कल 'क़बीर' पर शबनम वीरमानी की २ दौक्यूमेंतारी फिल्में देखने को मिलीं। इनमे से पहली फ़िल्म "हद-अनहद" इतनी अच्छी थी की उसकी तारीफ़ के लिए शब्द नहीं हैं। मुम्बई की एक संस्था 'विकल्प' हर माह के अन्तिम सोमवार को पृथ्वी थिएअर में दौक्यूमेंतारी फिल्में दिखाने का आयोजन करती है। २००४ से चल रही यह संस्था अपना जन्मदिन मना रही थी। बहरहाल, फ़िल्म के बारे में।
कबीर आज अपने समय से भी ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं। धर्म के नाम पर आज जिस तरह से नफ़रत की आंधी चलाई जा रही है, उससे मानव का मानव के प्रति ही विशवास खोने लगा है। लेकिन कबीर के शब्द, साखी और दोहों को गानेवाले के माध्यम से यह फ़िल्म कबीर के साथ-साथ ख़ुद को भी समझाने का संदेश देती है। फ़िल्म शुरू होती है अयोध्या से और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश की यात्रा करती हुई पड़ोसी देश पाकिस्तान तक जा पहुँचती है। पाकिस्तान में कबीर- सुनकर कुछ अजीब सा लगता है। मुझे भी लगा था, जब सृष्टि स्कूल आफ आर्ट एंड डिजाइन में लगी कबीर पर शबनम की प्रदर्शनी बंगलोर में गए दिसम्बर, २००८ में देखी थी। एक तो फ़िर से लाहौर, वाघा बार्डर देखना, वहाँ की सजी-धजी बसें देखना और उसके बाद वहाँ के कव्वालों का कबीर के प्रति प्रेम और समर्पण देखना। आप भूल जायेंगे की यह पाकिस्तान है, वह पाकिस्तान, जो हमारे मन में नफ़रत का संचार करता नज़र आता है-अपनी आतंकवादी गतिविधियों के कारण, जब वहाँ के कवाल कहते हैं की कबीर का सौदा मैं नहीं कर सकता, मैं दावा करता हूँ की जितना कबीर को मैंने जाना है, उतना कोई नहीं जानता, तो मन सचमुच भर आता है उनकी निष्ठा को देखकर। वे चुनौती देते हैं की कबीर को जानने के लिए ज्ञान की नहीं, भाव की ज़रूरत है।
पूरी फ़िल्म में हास्य के अनेक पल हैं, जब कबीर पंथ के लोग कबीर के बारे मिएँ, उनके माता-पिटा के बारे में वेदों से सामग्री ले ले कर कहते हैं, उनके जन्म पर एक नई व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। प्रसिद्द लोगों के बारे में कही गई बातें भी इस तरह से सच मान ली जाती हैं की अन्य कोई बात गले नहीं उतरती। अब जैसे उनके जन्म और माता-पिटा का ही प्रसंग है। कहा जता रहा है की कबीर एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से पैदा हुए थे, जो समाज के भय से कबीर को गंगा किनारे छोड़ आती है। नीरू और नीमू नामक निस्संतान जुलाहा दम्पति को वह शिशु मिला और उनने इसकी देखभाल की।
कबीर निर्गुण और सगुण दोनों ही रूपं में जाने जाते हैं। हालांकि साहित्य का अध्ययन करते वक़्त हमें बताया गया थाकी कबीर निर्गुण धारा के कवि हैं। आज मुझे लगता है की जिस तरह से राम की चर्चा इंके साहत्य में है, गुरु हैं, यह सब बिना सगुण भाव धारे नही हो सकता। अपनी उपदेशक प्रवृत्ति, सभी को खरी-खरी सुनानेवाले कबीर अपनी सूफी रूप व् स्वभाव के कारण भी सबसे अलग हैं। कबीर की यह फ़िल्म देखते हुए आपको लगेगा की काश, आप भी कबीर के राम में रंग जाते। तब यह जो आज राम के नाम से जो राजनीति चल रही है, राम के नाम को जिस तरह से गंदा किया जा रहा है, वह नहीं होता। राम भाव है, भक्ति है, राम का नाम दिल से निकल कर हमारे रक्त में घुल कर हमें नई ताक़त देता है। दुःख है की आज राम को इस प्रकार से बना दिया गया है की ख़ुद राम को भी अपने आप पर शर्म आने लगे। कबीर की खासियत है की इसे पढ़े-लिखे तबके से लेकर अनपढ़, गंवार तक सभी एक रूप से भजते हैं। फर्क सिर्फ़ इतना है की पढ़े-लिखे लोग इसकी मीमांसा करते हैं, और अनपढ़ भाव की नदी में डूबते-उतराते रहते हैं।
यह फ़िल्म देखना अपने आप में एक अनुभव है। १०९ मिनट की फ़िल्म शुरू होकर कब ख़त्म हो जाती है, यह पाता ही नहीं चलता। हिन्दुस्तान से भी ज़्यादा असरकारक नज़ारा पाकिस्तान का है। सच ही कहा है की अलगाव केवल दोनों तरफ़ के सियासी लोगों का नतीजा है। कलाकार तो हर जगह के एक से ही रहते हैं।
लेकिन इसके साथ ही दूसरी फ़िल्म "कोई सुनता हैधीली लगी। यह कुमार गन्धर्व की संगीत यात्रा कबीर के साथ की थी। फ़िल्म जहाँ तक इनके साथ कबीर की बात कहती है, अच्छी लगती है। मगर बाद में यह धीरे-धीरे अपना असर खोने लगती है। कई बार लगता है की 'हद-अनहद' की शूट की गई बची सामग्री को इसमें खपा दिया गया है। फ़िल्म को केवल कुमार गन्धर्व तक ही siimit रहने दिया जाता, जो की इस फ़िल्म का उद्देश्य था तो यह ज़्यादा अच्छा होता। फ़िल्म छोटी और कसी हुई होती। फ़िर भी जब भी जिसे भी मौका मिले, 'हद-अनहद ज़रूर देखें।
2 comments:
बहुत अच्छा लगा इस आयोजन के विषय में जानकर। क्या इसकी सीडी उपलब्ध हैं।
ह तो कबीर की बदकिस्मत ही रही की.. जिस मंदिर मस्जिद और संस्थानों का वो ताउम्र विरोध करते रहे वही आज उनकी स्मृतियाँ का प्रतीक बनी हुयी हैं.. कबीर की सोच को दार्शनिक सोच नहीं कह सकते..क्यूंकि प्रत्येक दर्शन की विचारधारा इस जगत के कारन ढूँढने की है.. चाहे आप्त पुरुषों से चाहे मूल कारणों से..वे तो यहाँ तक कहते थे की,, मसि कागद छुओ नहीं कलम गह्ही नहीं हाथ.. ऐसे दिव्य पुरुष को किसी संज्ञा की संज्ञा नहीं दी जा सकती..ऐसी ही कुछ बात दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति भी कहते हैं.. की सत्य मार्गरहित भूमि है.. वहां किसी भी प्रकार के माध्यम से नहीं पंहुंचा जा सकता है..वे जुलाहा थे..वे हिन्दू थे.. मुस्लमान थे.. इन बातों मैं मतभेद करना अर्थात कबीर से व्यक्ति अभी भी अनभिग्य है..कबीर के राम दसरथ के पुत्र नहीं थे.. उनके हरी राधा के प्रेमी नहीं थे.. वे तो एक नाम स्वरूप है.. की व्यक्ति कम से कम एक स्वरूप के माध्यम से सत्य को पन्हुंचे..मगर अफ़सोस जिंदगी भर इन कुरीतियों से लड़ने वाला कबीर इन्हीं बातों मैं फँस गया.. कबीर ने मंदिर का विरोध किया.. हिन्दुओं ने उनके नाम का मंदिर बना दिया.. बनारस मैं कबीर चौरा का निर्माण हो गया..उन्हों ने मस्जिद का विरोध किया.. तो लोगों ने उनके मरने के बाद उनकी मस्जिद बना दी..यहाँ तक,,कबीर जब मरे तो आधा कफ़न हिन्दू ले गए और आधा कफ़न मुस्लमान.. और फिर वही धोंगपुजन चालू हो गया.. कबीर की कुछ बातें मुझे याद आ रही हैं.. मसलन कबीर को कुछ हद तक सूफी भी कहा जा सकता है.. इस विचारधारा के मुताबिक
.....राम मोरे पियु मैं तो राम की बहुरिया....
मगर वे किसी विचारधारा तक इतने सीमित नहीं थे के की किसी रुढिवादिता की संज्ञा उन्हें दी जाये..
उनकी भाषा भी विचित्र थी.. मसलन उर्दू साहित्य मैं वाली दकनी की भाषा से मिलता जुलता एक रूप देखिये..
"हमन को होशियारी क्या."
अर्थात कबीर की भाषा को समझने के लिए फक्कड़ वादिता को याद करना होगा..
कबीर को समझने के लिए उस युग मैं पन्हुन्चना पड़ता है.. और ये तो कबीर के सख्त निर्देश हैं.. की मुझे हिन्दू या मुस्लमान होकर मत पढना..अन्यथा जिंदगी भर मेरे विरोधी रहोगे.. कबीर की ऐसी अन्य अनगिनत बातें हैं..
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