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Sunday, June 5, 2011

ऐसे थे बादल दा- सदानंद मेनन

मोहल्ला लाइव पर प्रस्तुत सदानंद मेनन के आलेख का दूसरा हिस्सा पढें. संस्मरण सदा से दिलचस्प होते हैं. इसमें आप व्यक्ति के जीवन के उन अनछुए पहलुओं को देखते-जानते हैं, जिनके बारे में आमतौर पर हमें पता नहीं होता. बादल सरकार के कुछ इन्हीं मोहक बातों को सदानंद ने यहां प्रस्तुत किया है. पढें और अपनी राय दें. - प्रस्तुति : विभा रानी
लिंक यह रहा.
http://mohallalive.com/2011/06/04/a-curtain-call-for-political-theatre-part-two/

बादल सरकार पर लिखे सदानंद मेनन के इस लेख का हिंदी अनुवाद विभा जी प्रस्‍तुत किया है। इसका पहल हिस्‍सा था : बादल सरकार के साथ राजनीतिक नाटकों का पटाक्षेप। पूरे लेख को अंग्रेजी में 28 मई-3 जून के इकॉनॉमिक & पॉलिटिकल वीकली[epw.org.in] में पढ़ा जा सकता है : मॉडरेटर
बादल दा से पहली बार मैं मद्रास में 1970 में प्रसिद्ध नृत्यांगना चंद्रलेखा (अब स्वर्गीय) के घर पर मिला। वे वहां फिजिकल थिएटर की विस्तृत व्याख्या करने के बाद बीड़ी फूंक रहे थे। मुझे याद है, वे चंद्रलेखा को भारतीय प्रस्तुति की परंपरा और प्रशिक्षण अनुशासन के प्रति उनकी अनभिज्ञता को लेकर बड़ी निर्दयता से उन्हें चिढ़ा रहे थे। चंद्रलेखा यहां की प्रमुख हस्ती थीं। उनके साथ बादल दा को इतना निर्मम होते देखकर हैरानी हुई थी। थोड़ी देर बाद चंद्रलेखा ने मुझे कहा कि मैं उन्हें अपने स्कूटर पर बादल दा को उनके होटल छोड़ आऊं। मैंने देखा कि बादल दा बुरी तरह से गर्दन हिलाते हुए ’नो’, ‘नो’, ‘नो’, नो’ किये जा रहे थे और कह रहे थे कि “मैं पैदल ही चला जाता हूं।” बाद में मुझे पता चला कि वे उस दिन पहली बार स्कूटर पर बैठ रहे थे।
चालीस साल बाद, जब मैं इंटरनैशनल थिएटर फेस्टिवल ऑफ केरल का जूरी था, बादल दा थिएटर में लाइफ टाइम अचीवमेंट के लिए अम्मानुर पुरस्कारम (2010) के लिए चुने गये। इस पुरस्कार में अच्छी खासी धनराशि भी थी। मैंने बादल दा को फोन पर बधाई देते हुए कहा कि पुरस्कार ग्रहण करने के लिए आते समय अपनी देखभाल के लिए किसी को साथ भी ला सकते हैं। तुरंत उस तरफ से वही आवाज आयी – ’नो’, ‘नो’, ‘नो’, नो’। मुझे हंसी आ गयी। मैंने उन्हें उनके चालीस साल पुराने विरोध की याद दिलायी और कहा कि अब यह मत कहिएगा कि मैं हवाई जहाज पर पहली बार चढ़ रहा हूं। वे हंसे और अपने साथ एस्कॉर्ट लाने को तैयार हो गये।
बादल दा के विद्रोही तेवर उनकी अपनी कार्य संस्कृति के कारण बने। पूरी जिंदगी में पैसे की फिजूलखर्ची उनमें अपराधबोध भरती रही। उनकी केवल एक ही लत थी – बीड़ी पीना। इसमें उन्हें मजा आता था। मद्रास में वे दो बार थिएटर वर्कशॉप के लिए आये – कलाक्षेत्र डांस स्कूल और मद्रास आईआईटी में। दोनों बार मेरी ड्यूटी थी कि हर दो घंटे के बाद मैं अपने स्कूटर से उन्हें गेट के बाहर ले जाता था, जहां वे बड़ी मस्ती में बीड़ी फूंका करते।
बादल दा का एक और जुनून था, जिसके बारे में लोग शायद कम जानते हैं – ‘एस्पेरांटो भाषा’। भारत में वे इसके मुखिया थे और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘एस्पेरांटो समुदाय’ की एक प्रमुख हस्ती। इस भाषा के ईजाद का श्रेय वे पॉलिश डॉक्टर एलएल जमेनहॉफ को देते थे, जिन्होंने 1887 में इस भाषा का सृजन किया। बादल दा के लिए यह बड़ा महत्वपूर्ण था कि ‘एस्पेरांटो भाषा’ ने भाषा की सीमाओं को तोड़ने का प्रयास किया है। उन्होंने मुझे Esperanto का मतलब बताया था – आशापूर्ण जीवन। यह आशा उनके ‘थिएटर की भाषा” में भी परिलक्षित होती है।
बादल दा से मेरी आखिरी मुलाकात तीन महीने पहले फरवरी, 2011 में हुई – पियरी रो, ऑफ बेडॉनरोड, माणिक तला स्थित उनके ‘रेड बिल्डिंग” के दूसरे माले के उनके छोटे से कमरे में। हम लगभग एक दशक के बाद मिल रहे थे। उन्होंने मुझे गले लगाया। वे अपनी आत्मकथा ‘पुरॉनो कासुंदी’ (बासी अचार) को अंतिम स्वरूप दे रहे थे। उस छोटे से कमरे के बीच में एक चारपाई थी, दो गोदरेज आलमीरे – विभिन्न पत्रिकाओं से छांटकर काटे हुए बहुविध रंग के कागजात, और बाहर की ओर झांकती उनकी टेबल-कुर्सी।
चंद्रलेखा और दशरथ पटेल के निधन पर अपना दुख जताने के बाद वे बोले – “मुझे तुमसे दो बड़ी महत्वपूर्ण बातें बतानी हैं। एक तो यह कि मैं अपने आप को 25 साल छोटा महसूस कर रहा हूं। मैंने पहले कभी इतना बेहतर महसूस नहीं किया। दूसरा यह कि मेरे पास कुछेक पुरस्कारों से कुछ पैसे आ गये हैं। जाहिर है, इसके लिए तुम सब भी जिम्मेवार हो। मैं खुद को अमीर महसूस कर रहा हूं। अब, ये पैसे बचाने का मेरा कोई इरादा नहीं है। मैंने यह तय किया है कि इसे मैं अच्छे से खर्च करूंगा। इसलिए मैंने यह फैसला किया है कि मैं छह माह के विश्व भ्रमण पर निकलूंगा और दुनिया भर में जो मेरे दोस्त हैं, उनसे मिलूंगा। चिंता की कोई बात नहीं है। मेरे एस्पेरांटो दोस्त मेरे रहने-खाने का इंतजाम हर जगह कर देंगे।”
इसके बाद उन्होंने एक सांस में अपनी सारी योजनाएं, सारे देश, सारे शहर के नाम बता डाले – यूरोप, इंग्लैंड, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका, जापान, कोरिया, लाओस, एंजेलस, थाइलैंड, म्यांमार और उसके बाद वापस कोलकाता। मैंने कहा – ‘बादल दा, चेन्नै आपने छोड़ दिया।’ वे हंसे – “बिलकुल! बहुत दिन हो गये तुम्हारे हाथ की फिल्टर कॉफी पिये हुए।”
हर योजना की तरह उनकी यह योजना भी अधूरी रह गयी। उनका सबसे बड़ा स्वप्न था – उनके यूनिक ‘थर्ड थिएटर का – अंतिम उत्तर’ … लोगों के जीवन के बारे में शहरी थिएटर ग्रुप उनके जीवन की गाथा न रचें। कामगार, फैक्ट्री मजूर, किसान, भूमिहीन मजदूर, अपना नाटक खुद लिखें और खेलें … यह प्रक्रिया हालांकि तभी आगे बढ़ेगी, जब कामगार वर्ग के लोगों की सामाजिक-माली हालत बदलेगी। जब यह होगा, थर्ड थिएटर के पास अपना ऐसा कोई खास काम नहीं रहेगा और तब उसका विलय ‘फर्स्ट थिएटर’ में हो जाएगा।
… इसके लिए अब किसी और बादल दा की राह तकनी है।
(सदानंद मेनन। लेखक, फोटोग्राफर और स्टेज लाइट डिजाइनर। फिलहाल एशियन कॉलेज ऑफ चेन्नै में असोसिएट फैकल्टी। उनसे sadanandmenon@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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