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Thursday, May 5, 2011

ऐसी कैसी जवानी?


      बडा मर्दमार शीर्षक है ना? छम्मकछल्लो को यह शीर्षक इतना पसंद आया कि जस का तस उठा लिया चेहरे की किताब (फेसबुक) के एक फेसबुक ग्रुप पर आई इस खबर पर. खबर जस की तस नीचे दी जा रही है- “आज रात शंकर नगर के एक रेस्तरां के पार्किंग में दो युवतियां और एक युवक काली कांच लगी कार के अन्दर संदिग्ध हालत में पकडे गए. युवतियां नशे में धुत्त थीं. ऐसे नज़ारे यहाँ रोज़ देखने को मिल ही जा रहे हैं. कहाँ जा रहा है हमारा कल्चर. इस मामले ने झूठ बोलकर घर और हॉस्टल से बाहर जानेवाली युवतियों पर सवालिया निशान लगा दिया है. युवतियों पर नज़र न रखी गयी तो मामला और भी गहरा जायेगा. माना कि मामला जवानी का है. शादी के अलावा और भी तो कई रास्ते हैं. बीच सड़क पर दिखने वाली जवानी आज जब चैनलों पर और कल अखबार की सुर्खियाँ बनेंगी, तब क्या होगा? ऐसी कैसी जवानी?”
       ये साहब एक साथ कई मुद्दों पर चिंतित हैं. सबसे पहले तो लडकियों और उनकी जवानी पर. इसलिए सबसे पहले कहते हैं कि इस मामले ने झूठ बोलकर घर और हॉस्टल से बाहर जाने वाली युवतियों पर सवालिया निशान लगा दिया है.यानी, हॉस्टल से बाहर जानेवाली युवतियां! साहब इतने मुतमईन हैं कि उन्हें लग गया कि ये लडकियां हॉस्टल से भागी हुई ही हो सकती हैं, घर से निकल कर कोई ऐसा काम नहीं कर सकता. दूसरी बात करते हैं, युवतियों पर नज़र न रखी गयी तो मामला और भी गहरा जायेगा. यानी, युवतियां ही बदचलन होती हैं, उन पर शिकंजे कस कर रखो. उनकी ही इज्जत से घर की इज़्ज़त है. लडके तो हमेशा इज़्ज़तदार रहते हैं. वे या तो कुछ करते नहीं या करते हैं तो उनके करने से घर की इज़्ज़त पर कोई आंच नहीं आती. तीसरी बात, माना कि मामला जवानी का है. शादी के अलावा और भी तो कई रास्ते हैं. मतलब, जवानी जोर मार रही हो और शादी ना हुई हो तो और रास्ते अपना लीजिए. कुछ भी कीजिए, सबकुछ कीजिए, बस रास्ते पर मत कीजिए. नीति, संस्कार की बातें भूल जाइए. जवानी के मजे लीजिए, मगर छुप कर. पहले के रसिक बुजुर्ग घर के लडकों को ताकीद करते थे कि मुंह मारने में कौन सी बुराई है? मर्द की मर्दानगी इसी में तो है. मगर ब्याह तो वहीं होगा तेरा, जहां हम कहेंगे. सही है. ऐसी कैसी जवानी कि आप बीच सडक पर अपनी जवानी के जलवे दिखाते रहें. बीच सडक पर जवानी के जलवे तो कुत्ते दिखाते रहते हैं. इसलिए, छुप कर कीजिए, न कोई देखेगा, न कोई बोलेगा, आप भी खुश और बेदाग और घर, परिवार, समाज भी.
          लेखक महोदय को उस खबर में दो युवतियां दिख गईं और उन पर नज़र रखने की मर्दवादी हवस उछाल मार ले गई. उन्हें उन दोनों युवतियों के साथ वह युवक नहीं दिखा. उस पर नज़र रखने की बात तो सोची भी न गई होगी. लडकों से न धर्म बिगडता है, न ईमान, न समाज, न संस्कृति. सबके मूल में ये निर्लज्ज छोकरियां होती हैं, जो उन्हें अपने बंधन में फांस लेती हैं. धर्म और  संस्कृति को रसातल में तो औरतें ही ले जाती हैं ना?  युवक लोग तो एकदम पाक,  साफ,  बेदा,  सच्चरित्र, मासूम, दूध पीते बच्चे होते हैं. इन पर कैसे नज़र जा सकती है भला? इन युवकों का कोई कसूर नहीं होता.
      प्रतिक्रिया होनी ही थी. औरतों के मामले में तो सभी खुदाई दरबार बन जाते हैं. सो एक सज्जन ने लिख मारा- “जो कुछ होता है, उसका खामियाजा लडकियो को भुगतना पडता है. बदनाम वो होती हैं, कुंवारी मां वो बनती हैं, रेप का शिकार वो होती हैं, सुर्खियों में फोटो उनकी आती है, इसलिए उन्हें सावधान करना ज़रूरी है. लडके तो फिर भी बच निकलते हैं.“
      तो मामला फिर से जग जाहिर होने का है. लडके चूंकि बच निकलते हैं, इसलिए उन्हें बचने के मौके दिए जाते रहने चाहिए. नसीहत का जाल कियों पर बिछाना चाहिये कि चूंकि उनके साथ ये सब बातें होती हैं, इसलिए उन्हें बच कर, संभल कर रहना चाहिए. छम्मकछल्लो के पूछने पर कि लडकियों के जितने नुक्सान गिनाए गए हैं, उनके मूल में जाएं. क्या लडकियां खुद अपना रेप कर लेती हैं, खुद से कुंवारी मा न जाती हैं, खुद से खुद को बदनाम कर लेती हैं? खुद से फोटो खींचकर अखबारों मे देकर उसकी सुर्खियां बन जाती हैं?” वे इसे अपने ऊपर व्यक्तिगत आक्षेप मान लेते हैं.
      छम्मकछल्लो कहां किसी पर आक्षेप लगाती है? वह तो मानती है कि समाज में अच्छे लोगों की कमी नहीं है. मगर इनसे इतर भोगवादी मर्दाने नज़रिये के कारण ये अच्छे पुरुष भी गेहूं के साथ घुन बनकर पिस जाते हैं. छम्मकछल्लो इन अच्छे पुरुषों को बचाना चाहती है, ताकि समाज और इसके ढांचे पर हम सबका विश्वास बना रह सके. हे समाज के अच्छे पुरुष, अपने इन साथियों की सोच में अच्छाई का खाद-पानी डालिए ना. हमारी खातिर नहीं, अपनी खातिर. ###

15 comments:

anshumala said...
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anshumala said...

विभा रानी जी आप का लेख अच्छा लगा और लड़कियों पर उठाये जा रहे सवाल का भी आप ने बखूभी जवाब दिया है | आप के पोस्ट का लिंक "नारी " ब्लॉग पर दे रही हूँ उम्मीद है आप इस पर आपत्ति नहीं करेंगी |

Unknown said...

saare prashn hamaree doshree soch se jude hain. media bhee khud apnee peeth thapthapa leta hai par uske nazariye mai bhee kaha antar hai.

Vibha Rani said...

अंशुमाला जी, आपत्ति नही, खुशी हुई. अपना मेल आईडी दें.

VICHAAR SHOONYA said...

छल्लो जी काफी पहले डिस्कवरी चेनल वालों का एक प्रोग्राम देखा था जिसमे स्त्री व पुरुष की मानसिकता में अंतर दर्शाने के लिए उन्होंने एक प्रयोग किया. उन्होंने सड़क पर एक नवयुवती खड़ा किया जो राह चलते अनजान युवकों से प्रणय निवेदन कर रही थी. उसके प्रणय निवेदन को सभी पुरुषों ने बेहिचक स्वीकार कर लिया. फिर उन्होंने एसा ही प्रयोग एक लडके को लेकर किया जिसने राह चलती अनजान युवतियों को प्रेम निवेदन किया परन्तु सभी लड़कियों ने उस युवक का प्रस्ताव ठुकरा दिया. अगर हम स्त्री व पुरुष के बेसिक इंस्टिंक्ट की बात करें तो पुरुष अपनी संतति को बढ़ने के लिए अपना शुक्र ज्यादा से ज्यादा मादाओं में बाट देना चाहता है और उसके विपरीत एक स्त्री यूँ ही हर किसी के शुक्र को ग्रहण कर संतान उत्पन्न नहीं करना चाहती. वो केवल उत्तम जींस को अपनी संतान में चाहती है. जो भी लोग स्त्री के उन्मुक्त यौन व्यव्हार का विरोध कर रहे होते हैं वो इन बेसिक इंस्टिंक्ट के तहत ऐसा कर रहे होते हैं. ऐसा करते वक्त उन्हें यह ध्यान नहीं रहता की आज तो बहुत से उपाय हैं जो स्त्री को अवांछित गर्भधारण से बचाते हैं ताकि वो कभी भी, किसी के साथ, कहीं भी प्रणय सुख का आनंद ले सके.

इसलिए हे देवी इन अज्ञानी पुरुषों को क्षमा करें ये बेचारे नहीं जानते की आज की नारी अपनी मूल प्रवृत्ति को त्याग पुरुष होना चाहती है.

Vibha Rani said...

विचार शून्य जी, आपकी प्रतिक्रिया के पहले हिस्से से इत्तफाक़ रखते हुए भी "बेसिक इंस्टिंक्ट की बात करें तो पुरुष अपनी संतति को बढ़ने के लिए अपना शुक्र ज्यादा से ज्यादा मादाओं में बाट देना चाहता है और उसके विपरीत एक स्त्री यूँ ही हर किसी के शुक्र को ग्रहण कर संतान उत्पन्न नहीं करना चाहती." को मानने में दिक्कत हो रही है. पुरुष काम का सुख उठाना चाहता है. वह तो सबसे अधिक घबडाता अहै जब वह पाता है कि उनके 'प्रसाद' से कोई कन्या जीव धारण कर चुकी है. और स्त्री यूं ही हर किसी से शरीर के स्तर पर नहीं जुड जाती. मन सबसे पहले है, तन उसके बाद.
दूसरे हिस्से की बात-'आज की नारी अपनी मूल प्रवृत्ति को त्याग पुरुष होना चाहती है.' नहीं, आज की नारी यह कहती है कि उसकी सामर्थ्य में हर काम है.वह यह भी कहती है कि उसे उसके जीवन के हर क्षेत्र में अपने फैसले का अधिकार लेने दिया जाए. बहुत हो गया स्त्री कल्याण.अब बख्श दें उसकी जान.

Vivek Jain said...

बहुत सुन्दर लेख, बहुत-बहुत बधाई इस साहसिक प्रस्तुति पर ....
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

pratima sinha said...

हम कितनी भी तरक्की क्यों न कर लें, मुख्य समस्या नज़रिया बदलने की है जिससे आसार नहीं दिखते...या फिर शायद ये प्रक्रिया (विचार बदलने की) सामूहिक हो ही नही सकती.

राजन said...

विभा जी,
आपके लेख से पूरी तरह सहमत होते हुए और ये मानते हुए भी कि प्रतिबंध केवल लडकियों पर ही लादे जाते है और इनके पीछे पुरुषों का षडयंत्रकारी दिमाग काम करता है,ये पूछना चाहूँगा कि क्या आपको नहीं लगता कि पुरुषों की इस सोच को कुछ महिलाओं का भी समर्थन मिलता है?किसी जोडे को एक दूसरे का हाथ थामें चलते देखकर क्या आम महिलाओं की भी उंगली केवल लडकी की तरफ ही नहीं उठेती है?माना कि वो उस हद तक नहीं जाती पर क्या थोडा दोष उनका भी नही है? और ये लडकियों के नुकसान वाली बात जहाँ तक है मैंने सुना है कि एक पढी लिखी महिला चाहे जितने स्वतंत्र विचारों वाली क्यों न हो इस तर्क (नुकसान वाले) के आधार पर वह भी पारंपरिक नजरिया ही अपनाती है और बेटे बेटी पर लगाम लगाने में साफ अंतर कर जाती है,क्या ये सही है?
हाँ ये मैं मानता हूँ कि इस पूरी व्यवस्था में पीडित केवल लडकियाँ ही है और पुरुष कही ज्यादा दोषी है.

Vibha Rani said...

राजन जी, आपकी बातों से सहमत. आपने स्वयं ही लिखा है "कुछ महिलाएं" यह 'कुछ' तो हर जगह है. मैं कभी नहीं कहती कि सभी पुरुष बदमाश, बदचलन, अतार्किक हैं, वैसे ही सभी स्त्रियां सच्ची, पवित्र, सीधी नहीं हैं. ये 'कुछ' उदाहरण तो बन सकते हैं, सर्वमान्य नहीं. मैने लिखा ही है कि अच्छे पुरुष इस गंदी मानसिकता में गेहूं के साथ घुन की तरह पिस रहे हैं. स्त्रियों पर पुरुषवादी विचार इस तरह से लाद दिए गए हैं कि वे भी इन्हें गलत रूप में देखने लगती हैं और इसी से इस बात को भी लोग बल और तूल देते दिखते हैं कि औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं.ऐसे भोगवादी पुरुष से लडकियों को नुकसान पहुंचता है और एक पढी लिखी,स्वतंत्र विचारोंवाली महिला इस नुकसानवाले तर्क को देखती तो है, मगर इसके आधार पर वह पारंपरिक नजरिया नही अपनाती, बल्कि बेटे बेटी दोनों को समाज में चल रहे इना हालातों से आगाह कराती है. वह बेते-बेटी में अंतर नहीं कर जाती, अगर वह सही में स्वतंत्र विचारोंवाली है तो. आपने फिर से सही कहा है
कि इस पूरी व्यवस्था में पीडित केवल लडकियाँ ही है और पुरुष कही ज्यादा दोषी है. तो ये 'ज्यादा दोषी' पुरुष का खामियाजा स्त्री-पुरुष दोनों ही भोग रहे हैं.

राजन said...

विभा जी,बात स्पष्ट करने के लिये धन्यवाद.आपकी बातें मान लेने को मन करता है.मर्दवादी समाज की बनाई कारा को तोडने के लिये जिस बौद्धिक चेतना की जरूरत होती है वह आम महिलाओं में उतनी नहीं आ पाई है हालाँकि पुरूषों की तुलना में आज वह कहीं ज्यादा खुला दिमाग रखती है.पर मेरे सवालों का आधार दूसरा था.आपने देखा होगा कि घरों में उम्र में छोटे भाई भी अपनी बहिनों पर दादागिरी करने से बाज नहीं आते क्योंकि इन्हें माँ बाप का खुला समर्थन होता है.पिता तो खैर है ही दोषी लेकिन ये लडके कई बार देखते है कि इनकी माँ बहनों के पास भी आस पडोस की लडकियों को लेकर ही किस्से होते है मानो लडके तो सभी शरीफ है.तो ऐसी बातों से कहीं न कहीं इन भाईयों में भी ये बात घर कर जाती है कि घर की इज्जत तभी है जब लडकी काबू में रहे.तो यहाँ थोडे बदलाव की जरूरत है.
कई बार पढी लिखी महिलाएँ भी इस सोच को समर्थन देती नजर आती है.आप तो साहित्यकार है मृदुला सिन्हा जी को पढा ही होगा.मैने एक अखबार में उनका कॉलम नियमित पढा.वो जो लिखती थी मतलब वही बस लडकियों की चिंता जैसे संस्कृति लडकियों से ही है,ये ही बडी होकर माँ बनेंगी,इन्हे गलत रास्ते पर जाने से रोको आदि आदि और लडको के बारे में कुछ नहीं.तो बस यही तो ज्यादातर पुरुष भी सुनना चाहते है.यदि कोई महिला सीधे मन से भी ऐसा कहे तो भी इसका एक गलत असर तो होता ही है.संस्कारों की बात हो तो दोनों के लिये ही हो.

राजन said...

और आप जिन अच्छे पुरूषों की बात कर रही है तो ये लोग भी अपने तर्क तरकश में वही सारे तीर रखते है कि संस्कारों की टोकरी तो बस महिला ही उठा सकती है,पुरुष तो प्राकृतिक रूप से ही ऐसा है,वो कभी नहीं सुधरने वाला.नर हार्मोनों को इसके लिये जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है जो कि गलत पुरुषों के ही पक्ष में जाते है.

अंशुमाला जी का भी धन्यवाद 'नारी' पर उनके दिये लिंक से ये लेख पढने को मिला.

एक बेहद साधारण पाठक said...

अच्छा लेख ....सहमत

एक बेहद साधारण पाठक said...

या फिर शायद
"एक जरूरी लेख" कहना ठीक रहेगा ...अंशुमाला जी को मेरी ओर से भी धन्यवाद

Vibha Rani said...

राजन जी, बहुत अच्छा लगा है कि आप बात को बहुत खुले रूप में देख रहे हैं. जिस बौद्धिक चेतना की जरूरत की बात आप कह रहे हैं, वह आम महिलाओं में उतनी इसलिए नहीं आ पाई है, क्योंकि अबतक उनकी भूमिका दोयम और दब्बू की रही है. जिन मां-बहनों की बात आपने कही है, वे इसी अखुलेपन और नकारे जाने की शिकार हैं. उनके मन में यह बात बिठा दी गई है कि लडके या बेटे या पुरुष अधिक अहम हैं. आपने जिन स्वनाम धन्य लेखिका की बात कही है तो देश में हर किस्म के लेखक हैं. सनातनी लेखों को पढकर उन पर राय बनाने का कोई अर्थ नहीं है. यह हमें वैचारिक रूप से दूषित करता है. जिस लेखन में बदलाव की आग ना हो, मेरी नज़र में उस लेखन का कोई अस्तित्व नहीं. उनमें और किसी ढकोसलावादी साधु संत या साध्वी में कोई अंतर नहीं.