chhammakchhallokahis

रफ़्तार

Total Pageviews

छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

Pages

www.hamarivani.com
|

Monday, September 28, 2009

हां जी, हमसे अलग रहें, हम ‘कपडे’ से हैं!

छम्मक्छल्लो क्या करे! प्रकृति ने भी उसके साथ नाइंसाफी की है. वर्षों पहले आचार्य देवेंद्रेनाथ शर्मा का एक लेख उसने पढा था, जिसमें महिलाओं से ईर्ष्या जताते हुए लिखा गया था कि महिलाओं के कितने सुचिक्कन, कोमल गाल होते हैं, जबकि पुरुषों की इतनी बडी बडी दाढी. कहीं भी जाओ आओ, यह दाढी एक समस्या बन कर खडी हो जाती है. आचार्य देवेंद्रेनाथ शर्मा छम्मक्छल्लो के पसंदीदा लेखकों में से एक हैं, इसलिए उसे उनकी इस बात पर बडा मज़ा आया. वह सच में सोचने लगी कि सचमुच, प्रकृति ने पुरुषों के साथ क्या अन्याय कर दिया. उसके भी गाल स्त्रियों की तरह ही सुचिक्कन रहने देते.

तभी छम्मक्छल्लो का ध्यान अपनी सामाजिक रीति नीति पर पडा. तब वह बहुत छोटी थी, इतनी कि कभी भी कुछ भी पूछने पर उसे डांटकर भगा दिया जाता था. उसके मोहल्ले में एक परिवार रहता था. छम्मक्छल्लो को वहां हर महीने तीन चार दिनों के लिए खाना बनाने के लिए बुला लिया जाता था. पूछने पर वही डांट या जवाब कि "बडी हो कर सब समझ जाओगी." या फिर, "बडों के बीच में क्या आ जाती हो सुनने के लिए?" सचमुच बडी होने पर समझ में आया कि उसे वहां खाना बनाने के लिए क्यों बुलाया जाता था? इसलिए कि वहां की बहू हर महीने अपने स्वाभाविक ऋतु चक्र से गुजरती थी. यह चक्र एक वैज्ञानिक शारीरिक प्रक्रिया है, जिससे हर स्वस्थ लडकी और स्त्री को वैसे ही गुजरना होता है, जैसे हर लडके या पुरुष के चेहरे पर मूंछ दाढी का उगना. लेकिन मूंछ दाढी का उगना या उसका बढना अछूत की परम्परा में नहीं आता.

तो उस बहू को महीने के हर तीन चार दिन खाना तो बनाने नहीं ही दिया जाता था, उससे अछूतों से भी बदतर व्यवहार किया जाता था. उसके लिए अलग से ज़मीन पर एक चटाई दे दी जाती थी और एक फटी पुरानी सी चादर और एक तकिया. उसके लिए थाली अलग होती थी. वह घर के नल पर खुद से हाथ मुंह नहीं धो सकती थी. उसे खाना पानी सब कुछ एक हाथ ऊपर से दिया जाता था. तीन दिन के बाद नहाने के बाद अपने ही नहाए कपडे वह नहीं छू सकती थी. धोबी आ कर उन कपडों को ले जाता था. गर्मी उसे ताड के एक टूटे पंखे के सहारे बितानी होती थी और सर्दी में तो उसकी हालत और भी दयनीय हो जाती थी. उसे उसी चटाई अपने एक फटे पुराने कम्बल के सहारे गुजारनी होती थी. उसकी गोद में एक छोटी सी बच्ची थी. महीने के उन तीन दिनों में उस बच्ची के लिए भी वही व्यवस्था होती थी. उसे किसी के पास नहीं जाने दिया जाता था और उसे भी तीन दिन अपनी मां के साथ वैसे ही गुजारने पडते थे.अगर किसी ने उस बच्ची को गोद ले लिया तो उसे उसी समय नहाना पडता था.

अपना देश धार्मिक है, इतना कि हर काम धर्म के छन्ने से ही छन कर आता है. ऋतुचक्र की यह स्वाभाविक प्रक्रिया कब धर्म और छुआ छूत से जोड दी गई, इसका पता छम्मक्छल्लो को नहीं है. वैज्ञानिक और चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि कहती है कि इस समय में अतिरिक्त स्राव से कमज़ोरी आने के कारण तनिक आराम की ज़रूरत है. लेकिन आराम की इस प्रक्रिया से गुजरना वैसा ही है, जैसे कोई आपको चार तमाचे लगा कर मिठाई खिलाए.

छम्मक्छल्लो के घर में संयोग से यह परम्परा नहीं थी, शायद मां के कामकाजी होने की वज़ह से. मगर अन्य बातें, जैसे तीन दिनों तक पूजा घर में नही जाना, पूजा नहीं करना, भंडार से सामान नहीं निकालना, घी और अचार के बोइयाम को तो हाथ भी नहीं लगाना, बदस्तूर जारी था. आज भी कई घरों में यह जारी है. छम्मक्छल्लो से बहुत कम उम्र की एक लडकी ने कहा, "आंटी, सच में अगर आपने पीरियड्स में अचार छू दिया तो उसका रंग खून की तरह ही लाल हो जाता है. भगवान को छू लो तो उनके कपडे दाग़ से भर जाते हैं. इतनी ख़राब होती है यह ‘चीज़.’ सच में इतनी ख़राब चीज़ यह होती है. गुपचुप बात ही इस पर की जा सकती है, खुल कर नहीं. पता नहीं क्यों औरतों की हर बात ही गुपचुप सी कर दी गई है, यहां तक कि उसकी शख़्सियत को भी.

छम्मक्छल्लो ने भी प्रयोग किया. मगर उसकी बदक़िस्मत कि अचार का रंग कम्बख़्त लाल हुआ ही नहीं और ना ही भगवान के कपडे दागदार हुए. छम्मक्छल्लो ने यह भी किया कि दशहरा, दीवाली, तीज़ आदि में भी भगवान की पूजा कर ली. उसने तो भगवान को चुनौती दे डाली कि पूजा करानी है तो अब तो इसी हालत में करानी होगी. इतनी ही शुद्ध पूजा चाहिये थी तो दो-चार दिन अवधि आगे बढा देते अपने प्रताप से.

छम्मक्छल्लो समझ नहीं पाती कि शुद्धता- अशुद्धता का यह खेल महिलाओं के साथ क्यों? और आप सब सावधान, छम्मक्छल्लो एक और बोल्ड बात कहने जा रही है. शुद्धता- अशुद्धता का यह खेल महिलाओं के साथ शादी के बाद भी होता है. नई-नई शादी, सुबह-सुबह उठना और सुबह उठने पर सबसे पहला फर्मान यह कि नहाओ. बग़ैर नहाए उसे कुछ छूने नहीं दिया जाता, उसे रसोई में नहीं जाने दिया जाता. कहा जाता है कि उसकी देह अशुद्ध हो गई है. यह अशुद्धता उसके पति के साथ नहीं लागू होती. नहाना-धोना शारीरिक स्वछता हो सकती है. यह सेहत के लिए अनिवार्य है. यह भी सही है कि सुबह सुबह के स्नान से मन दिन भर ताज़ा और हल्का बना रह्ता है. मगर बात शुद्धता- अशुद्धता की आ जाती है. गर्मी में तो सुबह-सुबह नहाना फिर भी चल जाता है, मगर सर्दी में?

छम्मक्छल्लो को एक दोहा याद आता है, जो छम्मक्छल्लो जैसी दुखी आत्माओं को खुश करने के लिए किसी ने लिख दिया होगा-
"नारी निन्दा मत करो, नारी नर की खान
नारी से नर होत हैं, ध्रुव- प्रह्लाद सुजान"
लेकिन कूढमगज छम्मक्छल्लो को तो इसके बदले यही लगता है
"नारी की निन्दा करो, नारी नरक की खान
भले नारी पैदा करे ध्रुव- प्रह्लाद सुजान"
इसलिये समाज के कर्णधारो, हमारी देह के नरक में मत पडो. यह भी मत सोचो कि इस नारी में कोई ना कोई नारी तुम्हारी मां, बहन, बीबी, बेटी भी होगी ही. पता नहीं, अपनी ही मां, बहन, बीबी, बेटी को नर की खान कहने के बजाय उसे नरक की खान कहने में बुरा क्यों नहीं लगता? छम्मक्छल्लो को तो लगेगा, अगर कोई उसके पिता, भाई, पति, बेटे के लिए ऊल-जुलूल बोले.
भला हो विज्ञापनवालों का कि उसने धीरे-धीरे टीवी पर सेनिटरी नेपकिन के प्रचार करने शुरु कर दिए. इसके लिए भी बडी चिल्ल-पों मची. कच्छे बनियान के प्रचार के लिए नहीं मची जी. वही भारतीय संस्कृति, कि टीवी पूरा परिवार देखता है, ऐसे विज्ञापन लोगों को शर्मसार करते हैं. शर्मसार करने के लिए सिर्फ औरतें ही तो बनी हैं या उनसे जुडी चीज़ें या बातें. फिर भी यह प्रचार बडे दबे-छुपे तरीके से होता था- इशारे में. इधर पहली बार एक सेनिटरी नेपकिन के प्रचार में देखा कि ‘पीरियड्स’ शब्द का बडे खुल कर, मगर बडे अच्छे तरीके से इस्तेमाल किया गया है. छम्मक्छल्लो इसके लिए सभी को धन्यवाद देना चाहती है. कहना चाहती है कि हम या हमारी देह या देह के कार्य-व्यापार शर्म की वस्तु नहीं है. इसलिये इतना घबडाइये नहीं, शर्माइये नहीं. शालीनता से कही बात हमेशा शालीन ही होती है.

2 comments:

Billo Rani said...

samajh mein nahin aata yeh lekh heen bhavana se bhara hai ya vihin bhavna se? Apni jaat ke liye itni talkhi thhik nahin Chhammakchhallo Jee. Medically yeh varjanaeyen jaroori hoti hain.Ispar itni haitoba machana apne aapko hi haasyaspad banana hai.Billo Rani khush nahin hui behan.

pratima sinha said...

मैं आपके कमेन्ट्स से रंच मात्र भी सहमत नहीं हूँ बिल्लोरानी जी. सच को देखना, बोलना,लिखना और सुनना हमेशा ही चुनौतीपूर्ण होता है और कभी-कभी पीडादायी भी. मगर सच फिर भी सच ही होता है .जिस पीडा को इस पोस्ट में उकेरा गया है, उससे आप कभी न गुज़री हों तो ये वाकई आपका सौभाग्य है लेकिन इस देश की बहुसंख्यक महिलाएं इस ’अपमान’ की भुक्तभोगी हैं.ये वर्जनाएं हमें हमारे सहज नारीत्व के प्रति शर्मिन्दा करती हैं. मैं इस पोस्ट के लिये लेखिका को तहेदिल से बधाई देना चाहती हूँ .