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Wednesday, August 25, 2010

आंटी मत कहो ना.

जिगोलो पर पिछले हफ्ते एक टीवी चैनल ने स्टोरी की थी. जिगोलो को सीधे शब्दों में पुरुष वेश्यावृत्ति कह सकते हैं. छम्मकछाल्लो को 4 साल पहले इसी विषय पर लिखी अपनी एक काहनी याद आई- "ला ड्रीम लैंड". यह कहानी 'हंस' के सितम्बर, 2007 के अंक में छपी थी. बाद में इसे रेमाधव पब्लिकेशन से छपे मेरे कथा संग्रह "इसी देश के इसी शहर में" संकलित भी किया गया. इसे आपके लिए नीचे दिया भी जा रहा है. देखिए 3 साल पहले की छपी कहानी पर आज की रिपोर्ट.
जिगोलो हो या वेश्यावृत्ति, यह धंधा निंदनीय है तो है. इसपर कोई दो राय नहीं. मगर जब महिलाओं की वृत्ति या प्रवृत्ति  के बारे में कुछ कहा जाता है तो नज़रिया बडा संकुचित हो जाता है. उस पूरी स्टोरी में एंकर महोदय महिलाओं के बारे में "ये आंटियां" ही बोलते रहे. क्या ऐसा हुआ है कि जब वेश्यावृत्ति पर री बनी हो तो एंकर महोदय ने 'ये बुड्ढे' या 'ये अंकल' कहा हो. आप कथा कह रहे हैं तो तटस्थ होकर कहिये ना. दर्शकों पर छोड दीजिए कि वे क्या कहना पसंद करेंगे. महिलाओं के साथ यह पूर्वाग्रह वैसे ही रहता है. किसी स्त्री ने यदि अपने प्रेमी या पति का तथाकथित खून कर दिया तो देखिए एंकर की ज़बान! बिना कोर्ट के फैसले के ही उसे हत्यारिन, कुलटा, दुश्चरित्रा और जितने भी ऐसे विशेषण हों, सभी से उसे विभूषित कर दिया जाता है.महोदय, ज़रा अपनी ज़बान पर लगाम दीजिए. माना कि हम आंटी हो गए तो इसका यह तो मतलब नहीं कि आप सारे समय आंटी आंटी की माला फेरते रहेंगे और हमें उम्र का इतना शदीद अहसास दिलाते रहेंगे कि हम उम्र के आगे कुछ सोचना समझना ही बंद कर दें?


सपनों की एक दुनिया है। सपनों की एक धड़कन है। सपनों की एक आहट है। सपनों की एक चाहत है। सपने, सपने नहीं हो सकते, गर जिंदगी में हक़ीकत न हो। हक़ीकत, हक़ीकत नहीं रह सकती, गर सपनों की सरज़मीन न हो। ख्वाब और हक़ीकत, गोया एक सिक्के के दो पहलू, जैसे दूध-शक्कर, जैसे सूरज - धूप, जैसे चांद - चांदनी। एक नहीं तो दूजा भी नहीं।

ज़मीन चाहिए हक़ीकत के लिए - भले ही पथरीली हो, खुरदरी हो, सख्त, ठंढी और बेजान हो। ज़मीन सपनों के लिए भी चाहिए - सब्ज़, खुशबूदार, रंगीन, खुशमिजाज और ज़न्नत जैसी हसीन। जमीन सख्त, खुरदरी और पथरीली भी हो सकती है। लेकिन कौन चाहेगा कि सपने में भी ऐसी ही जमीन मिले?

इन्हीं रंगीन, हसीन, खुशगवार सपनों की तिजारत में लगे हुए हैं सभी - आओ, आओ, देखो, देखो - हम व्यौपारी हैं, सपनों के किसान - सपनों की खेती करते हैं, भावों, इच्छाओं और आवेगों के बीज, खाद, पानी डालते हैं। सपनों की फसल लहलहाती है तो अहा, कितना अच्छा लगता है!

सपने और सपनों की तिज़ारत - ला ड्रीमलैंड। सपनों की सरजमीन - ला ड्रीमलैंड। सपनों की खेती - ला ड्रीमलैंड। रंग-बिरंगी, चमकदार रोशनियों का बहता सैलाब, तैरती रंगीनियां - कहकशां उफान पर, महफिल शबाब पर। तेज संगीत का बहता दरिया - फास्ट, फास्ट, और फास्ट। गति धीमी पड़ी तो सपने टूट जाएंगे, उत्तेजना बिखर जाएगी, धड़कनें थम जाएंगी, जीवन रूक जाएगा... नहीं, यह रिस्क नहीं लिया जा सकता - जीवन के रूकने का खतरा - ऊँहूँ!

मेघ शब्द बन-बनकर गरजते हैं - आह... हा... हूह... की बारिश में सभी तर-ब-तर है -'ओह गॉड! आ' विल डाइ। डोंट लेट मी अलोन। आ' विल डाइ चेतन। चेतन, कम टू मी, कम टू मी माई जान, माई डार्लिंग... माई बास्टर्ड।'

शब्द अवचेतन से चेतन में निकलकर फिजां में खो जाते हैं। तेज शोर के बीच गुम हो जाते हैं, भीड़ में अकेले छूट गए बच्चे की तरह। चेतन उन शब्दों से परे हटने की कोशिश करता है। वह अवचेतन में है, अवचेतन में ही बने रहना चाहता है। उसके जिस्म में हरक़त है, जिसमें मन साथ नहीं देता। बेमन की हरक़त। बिजली की तेजी से नाचता उसका जिस्म और उससे भी तेज गति से भागकर कहीं और जा पहुंचता उसका मन - फ़ास्ट, फास्ट और फास्ट... कम, बास्टर्ड कम, हग मी, किस मी, फ़क मी।

सुन्दर, जवान चेतन। शरीर से सौष्ठव फूटता हुआ। कसा हुआ जिस्म। बाँहों की फड़कती मछलियाँ। होठों के कोनों पर मुस्कान। ऑंखों में आमंत्रण के अटूट तार। रस्सी सा लहराता, बलखाता बदन। वह सबका चहेता है। उसके घुसते ही हॉल मदहोश चीख-पुकार से भर उठता है। हॉल की रोशनी मध्दम पड़ जाती है। औरतें, लड़कियाँ सभी उसे अपने में भर लेने को बेताब हो उठती हैं। चीख-पुकार, आह-ओह, हूह की चीख-पुकार मचाते उनके चेहरे। कोई-कोई तो बेहोश हो जाती हैं - वेटर उन्हें उठाकर उनके कमरे या कार में छोड़ आते हैं। होश में आने पर फिर वे भागती है - चेतन, चेतन, व्हेयर आर यू? डोंट लीव मी अलोन माई जान। आ विल डाइ। प्लीज, चेतन, प्लीज।

कोई उसे अपनी बाँहों में जकड़ लेती है - 'यू आर माइन। यू आर ऑनली फॉर मी। कोई और देखेगा तुम्हारी तरफ तो आ विल किल दैड ब्लडी बिच!'

दूसरी औंरतें, लड़कियाँ इसे सह नहीं पातीं।र् ईष्या से वे सब की सब अंगारा हो जाती हैं - लाल-लाल अंगारे, लाल-लाल भड़कीले, चमकीले कपड़े, लाल-भड़कती तेज रोशनी, लाल चेहरे। हॉल की रोशनी और धीमी हो जाती है। सभी औरतें-लड़कियाँ उस लड़की पर टूट पड़ती है - ब्लडी बिच होगी तू, तेरी माँ। वे सब नागन की तरह फुफकारती हैं। नागन की तरह दंश मारती हैं। चेतन नीला पड़ जाता है। नीला, बेहद नीला।

'तुम दिन की डयूटी क्यों नहीं ले लेते?' नीला चिढ़कर, रूठकर, तंग आकर कहती है।

चेतन के नीले पड़े शरीर में हवा की गुलाबी खनक और रंगत घुलने लगती है। जबरन चौड़े किए हुए होठ अब स्वाभाविक रूप में फैलते हैं। हाथ के मशीनी दवाब अपनी कोमल और प्यारी छुवन से भर उठते हैं। नीला की हथेली उसकी दोनों हथेलियों के बीच है और मन के भीतर नीला खुद। नीला चिढ़ती है, 'बोलो न, दिन की डयूटी क्यों नहीं ले लेते?'

'नहीं ले सकता।'

'क्यों?'

'मिलेगी नहीं।'

'पर क्यों?'

'मजबूरी है।'

'कैसी मजबूरी है।'

'मैनेजमेंट की। सिस्टम की। फ़ैसला है मैनेजमेंट का कि अधेड़ और बूढ़े दिन की डयूटी करेंगे और यंग ब्लड नाइट शिफ्ट में। रात में कस्टमर्स ज्यादा होते हैं। यंग बल्ड ज्यादा देर तक खड़े रह सकते हैं, ज्यादा भागदौड़ कर सकते हैं, दिन में बिजनेस क्लास आता है, बिजनेस डील करने। रात में लोग दिन की थकान उतारने आते हैं। यंग फेस उन्हें सुकून पहुँचाते हैं, उनके भीतर खुद के जवान हो जाने का अहसास दिलाते हैं।'

'कहाँ से सीख लीं इतनी बातें? तुम तो इतने बातूनी नहीं थे। रात के कस्टमर्स ने सिखा दिया क्या?' नीला चिढ़ाती है, मुस्कुराती है। उसके मुस्काने से पेड़ पर बैठी चिड़ियाँ चूँ-चूँ कर कोई गीत गाने लगती हैं।

'यह मेरी बात नहीं, मैंनेजमेंट का लेसन है। ट्रेनिंग का हिस्सा।'

'शादी के बाद भी तुम यूँ ही नाइट डयूटी करते रहोगे?' नीला का दिल डूबने लगता है। चेतन उसके हाथों का सर्दपन महसूस करता है और अपनी हथेलियों का दवाब बढ़ा देता है।

'तब की तब...' वह टालना चाहता है।

'मुझे तुम्हारे अधेड़ होने तक इंतजार...' नीला का दुख चेहरे पर उभर आता है।

'अभी से क्यों इतना सोचती हो?' सिनेमा हॉल की रोशनी जग जाती है। चेतन नीला का हाथ छोड़ देता है। नीला ने कौन सी फिल्म देखी? याद नहीं। हाँ याद आया, अपने जीवन की, अपने सपनों की। सपनों का जीवन, जीवन का सपना - ला ड्रीमलैंड।

नीला नागन नहीं बन सकती। नागन का उसे पता नहीं। उसने तो बस तस्वीरों, सिनेमाओं और टोकरों में कुंडली मारे बैठे साँप ही देखे हैं। पता नहीं, नाग होते हैं या नागन। उसे साँप देखकर डर लगता है। भय से उसका बदन झुरझुरा जाता है। वह मारे डर के चुहिया बन जाती है। चेतन के आने पर वह नन्हीं चुहिया से मुस्कुराते फूल में तब्दील हो जाती है। चेतन का मन करता है, उस फूल को हथेली में भर ले। उसे सूँघे, उसकी खुशबू में अपने को खो दे। उस सुगंध में सराबोर वह जोर-जोर से पुकारे - नीला, नीला... नीला... इतने जोर से कि पूरे ब्रह्मांड में नीला फैल जाए। वह चाहता है, नीला नीले आसमान की तरह एक अनंत आकाश बन जाए और अपनी नीली चादर में उसे छुपा ले... हाँ नीला हाँ, देखो, मेरा बदन कैसा नीला पड़ गया ह,ै उन नागिनों के दंश झेल-झेलकर...मगर दिखाऊं कैसे? यही तो फ़र्क़ है, सपने और हक़ीक़त में।

नागनों का जोश ठंढा पड़ता है - शराब का नशा, बदन को झकझोर कर रख देनेवाला तेज डाँस, देह को चूर-चूर कर, पीस-पीसकर रख देनेवाला चेतन का साथ... फक मी बास्टर्ड, फक मी... ड्राइवरों और उनके साथ गाड़ी में बैठी आयाएं बाहर निकलती है। उन्हें दुलार कर, पुचकार कर, उठा-पुठाकर लाती हैं। गाड़ी में लिटा देती हैं - उन्हें संभालते हुए, उनके कपड़े संभालते हुए... वे बड़बड़ाती हैं, हरामजादी सब, एक बित्ते का चिथड़ा लटका के घूमेंगी और वो चिथड़ा भी ठीक से बदन पर नहीं रहने देंगी। नाचो न फिर नंगे होकर ही... वे उनके बदन से छूट गए, खिसक आए चिथड़ों को फ़िर से उनके बदन पर सजाती हैं... नागनें मदहोशी में चिल्लाती है - चेतन... चेतन... किल मी चेतन... माई जान... माई बास्टर्ड.... फक मी... कम ऑन, फक मी...

चेतन कभी खुले में नहीं नहाता... कॉमन संडास तो ठीक है... मगर खुले नल के नीचे?... आजू-बाजूवाले छेड़ते हैं... साला, छोकरी है क्या रे तू? एक बोलता है, अरे स्टेंडर मेन्टेन कर रहेला है। साब हो गएला है न। फाइव स्टार में काम करता है बाप! एक बोलता है, 'ऐ चेतन, अपुन को भी ले चल न वहाँ। दिखा दे न रे फाइव स्टार का मस्ती... क्या सान-पट्टी होता होएंगा न रे...'

'पण तू करता क्या रे वहाँ?'

'हॉल मैंनेजर हूँ।'

'वो क्या होता है?'

'पूरा हॉल मेरे कब्जे में होता है। वहाँ आए हर कस्टमर का ख्याल रखना होता है। एक भी कस्टमर नाराज हुआ तो अपना बैंड बज जाता है।'

'फिर तो भोत टेंसन वाला काम है रे बाप! अपुन से तो ये सब नईं होने का। अपुन को तो कोई एक बोलेगा तो अपुन उसकू देंगा चार जमा के... इधर... एकदम पिछाड़ी में... साले, समझता क्या है मेरे को तू, तेरा औरत का यार...'

चेतन नहाने का पानी लेकर अंदर आ जाता है। पहले छोटा आईना था। अब आलमारी में ही आदमकद आईना लगवा लिया है। दरवाजा बंद करके, बत्ती जला के वह बदन का कोना-कोना देखता है... खराशें, जगह-जगह, कहीं हल्की, कहीं गहरी... कहीं सूखकर काला पड़ गया खून, कहीं नाखूनों से नोचे जाने के लाल-लाल निशान, दाँतों से काटे जाने के बड़े-बड़े चकत्ते...

नीला की ऑंखों में ढेर सारे सपने हैं... अभी तो वह काम कर रही है। चार पैसे जमाहो जाएंगे तो गृहस्थी की चीजें जुटाने में मदद मिलेगी... चेतन भी तो इत्ती मेहनत करता है... ज्यादा पैसे जमा हुए तो दो-एक कमरे का फ्लैट... जिंदगी इस एक आठ बाई दस की खोली में कट गई... वहीं माँ-बाप, वहीं भाई-भाभी... कोई कितना बचाव करे? चाहकर भी भाई-भाभी अपनी तेज साँसों की आवाज नहीं दबा पाते। चाहकर भी नीला सो नहीं पाती। उसकी भी साँसें तेज होती हैं। उसका मन करता है, भागकर चेतन के पास पहुंच जाए... वह ख्यालों की हवा में उड़ती-उड़ती चेतन के पास पहुंच जाती है - 'ले चलो न मुझे भी अपने होटल में। एक रूम ले लेना थोड़ी देर के लिए... तुम्हारी तो पहचान के होंगे सब...'

चेतन काँप जाता है। ख्वाब दरकते, ढहते महसूस होने लगते हैं... नीला जिस दिन देखेगी, ये दाग, यें खराशें, शिथिल पड़ी यह देह... सपनों का महल बनने से पहले ही भरभराकर टूट जाएगा... वह देखता है... भूकंप में गिर रहे मकानों की तरह गिर रही हैं उसके सपनों के महल की मीनारें, गुंबद, दीवारें... नहीं नीला, क्या करोगी होटल में जाकर। थोड़ा और सब्र करो। मैं दूसरी नौकरी की तलाश में हूँ। मिलते ही इसे छोड़ दूँगा। नहीं होता मुझसे अब यह सब...

'क्या सब्र?' नीला अभी भी सपनों की नदी में तैर रही है, मछली की तरह। मछली जैसी ऑंखें में मछली जैसी ही चपलता भरकर पूछती है। होठों के कोनों पर शरारती मुस्कान का दूजी चाँद तिरछे लटक गया है।

'यही, रात की नौकरी।' नीला के होठों के दूज के चाँद से बेखबर अपनी ही अमावस में घिरा चेतन कहता है -'देखो न, कहीं घूमने-फिरने भी नहीं जा सकते हम लोग। कोई एक शाम तक तुम्हारे साथ नहीं बिता सकता। एक फिल्म देखने नहीं जा सकते हम।'

'क्या हो गया अगर यह सब नहीं हो पाता है तो।' नीला दिलासे की ओढ़नी तले उसे ढँक देती है- 'हम कौन सा बूढ़े हुए जा रहे हैं अभी। ओढ़नी तले कोमल-कोमल, नन्हें-नन्हें बिरवे जैसी अभिलाषाएं उसे सहलाती है - 'मन जवान तो तन जवान। कुछ दिनों की ही तो बात है। जब तुम्हें दूसरी नौकरी मिल जाएगी या यहीं पर दिन की शिफ्ट... सारी मुश्किलें आसान हो जाएंगी।'

नहीं होगा न नीला। मुश्किलों का कोई ओर-छोर नहीं है। जाने कितने धागे, कितने छोर-सब उलझे-पुलझे... एक ओर घर का अंधेरा, अंधेरे में फूटते माँ-बाप के सपने, नीला के अरमान, उसके हौसले... दूसरी ओर थिरकती, नाचती, बलखाती कृत्रिम दुनिया, मध्दम पड़ती रोशनी, उत्तेजित होती सीत्कारें, शांत पड़ता चेतन। इन सबसे लड़ते-भिड़ते, अपने को बचाने की जद्दोजहद में चेतन... दिल से, दिमाग से... उसका मन पुकार पुकार उठता है - नीला, तुम कहाँ हो नीला, मुझे बचा लो, वरना मैं मर जाऊँगा, नीला... नीला... नीला ....

मां, बाप, नीला, चेतन- सबके सपने एक-दूसरे में अनायास घुसने लग गए... सपनों के बीज माँ-बाप ने बोए थे... तोते की तरह एक ही रट लगाई थी -'पढ़ोगे, लिखोगे, बनोगे नवाब, खेलोगे, कूदोगे, होगे खराब।' अच्छे और खराब की इस साफ और स्पष्ट परिभाषा में उसकी कबड्डी, वॉलीबॉल, फुटबॉल सब मर गए। रह गई केवल और केवल पढ़ाई, परीक्षा, रिजल्ट और सत्यनारायण भगवान की पूजा। लोगों की शाबाशियां चेतन को भातीं। उसके सपनों के महल में एक और फानूस लग जाता।

मगर आज? सवालों के बीहड़ जंगल में वह भटकता है - क्या सपने देखना गुनाह है? माँ-बाउजी ने कोई अपराध किया, जो उसके मन में भी सपनों की एक नींव चुपके से रख दी, जिस पर साल दर साल तरह-तरह के रिजल्टों की ईंट, गारा, सीमेंट, चूना डालकर, कंक्रीट बिछाकर, तस्वीर सजाकर उसने एक महल खड़ा किया था? लेकिन अब उस सुन्न पड़े महल का वह क्या करे? कहाँ से उसमें सुख-सुविधाओं के हीरे-मोती जड़े, तख्ते ताऊस बिछाए और झाड़-फानूस लगाए?

हक़ीकत अपने कारूं का सख्त, खुरदरा पहरा लेकर सामने है और चेतन को चेता रही है - इस देश के संविधान में सपने देखने का कोई प्रावधान नहीं है, और इस प्रावधान के बिना जो ऐसा करता है, उसे उसके इस संगीन जुर्म के लिए कड़ी से कड़ी सजा दी जाती है। ना... ना, सजाए मौत नहीं। रोज-रोज के सपने, रोज-रोज की मौत - अ डेथ ऑफ द ड्रीम, अ डेथ ऑफ अ पर्सन! रोज-रोज की मौत के लिए रोज-रोज की जिंदगी भी, मगर ऐसी, जिसका हमराज़, जिसका राज़दार किसी को बनाते हुए तुम्हारी रूह तक काँपे। हाँ, यही है सपने देखने की तुम्हारी सजा, तुम सबकी सज़ा। समझे?

राजदार न माँ-बाप बन सके, न नीला। कैसे बनाए! कैसे समझाए? बाप ने अपने हिस्से के दूध को चाय में तब्दील करते हुए उसे बादाम, किशमिश, छुहारे मुहय्या कराए। माँ मजबूरी में दूध पीती रही, किशमिश, छुहारे भी खाती रही। मगर जैसे ही चेतन ने उसका दूध पीना छोड़ा, उसने अपने लिए सूखी रोटी मुकर्रर कर ली। वह बड़ा होता गया, अर्जुन सा सुदर्शन, बलिष्ठ, चौड़ा-चकला। जभी तो नीला को उस पर नाज़ है - मेरा चेतन, इत्ता सुंदर! इत्ता बांका! वह कभी-कभी मुर्झा भी जाती है। वह चेतन जैसी सुंदर नहीं। कहने को वह जवान है, मगर जवानी का ज्वार बदन में ज़रा भी नहीं। मनचलों के ताने सुनती, आजू बाजूवालियों के मजाक़ सहती वह बड़ी हो गई । उसे डर लगता है। कहीं चेतन ने भी उसकी इस हड़ीली देह का मजाक़ उड़ाया तो? उसका मजाक़ वह कैसे सह पाएगी? डरते डरते एक दिन वह अपना डर खोल ही देती है चेतन के सामने। चेतन उसे समझाता है - 'पगली, देह की सुंदरता से कहीं प्यार मापा-तौला जाता है। तुम जैसी भी हो, मेरी अनमोल धरोहर हो। नीला, क्या मैं भरोसा करूं कि तुम हर अच्छे-बुरे वक्त में मेरा साथ दोगी। मुझे छोड़कर कहीं भी नहीं जाओगी। कभी बीच रास्ते में साथ छोड़ भी गया तो भी माँ-बाउजी का ख्याल ...'

नीला बीच में ही मुंह बंद कर देती है। बिगड़े मूड को बनाने की गरज से तुनकती है। बात को हँसी में उड़ाने की कोशिश करती है -'औरतों को हमेशा शूली पर मत चढ़ाया करो। मैं कुछ नहीं करने-धरने वाली। न अपने लिए, न तुम्हारे माँ-बाप के लिए। जो करना है, खुद करो। हाँ, बीच में टाँग नहीं अड़ाऊँगी, ये पक्का वादा जान लो।'

मैनेजर ने एक हफ्ते की छुट्टी का वादा किया था, मगर मुकर गया -'कस्टमर के बीच तुम्हारी डिमांड पीक पर है। आई कांट लूज माई वैल्यूएवल कस्टमर्स। यू हैव टू बी हेयर।'

'हेयर माई फुट!' मन में गाली निकालता चेतन ऊपर से बोला -'यस सर!'

सपनों की मीनारों पर रंग-बिरंगी रोशनियों के बड़े-बड़े लट्टद्न नाचते हैं। रोशनी की झिलमिल बारिश हो रही है। हॉल के बाहर चाहे जितने कार्य-व्यापार हों, हॉल के भीतर एक ही क्रिया-प्रतिक्रिया - तेज संगीत, तेज रोशनी, तेज डाँस, तेज सांसें, तेज सीत्कार - सब कुछ तेज ... फास्ट ... रूकना नहीं। रूके कि किस्सा खतम।

फिर भी रेकॉर्ड मिनट भर को थमता है। चेतन अंधेरे में गायब हो जाता है। हॉल हठात कुछ खो जानेवाली चीखों, चिल्लाहटों से भर जाता है। वेटर फुर्ती से सर्व करने लग जाते हैं - वोदका मैम? मैम जिन? ओह, ओनली बकार्डी। नो प्रॉब्स! जस्ट गिव मी टू मिनट्स मैम! ... मैम, व्हाई डोंट यू ट्राइ अवर टुडेज स्पेशल? वाँट? ओ के मैम.., थैंक यू मैम!

होटल पर बहार है। इस बहार पर निसार है सारा रंग, सारी उमंग, सारा जोश, सारी जवानी, सारा धन। वेटर हँसते हैं - ताड़ की देसी ताड़ी में तरबूजे और पाइनएप्पल का जूस विथ फ्री पोटैटो एंड बनाना वेफर्स और हो गया टुडेज स्पेशल... हाई डिमांड, हॉट सेल। बाजार है, बाजार भाव है, खुद को बेचने आना चाहिए बस! तैयार रहिए बेचने को, बिकने को। अजीबोगरीब घालमेल में - ताड़ी के साथ तरबूजे के जूस में। खूब बिकेगा यह अजीबोगरीब घालमेल... एकदम नया है, एक्साइटिंग है...

चेतन भी बिक रहा है, क्योंकि काँसेप्ट नया है। उनका फेमिनिज्म संतुष्ट हो रहा है - बहुत भोगा हमें। अब हमारी बारी है। जो चोट तुमने हमें दी, वही अब हम तुम्हें - खून का बदला खून... यह जानने-समझने की किसे पर्वाह है कि भुक्तभोगी तो भुक्तभोगी ही होता है, उसमें लिंग और वर्ग कहाँ से आ जाता है? ये सब विचार हैं और उपभोक्तावादी समाज में विचार प्रतिबंधित है। इसलिए चेतन सिल्क के चमकते, भड़कीले मगर ढीले-ढाले लिबास में है। शरीर को कसो नहीं, रोशनी को दबाओ नहीं। सबकुछ खुला, सबकुछ तेज - और खुला, और तेज - ज्ािस्म खुला, लिबास खुले, रोशनी तेज, धुन तेज... स्पेशल हॉल, स्पेशल एंटरटेनमेंट... ओनली फॉर गर्ल्स एंड लेडीज। नो मेन अलाउड। वेटर हँसते हैं -'एक्सेप्ट वेटर्स एंड चेतन।'

हॉल का उन्माद शवाब पर है। लड़कियों का एक झुंड चेतन से चिपट जाता है। चेतन को सख्त ताकीद है कि वे उन्हें उत्तेजित तो करे, मगर बगैर हाथ लगाए। उत्तेजित मुर्गी खुद आ फँसे तो बड़ी नर्मई से, शिष्टाचार से उसे अपने से अलग करे... हाँ, ताकि उसे उसमें कोई बेअदबी नजर न आए। वह दिखाए कि वह तो उसी के साथ रहना चाहता है, मरता है उस पर। मगर, क्या करे! मजबूरी है - इत्ते सारे लोग जो हैं यहाँ पर।

मैनेजर बोली लगाता है - ऊँची कीमत... ऊंची .. और ऊंची..। वह गिनती करता है - एक, दो, तीन... छह! बस- बस! इससे ज्यादा नहीं। सॉरी मैम, यू हैव टू वेट फॉर टुमॉरो। दैट ओल्सो यू मस्ट थिंक अबाउट यो पेमेंट प्लान... पेमेंट केपासिटी नहीं बोल सकता - ऐसी बेअदब ज़ुबान की यहां कोई जगह नहीं। हर चीज तहज़ीब के चमकते रैपर मेेंं लपेटकर परोसो। लेनेवाले की तहज़ीब मत पूछो... देनेवालों को तहज़ीब मत सिखाओ। बस, अपनी मांग और शर्तों का ध्यान रखो। उसमें कोई समझौता नहीं। आखिर को घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? मैनेजर स्ट्रिक्ट है- नो मैम, आ'एम सॉरी, एक्स्ट्रीमली सॉरी। यू विल हैव टू वेट। वी कांट हेल्प यू। हां, इफ़ यू वांट सम अदर गाय..

नो नो, आई वांट हिम ओनली। नो रिप्लेसमेंट।

देन यू हैव टू वेट मैम। ऑफ्टर ऑल, ही इज अ ह्यूमन बीइंग, नॉट आ मशीन...

ह्यूमन बीइंग ।.. क्या सचमुच? कहाँ है संवेदनाएँ, अगर उसे वास्तव में इंसान समझा जा रहा हैे? दो-तीन घंटों का उन्मादी नाच और उसके बाद छह-छह को... नहीं, ग्राहक नहीं, ग्राहिकाएं। लेडी कस्टमर्स... छि: ये सब लेडी कहलाने लायक है? कुतिया हैं साली, सुअरनी... रंडी से भी बदतर...

चेतन अपनी संवेदनाएं जीवित रखना चाहता है। इसलिए पूरे नाच के दौरान वह ख्वाबों की मालाएं गूँथता जाता है और सारी मालाएं नीला को पहनाता जाता है। सारी लड़कियाँ नीला में बदल जाती हैं। वह नीला में डूब जाता है। विदेशी परफ्यूम की महक, मँहगे कपड़ों की सरसराहट, अंँगेजी में उछाले गए शब्द कहीं खो जाते हैं - रह जाती है नीला की सूती साड़ी में से आती घर की धुलाई की गंध, हिंदी-मराठी के शब्द। सभी कहती हैं - वह डूबकर मुहब्बत करता है। इसीलिए उसकी माँग सबसे ज्यादा है।

माँग और पूर्ति - मैनेजर अर्थशास्त्र के इस सिध्दांत को समझता है। उसने चेतन के पैसे बढ़ा दिए हैं - 'टेक गुड एंड हेल्दी फूड माइ ब्यॉय। गो टू जिम। टेक केयर।' मैनेजर मुस्कुराता है। सपने अचानक बिंध जाते हैं, घायल हो जाते हैं। लेकिन जिंदगी में, वास्तविक जीवन में भी अभिनय करना पड़ता है - 'थैक्यू सर! सो नाइस ऑफ यू सर!' मैनेजर की मुस्कान उसका हौसला बढ़ाती है -'सर, एक रिक्वेस्ट है... कल मुझे कहीं जाना है। छुट्टी चाहिए एक दिन की।'

'दिन की न! दिन की तो रहती ही है तुम्हारी छुट्टी।'

'आई मीन, सर, मेरा मतलब है... शाम की... '

'नो, एन ओ, नो, नेवर।'

'सर, प्लीज!'

'आई सेड नो, एन ओ नो। मालूम है तुम्हें, कल मिस क्यू आनेवाली हैं एंड यू नो, हाऊ फाँड ऑफ यू शी इज... जिसके पीछे उसके चाहनेवालों की लंबी क्यू लगी रहती है, उसी मिस क्यू की नजरों में, उसके दिल में तुम बसे हुए हो डियर।'

'सर सिर्फ एक शाम!'

'तुम्हें पता है, उसका नाम मिस क्यू क्यों पड़ा?'

'सर मेरी बात तो सुनिए सर।'

'इसलिए कि उसके चाहनेवालों की एक लंबी क्यू होती है। है न वेरी फ़नी... हा... हा... हा... हा... एंड माइंड इट माइ डियर कि शी इज वेरी-वेरी प्रॉस्पेरस कस्टमर फॉर अस। वी जस्ट कांट लूज हर।'

'तो क्या मैं अपनी लाइफ लूज कर दूँ?'

'दैट इज नन ऑफ माई बिजनेस।' मैनेजर कंधे उचका देता है।

चेतन का मन किया, मारे एक लात कसकर इस मैनेजर की पीठ पर और थूक दे अपनी इस तथाकथित नौकरी पर, जो उसे एक शाम तक मुहय्या नहीं करा सकती। कल नीला का जन्मदिन है। वह उसके साथ रहना चाहता है। पूरा दिन, पूरी शाम। हो सका तो रात भी... वह झुरझुरा जाता है। पूरे बदन में जलतरंग सा कुछ बजता है। यह जलतरंग तब कभी नहीं बजता है, जब वह अपने ग्राहकों के साथ होता है। नीला के साथ आत्मीय पल गुजारने के ख्याल से ही यह जलतरंग... लेकिन यहाँ तो...

लेकिन क्या करेगा वह नीला को यहाँ लाकर? मैनेजर मान भी ले तो भी? आखिर एक रेस्ट रूम जैसी चीज तो होती ही है न उन लोगों के लिए। उसी में गुंजाइश... लेकिन वह और नीला - नीला और वह... खुद तो उलझा रहेगा दूसरों में। नीला क्या यहाँ कमरे की दीवारें या उसकी सजावट देखती रहेगी? सपने यूँ और इसतरह हक़ीकत से टकराते हैं। बार-बार, ऐसे कि आप आह भी नहीं भर सकते। मैनेजर का काम ही है ना करना। उसे सबकुछ मैनेज करना है... लिहाज़ा, चेतन को भी कर लिया - कहा, दिन में ले लो...एक के बदले दो।

लेकिन दिन में नीला को छुट्टी नहीं मिली। ऑफिस का रिव्यू चल रहा था। बॉस ने तो यह भी कह दिया कि देर शाम तक बैठना पड़ सकता है। सब बैठेंगे। वह कैसे मना कर सकती है? और मना करके भी क्या होगा? किसके लिए वह जल्दी जाए?

दोनों ने एक-दूसरे को दिलासे दिए। दोनों ने अच्छे कल की उम्मीदों के दिए जलाए। दिए की हल्की नीम अंधेरी रोशनी में दोनों सोने चले गए। परंतु दोनों ने सोने का नाटक किया। बिस्तर अलग अलग थे, जगहें अलग अलग थीं। लेकिन ख्वाब फिर भी आते रहे - जागी ऑंखों के सपने, जो अलग अलग नहीं थे।

जागी ऑंखों के इन्हीं ख्वाबों को झटककर दोनों अपने-अपने काम पर थे। चेतन ने देखा, आज हॉल की पूरी सज धज ही एकदम से नई है। मैडम क्यू आनेवाली हैं - अपने ग्रुप के साथ। मैडम क्यू - यहाँ की वन ऑफ द मोस्ट प्रॉस्पेरस कस्टमर्स, जिसे लुभाने के लिए हर चीज बदल दी गई है। पेपर से लेकर लाइट, स्टेज डिजाइनिंग, क्रॉकरी, मेजपोश, यहाँ तक कि वेटर्स भी। नहीं बदला गया तो सिर्फ चेतन -'यू आ' इन हाई डिमांड माई डियर। हाऊ कैन वी स्किप यू। वी जस्ट कांट अफोर्ड टू लूज़ यू माई ब्यॉय। मैडम क्यू के साथ सुंदरियों की पूरी फौज रहेगी। एन्जॉय, यंग ब्यॉय, एन्जॉय!'

'आप ही करो न एन्जॉय!' न चाहते हुए भी चेतन का मुंह नीम से भर गया। मुंह में थूक भर आया, मगर निगल गया। मैनेजर मैडम क्यू के सपनों में खोया हुआ था। उसे उस नीम में भी बर्फी का स्वाद मिला -'काश कि कोई मुझे भी पसंद कर लेती। बट आई नो कि ये बिग ब्यूटीज मेरे हाथ से पानी का एक ग्लास तक लेना पसंद नहीं करेंगी। किसी और चीज की तो बात ही क्या है?'

चेतन के मन में घिन का बड़ा सा लोंदा फँसता है, जिसे वह तुरंत बाहर निकाल फेंकता है। प्रोफेशन इज गॉड - गॉड से नफरत नहीं। और फ़िर, जिस मन में नीला है, उसमें घिन के बलगम को वह कैसे जगह दे सकता है। मैडम क्यू - मैनेजर की सबसे ज्यादा प्रॉस्पेरस कस्टमर। सारी लड़कियों और महिलाओं में तो वह नीला की प्रतिमा स्थापित कर लेता था। लेकिन इस मोटी, भीमकाय, काली सुअरनी में कैसे वह नीला का तसव्वर करे! काले चेहरे पर लाल लिपस्टिक। शोख रंगों और डिज़ाइनवाले कपड़े। उसे कोयले की अंगीठी याद आती है। उसे हँसी आ जाती है। मैडम क्यू उत्तेजित होती है - तेज, और तेज, मूव, मूव फास्ट।

आज की थकान से वह निढाल हो जाता है। इतना कि नीला को याद भी नहीं कर पाता ढहने से पहले। मन में गुस्से का गुबार फूटता है - क्या समझता है यह मैनेजर मुझे! कमजोर? लाचार? बेबस? होटल के गुदगुदे बिस्तर से निकलकर अपनी चौकी के फटे पुराने तोशक पर ढहते हुए वह फूट पड़ता है, नहीं करेगा वह ऐसी नौकरी।

मैनेजर समझाता है, 'माना कि तुम्हारे पास आला डिग्री है, फर्स्ट क्लास का सर्टीफिकेट है, मगर नौकरी तो नहीं है न! तो इस एक बित्ते की डिग्री को चाट-चाटकर भूख-प्यास मिटाओगे? उसी से देह ढँकोगे? उसी को सर पर छाँव की तरह बिछाओगे? और वह भी कबतक? रह गया मै। तो मैं तो शर्तिया कमीना हूँ। पैसे के आगे सबकुछ बेकार। मैं तो डियर, तेल देखता हँ, तेल की धार देखता हूँ। पैसों की जित्तीे मोटी धार तुम्हें मिल रही है न, उत्ती मोटी धार तो तुमने कभी छोड़ी भी नहीं होगी अपने कस्टमरों के भीतर।'

'ओक... आ... आक... थू...!' चेतन उल्टियाँ करने लगता है। उसे लगता है, किसी ने उसी के वीर्य को उसी की हथेली में भरकर उसे ही पिला दिया है। वह ओकता जा रहा है, ओकता जा रहा है। उल्टियाँ हैं कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही। ओकते-ओकते वह थक जाता है। थक जाता है तो नीला सामने आ जाती है।

नीला! नीला कहाँ हो नीला! उसका मन करता है, बस उड़ चले नीला के पास। उसके चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों में भर ले। उसकी दोनों पलकों को गुलाब की पंखुड़ियों से भी ज्यादा नर्मई से चूमे। सामने नीला है, उसे सुकून मिलता है - ढीली सी एक चोटी, सूती लिबास और प्रसाधन रहित चेहरा, जैसे गंगा के पानी से धोया हुआ चेहरा - साफ, निर्मल, सुबह खिले ओस में भींगे गेंदे जैसा भरा-भरा, प्रस्फुटित, सुगंधित चेहरा। नीला-भव्य है, शांतिमय है, निष्पाप है। चेतन उसे अपनी बाहों में भरना चाहता है। वह आगे बढ़ता है। लेकिन पाता है कि उसकी पूरी की पूरी देह वीर्य में सनी पड़ी है। पूरे बदन से बदबू के भभूके उठ रहे हैं। इतने गंदे हाथ और गंदी देह से वह इस निष्पाप, भव्य नीला को कैसे छुए? बदबू और मजबूरी के बीच फ़ंसा वह अकबका उठता है और मारे अकबकाहट के वह फिर से उल्टियाँ करने लगता है।

रोशनी के चाँद सितारों से पूरी दुनिया नहा रही है। चेतन अब अवचेतन में बदल रहा है। संगीत तेज से तेजतर होता जाता है। आहों, चीखों, चिल्लाहटों, सीत्कारों का बाजार पूरे उफान पर है। खट्टा, बासी और बदबूदार उफान। एक ने उस उफान में बहकर उसकी शर्ट की ज्ािप खोल दी। हॉल ठहाकों और तालियों से गूँज उठा। दूसरी दबंग ने थोड़ी और हिम्मत की उसके गाल पर अपने दाँत गड़ा दिए - शराब और जवानी के नशे में बहकी अपनी देह उसके ऊपर ढीली कर दी। गाल पर निशान पड़ गया। थूक से वह लिथड़ गया। पोछ भी नहीं सकता। पोछना बेअदबी है, कस्टमर का अपमान। उसे तो हँसते रहना है। उनकी हरकतों पर हाऊ क्यूट, वेरी स्वीट बोलते रहना है। कल नीला गाल पर निशान देखेगी तो उसे जवाब भी देना है।

लड़की ने अब उसका दूसरा गाल लेकर दाँत से काटना शुरू कर दिया। एक ही लड़की उससे इत्ती देर तक चिपकी रहे, दूसरियों के लिए यह कैसे मुमकिन था। दूसरी ने उसे धक्का देकर परे कर दिया और खुद उसकी लुंगी की गांठ खोल दी। यह एक गेम था। शो का आखिरी गेम, जिसके लिए चेतन और उसकी पूरी टीम को ऐसे ही मँहगे, चटकीले, भड़कीले सरसराते सिल्क की ज्ािप लगी ढीली शर्ट और लुंगी दी जाती थी, जो उंगली के एक इशारे का भी बोझ न सह पाए। पाँच-दस मिनट के अत्यधिक उत्तेजना भरे नृत्य-संगीत के बाद घुप्प अंधेरा।

मैंनेजर काले दाँत सहित मुस्कुराता है -'अपन तो जी, सबका भला चाह कर ही अंधेरा कर देते हैं। लो भई, जित्ते मजे चाहो, जिससे चाहो, ले लो। कभी-कभी अपन भी इस अंधेरे का फायदा उठा लेते हैं। वेटर भी मुस्कुराते हैं... फायदा? हाँ, जी, अपन लोग भी, कभी-कभी... बेहयाई के नशे में धुत इन रंडियों को क्या पता कि कौन क्या है?'

चेतन फिर से उल्टी करता है। सपने जब फलते नहीं, तब वे सूखने लग जाते हैं, झड़ने लगते हैं। तब जमा होता है कूड़ा, कर्कट। तब फैलती है बदबू। नीला पूछती रहती है -'आखिरकार तुम्हारे काम का नेचर क्या है? बताते क्यों नहीं? फ्लोर मैनेजर, हॉल मैनेजर... क्या होता है यह सब? बताओगे, तब तो जानूंगी न।'

चेतन बचता है। बात करने से कतराता है। वह नीला को बहलाता है, इधर उधर की बातों से उसे फ़ुसलाता है। इस सवाल पर वह बचना चाहता है नीला से। बचना चाहता है ग्राहकों से - बचाव चाहता है, किसी अनिष्ट की आशंका से... कहीं कुछ हो गया तो क्या नीला को यही तोहफा देगा शादी का? अपने साथ-साथ उसकी भी जिंदगी तबाह करेगा? वह बचाव के उपाय खरीदता है। साथ भी रखता है। मान-मनुहार भी करता है, कभी-कभार बचाव करने में सफल भी हो जाता है। लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं। मदहोशी और नशे में उत्तेजित इनलोगों के सामने उसकी एक भी नहीं चलती। मैनेजर की सख्त हिदायत अलग से है - कस्टमर इज़ गॉड और गॉड को नाराज नहीं करना है, यह ध्यान रहे।

चेतन के पास जमा होते जाते हैं - पैकेट दर पैकेट... घर में ढेर लगता जा रहा है। अच्छा है, नीला को वह यही उपहार देगा - शादी का। नीला कैसे शर्मा जाएगी न इन्हें देखकर? शर्माकर उसके सीने में अपना चेहरा छुपा लेगी। पीठ पर प्यार भरी मुक्कियाँ बरसाएगी और मुक्कियों की इस प्यारी सी बरसात में वह भीगता चला जाएगा - तन-मन-प्र्राण से।

चेतन फिर से घबड़ाता है - वह फिर से ख्वाब देखने लगा। उसने अपने ऊपर पाबंदी लगाई थी कि या तो वह सपने नहीं देखेगा या फ़िर इस हकीकत से दूर हो जाएगा। दोनों एक साथ नहीं चल सकते। चेतन चला नहीं सकता। मन सरगोशी करता है, मगर कैसे? उसका मन ही एक घरेलू सा जवाब दे देता है - जैसे झगड़ालू सास-ननद के साथ-साथ उसकी सीधी साधी बहू भी रहती है। नीला भी रहेगी इसी तरह से, इस भंयकर हक़ीकत के साथ। उसी दिन तो नीला कह रही थी -'चल, अब लगन कर लेते हैं। बोलो तो मेरे अम्मा बाउजी आकर बात करें। थोड़े पैसे जमा किए हैं मैंने। तुम्हारी तो अच्छी नौकरी है। अच्छे पैसे होंगे। बहनों का भी बोझ नहीं है। बाउजी अपना कमाते हैं। रिटायरमेंट के बाद पेंशन मिलेगी ही। तो ऐसा करो न, कहीं देख-सुनकर कोई फ्लैट बुक करवा लेते हैं?'

देखना-सुनना तो पड़ेगा ही। चेतन अब पूरी तरह से चेतन है। यथार्थ और सपने यदि एक साथ रहते हैं तो रहें। बस, दोनों के लिए चाहिए एक ठोस, पुख्ता जमीन। चेतन के यथार्थ का पक्ष चाहे जितना भी काला हो, उसे अब और अंधेरे में नही रखना है। नीला की नीली प्यार भरी रोशनी में सबकुछ उजागर कर देना है। उसके ख्वाब टूटते हैं, तो बेहतर है, समय से टूट जाए। चेतन दरकता है तो अच्छा है, गीली मिट्टी पर दरार आए, ताकि वक्त जरूरत उसे मिटाया जा सके। वह डरता है, नीला, जब तुम सपनों के ऊँचे गुंबद से उतर कर मेरे यथार्थ की पथरीली, काँटों भरी जमीन पर खड़ी होओगी तो इसका सख्तपन, इसका दर्द, इसकी ठेस, इसका बहता खून बर्दाश्त कर पाओगी? क्या करोगी जब तुम्हें पता चलेगा कि मेरे इस फ्लोर मैनेजर या हॉल मैनेजर की असलियत क्या है? जवाब दो नीला! तुम्हारे जवाब पर मेरी पूरी ज्ािंदगी टिकी हुई है।

कैसा जवाब? सवाल तो पूछे पहले वह? और सवाल से पहले पूरी कहानी भी तो कहनी होगी। बगैर कहानी के सवाल कैसे और बिना प्रश्न के उत्तर कैसे? चेतन तैयार है - अपनी परीक्षा के लिए - उसी तरह से, जिस दिन हॉल मैनेजरी की परीक्षा में उतरा था। आज भी एक परीक्षा है। चलो, नीला के प्यार की गहराई भी देख लें? लेकिन नहीं। पहले वह अपनी गहराई तो माप ले! यदि यह सब सुनकर नीला उसे छोड़कर चली गई तो भी क्या वह सामान्य बना रह सकेगा? एकदम आम आदमी की तरह- हंसता, गाता, अपने सपनों के साथ खेलता, झूमता, नाचता, मुस्काता? सपनों की इस ज़मीन से उस सरज़मीन तक जाने के लिए सबसे पहले उसे खुद को पहले तैयार करना होगा। नीला तो बाद की बात है।####

Thursday, August 19, 2010

कथा कहो राम!

सब कह्ते हैं तुम्हें मर्यादा पुरुषोत्तम

तुम रहे वंशज बडे बडे सूर्यवंशियों के

देव, गुरु, साधु ऋषि सभी थे तुम्हें मानते

फिर क्यों रहे चुप, जब जब आई तुम पर आंच?

जब जब लोगों ने किये तुम पर प्रहार?

इतना आसान नहीं होता सुख सुविधाओं को छोड देना

तुमने सब त्याग धर लिया मार्ग वन का

इतना आसान नहीं होता अपने ही भाई और भार्या को कष्ट में देखना

तुमने धारी कुटिया और धारे सभी कष्ट

इतना आसान नहीं होता पत्नी पर किसी और द्वारा आरोप लगाना

और उस आरोप को शिरोधार्य करना

शिरोधार्य करके पत्नी को अग्नि में झोंक देना

जन के आरोप पर पत्नी का त्याग

राज काज के लिए अपने हित की तिलांजलि

न भार्या का विचार ना अजन्मी संतान के भविष्य की चिंता

मात्र जनता के लिए, राजकाज के निष्पादन के लिए

कितना कष्टकर होता है राजधर्म का निर्वाह

जब त्यागने पडते हैं अपने समस्त सुख-सम्वेदनाओं के सिंहासन, चन्दोबे

सभी को दिख गई सीता की पीर

सभी ने बहाए सीता के आंसू अपने अपने नयनों से

देखे, समझे लव कुश का बिन पिता का बचपन

समझो ज़रा राम की भी पीर

सहो तनिक उसकी भी सम्वेदना

बहो तनिक उसके भी व्यथा सागर में

बनो तनिक राम

कथा कहो राम

कथा कहो राम की.

Wednesday, August 18, 2010

हम!

धरती की हरियाली पर मन उदास है,

कोई फर्क़ नहीं पडता

कि आपके आसपास कौन है, क्या है?

आप खुश हैं तो जंगल में भी मंगल है

वरना सारा विश्व एक खाली कमंडल है.

इतने दिनों की बात में

जब हम कुछ भी नहीं समझ पाते

कुछ भी नहीं कर पाते,

तब लगता है कि जन्म लिया तो क्या किया?

तभी दिखती है धरती, चिडिया, हवा, चांदनी

और मौन का सन्नाटा कहता है कि

हां, हम हैं, हम हैं, तभी तो है यह जगत!

खुश हो लें कि हम हैं

और जीवित हैं अपनी सम्वेदनाओं के साथ

प्रार्थना करें कि पत्थर नहीं पडे हमारी सम्वेदनाओं पर!

Thursday, August 12, 2010

क्या कुछ भी नहीं था हमारे पास?

तब हमारे पास फोन नहीं था,

बूथ या दफ्तर से फोन करके

तय करते थे- मिलना-जुलना

पहुंच भी जाते थे, बगैर धीरज खोए नियत जगह पर

अंगूठे को कष्ट पहुंचाए बिना.

घरवालों को फोन करना तो और भी था मंहगा

चिट्ठी ही पूरी बातचीत का इकलौता माध्यम थी

तब हमारे पास गाडी नहीं थी,

घंटों बस की लाइन में लगकर पहुंचते थे गंतव्य तक

पंद्रह मिनट की दूरी सवा घंटे में तय कर

तब गैस चूल्हा नहीं था हमारे पास

केरोसिन के बत्तीवाले स्टोव पर

हाथ से रोटियां ठोक कर पकाते-खाते

सोने के लिए तब हमारे पास होता एक कॉट, एक चादर

तौलिए को ही मोड कर तकिया बना लेते

पुरानी चादर, साडियां, दुपट्टे

दरवाज़े, खिडकियों के पर्दे बन सज जाते

क्रॉकरी भी नही थी

तीस रुपए दर्ज़नवाले कप में पीते-पिलाते थे चाय

कॉफी तो तब रईसी लगती

बाहर खाने की तो सोच भी नहीं सकते थे

न डिनर सेट, न फ्रिज़, न मिक्सी, न टीवी

बस एक रेडियो था और एक टेप रेकॉर्डर- टू इन वन

चंद कपडे थे- गिने-चुने

चप्पल तो बस एक ही- दफ्तर, बाज़ार, पार्टी सभी के लिए

कुछ भी नहीं था हमारे पास.

क्या सचमुच कुछ नहीं था हमारे पास?

ना, ग़लत कह दिया

तब नहीं थी हमारे पास सम्पन्नता

हमारे पास थी प्रसन्नता!

Friday, August 6, 2010

हां जी हां, हम तो छिनाल हैं ही! तो?

http://baithak.hindyugm.com/2010/08/haan-ji-haan-ham-chhinal-hain.html


http://www.janatantra.com/news/2010/08/06/vibha-rani-on-chhinal-vibhuti-kand/

लोग बहुत दुखी हैं. एक पुलिसवाले लेखक ने हम लेखिकाओं को छिनाल क्या कह दिया, दुनिया उसके ऊपर टूट पडी है. इनिस्टर-मिनिस्टर तक मुआमला खींच ले गए. अपने यहां भी ना. लोग सारी हद्द ही पार कर देते हैं. भला बताइये कि जब हम बंद कमरे में किसी को गलियाते हैं, तब सोचते हैं कि हम क्या कर रहे हैं? जब एक भद्र महिला किसी अन्य पुरुष के साथ सम्बंध बनाती है तो वह छिनाल कहलाती है, मगर जब भद्र पुरुष किसी अन्य भद्र-अभद्र महिला के साथ सम्बंध बनाते हैं तब? निश्चित जानिए, ये छिनालें भी भद्र मानुसों के पास ही जाती होंगी. लेकिन छिनाल के बरअक्स उनके लिए कोई शब्द नहीं होता, तब कहा जाता है कि मर्द और घोडे कभी बुढाते हैं भला? और अपने हिंदी जगत में ऐसे भद्र लेखकों की कमी है क्या? और ‘ज्ञानोदय’ का तो नया नाम ही है, “नया ज्ञानोदय” तो इसमें कुछ नई बातें होनी चाहिये कि नहीं? प्रेम और बेवफाई के बाद अब छिनालपन आया है तो आपको तो उसे सराहना चाहिए.

अपने शास्त्रों में तो कहा ही गया है कि मन और आत्मा को शुद्ध रखो. इसका सबसे सरलतम उपाय है अपने मन की बात उजागर कर दो, मन को शान्ति मिल जाएगी. सो पुलिसवाले ने कर दिया. वह डंडे के बल पर भी यह कर सकता था. आखिर रुचिका भी तो लडकी थी ना.

अब अपने विभूति भाई स्वनाम धन्य हैं. अपने कुल खान्दान के विभूति होंगे, अपनी अर्धांगिनी के नारायण होंगे, अपनी पुलिसिया रोब से कभी कभार उतर कर कुछ कुछ राय भी दे देते होंगे. अब इसी में एक राय दे दी कि हम “छिनाल” हैं तो क्या हो गया भाई? कोई पहाड टूट गया कि ज्वालामुखी फट पडी.

छम्मकछल्लो तो खुश है कि उन्होंने इस बहाने से अपनी पहचान भी करा दी. नही समझे? भई, गौर करने की बात है कि हमलोगों को छिनाल या वेश्या या रंडी कौन बनाता है? हमसे खेलने के लिए, हमसे हमारे तथाकथित मदमाते सौंदर्य और देह का लुत्फ उठाने के लिए, हम पर तथाकथित जान निछावर करने के लिए हमारे पास क्या किसी गांव घर से कोई लडकी या औरत आती है? ये भद्र मानुस ही तो बनाते हैं हमें छिनाल या रंडी. तो अपने इस सृजनकारी ब्रह्मा के स्वरूप को उन्होंने खुद ही ज़ाहिर किया है भाई? पुलिसवाले आदमी हैं, इसलिए कलेजे में इतना दम भी है कि इसे बता दिया. वरना अपने स्वनाम धन्य लेखक लोग तो कहते -कहते और करते- करते स्वर्ग सिधार गए कि “भई, दारू और रात साढे नौ बजे के बाद मुझे औरतों की चड्ढियां छोडकर और कुछ नहीं दिखाई देता. इतने ही स्वनाम धन्य लेखकों की ही अगली कडी हैं अपने विभूति भाई. छिनालों के पास जाने के लिए तो पैसे भी नहीं खर्चने होते भाई! आनंद ही आनंद.

इतना ही नहीं, अपने लेखकों की जमात जब एक दूसरे से मिलती है तो खास पलों में खास तरीके से टिहकारी-पिहकारी ली जाती है, “क्यों? केवल लिखते ही रहे और छापते ही रहे कि किसी को भोगा भी? और साले, भोगोगे ही नहीं तो भोगा हुआ यथार्थ कहां से लिख पाओगे?”

मूढमति छम्मकछल्लो को इसके बाद ही पता चल सका कि भोगे हुए यथार्थ की हक़ीक़त क्या है? वह तो अपने लेखन की धुन में सारा आकाश ही अपने हवाले कर बैठी थी और मान बैठी थी कि भोगा हुआ यथार्थ लिखने के लिए स्थितियों को भोगने की नहीं, उसे सम्वेदना के स्तर पर जीने की ज़रूरत है. वह तर्क पर तर्क देती रहती थी कि भला बताइये, कि कातिल पर लिखने के लिए किसी का कत्ल करना ज़रूरी है? बलात्कृता पर लिखने के लिए क्या खुद ही बलात्कार की यातना से गुजर आएं? छम्मकछल्लो ने अपनी कायरता में इन लोगों से सवाल नहीं किए. अब समझ में आया कि नहीं जी नहीं, पहले अपना बलात्कार करवाइये, फिर उस पर लिखिए और फिर देखिए, भोगे हुए यथार्थ के दर्द की सिसकी में उनकी सिसकारी भरती आवाज़! आह! ओह!

छम्मकछल्लो तो बहुत खुश है कि पुलिस के नाम को उन्होंने और भी उजागर कर दिया. छम्मकछल्लो जब भी पुलिस पर और उसकी व्यवस्था पर विश्वास करने की कोशिश करती है, तभी उसके साथ ऐसा-वैसा कुछ हो जाता है. छम्मकछल्लो के एक फूफा ससुर हैं. दारोगा थे. अब सेवानिवृत्त हैं, कई सालों से. वे कहते थे कि रेप करनेवालों के तो सबसे पहले लिंग ही काट देने चाहिये, फिर आगे कोई कार्रवाई होनी चाहिये.” छम्मकछल्लो के एक औए रिश्तेदार आई जी हैं. वे कहते हैं कि बलात्कार से घृणित कर्म तो और कोई दूसरा हो ही नहीं सकता.

छम्मकछल्लो के कुछ मित्र जेल अधीक्षक हैं. वे सब भी कहते हैं कि हमें सोच कर हैरानी होती है कि लोग कैसे ऐसा गर्हित कर्म कर जाते हैं. वे बताते हैं कि जेल में जब इसका आरोपी आता है तो सबसे पहले तो अंदर के दूसरे ही कैदी उसकी खूब ठुकाई कर देते हैं. कोई भी उससे बात नहीं करता. रेप के अक्यूज्ड को दूसरे कैदी भी अच्छी नज़रों से नहीं देखते.” छम्मकछल्लो ने जब रेप पर एक लेख लिखा था तो एक सह्र्दय पाठक ने बडे ठसक के साथ उससे पूछा था, “आप जो ऐसे लिखती हैं तो क्या आपका कभी बलात्कार हुआ है?” और अगर नहीं हुआ है तो कैसे लिख सकती हैं आप इस पर?” मतलब कि फिर से वही भोगा हुआ यथार्थ.

अब छम्मकछल्लो सगर्व कह सकती है कि हां जी हां, उसके साथ बलात्कार हुआ है. भाई लोग उसे लेखिका मानें या न मानें वह तो अपने आपको मानती ही है. वह यह भी मानती है कि जिस तरह से घरेलू हिंसा दिखाने के लिए शरीर पर जले, कटे या सिगरेट के दाग के निशान ज़रूरी नहीं, उसी तरह बलात्कार करने के लिए किसी के शरीर पर जबरन काबू करना जरूरी नही. इस मानसिक बलात्कार से विभूति भाई ने तो एक साथ ही साठ हज़ार रानियों और आठ पटरानियों का सुख उठा लिया. भाई जी, हम आपके नतमस्तक हैं कि आपने अपने करतब से हम सबको इतना ऊंचा स्थान बख्श दिया. जहां तक बात चटखारे लेने की है तो जब स्वनाम धन्य लेखक भाई लोग सेक्स पर लिखते हैं तब क्या लोग चटखारे नहीं लेते? सेक्स को हम सबने अचार, पकौडे, मुरब्बे की तरह ही चटखारेदार, रसीला, मुंह में पानी ला देनेवाला बना दिया है तो सेक्स पर कोई भी लिखेगा, मज़े तो लेगा ही. सभी मंटो नहीं बन सकते कि उनके सेक्स प्रधान अफसाने बदन को झुरझुरा कर रख दे और आप एक पल को सेक्स को ही भूल जाएं या सेक्स से घृणा करने लग जाएं.

इसलिए हे इस धरती की लेखिकाओं, माफ कीजिए, हिंदी की लेखिकाओं, अब इन सब बातों पर हाय तोबा करना बंद कीजिए. अपने यहां वैसे भी एक कहावत है कि “हाथी चले बाज़ार, कुत्ते भूंके हज़ार.” तो बताइये कि उनके भूंकने के डर से क्या हाथी बाज़ार में निकलना बंद कर दे? हिंदी के, जी हां हिंदी के ये सडे गले, अपनी ही कुंठाओं और झूठे अहंकार में ग्रस्त ये लेखक लोग इस तरह की बातें करते रहेंगे, अपना तालिबानी रूप दिखाते रहेंगे. हर देश में, हर प्रदेश में, हर घर में फंदा तो हम औरतों पर ही कसा जाता है ना! इससे क्या फर्क़ पडता है कि आप लेखिका हैं. लेखिका से पहले आप औरत हैं महज औरत, इसलिए छुप छुप कर उनकी नीयत का निशाना बनते रहिये, उनके मौज की कथाओं को कहते सुनते रहिये. बस अपने बारे में बापू के तीन बंदरों की तरह ना बोलिए, ना सुनिए, ना कहिए. हां, उनकी बातों को शिरोधार्य करती रहिए. आखिरकार आप इस महान सीता सावित्रीवाले परम्परागत देश की है, जहां विष्णु और इंद्र जैसे देवतागण वृन्दा और अहल्या के साथ छल भी करते रहने के बावज़ूद पूजे जाते रहे हैं, पूजे जाते रहेंगे. आखिर अपनी एक गलत हरक़त से सदा के लिए बहिष्कृत थोडे ना हो जा सकते हैं? यह मर्दवादी समाज है, सो मर्दोंवाली प्रथा ही चलेगी. हमारे हिसाब से रहो, वरना छिनाल कहलाओ.

मां तुम काम करो!

मां तुम काम करो

खेत में, खलिहान में

स्कूल में, मैदान में,

दफ्तर में , दुकान में,

तुम्हारा काम, हमारा विश्वास

पढने का, आगे बढने का

अच्छा सीखने का, अच्छा कमाने का

तुम काम करो मां!

रोती तो पक ही जाएगी,

भात भी सिंझ ही जाएगा,

फर्श भी साफ हो ही जाएगा

जाले- धूल भी निकल ही जाएंगे

राधा मौसी, रम्भा काकी

सरला दीदी, शांति मौसी बनने से बचने के लिए

तुम काम करो मां!


होते रहेंगे विधवाघर आबाद

बनती रहेंगी यातना घर की जीवंत दास्तान

छेदते रहेंगे लोग आंखों से घर के दरवाज़े, खिडकियां

गढते रहेंगे किस्से कहानियों की झालरें, बंदनवार

हम एक समोसे, एक जामुन, एक अमरूद के लिए

ताकते रहेंगे चचेरे –ममेरे भाई-बहनों को

पडोस के चाचाओं, ताउओं को

डिवोर्सी होना इतना आसान नहीं होता मां

मेरे कल के कॉल लेटर के लिए

तुम आज काम करो मां!


किसी के सामने हाथ न फैलाने के लिए

किसी को दान देने के लिए

किसी के इलाज के लिए

किसी की मदद के लिए

किसी बच्चे को पढाने के लिए

किसी बिटिया को सजाने के लिए

किसी का घर बसाने के लिए

किसी का वर सजाने के लिए

तुम काम करो मां!


अपनी आज़ादी के लिए

चार पैसे बिना पूछे खर्चने के लिए

मनपसंद कपडे या चप्पल खरीदने के लिए

होटल बिल खुद से चुकाने के लिए

सबकुछ ठीक रहने पर भी

अपने ज़िंदा रहने के लिए

अपने होने के अहसास के लिए

तुम काम करो मां!