाई पेंत्न्न्ग्स, ग्रीटिंग कार्ड्स आदि की प्रदर्शनी और अपने एक नाटक के शो के साथ आई हूँ। मुझे पता है, यह बड़ा मुश्किल काम है। मगर मुश्किल काम का पाना मज़ा भी है। ताने का प्रयास करेगी। बस अप अपनी राय भी देते रहें।
छाम्मक्छाल्लो को बचपन की एक बट याद आ रही है। उसके घर में एक ज्योतिषी आते थे। नाम था, वीर चन्द। बडे पहुंचे हुए। जो हुछ कहा, आजतक देखा कि लगभग सबकुछ सच निकला। मुझसे बड़ी बहन रीता के बारे में कहा था कि यह शादी के बाद भी पढेगी। सच तो यह था कि उसका पढने में मन ज़रा भी नहीं लगता था। हम सभी, यहाँ तक कि वह भी, ख़ूब हँसी थी। मुझे कहा कि यह सेहत से तनिक कमजोर रहेगी, आज तक हू। बडे भाई के बारे में कहा था कि इनका जीवन अस्थिर रहेगा। आजतक है। ज्योतिष में कोई विश्वास न होने के बावजूद उनकी बताई सारी बातें सच होने से कभी कभी लगता है कि कुछ है क्या इसमे? किसी ने कहा, इसमें बहुत लगन, मेहनत चाहिए। तोता धर्मी भविष्यवक्ता नहीं, जिनके खुद के भविष्य का पता नही। वीर चन्द जी ने कहते हैं कि अपनी एक आंख भगवती को सौंप दी थी इसे सीखने के ऐवज में। इसके लिए भी लोग कहते थे कि वे देवी के मंदिर में बैठ गाए और एक आंख देने का संकल्प किया और उस आंख की ज्योति अपने आप चली गई।
छाम्मक्छाल्लो यहा सब आपको इसलिए बता रही है कि उसे भी उनहोंने कहा था कि यह शादी के बाद पढ़ नहीं पाएगी। रीता ने तो शादी के बाद पता नहीं, कितनी डिग्रियाँ बटोरीं, मगर मैं एक पीएचडी तक नही कर सकी, शादी के बाद। उनहोंने यह भी कहा कि मैं अपने पति के बल पर विदेश जाऊंगी। साथ ही साथ, अपने बल पर भी। पति के बल पर तो चीन, हांगकांग हो ई, अब अपने बल पर फिनलैंड में हू। वीर चन्द जी आज नही हैं, मगर न चाहते हुए भी उनकी बतूं पर यकीन कराने को जी कराने लगता है। हाँ, एक बात उनहोंने और भी कही थी, लगन की, मेहनत की, परिश्रम की। रीता दी ने भी मेहनत की, उसे फल भी मिला। शायद मुझे भी। और मुझे लगता है आप सबको भी मिलता ही होगा।
फिनलैंड की बातें दूसरे दिन।

Monday, September 10, 2007

निज भाषा उन्नति

सितंबर का महीना सरकारी दफ्तरों के लिए खास महीना है, क्योंकी १४ सितंबर १९४९ में संसद ने केंद्र सरकार की राजभाषा के रूप में हिंदी को मान्यता दी थी.तब से १४ सितंबर हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है.तम्मं दफ्तर नाना आयोजनों से भर उठाते हैं-आज नहीं तो फिर नहीं की तरह.लेकिन सभी कार्यक्रम मनोरंजन प्रधान.किसी ने छाम्मक्छ्ल्लो से एक बार कहा था कि विचार अन्ग्रेज़ी में और मनोरंजन हिंदी में अच्छे लगते हैं, जैसे गाली वजनदार हिंदी में ही लगती है.इन आयोजनों से हिंदी का कितना भला होता है, यह तो नहीं पता, मगर सभी को अपनी पीठ थपथपाने का मौका मिल जाता है कि हिंदी के नाम पर हमने ये किया, वो किया।
छाम्मक्छ्ल्लो यह खबर पढकर अचरज में भर गई कि ब्रिटेन के प्रधान मंत्री गोल्डन ब्राउन उन्हीं को काम के लिए अपने यहाँ आने देंगे, जिन्हें अन्ग्रेज़ी का घ्यान है. छाम्मक्छ्ल्लो कहिस कि अपने देसी भाई तो इस न्यूज से बडे खुश हैं। अब वे तमाम हिंदी या एनी भारतीय भाषाओं के प्रेमियों को टाल थोक कर कह सकेंगे कि देखा लो, अगर अभी भी भविष्य सुधारना चाहते हो तो अपनी भाषा का चक्कर-वक्कर छोडो.कितना अच्छा फैसला ब्रिटेन के प्रधान मंत्री ने लिया है।
छाम्मक्छ्ल्लो सोच रही है कि आज जब अन्ग्रेज़ी अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपना दर्ज़ा हासिल कर चुकी है और दिन प्रतिदिन इसका उपयोग बढ़ ही रहा है, ऐसे में अपनी भाषा के प्रति चिंता क्यों? असल में यह चिंता केवल भाषा की नहीं, बल्कि अपनी संस्कृति की है.प्रध्हन मंत्री कहते हैं कि यहाँ आ कर काम करनेवालों को अँगरेज़ी का ज्ञान उन्हें हमारे संस्कारों और संस्कृति से जोडेगा.दूसरे हिस्से से आये लोग हमारी साझा राष्ट्रीय संस्कृति का हिस्सा बनेंगे।
छाम्मक्छ्ल्लो इस बात से प्रसन्न है. छाम्मक्छ्ल्लो कहिस कि अपने देश में भी अब ऐसा होगा.हम तभी आगे बध्हते हैं, जब हम किसी को आगे बढ़ता देखते हैं.भारत को योग अमरीका से आकर योगा बन जाता है तो आदरनीय हो जाता है.फिर भी वह आभिजात्य वर्ग तक ही रह पाटा है.वह तो गनीमत है बाबा रामदेव का कि उनहोंने इसे आम जन तक पहुंचा दिया.गोल्डन ब्राउन की तरह क्या हमारा देश यह सोचेगा कि अपनी भाषा की उन्नति से अपने संस्कार की उन्नति होती है, अपने मूल्यों की रक्षा होती है,अपना आत्मबल बढ़ता है. छाम्मक्छ्ल्लो किसी भी भाषा के खिलाफ नहीं।.वह बस अपनी भाषा की उन्नति चाहती है और चाहती है कि अंग्रेजीदां देश जब अपनी भाषा के माध्यामसे अपनी संस्कृति की बात करते हैं तो क्या हम नहीं कर सकते? आखिर कबतक हम अपनी ही हर चीज़ को ओछी नज़रोंसे देखते रहेंगे. छाम्मक्छ्ल्लो कहिस कि अब समय आ गया है भारतेंदु हरिश्चन्द्र के सपने को साकार कराने का कि
निज भाषा उन्नति अहई, सब उन्नति को मूल
बिनु निज भाषा घ्यान के, मितात न हिय को सूल.

Saturday, September 8, 2007

शिक्षक दिवस पर शिक्षा

अभी अभी हम सभी ने ५ सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया है.छाम्मक्छाल्लो को याद है कि अपने बचपन में उसके स्कूल में यह दिवस बडे आदर और सम्मान के साथ मनाया जाता था.तब एक टिकट २५ पैसे का जारी होता था.सभी बच्चों के लिए उसे खरीदना अनिवार्य होता.एक से अधिक भी टिकट खरीदे जा सकते थे.टिकट से मिले पैसों से आर्थिक रूप से कमजोर शिक्षा या उनके परिवार की मदद की जाती थी। छाम्मक्छाल्लो खुद शिक्षक परिवार से है, इसलिए उसे पता है कि तब के शिक्षक आर्थिक रूप से कितने कमजोर होते थे। मगर उनकी इज़्ज़त बहुत थी।
छाम्मक्छाल्लो को याद है कि भारत पाकिस्तान के युद्ध के समय उस समय के प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने आवाहन किया था कि लोग हर सोमवार को एक शाम अनाज न खाएं.उस बचत से देश क जवानों की मदद हो सकती है, देश के आर्थिक विकास में मदद मिल सकती है.स्कूलों को यह काम दिया गया था।छाम्मक्छाल्लोapanii माँ से कहिस कि ऐसा होगा क्या? माँ ने कहा कि शास्त्री जी ने कहा है, तो ज़रूर होगा.स्कूल की सभी शिख्सिकाएं इस काम में जुटीं और छाम्मक्छाल्लो ने देखा कि उसके शहर के सभी बच्चे तक भी सोमवार की शाम उपवास पर रह गए.बच्चे तो शिक्षक की बात पर ही भूखे रह गए।
देश तो आज भी न जाने कितने संकटों से गुज़र रहा हां.क्या कोई शिक्साह इस तरह से आवाहन कर सकता है और बच्चे उनके आवाहन पर ध्यान देंगे और बच्चों के माता-पिटा भी बच्चों को इसके लिए प्रोत्साहित करेंगे?देश के दूसरे राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन के जनमदिन पर मनाया जानेवाला शिक्षक दिवस कितने लोगों को अपने शिक्षक के बारे में सोचने पर मज़बूर करता है। कबीर ने भी गुरू के स्थान को ईश्वर से भी महान बताते हुए कहा है-
गुरू गोविन्द दोनों खडे, काको लागे पानी
बलिहारी गुरो आपने जिन गोविन्द दिए बताय।
गुरू की महिमा अपरम्पार है और हर व्यक्ति किसी न किसी से कुछ न कुछ सीखता है। न सीखने की कोई तय उम्र होती है, न सिखानेवाले की।छाम्मक्छाल्लो कहिस कि ऐसा मान लें तो गुरू का ज्ञान व घ्यान की विनम्रता अपने आप लोगों के पास आ जाती है.छाम्मक्छाल्लो ने अपनी माँ को ऐसा ही देखा और पाया.

Thursday, September 6, 2007

क्या करे vah

छाम्मक्छाल्लो को थिएटर से बहुत प्यार है.उसका मन करता है कि वह सारे दिन्बस थिएटर ही करती राहे।छाम्मक्छाल्लो जब पांचवी कक्षा में थी, तब अपने स्कूल में उसने एक नाटक में भाग लिया था। उस नाटक में उसका बस एक दृश्य था.वह सिपाही बना था और दूसरे पुलिस से स्वतंत्रता सेनानी को बचाने के लिए उसे कहा था कि वह भाग जाए.मगर आइन वक़्त पर वह इतनी घब्दायी कि अपना इकलौता संवाद ही भूल गयी। छाम्मक्छाल्लोkii माँ उस स्कूल की हेड मिस्ट्रेस थी। संभी छाम्मक्छाल्लो को भूल गाए और माँ को याद कराने लगे कि इन्हीं की बेटी नाटक में बोलना भूल गयी थी।छाम्मक्छाल्लो की माँ को इसतरह की दूसरी बातें भी सुननी पडती थीं, जैसे उनकी एक और बेटी मेरी गो राउंड में बैठाकर ऊपर से दर के मारे चिल्ला पडी थी। तब भी सभी ने उन्हें ही कहा। सभी उन्ही से पूछते- आपकी ही बेटी चिल्लाई थी?
छाम्मक्छाल्लो कहिस कि हमारी आदत है कि हम एकदम से अपने को अपने से मज़बूत के साथ जोड़ देते हैं.अब नाटक की ही बात करें तो छाम्मक्छाल्लो की माँ को उसकी वज़ह से सुनाना पडा था.तब छाम्मक्छाल्लो बरी लजाई थी कि उसके कारण उसकी माँ को सुनाना पडा.अब वह लजा रही है कि काश उस समय उसे बोलना आता तो वह कहती कि मुझे कहो, डायलाग मैं भूली थी.लेकिन इस बात से छाम्मक्छाल्लो ko itanaa फ़ायदा ज़रूर हुआ कि अब उसे बहुत सी बातें याद रहने लगी हैं और वह यह कहने भी लगी है कि भाई मेरे, जिसकी बात हो, उसे कहो, वरना चुप रहना ज़्यादा अच्छा है।छाम्मक्छाल्लो कहिस किअब उसका दूसरा नाटक तैयार है, जिसे याद करने में वह महीने भर से जुटी हुई है.इसके लिए उसे डांस भी सीखना है.इसके पहले वह एक नाटक और कर चुकी है और उसे इस बात का संतोष रहा कि वह अपने संवाद नहीं भूली.काश कि माँ होती और वे लोग भी.माँ को अच्छा लगता, बाकियों को ...पता नहीं।छाम्मक्छाल्लो कहिस कि बाकियों की परवाह करना हम कब भूलेंगे?

Wednesday, September 5, 2007

छाम्मक्छाल्लो कहिस

छाम्मक्छाल्लो कहने को तो छमकती फिरती है, मगर बिना मतलब नहीं.वह यहाँ वहां की चीजें देख परख रही है। समय समय पर वह आपको अपनी देखी परखी चीजों, बातों, घटनाओं से अवगत कराती रहेगी.इसमें समय है, साहित्य है, दीं है, दुनिया है, मतलब इस जहाँ की हर वह चीज़ है, जिससे उसका वास्ता पङता रहता है और उसे यकीं है कि आप भी इन सबसे दो-चार तो होते ही होंगे.आपकी सहमति- असहमति दोनों ही उसे एक जैसी खुशी देगी.उसे दुख अगर पहुंचेगा तो सिर्फ इस बात से कि आपकी टिप्पणी उस तक नहीं पहुची.