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Wednesday, September 23, 2009

फ़िल्म हिन्दी में, चर्चा अंगरेजी में- जवाब में- "हा, हा, ही ही, फिस्स-फिस्स!" !

http://reporterspage.com/miscellaneous/230-4
आज राजा मेनन की फिल्म "बारह आना" देखने गई. इसका आयोजन एंलाइटेन फिल्म सोसाइटी ने किया था. एंलाइटेन फिल्म सोसाइटी मुंबई में दो जगह हर रविवार को विश्व की सभी भाषाओं की बेहद स्तरीय फिल्में दिखाती हैं. ये सभी फिल्में अपने कथ्य, क्राफ़्ट, मेकिंग में इतनी उम्दा होती हैं कि इनके सामने जब हिन्दी फिल्में (कभी-कभी) दिखाई जाती हैं तो वे इन विश्व सिनेमाओं के पासंग में भी नहीं ठहरतीं. इसका सबसे बडा प्रमाण तो यह होता है कि जिस दिन हिन्दी फिल्म दिखाई जाती हैं, उस दिन हॉल में दर्शकों की उपस्थिति नगण्य हो जाती है.

बहरहाल, फिल्म "बारह आना" की बात ना पूछें. "बारह आना" फिल्म के पात्र शुक्ला जी यानी नसीरुद्दीन शाह कह देते हैं- यह ज़िन्दगी बारह आना ही है.. हिसाब लगाएं तो सोलह आना का एक रुपय होता है. यहां बारह आना मतलब- तीन चौथाई रुपया तो मतलब पौनी ज़िन्दगी. फिल्म में ही मुख्य तीन पात्र हैं, यानी इस हिसाब से भी फिल्म पौनी है. और उस पर से फिल्म में से अगर नसीरुद्दीन शाह को निकाल दें तो फिल्म की यह चौथाई क्या, पूरी की पूरी फिल्म ही निकल जाएगी.

हिन्दी फिल्में भी ऐसे ही पौनी-पौनी बनती हैं, जिसमें फिल्म की भाषा, गीत हिन्दी में होते हैं, मगर काम नहीं. स्क्रिप्ट से लेकर सारी बहसें अंग्रेजी में होती हैं. आपके पास फिल्म का प्रोपोजल (जान बूझ कर इस शब्द का इस्तेमाल किया गया है) है, तो उसका अंग्रेजी में होना अनिवार्य है. उस प्रस्ताव में क्या है, यह बताने के लिए भी आपका अंग्रेजी में बात करना आना अनिवार्य है. फिल्म बन गई तो उसके प्रोमो से ले कर उसके प्रचार-प्रसार और उस पर चर्चा, बहस तक सब कुछ अंग्रेजी में होना अनिवार्य है. फिल्म के सारे टाइटल्स तो वैसे ही अंग्रेजी में देने का रिवाज़ है. पूछने पर कह देते हैं कि हिन्दी फिल्म के दर्शक बहुभाषी हैं, इसलिए उन्हें हिन्दी नहीं आती या हिन्दी में पढने में दिक्कत होती है, इसलिए टाइटल्स अंग्रेजी में दिए जाते हैं. फिल्मवाले कहते तो हैं कि फिल्में वे लोगों को जागरुक बनाने के लिए, उन्हें सन्देश देने के लिए बनाते हैं, मगर जिस भाषा में बनाते हैं, उसी भाषा के प्रति लोगों को जागरुक बनाने की बात वे सिरे से भूल जाते हैं. भूल क्या जते हैं, यह उनकी प्राथमिकता में है ही नहीं. न निर्माता-निर्देशकों की, न अभिनेता-अभिनेताओं की.

दरअसल यह सवाल या हिन्दी के बारे में कुछ पूछना ही बडा बेवकूफाना मान लिया जाता है, जिसे छम्मकछल्लो जैसे बेवकूफ जब-तब उठाते रहते हैं. हिन्दी फिल्मों से हिन्दी को प्रचार-प्रसार मिलने की बात कहनेवाले फिल्म निर्माण की इस पूरी प्रक्रिया पर ग़ौर फर्माएं. किसी को भी हिन्दी से लेना-देना नहीं होता है. चूंकि फिल्म हिन्दी में बननी है, इसलिए उसके संवाद और गीत हिन्दी में होने ज़रूरी हो जाते हैं. अब तो वैसे भी फिल्में कस्बे और गांवों के लिए नहीं बनतीं, इसलिए अब सम्वाद भी शुद्ध हिन्दी के न हो कर हिदी-अंग्रेजी के हो गए हैं. यही हालत गीतों की है. तारीफ यह है कि हर भारतीय भाषा-भाषी, यहां तक कि अब विदेशी भी हिन्दी फिल्मों में काम करने का ख़्वाहिशमन्द है, मगर हिन्दी सीखने के नहीं. विदेशी तो फिर भी हिन्दी सीखने की इच्छा ज़ाहिर करते हैं, मगर अपने लोग तो हिन्दी के नाम से ही ऐसा मुंह बनाते हैं, जैसे करेले का जूस पिला दिया गया हो. बडे से बडे नाट्य व अभिनय संस्थानों मेँ फिल्म, नाटक, अभिनय, निर्देशन आदि के सभी पक्षों पर बडी गहराई से जानकारी दी जाती है, मगर भाषा के बारे में सभी चुप रहते हैं.

आज भी यही हुआ. फिल्म "बारह आना" को दिखाए जाने के बाद राजा मेनन से गुफ्तगू कार्यक्रम रखा गया था. चूंकि परिचय देनेवाले से लेकर सवाल-जवाब सभी कुछ का माहौल ही अंग्रेजीमय कर दिया जाता है, इसलिए हिन्दी में सवाल पूछनेवाले आम तौर पर चुप ही रह जाते हैं. यह भी देखा जाता है कि हिन्दी में सवाल करनेवालों को यूं ही टालकर उसे इग्नोर भी कर दिया जाता है. बरसों पहले दिल्ले में साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित कार्यक्रम "मीट द ऑथर" के तहत गिरीश कर्नाड को बुलाया गया था. रु-ब-रु के तहत सवाल-जवाब के कार्यक्रम में एक ने जब अपना सवाल हिन्दी में पूछा तो वे यह बोले कि "मैं आपके सवाल पर आता हू", और आज तक वे आ ही रहे हैं.

आज भी छम्मक्छल्लो ने सवाल रखा कि "आखिर क्या बात है कि सभी हिन्दी फिल्म "मेकर्स" फिल्में तो हिन्दी में बनाते हैं, मगर सारी की सारी बहसें अंग्रेजी में करते हैं? क्या हिन्दी में बहस करने से विषय की गम्भीरता कम हो जाती है?"

जवाब पूरे हॉल के साथ-साथ राजा मेनन से भी मिला और वह यह था- "हा, हा हा हा, ही ही, फिस्स-फिस्स!"

Tuesday, February 24, 2009

कबीर और आज

कल 'क़बीर' पर शबनम वीरमानी की २ दौक्यूमेंतारी फिल्में देखने को मिलीं। इनमे से पहली फ़िल्म "हद-अनहद" इतनी अच्छी थी की उसकी तारीफ़ के लिए शब्द नहीं हैं। मुम्बई की एक संस्था 'विकल्प' हर माह के अन्तिम सोमवार को पृथ्वी थिएअर में दौक्यूमेंतारी फिल्में दिखाने का आयोजन करती है। २००४ से चल रही यह संस्था अपना जन्मदिन मना रही थी। बहरहाल, फ़िल्म के बारे में।
कबीर आज अपने समय से भी ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं। धर्म के नाम पर आज जिस तरह से नफ़रत की आंधी चलाई जा रही है, उससे मानव का मानव के प्रति ही विशवास खोने लगा है। लेकिन कबीर के शब्द, साखी और दोहों को गानेवाले के माध्यम से यह फ़िल्म कबीर के साथ-साथ ख़ुद को भी समझाने का संदेश देती है। फ़िल्म शुरू होती है अयोध्या से और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश की यात्रा करती हुई पड़ोसी देश पाकिस्तान तक जा पहुँचती है। पाकिस्तान में कबीर- सुनकर कुछ अजीब सा लगता है। मुझे भी लगा था, जब सृष्टि स्कूल आफ आर्ट एंड डिजाइन में लगी कबीर पर शबनम की प्रदर्शनी बंगलोर में गए दिसम्बर, २००८ में देखी थी। एक तो फ़िर से लाहौर, वाघा बार्डर देखना, वहाँ की सजी-धजी बसें देखना और उसके बाद वहाँ के कव्वालों का कबीर के प्रति प्रेम और समर्पण देखना। आप भूल जायेंगे की यह पाकिस्तान है, वह पाकिस्तान, जो हमारे मन में नफ़रत का संचार करता नज़र आता है-अपनी आतंकवादी गतिविधियों के कारण, जब वहाँ के कवाल कहते हैं की कबीर का सौदा मैं नहीं कर सकता, मैं दावा करता हूँ की जितना कबीर को मैंने जाना है, उतना कोई नहीं जानता, तो मन सचमुच भर आता है उनकी निष्ठा को देखकर। वे चुनौती देते हैं की कबीर को जानने के लिए ज्ञान की नहीं, भाव की ज़रूरत है।
पूरी फ़िल्म में हास्य के अनेक पल हैं, जब कबीर पंथ के लोग कबीर के बारे मिएँ, उनके माता-पिटा के बारे में वेदों से सामग्री ले ले कर कहते हैं, उनके जन्म पर एक नई व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। प्रसिद्द लोगों के बारे में कही गई बातें भी इस तरह से सच मान ली जाती हैं की अन्य कोई बात गले नहीं उतरती। अब जैसे उनके जन्म और माता-पिटा का ही प्रसंग है। कहा जता रहा है की कबीर एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से पैदा हुए थे, जो समाज के भय से कबीर को गंगा किनारे छोड़ आती है। नीरू और नीमू नामक निस्संतान जुलाहा दम्पति को वह शिशु मिला और उनने इसकी देखभाल की।
कबीर निर्गुण और सगुण दोनों ही रूपं में जाने जाते हैं। हालांकि साहित्य का अध्ययन करते वक़्त हमें बताया गया थाकी कबीर निर्गुण धारा के कवि हैं। आज मुझे लगता है की जिस तरह से राम की चर्चा इंके साहत्य में है, गुरु हैं, यह सब बिना सगुण भाव धारे नही हो सकता। अपनी उपदेशक प्रवृत्ति, सभी को खरी-खरी सुनानेवाले कबीर अपनी सूफी रूप व् स्वभाव के कारण भी सबसे अलग हैं। कबीर की यह फ़िल्म देखते हुए आपको लगेगा की काश, आप भी कबीर के राम में रंग जाते। तब यह जो आज राम के नाम से जो राजनीति चल रही है, राम के नाम को जिस तरह से गंदा किया जा रहा है, वह नहीं होता। राम भाव है, भक्ति है, राम का नाम दिल से निकल कर हमारे रक्त में घुल कर हमें नई ताक़त देता है। दुःख है की आज राम को इस प्रकार से बना दिया गया है की ख़ुद राम को भी अपने आप पर शर्म आने लगे। कबीर की खासियत है की इसे पढ़े-लिखे तबके से लेकर अनपढ़, गंवार तक सभी एक रूप से भजते हैं। फर्क सिर्फ़ इतना है की पढ़े-लिखे लोग इसकी मीमांसा करते हैं, और अनपढ़ भाव की नदी में डूबते-उतराते रहते हैं।
यह फ़िल्म देखना अपने आप में एक अनुभव है। १०९ मिनट की फ़िल्म शुरू होकर कब ख़त्म हो जाती है, यह पाता ही नहीं चलता। हिन्दुस्तान से भी ज़्यादा असरकारक नज़ारा पाकिस्तान का है। सच ही कहा है की अलगाव केवल दोनों तरफ़ के सियासी लोगों का नतीजा है। कलाकार तो हर जगह के एक से ही रहते हैं।
लेकिन इसके साथ ही दूसरी फ़िल्म "कोई सुनता हैधीली लगी। यह कुमार गन्धर्व की संगीत यात्रा कबीर के साथ की थी। फ़िल्म जहाँ तक इनके साथ कबीर की बात कहती है, अच्छी लगती है। मगर बाद में यह धीरे-धीरे अपना असर खोने लगती है। कई बार लगता है की 'हद-अनहद' की शूट की गई बची सामग्री को इसमें खपा दिया गया है। फ़िल्म को केवल कुमार गन्धर्व तक ही siimit रहने दिया जाता, जो की इस फ़िल्म का उद्देश्य था तो यह ज़्यादा अच्छा होता। फ़िल्म छोटी और कसी हुई होती। फ़िर भी जब भी जिसे भी मौका मिले, 'हद-अनहद ज़रूर देखें।

Sunday, July 13, 2008

कलाकारी- इरेजर की या कलाकार की?

आज एक छोटी सी फ़िल्म देखी- 'कलाकार'। मुख्य भूमिका रजित कपूर की। फ़िल्म अवाक। कहीं- कहीं गति में चार्ली चैपलिन की तरह लगती। संवाद समझाने के लिए लिखे हुए संवाद आते, जो कभी-कभी अनावश्यक लगते, जेसे किसी के दरवाजा खटखटाने पर -"नोंक-नोंक" कहना। हा, सारे कैप्शन अन्ग्रेज़ी में थे।
फ़िल्म की कहानी के लिए कुछ मौर्यकालीन समय जेसा पीरियड चुना गया था। कलाकार को आदेश हुआ है, प्रधान मंत्री की बेटी की तस्वीर में सुधार करने के लिए। कलाकार जब भी उस पर काम करता है, कभी छींक आने से तो कभी मच्छर के काटने से तासीर बिगड़ जाती है। वह काफ़ी परेशान व् चिंतित है। उसका दोस्त अंत में उसकी सहायता करता है। अचानक वह इरेजर ईजाद करता है और इसके बल पर कलाकार तस्वीर सही-सही बना देता है।
फ़िल्म के अंत में फ़िल्मकार के साथ बातचीत थी। भावना सोमाया इसे प्रस्तुत कर रही थीं। उनहोंने इसे बहुत ब्रिलियंट फ़िल्म बताई। पता नहीं, यह मौके की नजाकत थी, एक प्रस्तुतकर्ता की भुमिका में होने के नाते या सचमुच फ़िल्म उन्हें अच्छी लगी।
छाम्माक्छाल्लो समझ ना सकी कि यह फ़िल्म है क्या? यदि यह इरेसर की उत्पत्ति के लिए फ़िल्म थी, तब तो कोई बात नहीं। मगर एक कलाकार के माध्यम से इसे व्यक्त करने की कोशिश में यह एक हास्य ही उत्पन्न कर सका। कोई भी कलाकार इरेजर के इस्तेमाल से बड़ा नहीं हो सकता। हमारे गुरु हैं- पोलाजी सर, वे कहते हैं, "अगर तुमने ग़लत स्ट्रोक लगा भी दिए तो कोशिश करो कि उस ग़लत स्ट्रोक को अपने ब्रश या पेन्सिल से कैसे ठीक कर सकते हो? उसे ठीक करने के लिए इरेज़र का इस्तेमाल तुम्हारी कल्पना को छोटा करता है।" यह बात नई कलाकार विधा सौम्य भी मानती है। हम भी जब कभी आर्ट वर्कशौप करते हैं, बच्चों को इरेसर नही देते। वे शुरू में मायूस होते हैं, मगर बाद में अपनी ही कल्पना के अलग-अलग परिणाम देख खुश होते हैं। आज कल स्कूलों में भी बच्चों को इरेज़र के लिए हतोत्साहित किया जाता है, ताकि वे ग़लत ना लिखें, वरना इरेज़र तो है, मिटा देंगे, यह प्रवृत्ति बच्चे के मन में बढ़ने लगती है। दूसरे,इरेज़र के इस्तेमाल से कागज़ पर सफाई नहीं आती है।
छाम्माक्छाल्लो इस बात से मुतास्सिर है कि इरेज़र का इस्तेमाल होना चाहिए, मगर वहाँ, जहाँ इसके बिना काम ना बने। रचनात्मक कामों में इसका इस्तेमाल रचनात्मकता को कम करता है। फ़िल्म का यह संदेश फ़िल्म को कथ्य के स्तर पर कमजोर करता है और संदेश देता है कि आख़िर यह कलाकारी कलाकार की हुई या इरेज़र की?