chhammakchhallokahis

रफ़्तार

Total Pageviews

छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

Pages

www.hamarivani.com
|
Showing posts with label गीताश्री. Show all posts
Showing posts with label गीताश्री. Show all posts

Thursday, February 26, 2015

सिनेमा मेरी जान की भूमिका- अजय ब्रह्मात्‍मज

सिनेमा एक जुनून है। गाहे-बगाहे हर कोई अपने इस जुनून के बारे में बताता रहा  है। फिल्मों में भी इसका जुनून छलकता रहा है। हाल में आर बाल्की  की फिल्म "षमिताभ" का गूंगा नायक इसी पागलपन का शिकार है। ....बावजूद इसके, लोग सिनेमा के प्रति एक अनासक्ति का भाव दिखाते रहते हैं। अजय ब्रह्मात्मज द्वारा संपादित और चयनित किताब "सिनेमा मेरी जान" कुछ-कुछ "बॉम्बे मेरी जान" की तरह है। इसमें सिनेमा का खुद के साथ का साक्षात्कार है, जिसमें एक जोश है, जुनून है औरचोरी-छुपे  कुछ करने के अतिरिक्त आनद का एहसास भी। अपने को जीने और सिनेमा के अपने गुद्गुदे अहसास के लिए इस किताब का पढ़ना बहुत ज़रूरी है। पढे, राय दें।
सिनेमा मेरी जान आ गयी। इसमें अंजलि कुजूर, अनुज खरे, अविनाश, आकांक्षा पारे, आनंद भारती, आर अनुराधा, गिरींद्र, गीता श्री, चंडीदत्त शुक्‍ल, जीके संतोष, जेब अख्‍तर, तनु शर्मा, दिनेश श्रीनेत, दीपांकर गिरी, दुर्गेश उपाध्‍याय, नचिकेता देसाई, निधि सक्‍सेना, निशांत मिश्रा, नीरज गोस्‍वामी, पंकज शुक्‍ला, पूजा उपाध्‍याय, पूनम चौबे, मंजीत ठाकुर, डॉ मंजू गुप्‍ता, मनीषा पांडे, ममता श्रीवास्‍तव, मीना श्रीवास्‍तव, मुन्‍ना पांडे (कुणाल), यूनुस खान, रघुवेंद्र सिंह, रवि रतलामी,रवि शेखर, रश्मि रवीजा, रवीश कुमार, राजीव जैन, रेखा श्रीवास्‍तव, विजय कुमार झा, विनीत उत्‍पल, विनीत कुमार, विनोद अनुपम, विपिन चंद्र राय, विपिन चौधरी, विभा रानी, विमल वर्मा, विष्‍णु बैरागी, सचिन श्रीवास्‍तव, सुदीप्ति, सुयश सुप्रभ, सोनाली सिंह, शशि सिंह, श्‍याम दिवाकर और श्रीधरम शामिल हैं।
सभी लेखक मित्रों से आग्रह है कि वे अपना डाक पता मुझे इनबॉक्‍स या मेल में भेज दें। प्रकाशक ने आश्‍वस्‍त किया है कि सभी को प्रति भेज दी जाएगी।
बाकी मित्र शिल्‍पायन प्रकाशन से किताब मंगवा सकते हैं। पता है- शिल्‍पायन,10295,लेन नंबर-1,वैस्‍ट गोरखपार्क,शाहदरा,दिल्‍ली-110032
मेल आईडी- shilpayanboks@gmail.com
पुस्‍तक मूल्‍य- 400 रुपए
(किताब पढ़ने पर प्रतिक्रिया अवश्‍य दें। और खुद भी लिखें। मुझे chavannichap@gmail.com पर भेजें।)

भूमिका
सिनेमा मेरी जान
चवननी चैप ब्‍लॉग के लिए सिनेमा से साक्षात्‍कार के संस्‍मरणों के इस सीरिज के पीछे बस इतना ही उद्देश्‍य था कि हमसभी बचपन की गलियों में लौट कर एक बार फिर उन यादों को ताजा करें। भारत में सिनेमा की शिक्षा नहीं दी जाती। अभी तक माता5पिता बच्‍चों के साथ सिनेमा की बातें नहीं करते हैं। अगर कभी चर्चा चले भी तो हम स्‍टारों की चर्चा कर संतुष्‍ट हो लेते हैं। मेरी राय है कि घर-परिवार या स्‍कूल से हमें सिनेमा का कोई संस्‍कार नहीं मिलता। हमारी सोहबत,संगत और सामाजिकता से सिनेमा का संस्‍कार बनता है। ज्‍यादातर खुद सीखते हैं और सिनेमा का भवसागर पार करते हैं। कुछ सिनेमा के मूढ़ मगज छलांग मारते ही डूब जाते हैं।
यह सीरिज मैंने हिंदी टाकीज नाम से शुरु की थी। इस सीरिज में सम्मिलित गीताश्री ने अपने संस्‍मरण खूब मन से लिखे थे। वे बार-बार कहती थीं कि सारे संस्‍मरणों को संकलित कर किताब के रूप में लाएं। सभी लेखकों ने सिनेमा का उल्‍लेख और वर्णन प्रेमिकाओं की तरह किया हैत्र उन्‍होंने ने नाम तय करने के अंदाज में सुझाया सिनेमा मेरी जान। मैंने स्‍वीकार कर लिया। उनके आधिकारिक आग्रह को मैं कभी नहीं टाल सका। इस पुस्‍तक के शीर्षक के सुझाव में सम्‍मोहन था।
इस संकलन के संस्‍मरणों को पढ़ते हुए हिंदी पट्टी से आए पाठक महसूस करेंगे कि उनके बचपन में ही किसी ने झांक लिया है। किसी ने भी फिल्‍मी ज्ञान देने या झाड़ने की कोशिश नहीं की है। यह बचपन के अनुभवों को सहेजती मार्मिक चिट्ठी है,जो खुद के लिए ही लिखी गई है। इसमें से कुछ संस्‍मरण इस सीरिज के लिए नहीं लिखे गए थे। मैंने अधिकारपूर्वक उन लेाकों के ब्‍लॉग से उठा लिए। ऐसे एक लेखक रवीश कुमार हैं। अगर उन्‍हें बुरा लगा तो वे फरिया लेंगे।
हिंदी में सिनेमा पर या तो गुरू गंभीर और अमूर्त्‍त लेखन होता है या फिर अत्‍संत साधारण और फूहड़। हिंदी सिनेमा की तरह ही आर्ट और कमर्शियल किस्‍म का लेखन चल रहा है। यह सीरिज एक छोटी कोशिश है यह बताने की कि लेखन में भी सिनेमा की तरह मध्‍यमार्ग हो सकता है। सभी के संस्‍मरण पर्सनल हैं। उनमें लेखक आज के व्‍यक्तित्‍व का कदापि न खोजें। हिंदी पट्टी में सिनेमा देखना एक प्रकार की गुरिल्‍ला कार्रवाई होती थी। सुना है कि अभी परिदृश्‍य बदला है। 45 से अधिक उम्र का शायद ही कोई उत्‍तर भारतीय होगा,जिसने सिनेमा देखने के लिए मार या कम से कम डांट नहीं खाई होगी। इसके बावजूद हम सभी सिनेमा देखते रहे। सिपेमा हमारा शौक बना। सिनेमा हमारा व्‍यसन बना।
अक्‍सर मैं सोचता हूं कि हिंदी पट्टी से प्रतिभाएं हिंदी फिल्‍मों में क्‍यों नहीं आती ? मेरी धारणा है कि सिनेमा के प्रति हमारे अभिभावकों की असहज घृणा एक बड़ा कारण है। हिंदी समाज सिनेमा देखने के लिए बच्‍चों को प्रेरित नहीं करता। हम सिनेमा की बातें चेरी-छिपे करते हैं। फिल्‍मों और फिल्‍म स्‍आरों के प्रति हिकारत और शरारत का भाव रहता है। नतीजा यह होता है कि सिनेमा का हमारा प्रेम अपराध भाव से दब और कुचल जाता है। भारत के अन्‍य भाषाओं के समाज में कमोबेश यही स्थिति है। ये संस्‍मरण हमारे अव्‍यक्‍त प्रेम की सामूहिक बानगी हैं।
मेरा दावा है कि हर एक संस्‍मरण का अनुभव आप को संपन्‍न करने के साथ सिनेमा के संस्‍कार भी देगा। अगर बारीक अध्‍ययन करेंगे तो कुछ समान सूत्र मिलेंगे,जो सिनेमा के सौंदर्यशास्‍त्र निरूपण के लिए सहायक होंगे।-  अजय ब्रह्मात्‍मज

 

Monday, June 30, 2014

उपन्‍यास और शीर्षक का संबंध!

छम्मकछल्लो ने एक व्यंग्य 'बिंदिया' को भेजा। जुलाई, 2014 के अंक मे छप गया। देखिये तो इसकी संपादक का कमाल!। झेल लिया व्यंग्य हँसते-हँसते! आप भी झेलिए। क्या कीजिएगा! मन हो तो कहिएगा। व्यंग्य की एकाध धार आप पर भी छोड़ दी जाएगी।
उपन्‍यास और शीर्षक का संबंध- एक-दूजे के लिए!

हे मेरे मन की गीतिके! हे मेरे दिल की प्रीतिके। हे विचारों की रंजिके! हे रिवाजों की भंजिके!
तुम्‍हारे लिए मेरे मन में बड़ा मीत-भाव है! दिल में बड़ा प्रीत भाव है। ऊपर की पंक्तियों से साफ हो  गया होगा। सो, नो रिपीटीशन।
       सुना है, तुम उपन्‍यास लिख रही हो! वह भी एक नहीं, दो-दो। गज्जब्ब यार, गज्जब्ब! अरे, हमको ये तो पता है कि तुम जगजगाती, चिलचिलाती धाकड़ लेखिका होआग उगलती हो आग- कहानी से लेकर किसी की किर्रकिरी खींचने तक, साहित्‍य से लेकर फेसबुक तक, स्‍त्री से लेकर दलित तक, मजदूर से लेकर सिनेमा तारक और तारिकाओं तक तुम सब पर लिखती हो बिंदास, बेधड़क, बेबाक!

तुम्‍हारे ढेरों प्रशंसक हैं, हे प्रशंसिके! तुम्‍हारी एक-एक रचना और एक-एक बात और विचार से तुम्हारे  प्रशंसकों की प्रशंसा के बरगद झूम जाते हैं, हे झूमिके! तुम्‍हारे एक फेसबुक स्‍टेटस पर लाइकों और कमेंटों की सूनामी, कोसी, उत्‍तराखंड सभी आ जाते हैं, हे सुनामिके!
हे नीति नियामके! कहते हैं, तुम्हारे माप-डंडों की अपनी रीति-नीति हैं और इस नीति के तहत तुम अपने आलोचकों का मुंह साम, दाम, दंड, भेद, नेग, नाद सभी से बंद कर देती हो।
      फिर भी इसमें दो राय नहीं है हे मेरे मन की मीतिके, कि तुम लिखती खूब हो! इतना कि मेरे मन में तुम्हारे लेखन के लिए एक गीत की पैरोडी बन गई। सभी की अपनी अपनी औकात है- तुम्हारी वह, मेरी यह!  
                        क्‍या खूब लिखती हो,
                        बड़ी सुंदर लिखती हो।
मुझे पता है, तुम इस पर कहोगी हे सुंदरिके!  
                        फिर से कहो, कहती रहो
                              अच्‍छा लगता है,
                              जीवन का हर सपना
                              अब सच्‍चा लगता है।
इसी सपने को सुना, तुम फिर हकीकत में बदल रही हो हे स्‍वप्निके! सपने मुझे भी आते हैंइसी सपने में एक दिन, हाँ, आजकल मैं रात में सो नहीं पाती, सो दिन में ही....! दिवास्वप्न! हाँ, देखा कि तुम उपन्‍यास लिख रही हो, वह भी एक नहीं, दो-दो। बाप रे बाप! मेरा तो गला बैठ गया, हलक सूख गया, पसीना छलक आया, बुखार चढ़ आया- एक साथ दो-दो उपन्यास! क्या खा-पी के या पी-खा के तुम लिखती हो, हे पेयकी! 
      तुम बहुत व्‍यस्‍त रहती हो, क्योंकि तुम औरत हो! मैं ये नहीं कहती कि मर्द व्यस्त नहीं होते। वे तो ज़्यादा व्यस्त रहते हैं। अब उनकी व्यस्तता न गिनवाओ! ऐसे ही वे सब कहते हैं कि हम औरतें उनकी कमियाँ निकालती रहती हैं। बस, जान लो कि वे व्यस्त रहते हैं! व्यस्तता की डिटेल्स कभी उन्हीं से मिल-बैठकर ले लेंगे। न हुआ तो कोई इंटरव्यू ही कर लेंगे हे, साक्षात्कार-कारिके!
तुम औरत हो, इसलिए, औरतों के साथ उसका घर, परिवार, बाल-बच्‍चे त्‍वचा में रोम की तरह बसे  रहते हैं। इन पर कभी वैक्सिंग करा लो तो भी क्‍या! वैक्सिंग है तो अननैचुरल और टेम्‍पररी ही न! फिर नौकरी है, लेखन है, लोगों और लेखन बिरादरी से मेल-जोल, राग-द्वेष, उठा-पटक है।
फिर भी, इन व्‍यस्‍तताओं के बीच भी तुम उपन्‍यास लिख रही हो, हे व्‍यस्तिके! तुम्हीं क्या, सभी लिख रहे और रही हैं। कहते हैं कि हिन्दी में उपन्यास लिखे बिना आप हिन्दी के साहित्यकार कहला ही नहीं सकते/ती। सब लिख रहे हैं और मेरी सरस्वती पर मंथरा बैठी हुई है। या हो सकता है, यह मेरा खयाली पुलाव हो! सरस्वती ही नहींहै, तो मंथरा हो या पूतना, कौन आएगी और कौन बैठेगी! इसलिए, मेरा मन-मयूर चैन-बेचैन है। वह नाचना चाहता है पंख पसार-पसार कर कहना चाहता है कि हां, मैं भी उपन्‍यास लिखने की सोच रही हूं। आखिर मैं भी हिन्दी की अमर साहित्यकार कहलाना चाहती हूँ! आप सब यकीन कीजिये! सब तैयार है- प्‍लॉट भी, शैली भी, ट्रीटमेंट भी! साकी भी है, शाम भी, उल्फत का जाम भी की तरह! यहां तक कि शीर्षक तो पहले से ही तैयार है। वह भी, एक नहीं, दो-दो उपन्‍यासों के। आप मानें या न मानें, मेरा वैसे मानना है कि चूंकि शीर्षक मेरे पास है, सो उपन्‍यास मेरे पास है। कोई मामूली बात है शीर्षक लिखना! आप बड़े धाकड़ लेखक होंगे, लेकिन बिना कथा, उपन्यास के शीर्षक लिखकर दिखाओ! हम अपनी शीर्षक लिखने की परंपरा ही तज देंगे।
मुझे पूरा यकीन है, हे यकीनिके कि तुम्‍हारे पास अभी तक अपने उपन्‍यासों के शीर्षक नहीं होंगे। समझीं न हे शीर्षके! तुम तो अभी उपन्‍यास लिखने में व्‍यस्‍त हो। दरअसल, मजदूर और रईस में यही तो फर्क होता है। मजदूर रुके बिना काम करता जाता है, रईस पलक के एक बाल भर से काम निकाल लेता है। निस्‍संदेह तुम मेहनतकश वर्ग से खुद को कहलाना पसंद करोगी हे, मजूरिके! हिंदी के लेखक अमीर होने की नहीं सोचते। सोचते ही गिल्‍ट में मरने लगते हैं। किसी को तनिक रॉयल्टी मिल गई तो सभी उसे पूंजीवादी मान कर उसकी सीवान-बखिया उधेड़ने लगते हैं। इसलिए पिछले पचासों बरस से हिंदी लेखक कलम के मजदूर बने रहते हैं। हल-फाल, ईंट-पत्‍थर के मजूरों को दिन-भर मजूरी के बाद दिहाड़ी मिलती है। हिंदी के कलम के मजूरों को अभी तक तथाकथित भविष्यकालीन मजूरी का झुनझुना भर दिखाया जाता है। प्रकाशकों और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशकों सम्‍पादकों की कोठियां बन जाती हैं। सेकेंड क्‍लास के बदले वे हवाई यात्रा करने लगते हैं, धर्मशालाओं के बदले पांचताराओं में ठहरने लगते हैं, लेकिन लेखकों को असली रॉयल्‍टी या सही पारिश्रमिक देते समय वे सदा बजट का रोना रोने लगते हैं। यह बात कला के हर क्षेत्र में है। लेखन के साथ रंगकर्म भी इसी का रोना रो रहे हैं। रोने के लिए भी ताकत चाहिए और ताकत के लिए दो रोटी, जिसे देने में सभी अपने रोटी और ताकत का रोना रोने लगते हैं।
अपन तनिक रईस किस्‍म के लेखक हैं, इसलिए बहुत ज्‍यादा काम नहीं करते। तुम्‍हें बता दें कि उपन्‍यास तो हम भी लिख रहे हैं। आखिर, कई पंचवर्षीय योजनाओं के बीच में हमने अने दोनों उपन्‍यासों के शीर्षक लिख ही लिए हैं न!
अब चलो, कुछ काम की बातें कर लें। मैं तुम्‍हें एक शीर्षक दे देती हूं, और तुम एक उपन्‍यास मुझे दे दो। कितना अच्‍छा है, बैठे-बिठाए तुम्‍हें शीर्षक मिल गया! कोई मेहनत नहीं, कुछ मगजमारी नहीं। शीर्षक तो ताज है, कोहिनूर है, हिमालय है, हर किसी के बस का नहीं लिखने से पहले शीर्षक सोच लेना। मजूर लोग लिखते पहले और शीर्षक बाद में खोजते हैं जो बाबा जी के बेल में कांटों की तरह उगता है। हम जैसा साध्‍य लेखक शीर्षक पहले सोचते ही नहीं, रजिस्‍टर्ड करा लेते हैं। यह गुप्‍त ज्ञान है और गुप्‍त धन भी!

तुम मेरे भाव की भाविके हो, इसलिए हम अपनी सहायता के मोती का राजहंस बिन मांगे तुम्‍हें देने को तैयार हैं- अपना यह गुप्‍त ज्ञान और गुप्‍त धन दोनों, क्‍योंकि तुम्‍हारी कलम- मजूरी पर हमें नाज है हे नाजिनी! इसलिए, आओ और एक शीर्षक ले लो। मेरा दावा है, इस शीर्षक से तुम उपन्‍यास जगत की शीर्षस्‍थ बन जाओगी! नहीं बनी तो मेरे नाम पर कुत्‍ता.... नहीं, कोई चिडि़या पोस लेना! दिन रात चहचहाकर वह तुम्‍हारा मन खुश करेगी और इसके आगे भी कई उपन्‍यास लिखने, उन्‍हें छपाने, उन्‍हें प्रचारित करने, उपर समीक्षाएं लिखवाने, चर्चाएँ करवाने की प्रेरणा देती रहेगी। मेरा भी वादा है कि तुम्‍हारे हर दो उपन्‍यास के लिए मेरे पास दो शीर्षक रहेंगे। लेन-देन जारी रहे, इसलिए, तुम लिखती जाओ और खुश होती जाओ कि तुम्‍हारे पास बिना मेहनत के शीर्षक आते जाएंगे हे खुशिके! हे शीर्षके! हे उपन्‍यासिके! रूकोगी नहीं न साधिके!!! ###

Thursday, June 5, 2014

सिंघारदान-उर्दू कहानी: शमोएल अहमद

           इसके पहले छम्मकछल्लो ने आपको आधुनिक मैथिली कथा साहित्य की वरिष्ठतम महिला लेखक लिली रे की कहानी- "बिल टेलर की डायरी" पढ़वाई थी। छम्मकछल्लो अपने पाठकों के प्रति हृदय से आभार जताती है। 

           छम्मकछल्लो आज आपके लिए उर्दू के एक वरिष्ठ लेखक शमोएल अहमद की कहानी "सिंघारदान" लेकर आई है। यह कहानी महज दंगे की नहीं है। इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कथाकार गीताश्री ने लिखा है-  "सिंघारदान" प्रतीक है अपने करमों का। अपना किया पीछा करता है और वक्त की बेरहमी से बच नहीं पाता आतताई भी।  "सिंघारदान" अपना जमीर है, जिससे आँख मिलाने का साहस बलवाई भी नाही कर पाया।" 

             कथाकार व उपन्यासकार कविता लिखती हैं- " लाजवाब कर देनेवाली कहानी है  "सिंघारदान"। हम खुद मे ही नहीं होते, अपने साजो-सामान और असबाबों में भी होते हैं। ...दरअसल, प्रवृत्तियों का परिचायक होता है हमारा साजो-सामान। नसीमजान के  "सिंघारदान" के साथ उसकी प्रवृत्तियाँ या स्वभाव और आदतें भी चली आती हैं- बृजमोहन के घर तक। जबरन लाया गया वह  "सिंघारदान" उसे याद दिलाता रहता है उसके कर्मों को। नीति कथाओं जैसा ही एक संदेश, जब हम खुद गलत कर रहे हैं, तो दूसरों को या अपनों को रोकने-टोकने का हक भी खो देते हैं। भीतर ही भीतर घुल सकते हैं, बस...." 

            आप भी पढ़िये कहानी  "सिंघारदान" और अपनी राय देना न भूलिए। 


सिंघारदान
दंगे में रंडियां भी लूटी गई थी....
बृजमोहन को नसीम जान का सिंघारदान हाथ लगा था। सिंघारदान का फ्रेम हाथीदांत का था जिसमें आदमकद आईना जड़ा हुआ था और बृजमोहन की लड़कियां बारी-बारी से शीशे में अपना अक्‍स देखा करती थीं। फ्रेम में जगह-जगह तेल, नाखून पालिशऔर लिपस्टिक के धब्‍बे थे जिससे उसका रंग मटमैला हो गया था और बृजमोहन हैरान था कि इन दिनों उसकी बेटियों के लच्‍छन...
ये लच्‍छन पहले नहीं थे। पहले भी वे बालकोनी में खड़ी रहती थीं लेकिन अंजदाज यह नहीं होता था... अब तो छोटी भी चेहरे पर उसी तरह पाउडर थोपती थी और होंठों पर गाढ़ी लिपस्टिक जमा कर बालकोनी में ठठा करती थी।
आज भी तीनों की तीनों बालकोन में खड़ी आपस में उसी तरह चुहलें कर रही थीं और बृजमोहन चुपचाप सड़क पर खड़ा उनके हाव-भाव देख रहा था।
यकायक बड़ी ने एक भरपूर अंगड़ाई ली। उसके जीवन का उभार नुमाया हो गया। मंझली ने झांककर नीचे देखा और हाथ पीछे करके पीठ खुजाई। पान की दुकान के निकट खड़े एक युवक ने मुसकराकर बालकोनी की तरफ देखा तो छोटी ने मंझली को कोहनी से ठोका दिया और फिर तीनों की तीनों हंसने लगीं... और वृजमोहन का दिल एक अनजाने डर से कांपने लगा।... आखिर वही हुआ जिस बात का डर था... आखिर वही हुआ यह डर बृजमोहन के दिल में उसी दिन घर कर गया था जिस दिन उसने नसीमजान का सिंघारदान लूटा था। जब बलवाई रंडी पाडे में घुसे थे ते कोहराम मच गया था। बृजमोहन और उसकेसाथी दनदनाते हुए नसीमजान के कोठे पर चढ़ गए थे। नसीमजान खूब चीखी-चिल्‍लाई थी। बृजमोहन जब सिंघारदान लेकर उतरने लगा था तो उसके पांव से पिलटकर गिड़गिड़ाने लगी थी –‘भैया, य पुश्‍तैनी सिंघारदान है... इसको छोड़ दो... भैया...
लेकिन बृजमोहन ने अपने पांव को जोर का झटका दिया था।
चल हट... रंडी...
और वह चारों खाने चित गिरी थी। उसकी साड़ी कमर तक उठ गई थी। लेकिन पिफर उसने तुरंत ही खुद को संभाला और एक बार फिर बृजमोहन से लिपट गई थी—‘भैया... यह मेरी नानी की निशानी है... भैया...
इस बार बृजमोहन ने उसकी कमर पर जोर की लात मारी। नसीमजान जमीन पर दोहरी हो गई। उसके ब्‍लाउज के बटन खुल गए और छातियां झूलने लगीं। बृजमोहन ने छुरा चमकाया –‘काट लूंगा...
नसीमजान सहम गई और दोनों हाथों से छातियों को ढंकती हुई कोने में दुबक गई। बृजमोहन सिंघारदान लिए नीचे उतर गया।
बृजमोहन जब सीढि़यां उतर रहा था तो यह सोचकर उसको लिज्‍जत मिली कि सिंघारदान लूटकर उसने नसीमजान को गोया उसकी पुश्‍तैनी सम्‍पदा से महरूम क‍र दिया है। यकीननन यह मूरूसी सिंघारदान था जिसमें उसकी परनानी अपना अक्‍स देखती होगी फिर उसकी नानी और उसकी मां भी इसी सिंघादान के सामने बन-ठनकर ग्राहकों से आंखें लड़ाती होगी। बृजमोहन यह सोचकर खुश होने लगा कि भले ही नसीमजान इससे अच्‍छा सिंघारदान खरीद ले लेकिन ये पुश्‍तैनी चीज जो इसको अब मिलने से रही। तब एक पल के लिए बृजमोहन को लगा कि आगजनी और लूटमार से लिप्‍त दूसरे दंगाई भी भावना की इस तरंग से गुजर रहे होंगे कि एक समुदाय को उसकी विवशता से महरूम कर देने के षड्यंत्र में वह पेश है।
बृजमोहन जब घर पर पहुंचा तो उसकी पत्‍नी को सिंघारदान भा गया। शीशा उसको धुंधला मालूम हुआ तो वह भीगे हुए कपड़े से पोंछने लगी। शीशे में जगह-जगह तेल के गर्द आलूद धब्‍बे थे। साफ होने पर शीशा झलझल कर उठा और बृजमोहन की पत्‍नी खुश हो गई। उसने घूम-धूमकर अपने को आईने में देखा। फिर लड़कियां भी बारी-बारी से अपना अक्‍स देखने लगीं।
बृजमोहन ने भी सिंघारदान में झांका तो आदमकद शीशे में उसको अपना अक्‍स मुकम्‍मल और आकर्षक लगा। उसको लगा सिंघारदान में वाकई एक खास बात है। उसके जी में आया कुछ देर अपने आपको देखे लेकिन यकायक नसीमजान बिलखती नजर आई-भैया... सिंघारदान  छोड़ दो...
चल हट रंडी.... बृजमोहन ने सिर को गुस्‍से में तो-तीन झटके दिए और सामने से हट गया।
बृजमोहन ने सिंघारदान अपने बेडरूम में रखा। अब कोई पुराने सिंघारदान को पूछता नहीं था। नया सिंघारदान जैसे सब का महबूब बन गया था। घर का हर व्‍यक्ति खामखा भी आईने के सामने खड़ा रहता। बृजमोहन अक्‍सर सोचता कि रंडी के सिंघारदान में आखिर क्‍या भेद छुपा है कि देखने वाला आईने से चिपक-सा जाता है? लड़कियां जल्‍दी हटने का नाम नहीं लेती हैं और पत्‍नी भी रह-रहकर खुद को हर कोण से घूरती रहती है... यहां तक कि खुद वह भी... लेकिन उसके लिए देर तक आईने का सामना करना मुश्किल होता... तुरंत ही नसीमजान रोने लगती थी और बृजमोहन के दिलो-दिमाग पर धुआं-सा छाने लगता था।
बृजमोहन ने महसूस किया कि धीरे-धीरे घर के सबके रंग-ढंग बदलने लगे हैं। पत्‍नी अब कूल्‍हे मटकाकर चलती थी और दांतों में मिस्‍सी भी लगाती थी। लड़कियां पांव में पायल भी बांधने लगी थीं और नित नये ढंग से बनाव-सिंघार में लगी रहती थीं। टीका, लि‍पस्टिक और काजल के साथ वह गालों पर तिल भी बनातीं। घर में एक पानदान भी आ गया था और हर शाम फूल और गजरे भी आने लगे थे। बृजमोहन की पत्‍नी शाम में ही पानदान खोलकर बैठ जाती। छालियां कुतरती और सबके संग ठिठोलियां करती और बृजमोहन तमाशाई बना सब कुछ देखता रहता। उसको हैरत थी कि उसकी जुबान बंद क्‍यों हो गई है... वह कुछ बोलता क्‍यों नहीं...? उन्‍हें फटकारता क्‍यों नहीं...?
एक दिन बृजमोहन अपने कमरे में मौजूद था कि बड़ी सिंघारदान के सामने आकर खड़ी हो गई। कुछ देर उसने अपने आपको दाएं-बाएं देखा और चोली के बंद ढीले करने लगी। फिर बायां बाजू ऊपर उठाया और दूसरे हाथ की उंगलियों से बगल के बालों को छूकर देखा फिर सिंघारदान की दराज में लोशन निकालकर बगल में मलने लगी। बृजमोहन मानो सकते में था। वह चुपचाप बेटी की करतूत देख रहा था। इतने में मंझली भी आ गई और उसके पीछे-पीछे छोटी भी।
दीदी! लोशन मुझे भी दो...
क्‍या करेगी...? बड़ी इतराई।
दीदी! यह बाथरूम में लगाएगी... छोटी बोली।
चल हट... मंझली ने छोटी के गालों में चुटकी ली और तीनों की तीनों हंसने लगीं।
बृजमोहन का दिल आशंका से धड़कने लगा। इन लड़कियों के तो सिंघार ही बदलने लगे हैं। इनको कमरे में अपने बाप की उपस्थिति का भी ध्‍यान नहीं है। तब बृजमोहन अपनी जगह से हटकर इस तरह खड़ा हुआ कि उसका अक्‍स सिंघारदान में दिखने लगा। लेकिन लड़कियों के रवैये में कोई फर्क नहीं आया। बड़ी उसी तरह लोशन मलने में व्‍यस्‍त रही और दोनों उसके अगल-बगल खड़ी पीछे मटकाती रहीं।
बृजमोहन को लगा अब घर में उसका वजूद नहीं है। तब अचानक नसीमजान शीशे में मुस्‍कराई।
घर में अब मेरा वजूद है...
और बृजमोहन हैरान रह गया। उसको लगा वाकई नसीमजान शीशे में बंद होकर चली आई है और एक दिन निकलेगी और घर के चप्‍पे-चप्‍पे में फैल जाएगी।
बृजमोहन ने कमरे से निकलना चाहा लेकिन उसके पांव मानो जमीन में गड़ गए थे। वह अपनी जगहसे हिल नहीं सका... वह खामोश सिंघारदान को तकता रहा और लड़कियां हंसती रहीं। सहसा बृजमोहन को महसूस हुआ कि इस तरह ठट्ठा करती लड़कियों के दरम्‍यान कमरे में इस वक्‍त इनका बाप नहीं एक...
बृजमोहन को अब सिंघारदान से खौफ मालूम होने लगा और नसीमजान अब शीशे में हंसने लगी। बड़ी चूडि़यां खनकाती तो वह हंसती। छोटी पायल बजाती तो वह हंसती और बृजमोहन को अब...
आज भी जब वे बालकोनी में खड़ी हंस रही थीं तो वह तमाशाई बना सब कुछ देख रहा था और उसका दिल किसी अनजाने डर से धड़क रहा था।
बृजमोहन ने महसूस किया कि राहगीर भी रुक-रुककर बालकोनी की तरफ देखने लगे हैं। यकायक पान की दुकान के निकट खड़े एक नवयुवक ने इशारा किया। जवाब में लड़कियों ने भी इशारे किए तो युवक मुस्‍कराने लगा।
बृजमोहन के मन में आया, युवक का नाम पूछे। वह दुकान की ओर बढ़ा, लेकिन नजदीक पहुंचकर चुप रहा। सहसा उसने महसूस किया कि युवक में वह इसी तरह दिलचस्‍पी ले रहा है जिस तरह लड़कियां ले रही हैं। तब यह सोचकर उसको हैरत हुई कि वह उसका नाम क्‍यों पूछना चाह रहा है...? आखिर उसके इरादे क्‍या हैं? क्‍या वह उसको लड़कियों के बीच ले जाएगा? बृजमोहन के होठों पर पल भर के लिए एक रहस्‍यमयी मुस्‍कान रेंग गई। उसने पान का बीड़ा कल्‍ले में दबाया और जेब से कंधी करते हुए उसको एक तरह की राहत का एहसास हुआ। उसने एक बार कनखियों से युवक की ओर देखा। वह एक रिक्‍शा वाले से आहिस्‍ता-आहिस्‍ता बातें कर रहा था और बीच-बीच में बालकोनी की तरफ भी देख रहा था। जेब में कंधी रखते हुए बृजमोहन ने महसूस किया कि वाकई उसकी युवक में किसी हद तक दिलचस्‍पी जरूर है.... यानी खुद उसके संस्‍कार भी... उंह... संस्‍कार-वंस्‍कार से क्‍या होता है...? यह उसका कैसा संस्‍कार था कि उसने एक रंडी को लूटा... एक रंडी को... किस तरह रोती थी... भैया... भैया मेरे... और फिर बृजमोहन के कानों में नसीमजान के रोने-बिलखने की आवाजें गूंजने लगीं... बृजमोहन ने गुस्‍से में दो-तीन झटके सिर को दिए। एक नजर बालकोनी की तरफ देखा, पान के पैसे अदा किए और सड़क पार करके घर में दाखिल हुआ।
अपने कमरे में आकर वह सिंघारदान के सामने खड़ा हो गया। उसको अपना रंग-रूप बदला हुआ नजर आया। चेहरे पर जगह-जगह झाइयां पड़ गई थीं और आंखों में कासनी रंग घुला हुआ था। एक बार उसने धोती की गांठ खोलकर बांधी और चेहरे की झाइयों पर हाथ फेरने लगा। उसके जी में आया कि आंखों में सुरमा लगाए और गले में लाल रूमाल बांध ले... कुछ देर तक वह अपने आपको इसी तरह घूरता रहा। फिर उसकी पत्‍नी भी आ गई। उसने अंगिया पर ही साड़ी लपेट रखी थी। सिंघारदान के सामने वह खड़ी हुई तो उसका आंचल ढलक गया। वह बड़ी अदा से मुस्‍कराई और आंख के इशारे से बृजमोहन को अंगिया के बंद लगाने के लिए कहा।
बृजमोहन ने एक बार शीशे की तरफ देखा। अंगिया में फंसी हुई छातियों का बिम्‍ब उसको लुभावना लगा। बंद लगाते हुए सहसा उसके हाथ छातियों की ओर रेंग गए।
उई दइया;;; बृजमोहन की पत्‍नी बल खा गई और बृजमोहन की अजीब कैफियत हो गई... उसने छातियों को जोर से दबा दिया।
हाय राजा... उसकी पत्‍नी कसमसाई और बृजमोहन की रगों में रक्‍तचाप बढ़ गया। उसने एक झटके में अंगिया नोचकर फेंक दी और उसको पलंग पर खींच लिया। वह उससे लिपटी हुई पलंग पर गिरी और हंसने लगी।
बृजमोहन ने एक नजर शीशे की तरफ देखा। पत्‍नी के नंगे बदन का अक्‍स देखकर उसकी रगों में शोला-सा भड़क उठा। उसने यकायक खुद को एकदम निर्वस्‍त्र कर दिया तब बृजमोहन की पत्‍नी उसके कानों में धीरे से फुसफुसाई –‘हाय राजा... लूट लो भरतपुर...
बृजमोहन ने अपनी पत्‍नी के मुंह से कभी उइ दइया और हाय राजा जैसे शब्‍द नहीं सुने थे। उसको लगा ये शब्‍द नहीं सारंगी के सुर हैं जो नसीमजान के कोठे पर गूंज रहे हैं... और तब...
और तब फिजा कासनी हो गई थी। शीशा धुंधला गया था... और सारंगी के सुर गूंजने लगे थे...
बृजमोहन बिस्‍तर से उठा, सिंघारदान की दराज से सुरमेदानी निकाली, आंखों में सुरमा लगाया, कलाई पर गजरा लपेटा और गले में लाल रूमाल बांधकर नीचे उतर गया और सीढि़यों के करीब दीवाल से लगकर बीड़ी के लंबे-लंबे कश लेने लगा...

(------)