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Tuesday, February 17, 2009

राजेन्द्र बाबू और उनका जेल जीवन

राजेन्द्र बाबू की जेल यात्रा से सम्बंधित बहुत से संस्मरण हैं, जिन्हें एक-एक करके यहाँ प्रस्तुत किया जाएगा।

सन १९४२ में राजेन्द्र बाबू जेल गए। अहस्त का महीना था। वे सदाकत आश्रम पटना में थे और बहुत बीमार थे। इसी कारण वे बंबई में आयोजित होनेवाले भारतीय कांग्रेस की महासमिति की बैठक में भी न जा सके थे। वहा पर मौजूद लगभग सभी नेता ८ या ९ अगस्त को पकड़ लिए गए थे। गांधी जी भी पूना के आगा खान पैलेस में भेज दिए गए थे। ९ अगस्त को पटना के कलक्टर तथा पुलिस सुपरितेंदेंत सदाकत आश्रम में राजेन्द्र बाबू को गिरफ्तार कराने पहुंचे। उन्हें बीमार देख वे वापस अस्पताल गए और एम्बुलेंस तथा सरकारी बड़े डाक्टर सिविल सर्जन को लेकर पहुंचे। तब डाक्टर की देख रेख में एम्बुलेंस में सुला कर उन्हें पटना जेल ले जाया गया। जेल तक उनके साथ मथुरा प्रसाद भी गए। वहा पर यह पाता चलने पर की उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया है, इसलिए उन्हें जेल से लौटना पडेगा, उन्हें बहुत बुरा लगा। किंतु कोई उपाय नही था। फ़िर भी उनहोंने कलक्टर पर इतना जोर डाला की उन्हें कहना पडा की आप पहले आश्रम लौट जाएँ, हम आपको वहाँ जाकर गिरफ्तार कर लेंगे। और यही हुआ भी। राजेन्द्र बाबू के पास जेल में पहुचने के बाद मथुरा बाबू को शान्ति मिली। ये वही मथुरा बाबू थे, जिन्हें लोग मजाक में मौखिक प्रचार मंत्री कहते थे, क्योंकि वे काम बहुत तेजी से नहीं कर पाते थे।

चारो और बेहद सख्ती थी। घरवालों को जेल में मिलाने देने की इजाज़त नही थी। अफावाएहं रोज नए-नये रूप लेकर आती। उन दिनों बिहार सरकार के मुख्य सचिव यशवत राव गोडबोले थे। सरकारी नौकरी में होने के बावजूद दिल से देशभक्त थे। उन्हें पात्र लिखा गया राजेन्द्र बाबू की सेहत को लेकर और यह भी की उन्हें बीमारी की हालत में जेल ले जाया गया है । जेल में इलाज़ तो हो रहा है, मगर बीमारी पुरानी है, पाकर में न आने के कारण और भी गहरी होती चालली जा रही है। इसलिए उनके पुराने डाक्टर टी एन बनर्जी तथा दा। रघुनाथ शरण से उन्हें जाए। यह बात जेल के डाक्टर घोष को बेहद बुरी लगी। उन्होंने राजेन्द्र बाबू से कहा की "बीमारी के नाम पर आपको मृत्युंजय प्रसाद (राजेन्द्र बाबू के बेटे) मेडिकल बोर्ड बुलावा रहे हैं। सदा से मृदुभाषी राजेन्द्र बाबू गरज कर बोले- "डा। घोष, अब जबकि हमारे मित्र, सहकर्मी व् संगी-साथी, देशवासी गोलियों के शिकार हो रहे हैं, और मेरे भौनके कंधे-से-कंधा मिलाकर गोलियाँ झेलना नहीं लिखा है और बिस्तर पर एडियाँ रगड़कर ही मरना बड़ा है, तो इस जेल से उपायुक्त जगह मेरे लिए और कोई दूसरी नहीं हो सकती। और यहाँ भी आपके हाथों में रहकर। आप खातिर जमा रखिये। बीमारी के नाम पर सरकार मुझे छोड़ना भी चाहेगी, तो जहाँ तक मेरा वश चलेगा, मैं बाहर नहीं जाऊंगा और यहीं मारूंगा। " यह सुनकर डा। घोष चुपचाप बाहर आ गए और दूसरे डाक्टरों के साथ ही आए।