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Friday, April 3, 2015

कैंसर के घर में गृहस्थी


कैंसर के घर में गृहस्थी

औरतें-
बसा लेती हैं अपनी गृहस्थी कहीं भी
मकान में, दूकान में,
खेत में, खलिहान में
यहाँ तक कि सड़क और अस्पताल में भी।
उन्हें कोई फर्क़ नहीं पडता,
क्या सोचता है अगल-बगल
वे सांस लेती हैं निश्चिंतता की
और सो जाती हैं केमो के बेड पर गहरी नीन्द
दवा काम कर रही है,
मन भी कर चुका काम
समझाकर सभी को घर के सारे सरंजाम!
कहीं भी हों औरतें,
छूटती नहीं उनसे घर की रीत


अपनों पर प्रीत!

2 comments:

Jyoti Dehliwal said...

औरतों की स्थिति बयान करती बढ़िया कविता ...

Vibha Rani said...

शुक्रिया #JyotiDehliwal ji. वैसे यह कविता औरतों की स्थिति की कम और उसके जीवटपन का अधिक संकेत देती है।