भौजी!
#भौजी, एक ऐसा नाम, जो दिल में गुदगुदी जगा दे। पहले की भौजाइयों का मतलब होता था चटख रंगों वाली प्रिंटेड साड़ी, बड़ी टिकुली यानी बिंदी, भर हाथ चूड़ियां, कान में झुमके, बाली या टॉप्स, नाक में छक, गले में चेन, हाथ की उंगलियों में अंगूठियां, पैर में पायल और बिछुए। मांग में सुंदर की लंबी लाली।
मेरी रुनुकी, झुनुकी लाडो खेले गुड़िया
बाबा ऐसा वर खोजिए बी ए पास किए हो,
वरों की कोई गारंटी नहीं होती थी लेकिन भौजी के लिए पूरी गारंटी का पिटारा साथ होता था, सुंदर, सुशील, मोहक, कम बोलनेवाली, बड़ों के साथ साथ बच्चों, यहां तक कि गोद के बच्चों के नाम में भी "जी" लगाकर बोलनेवाली! को भी
बचपन में पूरा मोहल्ला ही जैसे परिवार था। जाने कितनी भौजाइयां यादों के बक्से में लाल पीले झालर लगाकर मौजूद हैं। कोई कोई कहानी का पात्र बन जाती हैं। लेकिन, उस एक पात्र में हाड़ मांस की एक ही भौजी थोड़े न होती है,
निदा फ़ाज़ली साब ने मां के लिए लिखा है
थोड़ा थोड़ा माथा, आंखें, जाने देकर किधर गई.....
उत्सव ही तो होता था किसी भौजी का आना। बाकियों के लिए वह कनिया यानी दुल्हन थी। हमारे लिए भौजी! पालकी केवल फिल्मों में ही थी। हमारे मोहल्ले में भौजी रिक्शे, गाड़ी या बस, जो बाराती के लिए गई होती थी, उससे आती। ट्रेन से आना होता तो रिक्शे से या किसी से कार मांग ली। तब कार भी इक्के दुक्के के पास होती थी, एंबेसडर। उसी में भौजी आती थी। तब भाभी शब्द का चलन ज़्यादा नफासतवालों के यहां था। हम भी नफ़ासती होना चाहते, मगर लाज आती भौजी के बदले भाभी कहने में। तब सोचते, हमारे भैया की शादी होगी तब उनको भाभी कहूंगी।
पूरा मोहल्ला अपने रिश्ते के हिसाब से दुल्हन को भौजी कहता था। दुल्हन है भौजी तो इतनी जल्दी किसी से बातचीत तो करेगी नहीं। और जिस दिन नई नवेली भौजी एकाध लाइन बोल दे, तब तो खुशी की किलकारी जैसे पूरे शहर में गूंज जाती थी, फलानी भौजी आज हमसे बात की।
भौजी सब जिस गांव या शहर से आई हो, उस नाम के साथ उनकी पहचान हो जाती थी। मसलन, साहेबगंज वाली भौजी, मुजफ्फरपुर वाली भौजी, आरा वाली, मांझी वाली, फुलपरास वाली, जनकपुर वाली भौजी!
जाने क्यों लोग शहरों से भौजी की लियाकत जोड़ देते थे। एक भौजी थीं मुजफ्फरपुर से। हम सभी उनको मुजफ्फरपुर वाली भौजी के नाम से पुकारते थे। हर
भौजी की अपनी खासियत थी, अपना व्यक्तित्व था। एक बार जाने कौन सी बयार चली थी कि सभी की सभी भौजाइयां अचानक उल्टे पल्ले करने लगीं, जिन्हें उस समय बंगला पल्लू कहा जाता था। अचानक से इस बदलाव से सभी हैरान। फिल्मों का कोई असर था नहीं, क्योंकि लगभग सभी फिल्मों में हीरोइन और हीरो या हीरोइन की मां उल्टे पल्ले की ही साड़ियां पहनती थीं। यह रहस्य आजतक समझ नहीं आया, क्योंकि अचानक से वे सब की सब फिर से सीधे पल्ले में कनवर्ट हो गईं।
मांझी वाली भौजी के यहां मखाने का बिजनेस था। जब मखाना आता, हम उनके घर में लगे मखाने के बोरे पर कूदते रहते, बोरे में उंगली घुसा घुसकर छेद करते और मखाने निकलकर खाते रहते। वे डांटने के बदले उल्टा कहतीं, खा लो। तुम लोगों के दस मखाने खाने से बोरी कम थोड़े न हो जाएगी। एक एक टोकरी, मौनी मखाना हमसब के हवाले कर देती थीं। वे बड़ी भौजी थीं। उनकी देवरानी गंभीर किस्म की थीं। गंभीर मुख वालों से मुझे वैसे भी बड़ा डर लगता रहता है। सो उनसे कभी बात नहीं हुई। एक थीं मुजफ्फरपुर वाली भौजी। उनका कमरा पहली मंजिल पर था। अपने स्वभाव में वे कुछ ऐसी थीं कि केवल दोपहर और रात के खाने के समय ही नीचे उतरती थीं या फिर हर दूसरे साल के प्रसव के समय प्रसूति गृह के लिए। मोहल्ले की हमारी चाची यानी कि उनकी सास बहुत भली मानस थीं, जिसका फायदा वे उठाती रहीं। लेकिन, इससे यह प्रचलन में आ गया कहने का कि मुजफ्फरपुर में बेटी तो ब्याह दो, बेटी लेकर न आओ। आज मुझे लगता है कि मधुबनी से बड़ा शहर मुजफ्फरपुर है तो शायद लड़कियों के दिमाग में बड़े शहर की ठसक रहती होगी। लेकिन ऐसा थोड़े न होता है कि आप बेटी ब्याहेंगे वहां और वहां से बेटी को बहू बनाकर नहीं लाएंगे।। एक दो बहुओं के बाद की बहुझाइयों ने इस मिथक को तोड़ा।
साहेबगंज वाली भौजी को हमने होश संभालने पर गोद में एक बच्चे के साथ ही देखा। स्वभाव की बड़ी मीठी। चेहरे पर सदाबहार मुस्कान। बारह वर्ष बाद बेटी हुई जिसे हम बहनों ने पाला। तब मोहल्ले का एक बच्चा पूरे मोहल्ले का होता था। भौजी अकेली थीं। लिहाज़ा सुबह बच्ची को तेल लगाकर दूध पिलाकर हमारे पास भेज देती थीं। हम उनकी सुसु पॉटी भी कराते थे, अधपके दाल भात का पानी भी पिलाते थे। इस बार जब उनसे मधुबनी में मुलाकात हुई तो दमे से ग्रस्त, सांस लेने में भयंकर तकलीफ में देख बहुत दुख हुआ। हर नई सब्जी बनने पर वे एक कटोरी सब्जी भेजतीं हमें। मेरी बहन की शादी होने पर उसे साड़ी गहने दिए रिवाज के मुताबिक।
जनकपुर वाली भौजी लंबी, धाकड़ थीं। उनसे हम अपनी चोटियां बनवाया करते। तब बाल बनाने के चलन में था, तेल लगाने के बाद बाल में पानी लगाकर उसे चिकना कर लिया जाता था। बारीक दांतोवाली कंघी से बीचवाली मांग निकली जाती थी। दोनों तरफ के बालों को खूब ऊंचा सीट कर कंघी की जाती थी। फिर किसी रिबन के सहारे बालों को जड़ से खूब कसकर बांधा जाता था। उसके बाद उसकी चोटी, जिसमें रिबन या परांदे लगा कर बंधा जाता । फिर जूड़ा बनाया जाता। मान्यता थी कि इससे बाल लंबे, काले, घने रहते हैं। हम भी इसी लौ की ललक लिए चोटियां बनवाते थे जनकपुर वाली भौजी से। वे इतना कसकर जड़ बांधती थी कि आंखें खिंच जाती थीं।

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